इतिहास में कुछ ऐसे मौके आते हैं जब वर्तमान में हो रही घटनाओं का भविष्य पर पड़ने वाला असर तुरंत भांपना मुमकिन नहीं होता। बस एक चिंगारी ऐसी आग लगाने की कुव्वत रखती है जो जिधर फैले, उधर सब कुछ निगलती जाए। आग थमने के बाद बचा हुआ मलबा वातावरण को धीरे-धीरे नष्ट करता रहता है। नए पौधों को अंकुरित होने में फिर बरसों लग जाते हैं।
सरकार 2010 में सामने आए 2जी घोटाले के बोझ से अभी दबी ही पड़ी थी कि अगस्त 2012 में सीएजी की जारी की रिपोर्ट ‘’परफॉर्मेंस ऑडिट ऑफ अलोकेशन ऑफ कोल ब्लॉक्स एंड ऑगमेंटेशन ऑफ कोल प्रोडक्शन, मिनिस्ट्री ऑफ कोल’’ ने आग में घी का काम किया।
इस रिपोर्ट के मुताबिक कोयला घोटाले के कारण हुआ कुल नुकसान 1.86 लाख करोड़ रुपये का आंका गया था।1 सीएजी की दलील इस तथ्य पर टिकी हुई थी कि सरकार ने 2004 से 2011 के बीच 194 कोल ब्लॉक की नीलामी नहीं करने का फैसला लिया जिससे उसने यह निष्कर्ष निकाला कि देश को बड़ी मात्रा में राजस्व की हानि हुई। रिपोर्ट के मुताबिक नीलामी न होने के चलते टाटा स्टील, टाटा पावर, एस्सार पावर, हिंडालको और जिंदल स्टील एंड पावर को नामांकन के आधार पर हुए आवंटन से काफी मौद्रिक लाभ मिला। शुरुआत में यह नुकसान 10 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा आंका गया था लेकिन सीएजी ने सरकारी उपक्रमों को अपनी अंतिम रिपोर्ट से बाहर रखते हुए इस आंकड़े को कम कर के 1.86 लाख करोड़ पर ला दिया।2,3 रिपोर्ट इस बात पर ज़ोर देती थी कि कीमती कुदरती संसाधनों की नीलामी की जानी चाहिए और अंतरमंत्रालयी स्क्रीनिंग कमेटी की सिफारिशों के आधार पर मंजूर किया गया कैप्टिव खनन कंपनियों के प्रति दरियादिली दिखाने का एक तरीका है। सीएजी ने इस तरह एक बार फिर से सरकार को कठघरे में ला खड़ा किया था। एक लेखा परीक्षक की अपनी भूमिका का अतिक्रमण करते हुए उसने लेखा परीक्षण की प्रक्रिया में कथित तौर पर बेहतर नीतिगत प्रस्तावों के लिए पिछले फैसलों को फटकारा था।
सीएजी द्वारा गिनाए गए वास्तविक और अनुमानित घाटे के बीच का फ़र्क लोगों को समझ नहीं आया। यह बात समझ से परे थी कि सीएजी कीमती कुदरती संसाधनों के संदर्भ में एक नया नीतिगत ढांचा प्रस्तुत कर रहा है। संसद और राजनीतिक हलकों में काफी हो-हल्ला हुआ। विपक्ष खून का प्यासा हो गया और अन्ना हज़ारे की टीम, आरएसएस, बीजेपी और अन्य विपक्षी दल यूपीए को उखाड़ फेंकने के लिए सामने आ गए। यहां मीडिया ने भी विपक्ष की भूमिका निभायी।
सुप्रीम कोर्ट का 2014 में दिया फैसला ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। उसने 1993 से 2012 के बीच कोयला ब्लॉकों के समूचे आवंटन के सिलसिले को ही रद्द कर डाला। ऐसा करते वक्त अदालत को उद्योग और अर्थव्यवस्था पर इस ऐतिहासिक फैसले के पड़ने वाले प्रभावों का अहसास नहीं था। इसके बाद शुरू हुआ कुदरती संसाधनों की नीलामी का एक मेला, जिसने अर्थव्यवस्था को एक ऐसे संकट में डाल दिया जहां वह आज खुद को खड़ा पाती है। स्क्रीनिंग कमेटी वाले तरीके को असंवैधानिक पाया गया और सरकारी फैसले को अवैध ठहरा दिया गया। यहां तक कि राज्यों की सरकारी कंपनियों द्वारा किए गए संयुक्त उपक्रमों को भी अवैध माना गया। अदालत का कहना था कि ऐसे समझौते कोयला खदान राष्ट्रीयकरण अधिनियम, 1973 में रेखांकित विधायी नीति का उल्लंघन करते हैं चूंकि उसमें व्यावसायिक उपयोग के लिए कोयला खदानों के निजी कंपनियों द्वारा दोहन को मंजूरी मिली हुई है।4 25 सितंबर 2014 को आया यह फैसला हालांकि इस तथ्य को मानता है कि आवंटनों के अवैध होने के नतीजों से अभी निपटा जाना बाकी है।5 अदालत को यह बताए जाने के बावजूद कि उसका फैसला अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर डालेगा, उसने इस पर कान नहीं दिया।6
सर्वोच्च अदालत को यह बात समझनी चाहिए थी कि कोयला खदानों का आवंटन रद्द करने का उसका फैसला कोयले की उपलब्धता पर असर डाल सकता है; कि बैंकों और वित्तीय संस्थानों द्वारा कोयला खदान आवंटित कंपनियों को दिया गया 2.5 लाख करोड़ का कर्ज एनपीए में तब्दील हो जा सकता है;7 मौजूदा स्टील और ऊर्जा परियोजनाओं में किया गया निवेश बेकार हो सकता है जिसका सरकारी बैंकों और निगमों पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। इसके अलावा निवेशकों का भरोसा भी डिगने का खतरा था जिससे संबंधित उद्योगों में तीव्र संकट पैदा हो जाता, जो ईंधन के प्राथमिक स्रोत के रूप में कोयले का इस्तेमाल करती हैं। इस सब का अर्थव्यवस्था पर तबाही जैसा असर होगा, इस चिंता से अदालत गाफि़ल रही। अदालत इस बात को भी नहीं समझ सकी कि रॉयल्टी, उपकर, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के रूप में 4.4 लाख करोड़ का नुकसान हो जाएगा।8 अवंटन चूंकि निकट भविष्य में होना था लिहाजा उद्योगों को तब तक ज्यादा कीमत पर कोयले का आयात करना पड़ता जिससे उपभोक्ता के स्तर पर लागत बढ़ने का खतरा था।
अदालत के पास आवंटनों के अवैध होने के संबंध में फैसले का अधिकार बेशक है लेकिन उसे इसके प्रभावों का भी अंदाजा होना चाहिए। अदालत को इस बात से गाफिल नहीं रहना चाहिए कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में कियया जाने वाला निवेश विद्यमान नीतियों के मद्देनज़र किया जाता है। निवेशक ऐसी नीतियों के विधिक आयामों से अनभिज्ञ होते हैं। वास्तव में किसी भी निवेशक ने यह नहीं सोचा होगा कि कोयला आवंटन की जो नीति 1993 से 2012 तक लागू रही, उसे 2014 में एक झटके में समाप्त कर दिया जाएगा। लंबे समय से चली आ रही किसी नीति को यदि राज्य खतम कर देता है तो उसमें अनभिज्ञ निवेशक का कोई दोष नहीं। यह फैसला ठोस कानूनी दलीलों पर आधारित था या नहीं, उसका विश्लेषण करने के लिए यह जगह उपयुक्त नहीं है।
स्क्रीनिंग कमेटी के माध्यम से किए गए आवंटन में निजी क्षेत्र, केंद्र सरकार और वह राज्य जहां कोयला ब्लॉक स्थित है- तीनों सक्रिय भागीदार थे। जिस सरकार ने इस रास्ते से आवंटन किया उसके बारे में बहुत कुछ अभी कहा जाना बाकी है। फिलहाल यह मान लें कि अदालत ने जो किया वह उसने पूरी तरह सही किया, तब भी एक सवाल बचा रह जाता है कि क्या कोर्ट को सारे आवंटन रद्द करने चाहिए थे, वे भी जहां कुछ गलत नहीं हुआ। क्या अदालत अपने एक फैसले से निजी निवेशकों को एक गंभीर आर्थिक परिणाम भुगतने को बाध्य कर सकती है जबकि उनके ऊपर कुछ गलत करने का आरोप तक न हो? क्या अदालत को यह नहीं समझना चाहिए था कि सरकार की नीतियों और उनके क्रियान्वयन में कथित कमियों के चलते उसे निवेशक को अनावश्यक दंडित नहीं करना चाहिए था?
कोयला ब्लॉकों का आवंटन रद्द होने के बाद सरकार ने कोयला ब्लॉकों को नीलामी के लिए खोल दिया जिस पर मुकदमा हो गया। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। मान लें कि किसी कंपनी ने खुद को आवंटित एक कोयला ब्लॉक के करीब पावर प्लांट लगाया। उसकी लागत उसे 5000 से 20,000 करोड़ के बीच आई। उस कोयला ब्लॉक का आवंटन रद्द होने पर कंपनी को दो नुकसान होंगे। पहला, उसके पावर प्लांट के लिए काम आने वाले कोयला ब्लॉक का नुकसान। दूसरा, प्लांट यदि किसी भीतर के इलाके में है तो उसे किसी दूसरे ब्लॉक का आवंटन लेना होगा, जो कुछ दूरी पर हो सकता है। इससे उसकी परिवहन लागत बढ़ेगी। यह भी इस पर निर्भर करता है कि नीलामी में उसे कोयला ब्लॉक प्राप्त होता है या नहीं। कोयले के परिवहन का प्रकिूल असर पर्यावरण पर पड़ेगा। यदि उक्त कंपनी नीलामी में कामयाब नहीं हुई तब उसे कहीं जदा कीमत पर कोयला आयातित करना पड़ेगा। इन सभी कारकों का अंतत: उसके उद्यम पर गंभीर आर्थिक प्रभाव होगा।
हकीकत यह है कि कोयला ब्लॉकों का आवंटन रद्द होने से कोयले का दोहन और प्रभावी उपयोग सात से आठ साल पीछे चला गया है। इसकी प्रतिक्रिया में अदालत की टिप्पणी यह थी: ‘’वे उत्पादन के लिए 95 फीसद तैयार हों या 92 फीसद या 90 फीसद, यह बात पूरी तरह अप्रासंगिक है, जैसा कि पहले कहा गया यह आवंटन गैरकानूनी और यादृच्छिक था और इसीलिए हम सभी आवंटनों को रद्द करते हैं। विद्वान अटॉर्नी जनरल ने ऐसे 46 कोल ब्लॉकों की पहचान की है जिन्हें इस फैसले से ‘बचाया’ जा सकता है, चूंकि इन सभी ने या तो उत्पादन शुरू कर दिया है अथवा उत्पादन शुरू करने के कगार पर हैं। चूंकि ये आवंटन भी गैरकानूनी और यादृच्छिक हैं, तो वे भी रद्द किए जाने योग्य हैं…।‘’9
फैसले से उद्धृत उपर्युक्त पंक्तियां स्पष्ट करती हैं कि अदालत को इस बात का भान था कि उसका फैसला बड़े पैमाने पर आर्थिक उलटफेर कर सकता है जो समूचे कोयला क्षेत्र को ही अस्थिर बना देगा, जिसकी जद में आगे ऊर्जा, स्टील और सीमेंट के क्षेत्र भी आएंगे। निवेशों को जो नुकसान हुआ उससे इतर इस फैसले का नतीजा यह हुआ कि 2011 से 2015 के बीच उद्योगों की जरूरत को पूरा करने के लिए आयातित कोयले की दर में पर्याप्त वृद्धि हुई है। आयात सालाना 25 फीसद की दर से बढ़ा है। 2015 में आयातित कोयले का कुल मूल्य 955 अरब रहा।10 इस अवधि में कुकिंग कोल के आयात में करीब 75 फीसद की वृद्धि हुई है जबकि नॉन-कुकिंग कोल के आयात में इसी अवधि में 250 फीसद का इजाफा हुआ है। हमारे देश में भले ही कोयला प्रचुर मात्रा में है (315 अरब टन11) जिसका नब्बे फीसद नॉन-कुकिंग कोयला है, वह दोहन के लिए उपलब्ध नहीं है। जो उद्योग यहां के नॉन-कुकिंग कोयले का उपयोग कर सकते थे उन्हें उससे वंचित रखा गया है। इसके आयात के लिए उन्हें ज्यादा कीमत चुकानी पड़ रही है जिससे कीमतों पर प्रभाव पड़ रहा है। इसके चलते इनफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की लागत काफी बढ़ गई है, साथ ही घरेलू कोयले पर निर्भर परियोजनाएं विलंबित हो गई हैं क्योंकि नॉन-कुकिंग कोयले की अचानक आवश्यकता बढ़ गई है।
यह विनाशक प्रभाव सबसे ज्यादा बिजली के क्षेत्र में देखा जा रहा है जहां मौजूदा इंस्टॉल क्षमता का 57.3 फीसद कोयला आधारित है।12 2009 से 2015 के बीच जहां बिजली कंपनियों की इंस्टॉल क्षमता 13 फीसदी की सीएजीआर वृद्धि दर से बढ़ी ह, वहीं कोयला आधारित बिजली की क्षमता में सीएजीआर पर केवल 8.5 फीसद की वृद्धि दर्ज की गई। कच्चे माल की आपूर्ति नहीं होने से कई परियोजनाएं तो ठस पड़ी रही हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि कोयला आधारित संयंत्रों के लिए औसत प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ) 2016-17 में साल भर पहले के 63.86 फीसद से घटकर 62.01 फीसद पर आ गया।13 बिजली क्षेत्र में नियामक कारकों को छोड़ दें तो मौजूदा चुनौतियां वाणिज्यिक और वित्तीय मोर्चे पर हैं जिनके चलते पीएलएफ में गिरावट आई है।
भारत के स्टील क्षेत्र में 2015 में लगने वाला कोयला 66 मिलियन टन रहा, जिसका दो-तिहाई आयातित था। अनुमान है कि स्टील क्षेत्र के लिए कुकिंग कोल की जरूरत 2020 तक बढ़कर 96 एमटी हो जाएगी। इसी तरह सीमेंट क्षेत्र में 2015 में लगने वाले कोयले का करीब दो-तिहाई आयातित था। तीव्र शहरीकरण, सरकार द्वारा इनफ्रास्ट्रक्चर में निवेश में वृद्धि, स्मार्ट सिटी और समर्पित माल गलियारे, मेट्रो रेल परियोजना का विकास, हवाई अड्डों का आधुनिकीकरण और विस्तार- इन सब में सीमेंट की मांग बढ़ेगी। इसके लिए कोयले की जरूरत 2025 तक 72 से 82 एमटी होगी।14 जाहिर है अर्थव्यवस्था में ईंधन के तौर पर कच्चे माल की तरह काम आने वाले कोयले के महत्व को कम कर के नहीं आंका जा सकता। निजी दोषसिद्धि के अभाव में आर्थिक परिणामों की अनदेखी करते हुए एक साथ 2जी लाइसेंसों के रद्दीकरण और कोयला खदानों के आवंटन को खारिज किए जाने का अर्थव्यवस्था पर तबाही जैसा असर हुआ है।