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विष्‍णु खरे की कुछ कविताएँ

पिछले दिनों हिंदी के बड़े कवि विष्‍णु खरे नहीं रहे। लंबी बीमारी के बाद दिल्‍ली के एक अस्‍पताल में उनका निधन हो गया। वे दिल्‍ली की हिंदी अकादमी के उपाध्‍यक्ष थे और कुछ ही दिनों पहले यह पदभार ग्रहण करने बंबई से राजधानी आए थे। विष्‍णु खरे का कविता जीवन कोई छह दशक तक फैला हुआ है और उनकी कविताओं के विविध रंग हैं। विष्‍णु खरे के भाषा सौष्‍ठव और शिल्‍प ने हिंदी कविता में एक नई धारा का सूत्रपात किया था और कई कवियों ने अस्‍सी के दशक में कविता की स्‍थापित संरचना में तोड़फोड़ करने की कोशिश की थी। प्रस्‍तुत है विष्‍णु खरे की तीन कविताएं।

फ़ासला

(वर्णित मढ़ा-हुआ फ़ोटो मित्र-पत्रकार कुलदीप कुमार के ‘पायनियर’ कैबिन में लगा रहता था। यह उसके अज्ञात फ़ोटोग्राफ़र को समर्पित)

थोड़ा झुका हुआ देहाती लगता एक पैदल आदमी

अपने बाएँ कंधे पर एक झूलती-सी हुई वैसी ही औरत को ढोता हुआ

जो एक हाथ से उसकी गर्दन का सहारा लिए हुए है

जिसके बाएँ पैर पर पंजे से लेकर घुटने तक पलस्तर

दोनों के बदन पर फ़क़त एकदम ज़रूरी कपड़े

अलबत्ता दोनों नंगे पाँव

उनकी दिखती हुई पीठों से अंदाज़ होता है

कि चेहरे भी अधेड़ और सादा रहे होंगे

दिल्ली के किसी चौंधियाते दिन में ली गई स्याह-सुफ़ैद तस्वीर थी वह

शायद 4.5 या सुपर 1200 एमएम टेलीलेंस वाले

किसी कैनन ए ई 1 या निकोर एफ़ 801 से खींची गई –

फोटोग्राफ़र ने खुद को मोहनसिंह प्लेस या खड़कसिंह मार्ग के

एम्पोरिअमों के सामने कहीं स्थित किया होगा

यह मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं कि ले जाई जा रही औरत

ढोने वाले आदमी की ब्याहता ही रही होगी

लेकिन दूर-दूर तक दोनों के साथ और कोई (आखि़र क्यों) नहीं

सड़क के बाएँ से उन्हीं की दिशा में जाता हुआ

एक ख़ाली ऑटो वाला कुछ उम्मीद से यह मंज़र देखता है

दाईं ओर के एंबेसेडर और मारुति के ड्राइवर हैरत और कुतूहल से –

उन दोनों के अलावा सड़क पर और कोई पैदल नहीं है

जिससे धूप और वक़्त का अंदाज़ा होता है

यह लोग जंतर-मंतर नहीं जा रहे

आगे चल कर यह राह विलिंग्डन अस्पताल पहुँचेगी

जहाँ शायद इन्हें पलस्तर कटवाना है

या क्या मालूम पाँव और बिगड़ गया हो

ऐसे लोगों के साथ पचास रोने लगे रहते हैं

एक तो यही दिखता है कि इनके पास कोई सवारी करने तक के पैसे नहीं हैं

या आदमी इस तरह आठ-दस रुपये बचा रहा है

जिसमें दोनों की रज़ामंदी दिखती है

इनकी दुनिया में कहीं भी कैसा भी बोझ उठाने में शर्मिंदगी नहीं होती

यह तो आखि़र घरवाली रही होगी

वह सती शव नहीं थी अपंग थी

यह एकाकी शिव जिसे उठाए हुए अच्छी करने ले जा रहा था

किसी का यज्ञ-विध्वंस करने नहीं

किस तरह की बातें करते हुए यह रास्ता काट रहे थे

या एकदम चुप्पी में क्या-क्या सोचते हुए

शायद किसी पेड़ का सहारा लेकर सुस्ताए हों

क्या रास्ते के इक्का-दुक्का लोगों ने इसे माँगने का एक नया तरीक़ा समझा

फिर भी अगर किसी ने कुछ दिया तो इनने लिया या नहीं

अस्पताल पहुँचे या नहीं

पहुँचे तो वहाँ क्या बीती

शायद उसने कहा हो

कब तक ले जाते रहोगे

यहीं कहीं पटक दो मेरे को और लौट जाओ

उसने जवाब दिया हो

चबर चबर मत कर लटकी रह

खड़कसिंह से विलिंग्डन बहुत दूर नहीं

लेकिन एक आदमी एक औरत को उठाए हुए

कितनी देर में वहाँ पहुँच सकता है

यह कहीं दर्ज नहीं है

मुझे अभी तक दिख रहा है

कि वह दोनों अब भी कहीं रास्ते में ही हैं

गाड़ियों में जाते हुए लोग उन्हें देख तो रहे हैं

लेकिन कोई उनसे रुक कर पूछता तक नहीं

बैठाल कर पहुँचाने की बात तो युगों दूर है

डरो

कहो तो डरो कि हाय यह क्यों कह दिया

न कहो तो डरो कि पूछेंगे चुप क्यों हो

सुनो तो डरो कि अपना कान क्यों दिया

न सुनो तो डरो कि सुनना लाजिमी तो नहीं था

देखो तो डरो कि एक दिन तुम पर भी यह न हो

न देखो तो डरो कि गवाही में बयान क्या दोगे

सोचो तो डरो कि वह चेहरे पर न झलक आया हो

न सोचो तो डरो कि सोचने को कुछ दे न दें

पढ़ो तो डरो कि पीछे से झाँकने वाला कौन है

न पढ़ो तो डरो कि तलाशेंगे क्या पढ़ते हो

लिखो तो डरो कि उसके कई मतलब लग सकते हैं

न लिखो तो डरो कि नई इबारत सिखाई जाएगी

डरो तो डरो कि कहेंगे डर किस बात का है

न डरो तो डरो कि हुक़्म होगा कि डर

चुनौती

इस क़स्बानुमा शहर की इस सड़क पर

सुबह घूमने जाने वाले मध्यवर्गीय सवर्ण पुरुषों में

हरिओम पुकारने की प्रथा है

यदि यह लगभग स्वगत

और भगवान का नाम लेने की एकान्त विनम्रता से ही कहा जाता

तब भी एक बात थी

क्योंकि तब ऐसे घूमने वाले

जो सुबह हरिओम नहीं कहना चाहते

शान्ति से अपने रास्ते पर जा रहे होते

लेकिन ये हरिओम पुकारने वाले

उसे ऐसी आवाज़ में कहते हैं

जैसे कहीं कोई हादसा वारदात या हमला हो गया हो

उसमें एक भय, एक हौल पैदा करने वाली चुनौती रहती है

दूसरों को देख वे उसे अतिरिक्त ज़ोर से उच्चारते हैं

उन्हें इस तरह जाँचते हैं कि उसका उसी तरह उत्तर नहीं दोगे

तो विरोधी अश्रद्धालु नास्तिक और राष्ट्रद्रोही तक समझे जाओगे

इस तरह बाध्य किए जाने पर

अक्सर लोग अस्फुट स्वर में या उन्हीं की तरह ज़ोर से

हरिओम कह देते हैं

शायद मज़ाक़ में भी ऐसा कह देते हों

हरिओम कहलवाने वाले उसे एक ऐसे स्वर में कहते हैं

जो पहचाना-सा लगता है

एक सुबह उठकर

कोठी जाने वाले इस ज़िला मुख्यालय मार्ग पर

मैं प्रयोग करना चाहता हूँ

कि हरिओम के प्रत्युत्तर में सुपरिचित जैहिन्द कहूँ

या महात्मा गाँधी की जय या नेहरू ज़िन्दाबाद

या जय भीम अथवा लेनिन अमर रहें

— कोई इनमें से जानता भी होगा भीम या लेनिन को? —

या अपने इस उकसावे को उसके चरम पर ले जाकर

अस्सलाम अलैकुम या अल्लाहु अकबर बोल दूँ

तो क्या सहास मतभेद से लेकर

दँगे तक की कोई स्थिति पैदा हो जाएगी इतनी सुबह

कि इतने में किसी सुदूर मस्जिद का लाउडस्पीकर कुछ खरखराता है

और शुरू होती है फ़ज्र की अज़ान

और मैं कुछ चौंक कर पहचानता हूँ

कि यह जो मध्यवर्गीय सवर्ण हरिओम बोला जाता है

वह नमाज़ के वज़न पर है बरक्स

शायद यह सिद्ध करने का अभ्यास हो रहा है

कि मुसलमानों से कहीं पहले उठता है हिन्दू ब्राह्म मुहूर्त के आसपास

फिर वह जो हरिओम पुकारता है उसी के स्वर अज़ान में छिपे हुए हैं

जैसे मस्जिद के नीचे मन्दिर

जैसे काबे के नीचे शिवलिंग

गूँजती है अज़ान

दो-तीन और मस्जिदों के अदृश्य लाउडस्पीकर

उसे एक लहराती हुई प्रतिध्वनि बना देते हैं

मुल्क में कहाँ-कहाँ पढ़ी जा रही होगी नमाज़ इस वक़्त

कितने लाख कितने करोड़ जानू झुके होंगे सिजदे में

कितने हाथ माँग रहे होंगे दुआ कितने मूक दिलों में उठ रही होगी सदा

अल्लाह के अकबर होने की लेकिन

क्या हर गाँव-क़स्बे-शहर में उसके मुका़बिले इतने कम उत्साहियों द्वारा

हरिओम जैसा कुछ गुँजाया जाता होगा

सन्नाटा छा जाता है कुछ देर के लिए कोठी रोड पर अज़ान के बाद

होशियार जानवर हैं कुत्ते वे उस पर नहीं भौंकते

फिर जो हरिओम के नारे लगते हैं छिटपुट

उनमें और ज़्यादा कोशिश रहती है मुअज़्ज़िनों जैसी

लेकिन उसमें एक होड़, एक खीझ, एक हताशा-सी लगती है

जो एक ज़बरदस्ती की ज़िद्दी अस्वाभाविक पावनतावादी चेष्टा को

एक समान सामूहिक जीवन्त आस्था से बाँटती है

वैसे भी अब सूरज चढ़ आया है और उनके लौटने का वक़्त है

लेकिन अभी से ही उनमें जो रंज़ीदगी और थकान सुनता हूँ

उस से डर पैदा होता है

कि कहीं वे हरिओम कहने को अनिवार्य न बनवा डालें इस सड़क पर

और फिर इस शहर में

और अन्त में इस मुल्क में

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