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मैं नहीं मानता कि इंडियन स्टेट और डेमोक्रेसी बुर्जुआ के हाथ में चले गए हैं

अंग्रेज़ी के पत्रकार पी. साइनाथ ने 22 जून 2018 को एक लेख लिखकर देश भर के किसानों से आह्वान किया था कि वे भारी संख्‍या में दिल्‍ली की ओर कूच करें और संसद के बाहर डेरा डालकर कृषि संकट पर तीन हफ्ते का एक विशेष संसदीय सत्र बुलाने की मांग करें। उन्‍होंने अपने लेख में बहसतलब मुद्दों को भी गिनवाया था। महज पांच महीने में साइना‍थ का यह आह्वान साकार होता दिखा जब देश भर के किसान संगठनों की संघर्ष समन्‍वय समिति ने दिल्‍ली तक किसानों के लॉंग मार्च को 29-30 नवंबर को कामयाब और तारीखी बना डाला। यह तारीख तय होने के बाद से ही साइनाथ दिल्‍ली के कॉलेजों और संस्‍थानों में जा जाकर छात्रों, युवाओं, शहरी मध्‍यवर्ग और नागरिक समाज को उद्वेलित करने में जुटे हुए थे। किसान मुक्ति यात्रा से ठीक पहले उन्‍होंने मनदीप पुनिया से कृषि संकट के विभिन्‍न आयामों पर बात की। प्रस्‍तुत है इस बातचीत के प्रमुख अंश।

किसान लगातार संगठित हो रहे हैं, आंदोलित भी हो रहे हैं, लेकिन उनका आंदोलन वैसा राजनीतिक रूप क्यों नहीं ले पाता जैसे दलितों या महिलाओं का आंदोलन? क्या एक पॉलिटिकल क्लास यानी वर्ग के बतौर किसान का दलितों या महिलाओं से कोई फर्क है? या कोई दूसरा कारण है?

सबसे पहले मैं आपके पाठकों को यह कहना चाहता हूं कि 29 और 30 तारीख को एक किसान मुक्ति मोर्चा का आयोजन होगा। 29 तारीख को दिल्ली के चारों तरफ से किसान रामलीला मैदान आएंगे। 29 तारीख शाम को ‘एक शाम किसान के नाम’ से कल्चरल प्रोग्राम भी होगा। 30 तारीख सुबह दिल्ली पहुंचे किसानों के साथ मध्यम वर्ग के लोग पार्लियामेंट की तरफ मार्च करेंगे। इस मार्च के लिए निमंत्रण दिया है ऑल इंडिया किसान संघर्ष कोऑर्डिनेशन कमिटी ने, जो एक बड़ी ऑर्गेनाइजेशन है दो सौ किसान संगठनों की। मार्च में मध्यम वर्ग के लोग किसानों के साथ सॉलिडेरिटी के लिए जा रहे हैं। हम सभी का किसानों के साथ एक कनेक्शन है। हम सब एक या दो जनरेशन पहले गांव वाले हैं कुछ लोग अभी भी गांव के हैं। एग्रेरियन क्राइसिस बढ़ने के बाद इसी साल मार्च में हुए मुम्बई किसान मार्च में सॉलिडेरिटी में 10000 तक मध्यमवर्ग के लोग आ गए थे। 29 और 30 नवंबर को होने वाले मार्च में मुख्य दो डिमांड हैं। ऑल इंडिया किसान संघर्ष कोऑर्डिनेशन कमिटी ने दो बिल बनाए हैं, एक एमएसपी के बारे में है तो दूसरा कर्जे के बारे में जिन्हें पास करने के लिए मांग है कि संसद का तीन हफ्ते का एक स्पेशल सेशन बुलाया जाए। इसमें कृषि संकट के साथ दलित, किसान, आदिवासी और महिला किसानों के बारे में भी चर्चा हो। पानी के संकट और पानी के निजीकरण के खिलाफ बातचीत हो। जब जीएसटी की बात आई तो सरकार ने मिडनाइट को एक स्पेशल सेशन बुलाया और राष्ट्रपति जी को लाकर एक हफ्ते-एक रात में जीएसटी बिल पास कर दिया। स्वामीनाथन रिपोर्ट जिसे राष्ट्रीय किसान आयोग रिपोर्ट भी कहते हैं, 14 साल हो गए हैं लेकिन उस पर आज तक एक घण्टे का भी डिस्कशन नहीं हुआ है। मैं मध्यम वर्ग के लोगों को यह भी कहना चाहता हूं कि किसान आपको साल में 365 दिन देते हैं क्या हम लोग उनको दो दिन भी नहीं दे सकते हैं? 29 और 30 नवंबर वे दो दिन हैं जिनमें आपको आना चाहिए और किसानों के साथ खड़ा होना चाहिए।

आप स्पेशल सेशन की डिमांड कर रहे हैं जिसके बैठने की उम्मीद कम है। अगर सेशन बैठ भी जाता है तो क्या समाधान हो जाएंगे। उसके बाद किसान क्या करेगा?

देखिए, जीएसटी के स्पेशल सेशन को आपने क्वेश्चन नहीं किया, इसके लिए सवाल आते हैं, मेरे हिसाब से यह हिपोक्रिसी है। अगर पार्लियामेंट का स्पेशल सेशन होता है तो वही किसानों के लिए बड़ी जीत होगी। कभी भी इतिहास में कृषि के ऊपर स्पेशल पार्लियामेंट सेशन नहीं हुआ है। इसके लिए बहुत सारे सांसद भी पिटिशन साइन कर रहे हैं और 21 राजनीतिक पार्टियों ने भी उन दो बिलों के सपोर्ट का एलान किया है। लोकतंत्र और आंदोलन में ऐसा होता है कि आपको अपनी मांगों के लिए हमेशा लड़ना पड़ता है। बीस साल से हम किसी संकट पर बकबक कर रहे हैं लेकिन आज तक इस पर संसद में चर्चा नहीं हुई। किसानों की यह बहुत डेमोक्रेटिक मांग है। किसानों कह रहे हैं कि यह संसद हमारे लिए भी चलनी चाहिए। यह सिर्फ कॉर्पोरेट जगत के लोगों के लिए नहीं चलनी चाहिए। इस डिमांड में गलत क्या है?

हम डिमांड को गलत नहीं कह रहे हैं? स्पेशल सेशन हो जाने के बाद क्या रास्ता है?

डिमांड पूरी होने के बाद उनको लड़ाई जारी रखनी होगी। ऐसा नहीं है कि एक ऐक्शन में दुनिया की सभी समस्याएं दूर हो जाएंगी। मैंने कभी नहीं सुना ऐसा। यह एक लंबी प्रक्रिया है। नवंबर की 29 और 30 तारीख कोई अंत नहीं है बल्कि एक शुरुआत है।

अस्‍सी के दशक से पहले किसान अपनी फसल बेचता था और उसके पास इतना पैसा आता था कि वह अपनी जरूरत की चीज भी ले लेता था और कुछ पैसे बचा भी लेता था। आखिर बाद में ऐसा क्या हुआ कि किसान भूखे मरने पर मजबूर हो गया।

यह सब कृषि संकट की वजह से हुआ है, जो 1991 में लागू हुई नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की वजह से आया है। इन नीतियों ने खेती से किसान का नियंत्रण छीन कर कॉरपोरेट के हाथ में दे दिया है। आज खाद, बीज और कीटअनाशक, सभी कॉरपरेट जगत के हाथ में हैं। अभी पानी पर भी उन्हीं का कब्‍ज़ा हो रहा है। महाराष्ट्र में कई जगह निजी वितरक पानी बेच रहे हैं। अभी किसानों के पास सिर्फ थोड़ी जमीन बची हुई है और उनकी मेहनत। यह सब अचानक से नहीं हुआ बल्कि हमारी आर्थिक नीतियों की वजह से हुआ है।

देखिए 1990 से पहले किसानों की कर्जा माफी जैसी कोई डिमांड नहीं होती थी। हमारी क्रेडिट पॉलिसी ऐसी है कि जो कर्ज बैंक किसान को दे रहा था अब वह कर्ज कॉरपोरेट्स को दे रहा है। हमारी नई आर्थिक नीतियों की वजह से किसानों की उपज लागत चार से पांच गुना बढ़ गई है और उनकी आय मैं दोगुनी बढ़ोतरी भी नहीं हुई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कॉरपोरेट जगत खेती-किसानी को अगवा कर रहा है।

आप मान रहे हैं कि नव उदारवादी नीतियों ने ही किसानों का नुकसान किया है, तो क्या इस मौजूदा अर्थव्यवस्था में रहते हुए किसानों की समस्याओं का समाधान हो सकता है। अगर नहीं हो सकता तो क्या रास्ता है?

2004 में राष्ट्रीय किसान आयोग जिसे हम स्वामीनाथन कमीशन भी कहते हैं, उसने एक ब्लूप्रिंट दिया। सिर्फ जमीन और कर्जे के बारे में ही नहीं बल्कि उसमें खेती से जुड़ी हर छोटी से छोटी चीज का समाधान बताया गया। मिट्टी के उपजाऊपन को ही ले लीजिए। हमने लगातार पिछले 40-50 साल से खूब रसायन का इस्तेमाल किया, जिसकी वजह से मिट्टी की उर्वरता जाती रही। इसके अलावा पानी की समस्या, महिला किसान की समस्याओं और कर्ज की समस्याओं का हल कैसे हो सकता है, स्वामीनाथन कमीशन में इस तरह की हर छोटी-बड़ी समस्याओं का भी जिक्र है और साथ ही साथ इनके समाधानों का भी। 2004 से लेकर 2018 तक, 14 वर्षों में वह रिपोर्ट पार्लियामेंट में ऐसे ही पड़ी है। उस पर एक बार भी डिस्कशन नहीं बुलाया गया है। कॉरपोरेट जगत से जुड़े हर मामले पर संसद में डिस्कशन होता है, लेकिन एक किसान और मजदूर की समस्याओं पर ही कोई डिस्कशन नहीं हो रहा है। अगर 1995 से 2015 तक इन 20 वर्षों को देखें तो 3,10,000 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इन सब समस्याओं का अच्छे से अध्ययन करके स्वामीनाथन आयोग ने एक विचार विमर्श की पृष्ठभूमि तैयार की है, जिसमें समाधान भी निहित है। इसके साथ ही हमें लंबी दूरी के समाधानों के बारे में भी बात करनी चाहिए कि 30 साल के बाद हमें किस तरह की खेती चाहिए। हमें कॉरपोरेट नियंत्रण वाली खेतीबाड़ी चाहिए या सामुदायिक नियंत्रण वाली। कंट्रोल एग्रीकल्चर। जो कॉर्पोरेट के लिए लैंड एक्विजिशन हो रहा है वह नहीं होना चाहिए और एक लैंड रिफॉर्म भी होना चाहिए।

कुछ साल पहले तक एक नारा चलता था जो जुताई करेगा जमीन उसी की। लेकिन अब यह कर्ज मुक्ति जैसे नारों के बीच गायब हो चुका है। क्या कारण है इसका?

पहले जो नारा था, लैंड टु द टिलर। मैं 15- 20 साल से अब दूसरा नारा लगा रहा हूं ‘’लैंड टू दोज़ हू वर्क ऑन इट’’ यानी ज़मीन उसकी जो उस पर काम करता हो। इसलिए क्योंकि उस पुराने नारे में महिला किसान छूट जाएंगे। इसलिए हमें नारा लगाना चाहिए ‘’लैंड टू दोज हू वर्क ऑन इट।‘’ इसमें खेत मजदूर भी आएगा, महिला भी आएगी और आदिवासी भी आएगा।

कॉर्पोरेट जगत सरकार की मदद से लगातार किसानों की जमीनों का अधिग्रहण कर रहा है। ऐसे में डिस्‍ट्रेस माइग्रेशन (पलायन) बढ़ रहा है और किसान शहरों में आकर सस्ता मजदूर बन रहा है। इसको आप कैसे देखते हैं?

सरकारें कॉरपोरेट जगत की रियल इस्टेट दलाल हैं और नवउदारवाद के विकास का यही मॉडल है। 1991 से 2011 तक की जनगणना पर अगर आप नजर डालेंगे तो पता लगेगा कि 15 करोड़ किसानों ने खेती छोड़ दी है और मजदूरों की टोली में शामिल हो गए हैं। कर्ज या जमीन अधिग्रहण की वजह से उनकी जमीनें चली गई हैं या नई आर्थिक नीति की वजह से उनकी जमीन घाटे का सौदा बन गई है। अगर खेती को खत्म करेंगे तो यह ट्रेंड और ज्यादा बढ़ जाएगा। खेती खत्म करके उन्हें गांव से भगाया जा रहा है और शहर आने पर मजबूर किया जा रहा है। सरकारों ने शहर में उनके लिए एक भी नौकरी नहीं बनाई है। मैं जहां रहता हूं वहां सफाई का काम करने वाली तालेगांव की एक महिला स्किल्ड फार्मर है। वह हर दिवाली सीजन में हमारे लिए अच्छी गुणवत्ता के ब्राउन राइस लेकर आती है। अब देखिए एक स्किल्ड फार्मर को नौकर का काम करना पड़ रहा है। गांव के किसानों को शहरों में नौकर का काम इसलिए करना पड़ता है क्योंकि हमने उनके लिए एक भी नौकरी नहीं बनाई है। उनके लिए नौकरी तो नहीं है फिर भी उन्हें खेती से भगाया जा रहा है। अब जब किसान शहरों में आ गए हैं तो सरकार उन्हें दोबारा हाशिए पर धकेल रही है स्मार्ट सिटी बनाकर। आप इंदौर को देखिए जिसे स्मार्ट सिटी बनाया जाना है। उसकी सिर्फ 2.8 फीसद आबादी ही इसके दायरे में आएगी, बाकी 97.8 फीसद को आपने फिर से सुविधाओं से वंचित कर दिया।

अगर किसान मज़दूर बन रहा है तो आप किसान मज़दूर एकता को कैसे देखते हैं?

ऐसा हो रहा है और यह बहुत अच्छी बात है। 5 सितंबर को दिल्ली हुई रैली में किसान, खेत मजदूर, औद्योगिक मजदूर और आंगनवाड़ी वर्कर्स और तमाम तरह के दूसरे वर्कर्स एक साथ मौजूद थे। अब किसानों के साथ मध्यमवर्ग को भी आना चाहिए।

सतर साल के हमारे संसदीय अनुभव हमें हमारी समस्याओं से निजात नहीं दिला सके हैं। फिर संसद से किसान और मजदूरों की समस्याओं के हल की आस लगाना क्या उचित है?

देखिए, यह बहुत पराजित सोच है। इस सोच के पीछे यह फिलॉसफ़ी है कि आदमी बीमार है तो उसे मार दो। मैं यह कह रहा हूं कि यह संसद मेरी संसद है, आम लोगों की संसद है। इसे कॉरपोरेट जगत और अमीर लोगों ने हाइजैक कर लिया है, तो क्या हम बैठ जाएं और इसे उनके हाथ का खिलौना बन जाने दें। नहीं, यह डेमोक्रेसी है और हम आंदोलन करके बताएंगे कि संसद की आम जनता के प्रति जवाबदेही होनी चाहिए। पराजित सोच यह कहती है कि संसद उनके हाथ का खिलौना है, मैं कहता हूं कि हम हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठे रहेंगे बल्कि अपने अधिकार उनसे लड़कर लेंगे। संसद को आम लोगों के प्रति जवाबदेह बनाएंगे। यह डिमांड है हमारी।

जब संसद करोड़पतियों का क्लब बन चुकी है जहां आम किसान नहीं बैठ सकता, तो आप संसद को किसानों के प्रति जवाबदेह कैसे बनाएंगे। किसान और मजदूरों को संसद में भेजने का रास्ता क्या है?

आप लोकतंत्र और आंदोलनों का इतिहास उठाकर देखिए। एक जमाने में ऐसा हुआ है कि आम किसान और आम मजदूर भी संसद में पहुंचे हैं। मुंबई के जिस एरिया में मैं रहा वहां 1971-72 के इलेक्शन में नवल टाटा ने चुनाव लड़ा। उनके सामने एक आम मजदूर नेता ने चुनाव लड़ा। उस मजदूर नेता का नाम मीडिया छाप भी नहीं रही थी, बल्कि यह लिख रही थी कि विपक्ष की हार दो लाख से या तीन लाख से निश्चित है। हुआ इसके उलट और वह मजदूर नेता दो लाख के बड़े अंतर से जीत गया। मैं यह नहीं मानता की इंडियन स्टेट और डेमोक्रेसी बुर्जुआ के हाथ में चला गया है। भारत की आजादी की लड़ाई आम जनता ने लड़ी थी इसलिए यह राज्‍य और लोकतंत्र आम लोगों के लिए है।

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