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अक्षर अक्षर रक्त भरा – कश्मीरी कवि निदा नवाज़ की ग्यारह कविताएं  

अक्षर अक्षर रक्त भरा

 

हमारे अपमानित इतिहास के

हर काले पन्ने का

अक्षर अक्षर है

रक्त भरा।

 

*

 

एक बड़ा शोषण

 

हमें चुप्पी तोड़नी होगी

उन लोगों की

जो एक रेवड़ की भांति

हांक दिये जाते हैं

राजनीती से रंगी

साम्प्रदायिकता की लाठी से

समझोतों की चरागाहों की ओर

उन्हें दिये जाते हैं

धर्म नाम के ट्राकोलाज़र्स

लगातार, मुसलसल

और उतार दी जाती है

ऊन के साथ साथ

उनकी पूरी खाल भी

उनके मस्तिष्क पर

रोप दिये जाते हैं

अफ़ीम और चरस के पौधे

एक बड़ा षड्यंत्र

बचपन में ही

भर दी जाती है रेत

उनकी मुठ्ठियों में

अंध विश्वास की

और बांधी जाती हैं पट्टियां

उनकी आँखों पर

तर्कहीनता की

फिसल जाता है उनका पूरा जीवन

उनकी उंगलियों की दरारों से

मर जाते हैं उनकी आँखों के सपने

उनके शरीर में भर दिये जाते हैं

नफ़रत के रक्त बीज

और विस्फोट किया जाता है उनका

भरे बाज़ारों में

बड़े शहरों में

रिमोट कंट्रोल द्वारा

हमें चुप्पी तोड़नी होगी

और लाना होगा उन्हें वापस

इन साम्प्रदायिकता की

बारूदी चरागाहों से

यह चुप्पी अब पक चुकी है

समय की बट्ठी में

और पहुंच चुकी है

उस सीमा तक

जहाँ उत्पन्न होती है

चुप्पी से एक चीख़

एक पुकार

हमें बेनिकाब करना होगा

राजनीती और धर्म की आड़ में

रचा जाने वाला

यह आदमख़ोर शोषण

 

*

 

चीते, चूहे और चील की दोस्ती

 

चूहे कभी भी निकल सकते हैं

अपनी बिलों से

चीते कभी भी घुस सकते हैं

बस्तियों में

चील कभी भी मंडरा सकते हैं

शहर पर

और यह शहर

तुम्हारे भीतर का

एक विचार भी हो सकता है

तुम्हारी आँखों में पनपा

एक सपना भी हो सकता है

तुम्हारे मस्तिष्क में उपजा

एक सुंदर सा तर्क भी ही सकता है

और यह शहर

तुम्हारे दिल का वह

रोशन कोना भी हो सकता है

जहाँ जलते हैं विश्वास के दीप

चीते चील और चूहे की दोस्ती

बहुत पुरानी है

एक चीर-फाड़ करता है

दूसरा कुतरता है

भाईचारे का आंचल

और तीसरा नोचता है

मानवता का शरीर

राजकुमार का सपना

चीते के पंजे में कैद हुआ

चूहे ने उसके पंख कुतरने शुरू किये

चील ने उसको नोचना आरंभ किया

मैं राजकुमार के सपने को

इनसे छुड़ाऊंगा

मैं बेनिकाब करूंगा

चीते, चूहे और चील की यह दोस्ती.

 

*

 

वे स्वयं कश्मीर थे

 

वे निकले थे…

जैसे उखड़ता है कोई चिनार.

जड़ों की बांहों में भर कर

अपनी सारी मिट्टी.

और हाथ-पत्तों में भर कर

अपनी सारी छाँव.

वे निकले थे मध्यरात्रि को

सूर्य उनकी जेब में था

और चांद को वे

अपनी हथेलियों पर सजा रखे थे.

उनकी सांसों में थी

“घुफा-क्राल” की मिट्टी की महक.

और रक्त में थीं

“बुर्ज़हामा” की यादें.

वे निकले थे…

उन के मन में था शिव

और पीठ पर “हरिपर्वत”.

उनकी झोलियों में थे

नाग-पूजा के पुष्प

और आँखों में प्राचीन मन्दिर.

वे हो के आये थे

“करकोटा” के सभ्य शहर से.

वे निकले थे…

“ल्ल्ताद्तिया” था उन का आदर्श

और “अनन्ता” के चश्मे

उनके पाँव से फूटते थे.

उनकी ध्वनि में था

आचार्य आनन्द वर्धन

और शब्दों में

आचार्य अभिनवगुप्त

उन के सिर पर था

“कश्यप” का आशीर्वाद

वे निकले थे…

और उन ही के साथ निकले थे

फूल-शहर के रंग

फूल-शहर की खुशबूएं.

वे जहां जहां भी खीमें गाड़ते थे

वहां वहां बनती थी कश्मीर घाटी

क्योंकि वे स्वयं कश्मीरी थे.

 

*

 

वेलेंटाईन-डे और कर्फ़्यू

 

आज वेलेनटाईन-डे के अवसर पर

भावनाओं में महकती है

भीनी भीनी ख़ुशबू

जिस्म-व-जान में दोड़ती है

एक मदहोश लहर

आत्मा के झरोखों से आने लगती है

स्वर्ग की सुगन्धित पवन

इस दिन की प्रतीक्षा थी पूरे वर्ष

कि मिलन का अवसर मिल जाए

किसी रेस्टुरां के काफ़ी टेबल पर

खोल देते हम एक दूजे के प्रेम-ग्रंथ

और इन रोचक क्षणों के बीच

होले से मैं निकालता

एक अधखिला लाल गुलाब

सोंपता तुम्हारे चन्दन हाथों में

और प्रेम प्रतिज्ञा के तौर

दोहराता मैं एक बार फिर

प्रेम वचन

“मेरी जान मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ”

और तुम भी मेरी धड़कनों के साज़ पर

सरगोशियों में गुनगुनाती एक और बार

“मैं भी तुम्हें बहुत चाहती हूँ जानम”

मेरे पूरे व्यक्तित्य में बज उठते

वफ़ा के तार

मैं नज़रों के हात्थों टाँकता

तुम्हारे बालों में प्यार के पुष्प

तुम्हारी बोजल पलकों के नीले आकाशों पर

उड़ान भरते

मेरी दृश्य के परिन्दे

म्मलिकत-ए-मुहब्बत की अप्सराएं

हम पर बरसाती रंग रंग के फूल

हम पर प्रकट होजातीं

प्यार की लज़तें

लेकिन मेरी जान

आज सातवें दिन भी करफ्यू जारी है

सारे शहर पर दहशत तारी है

सडकें वीरान हैं

और परिन्दे तक भी

टीयर-गेस शालिंग से सहमे हुए हैं

फ़ोन, इंटरनेट और केबल नेटवर्क

बंद हैं

मगर मेरी जान

मैं अपनी मस्जिद-ए-दिल में

तुम्हारी काल्पनिक प्रतिमां के समक्ष

अपने माथे पर सजाये

लाल गुलाबों का एक उपवन

सलाम करता हूँ तुम्हें

कि कुछ तो प्रेम-दिवस का भरम रह जाए

कुछ तो पिन्दार-ए-मुहब्बत का भरम रह जाए.

 

*

 

मैं पालूंगा एक सपना

 

मैं पालूंगा एक सपना

जिस में होगी एक पूरी सृष्टि

एक सुंदर शहर

जहां अभी तक

नहीं तराशा गया होगा कोई इश्वर

न ही जानते होंगे लोग झुकना

न ही टेढ़ी हो गई होंगी

उन की रीढ़ की हड्डियां

 

मेरे सपने में

ईजाद नहीं हुई होंगी

तिजोरियां

और न ही ज़ंजीरें

 

जिन लोगों के पास नहीं होता कोई ईश्वर

वे नहीं बनाते, तलवारें, किरपान और त्रिशूल

न ही उनके पास होता है डर

और न दूसरों को डराने वाली कोई बात

जहां तिजोरियां नहीं होतीं

वहां नहीं होती भूख

 

जहां ताले नहीं होते

वहां नहीं होते चोर

जहां मालिक नहीं होते

वहां नहीं होती ज़ंजीरें

 

मैं अपने सपने को पालूंगा और बड़ा करूंगा

मेरा सपना भरेगा

संघर्ष के धरातल पर

ख़रगोश की किलकारियां

मैं उसमें बोऊँगा इच्छाओं के सारे बीज

टांकूंगा भावनाओं के सारे पुष्प

 

मेरे सपने में उडेंगी

तर्क की रंगीन तितलियाँ

चहकेगी

यथार्थ की बुलबुल

मेरे सपने में पनपेगी

मिट्टी की सोंधी-सोंधी ख़ुशबू

 

मैं अपना सपना कोयले की खान में काम करने वाले

मज़दूर को दूंगा

वह मेरे सपने को सर्चिंग टार्च में बदल देगा

जो उसको खान की अँधेरी सुरंगों से निकाल कर

सृष्टि के अंतिम छोर तक ले जाएगी

जहां होगा उसका एक पूरा संसार

 

मैं अपने सपने को

स्कूल जाते बच्चों के टिफिन में रख लूंगा

जिस को देख कर वे भूल जाएंगे

भारी बस्तों के बोझ से घिसी

अपनी नन्ही पीठ का नन्हा सा दर्द

 

मैं अपना सपना

वैज्ञानिक को दूंगा

जो उसको जीवन की प्रयोगशाला की

मेज पर पड़े

उस कंकाल आदमी पर आजमाएगा

जिस पर युगों से केवल

प्रयोग ही किए जा रहे हैं

मेरे सपने से उस पर उभर आयेगा मांस

और उस में दौड़ेगा जीवन

 

मैं अपने सपने को रोप लूंगा

सरिता के पानी पर

उसकी लहरों पर दहकेगा

एक पूरा ब्रम्हाण्ड

जिस में पिघल जाएगा

वह अकेला हंस भी

जिसकी आँखों में

केवल मेरे नाम की इबारत लिखी है

 

मैं अपना सपना परोस लूंगा

शरणार्थी शिविर में जन्म लेने वाले

उन सभी बच्चों की आँखों के थालों में

जिनकी मांऐं

अपने सूखे खेतों को खुला छोड़ने पर मजबूर हैं

दूसरों के चरने के लिए

केवल एक रजिस्ट्रेशन कार्ड बनवाने के लिए

और उसमें एक काल्पनिक पितृ नाम भरने के लिए

 

मैं अपना सपना मछुआरे को दूंगा

जो बुन लेगा उससे

एक रंगीन जाल

और पकड़ेगा

सागर की सबसे सुंदर मछली

जिस पर कभी किसी

मगरमच्छ की नज़र न पड़ी हो

और न ही उस की आँखों में

अटका हो

किसी का फैंका कोई तीर

मैं उसको अपने मन के

अक्वेरियम में पालूंगा

 

मैं अपना सपना समुद्र को दूंगा

बदले में मांगूंगा उसका सारा नमक

जिसको छिडक सकूं एकांत में

अपने उस ताज़े से घाव पर

जिसमें फड़फडा रही है

क्रान्ति नाम की एक नई कविता.

 

*

 

पुलवामा नरसंहार पर

 

ओ मेरी घाटी के युवाओं

तुम कहाँ चल दिए हो

सफ़ेद पोशाक पहनकर

उम्र के इतने सवेरे-सवेरे

क्या यह भी कोई

जाने का समय है, भला !

 

तुम्हारे पीछे ये

जनाज़ों के विशाल जुलूस

कहाँ अच्छे लगते हैं

मरने की भी कोई उम्र होती है

मेरे लाड़लो !

 

आबिद, क्या तुम्हें भी

इतनी जल्दी थी जाने की

तुम तो परसों ही

हैदराबाद के उस अस्पताल से

हफ़्ते भर की छुट्टी पर घर आए थे

जहाँ तुम मियां-बीवी काम करते थे

तुम्हारी एम०बी०ए० की डिग्री

अब एक प्रश्नचिन्ह बन गई है

और प्रश्नचिन्ह बन गई है

तुम्हारी इण्डोनेशियायी पत्नी भी

जब से तुम गए हो

तुम्हारी तीन महीने की बेटी

अदीबा बिलख रही है ।

 

और तुम मुर्तज़ा…

तुमने तो पिछले ही महीने

आठवीं कक्षा पास की थी

क्रिकेट तुम्हारा जुनून था बेटे

और तुम अक़सर कहते थे

कि तुम्हें राष्ट्र के लिए खेलना है

क़ातिलों ने तुम्हें

ज़िन्दगी की कोई पारी खेले बिना ही

आऊट किया ।

 

और तुम आमिर, सुहेल, शहबाज़

शाहनवाज़, तौसीफ़ तुम सब भी…

तुम्हारे जिस्मों पर

सफ़ेद कफ़न से झाँकते

ये रिसते घाव

ये लाल-लाल फूल

मुझसे देखे नहीं जाते

मुझसे नहीं देखे जाते

ये असँख्य नरसंहार

 

उन्नीस सौ नब्बे में

पाँच नरसंहार

एक सौ तिरानवे की

निर्मम हत्या

उन्नीस सौ इक्यानवे में

आठ नरसंहार

एक सौ पाँच की हत्या

उन्नीस सौ बानवे में

सात नरसंहार

सड़सठ की हत्या

उन्नीस सौ तिरानवे में

नौ नरसंहार

एक सौ बत्तीस का क़त्ल

पिछले तीस वर्षों में

असँख्य नरसंहार

हज़ारों आम लोगों की

दर्दनाक हत्याएँ

 

अब हम नरसंहारों

और निर्दोषों की हत्याओं

की गणना भूल गए हैं

भूल गए हैं

विशाल क़ब्रिस्तानों की सँख्या

 

मुझसे नहीं देखा जाता है

तुम्हारी माँओं का रुदन

बहनों का विलाप

तुम्हारे पिताओं की

सूखी सहमी आँखें

क्या तुम नहीं जानते थे

कि शिकारी ताक़ लगा कर बैठे हैं

और तुम बेपरवाह कुलाचें भर रहे थे

आज़ाद हिरणों की तरह ।

 

उन्हें इनसानी ख़ून का चस्का लगा है

उनके मन में पलने वाले फ़ासीवाद को

हर आतँकी का संरक्षण प्राप्त है

हम सब उनके निशाने पर हैं

और निशाने पर है हमारी अस्मिता

हमारी मर्यादा, हमारी पहचान

उनके निशाने पर है हमारा पूरा देश

जिसकी जड़ों को वे

खोखला करने पर आमादा हैं।

 

*

 

मत जगाओ मेरे बच्चों को

 

मत जगाओ मेरे बच्चों को गहरी नींद से

इन्हें सोने दो परियों की गोद में

सुनने दो इन्हें सनातन स्वर्गीय लोरियाँ

ये क़िताबों के बस्ते रहने दो इनके सिरहाने

रहने दो इनकी नन्ही जेबों में सुरक्षित

ये क़लमें, पेंसिलें और रँग-बिरँगे स्केच पेन

 

ये निकले थे स्कूलों के रास्ते

इस विशाल ब्रह्माण्ड को खोजने, निहारने

ये निकले थे अपने जीवन के साथ-साथ

पूरे समाज की आँखों में भरने सुनहले सपने

अभी इनका अपना कैनवस कोरा ही पड़ा था

और ये सोच ही रहे थे भरना उसमें

विश्व के सभी ख़ुशनुमा रँग

लेकिन तानाशाहों के गुर्गों ने इन्हें

रक्तिम रँग से रँग दिया

 

मत ठूँसो इनके बस्तों में अब

चॉकलेट कैण्डीज़ और केसरिया बादामी मिठाइयाँ

अब व्यर्थ हैं ये लुभाने वाली चीज़ें इनके लिए

इनके बिखरे पड़े टिफ़न को रहने दो ज्यों का त्यों

अब यह संसार की भूख से मुक्त हुए हैं

 

अब इनको नहीं चाहिए गाजर का हलवा, छोले-भटूरे

या फिर कोई मनपसन्द सैण्डविच

जब रोटी और रक्त के छींटें मिलते हैं एक साथ

आरम्भ होने लगता है साम्राज्य का विनाश

सूखी रेत की तरह सरकने लगता है

बड़े-बड़े तानाशाहों का अहँकार

 

मत जगाओ मेरे बच्चों को गहरी नींद से

इन्हें सोने दो परियों की गोद में

मत उतारो इनके लाल-लाल कपड़े

इनके ख़ून सने जूते, लहू रँगी कमीज़ें

इनको परेशान मत करो अपनी आहों और आंसुओं से

इन्हें अशान्त मत करो अपनी सिसकियों, स्मृतियों से

मत जगाओ मेरे बच्चों को गहरी नींद से

इन्हें सोने दो परियों की गोद में

सुनने दो इन्हें सनातन स्वर्गीय लोरियाँ

ये नींद के एक लम्बे सफ़र पर निकल पड़े हैं ।

 

*

 

कर्फ्यू

 

चील ने भर ली है

अपने पँजों में

शहर की सारी चहल-पहल

 

सड़कों पर घूम रही है

नँगे पाँव चुप्पी की डायन

 

गौरैया ने अपने बच्चों को

दिन में ही सुला दिया है

अपने मन के बिस्तर पर

और अपने सिरहाने रखी है

आशँकाओं की मैली गठरी

 

दूर बस्ती के बीच

बिजली के खम्भे के ऊपर

आकाश की लहरों पर

कश्ती चलाता एक पँछी

गिर कर मर गया है ।

 

*

 

अंधेरे की पाज़ेब

 

अन्धेरे की पाज़ेब पहने

आती है काली गहरी रात

दादी माँ की कहानियों से झाँकती

नुकीले दाँतों वाली चुड़ैल-सी

मारती रहती है चाबुक

मेरी नींद की पीठ पर

काँप जाते हैं मेरे सपने

 

वह आती है जादूगरनी-सी

बाल बिखेरे

अपनी आँखों के पिटारों में

अजगर और साँप लिए

मेरी पुतलियों के बरामदे में

करती है मौत का नृत्य

अतीत के पन्नों पर

लिखती है कालिख

वर्तमान की नसों में

भर देती है डर

भविष्य की दृष्टि को

कर देती है अन्धा

 

मेरे सारे दिव्य-मन्त्र

हो जाते हैं बाँझ

घोंप देती है खँजर

परिचय के सीने में

रो पड़ती है पहाड़ी शृँखला

सहम जाता है चिनार

मेरे भीतर जम जाती है

ढेर सारी बर्फ़ एक साथ!

 

*

 

दुख होता है

 

(फलस्तीनी स्वतन्त्रता सेनानियों के नाम)

 

प्रात: कालीन सूर्य की

लालिमा को

काली बदली अगर छिपाए

दुःख होता है

आँखों पर प्रतिरोध लगा कर

रात्र को भी दिन बतलाए

दुःख होता है

पाप की काली चादर हर ओर

फैले,दिनकर

देखता जाए

दुःख होता है

मानव को

मानव अधिकार के बदले

स्वतन्त्रता के बदले

घाव मिले

गोली मिल जाए

दुःख होता है

आशा,पुष्प और सत्य की क्यारी

हठधर्मी से रौंधी जाए

दुख होता है।

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