नया साल आते ही हिंदी जगत के लिए त्रसद साबित हुआ। पहले जनवरी के अंत में हिंदी के यशस्वी बुजुर्ग लेचिाका कृष्णा सोबी गुज़र गईं। फिर फरवरी में हिंदी के शीर्ष आलोचक प्रो. नामवर सिंह का लंबी बीमारी के बाद दिल्ली में निधन हो गया। एक के बाद एक इन दो वयोवृद्ध साहित्यकारों की मौत ने हिंदी के लोकवृत्त को स्तब्ध और अकेला छोड़ दिया।
कृष्णा सोबती का जन्म गुजरात (पाकिस्तान) में चेनाब नदी के पास एक छोटे से कस्बे में हुआ था। भारत के विभाजन के बाद वे दिल्ली में आकर बस गयीं। सोबती ने हिन्दी की कथा–भाषा को अपनी विलक्षण प्रतिभा से अप्रतिम ताज़गी़ और स्फूर्ति प्रदान की है। उन्होंने पचास के दशक से ही अपना लेखन कार्य प्रारम्भ कर दिया था। इनकी पहली कहानी ‘लामा’ थी, जो 1950 में प्रकाशित हुई।
सोबती का नाम अक्सर उन लेखक–लेखिकाओं की फ़ेहरिस्त में शामिल हुआ; जिन्होंने देश के विभाजन, धर्म–जाति और खासकर स्त्री–अधिकारों के मुद्दों पर अपनी कलम चलाई। सोबती ने अपने रचनाकाल में उपन्यास, लम्बी कहानियां, लघु कथाएं, और निबन्ध लिखे। अपने उपन्यास ‘ज़िंदगीनामा’ के लिए ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ पाने वाली वे पहली हिंदी लेखिका थीं। सोबती को जब ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया तो बहुत से लेखकों और साहित्य–प्रेमियों ने कहा कि यह पुरस्कार सोबती को बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था। इस अंक में प्रस्तुत है कृष्णा सोबती की मशहूर कहानी ‘सिक्का बदल गया’।
कृष्णा सोबती के निधन के करीब महीने भर बाद नामवर सिंह गुज़र गए। एक लेखक और एक व्यक्ति के बतौर नामवर सिंह की शख्सियत का मेयार इतना बड़ा था कि वे जीते जी हिंदी के बरगद बने रहे। कोई पचास साल से नामवर के न आगे कोई हुआ और न पीछे, जबकि कोई तीस साल से तो उन्होंने कलम ही नहीं उठायी और ज्ञान की मौखिक परंपरा का निर्वहन करते रहे। वे बोलते थे और लोग उसे लिपिबद्ध कर–कर के किताब निकालते थे।
हिंदी आलोचना की दुनिया में प्रो. हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य रहे नामवर ने रामविलास शर्मा के जीते जी अपना एक स्वतंत्र मुकाम बना लिया था। नामवर की मेधा और स्मृति का जोड़ फिलहाल हिंदी जगत में विरल है। उनका 1988 में लिखा एक निबंध इस अंक में प्रस्तुत है जो संस्कृति और आलोचना के अंतर्संबंधों पर एक मौलिक दृष्टि देता है।