हम में से कई को ऐसा महसूस हो रहा है गोया इन चुनाव नतीजों के साथ यह देश अपने तमाम लोगों सहित किसी अंधेरी और भयावह सुरंग में से गुज़र रहा हो। 2014 की गर्मियों में भी कुछ ऐसे ही कयामत के दिन का सा अहसास हुआ था। इस आशंका से इनकार करना मुश्किल है कि 2019 की ये गर्मियां एक ऐसी सत्ता की आमद का गवाह हैं जिसे शायद अब कभी पलटा न जा सके। बेशक यह संदेह ही अपने आप में हताशा से भर देता है क्योंकि बीते पांच साल बहुत से लोगों के लिए तबाही लेकर आए। यह बात अलग है कि जिन्होंने नरेंद्र मोदी को वोट दिया था, उनके दिन भी दुश्कर ही रहे। फिर भी उन्होंने दोबारा मोदी को वोट दिया।
हमें इसका अंदाजा पहले हो जाना चाहिए था। यह लगातार तीसरी बार है जब उत्तर प्रदेश ने सबको चौंकाया है। एक बार चौंकना बदकिस्मती हो सकती है, दोबारा चौंकना आपकी कमज़ोरी को दिखाता है लेकिन तीसरी बार भी वही हो तो इसका मतलब साफ़ है कि आप किसी खुशफ़हमी में जी रहे हैं।
वैसे मोदी की लोकप्रियता की खबरों से हम अछूते नहीं थे। रिपोर्ट दर रिपोर्ट बता रही थी कि मोदी अब भी बेहद लोकप्रिय हैं। खासकर सुप्रिया शर्मा और संकर्षण ठाकुर की रिपोर्ट याद आती है। कई मतदाताओं ने माना कि उनकी हालत ठीक नहीं है– नौकरिया नहीं हैं और नोटबंदी से उन्हें चोट पहुंची है, फिर भी वे मोदी को एक और मौका देने के हक़ में थे।
मोदी की नीतिगत नाकामियों को स्वीकार करने के बावजूद कई लोगों ने उन्हें वोट दिया। कुछ ने तो इसलिए कि उन्होंने देश की हिफ़ाज़त की है। कुछ और ने इसलिए वोट दिया कि उन्होंने दुनिया में देश का सिर ऊंचा किया है। कुछ लोग उन्हें बहुत मेहनती और ईमानदार मानकर वोट किए। कुछ ने इसलिए वोट दिया कि मोदी के सामने कोई् विकल्प नहीं था। कई लोगों ने मोदी को एक ऐसा नेता मानकर वोट दिया जिसमें उनका वाकई भरोसा था कि वह देश के लिए कुछ अच्छा कर रहा है और ऐसा ही करता रहेगा। उन्होंने एक ऐसे नेता को वोट दिया था जिसके बारे में उनका खयाल था कि उसे एक और मौका दिया जाना चाहिए।
इस जनादेश की व्याख्या को केवल नफ़रत या धर्मांधता के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता। इसका मतलब यह नहीं कि मैं हिंदू–मुस्लिम के सवाल पर पैदा हुए तीखे ध्रुवीकरण की बात को नकार रहा हूं। मैं बस यह मानता हूं कि इतने भर से उनको मिले भारी समर्थन की व्याख्या मुमकिन नहीं है। अगर वाकई ऐसे लोगों की संख्या बड़ी है जो मोदी को केवल इसलिए समर्थन दे रहे थे कि उन्होंने ‘’एक बिरादरी को उसकी औकात बता दी है’’, तो वे कम से कम खुलकर ऐसा कह नहीं रहे थे। और वैसे भी हमें कोई हक नहीं कि हम उन करोड़ों लोगों की मंशा पर शक करें और उन्हें किसी खांचे में बांट दें जिन्होंने मोदी और उनकी सरकार का समर्थन किया है।
विकल्पों का क्या?
मतदाताओं के सामने विकल्प के सवाल का क्या किया जाए? योगेंद्र यादव सही कह रहे थे कि यह जनादेश दरअसल सरकार से असंतोष और विकल्प के प्रति अविश्वास के बीच कहीं अवस्थित है।
कुछ लोगों को राहुल गांधी उभरते हुए एक नेता की तरह दिखे। कम से कम हिंदी पट्टी के मतदाताओं ने तो उन्हें एक सिरे से खारिज कर दिया है। इसका मतलब क्या यह लगाया जाए कि उन्होंने कायदे से लड़ाई लड़ी नहीं? नहीं, इसके उलट ऐसा लगता है कि वे अपनी क्षमता से कहीं ज्यादा लड़े। बीजेपी सरकार को सामने से चुनौती सबसे पहले उन्होंने ही दी थी और अंत तक मोर्चे पर डटे रहे। वे सही मायने में जंगजू की तरह लड़े। ये बात अलग है कि इस चुनाव ने जिस तरीके से मोदी के पक्ष में करवट ली, राहुल गांधी का कहा–किया सब पूरी तरह बेकार जान पड़ता है। वे यूपी और दिल्ली में गठबंधन कर सकते थे लेकिन कई सीटों पर इस गठबंधन का सम्मिलित वोट भी बीजेपी के वोट के मुकाबले कम पड़ जाता। वैसे भी जहां कहीं कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा– जैसे कर्नाटक, बिहार और झारखण्ड– वहां भी उसकी बुरी गति हुई।
क्या कांग्रेस इससे कुछ अलग कर सकती थी? लगता नहीं है। महज 44 सांसदों वाली कांग्रेस विपक्ष के रूप में उम्मीद से ज्यादा मुखर व संघर्षरत रही। इसी के चलते सरकार और मीडिया का अत्यधिक तिरस्कार उसे झेलना पड़ा जो उसकी ताकत या प्रभाव के हिसाब से आनुपातिक नहीं था। मोदी शुरू से ही कांग्रेस पार्टी को बदनाम करने में लगे हुए हैं। उन्हें साफ़ दिख रहा था कि उनकी राह में इकलौता वैचारिक और सांगठनिक रोड़ा कांग्रेस ही है और एक व्यक्ति जो पूरी तरह निर्भीक और समझौतों से परे दिखता था वह अकेले राहुल गांधी था। राहुल गांधी के खिलाफ जो कुत्सा प्रचार अभियान चलाया गया और नतीजे आने के बाद भी जो जारी है, वह सहज नहीं है। यह कृत्रिम और बदनीयत आक्रोश है। वे अब भी उन्हें बाहर करने पर तुले हैं।
तो क्या राहुल को इस्तीफा दे देना चाहिए? उन्हें वही करना चाहिए जो एक विपक्ष का नेता और उनकी पार्टी के भीतर कोई खानदानी सदस्य कर सकता है। उनके न रहने पर कौन कांग्रेस की अगुवाई करेगा? और मोदी की वर्चस्वकारी लोकप्रियता के आगे इससे हासिल क्या होगा? आखिर विपक्ष के बतौर हम इस व्यवस्था को सबसे बेहतर क्या ची़ज़ दे सकते हैं?
मोदी की शख्सियत
यह चुनाव विचारों पर नहीं, व्यक्तित्व पर लड़ा गया। मोदी ने खुद को अमिताभ बच्चन की तर्ज पर गढ़ा है, जिनकी वे बहुत सराहना करते हैं और भारतीय सिनेमा में जो तकरीबन एक दशक तक नंबर 1 से नंबर 10 तक के पायदान पर अकेले काबिज रहे। मौजूदा दौर में मोदी भारतीय राजनीति के पहले से दसवें पायदान तक अकेले खड़े हैं। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि किसी पार्टी का मुखिया कौन है। कई लोग इस खुशफ़हमी में रहे कि मोदी का अब 2014 जैसा दबदबा नहीं रह गया है। वे मानकर चल रहे थे कि मोदी के पास केवल ताकत है, वर्चस्व नहीं, जैसा कभी ब्रिटिश साम्राज्य के बारे में ग्राम्शी ने कहा था। यह धारणा गलत निकली।
राहुल गांधी बेशक मोदी के सामने खड़े हुए लेकिन मुकाबले में बहुत पीछे रह गए। वे शायद इसलिए सामने टिक नहीं सके क्योंकि मोदी खुद अमिताभ बच्चन की तरह एक महानायक हैं जो जनधारणा में असामान्य चीज़ें करने में सक्षम होता है। वह गरीब परिवेश से आया है (जैसे मुकद्दर का सिकंदर में सिकंदर का किरदार), ईमानदारी से मेहनत कर के रोज़ी कमाता है (जैसे कुली का किरदार), पैसेवालों के गुरूर को तोड़ता है (लावारिस में अमिताभ का किरदार), वह पहरा रखता है (शहंशाह), वह खुददार है (खुददार), देश के लिए अपनी जान दे सकता है (शोले), उसका शारीरिक सामर्थ्य असामान्य स्तर का है (जादूगर, तूफ़ान), दोस्तों के लिए वह यारबाश है (याराना) और ज़रूरत पड़ने पर अपनी वक्तृता से आपको लाजवाब कर सकता है (आखिरी रास्ता)।
लोगों ने उसे वोट दिया है, लेकिन उनके मत को केवल नफ़रत या कट्टरता तक सीमित कर के देखना हेठी होगी। मैं मीडिया और सोशल मीडिया में प्रदर्शित की जा रही धर्मांधता को नजरंदाज नहीं कर रहा लेकिन मेरा मानना है कि ज़मीनी मतदाता सोशल मीडिया पर नफ़रत फैलाने वालो के मुकाबले काफी ज्यादा है। बेशक लोग अब अलग तरीके से वोट दे रहे हैं लेकिन यह मान लेना गलत होगा कि जनता बुनियादी तौर पर बदल चुकी है। यह कहना भी ठीक नहीं कि लोगों ने अविवेकपूर्ण तरीके से वोट दिया है। लोग क्या चाहते हैं या उन्हें क्या चाहिए, यह तय करने वाले हम कौन होते हैं? आखिर वह कसौटी क्या है जिस पर हम लोगों के निर्णय को कसें और कह दें कि उन्होंने गलत किया है?
आप यदि मूड ऑफ दि नेशन के सर्वेक्षणों को देखें तो पता चलेगा कि भारत के लोगों ने देश की सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद को बताया है। उन्होंने यदि एक ऐसा नेता खोज लिया है जो आतंकवाद से लड़ने के लिए तीव्र और निर्णायक उपाय कर रहा है तो लोग गलत कैसे हुए? अस्सी और नब्बे के दशक में इस देश में जो भी बड़ा हुआ है, उसने अकसर आतंकवादी कार्रवाइयों के लिए पाकिस्तान के प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन के समक्ष खुद को असहाय महसूस किया है। अगर एक नेता पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब दे रहा है तो क्या लोगों को उसका समर्थन नहीं करना चाहिए? जनता बदददिमाग नहीं हो गई है। उसने बस इस निजाम के आलोचकों और विरोधियों पर भरोसा करना छोड़ दिया है।
वैसे भी केंद्र और राज्य में सरकारें बदलने से करोड़ों बदहाल लोगों की जिंदगियों पर कभी कोई खास असर तो पड़ा नहीं, फिर एक ऐसी सरकार के बने रहने को लेकर आखिर हम क्यों परेशान हैं जिसमें गरीब आदमी हमेशा की तरह संघर्ष करने को अभिशप्त है। क्या कम्युनिस्ट पार्टी ने 1947 के सत्ता परिवर्तन का विरोध यह कह कर नहीं किया था कि ‘’ये आज़ादी झूठी है, देश की जनता भूखी है’’? क्या हम इसी तर्ज पर यह दावा नहीं कर सकते कि देश की जनता तो भूखी ही है, फिर क्या फर्क पड़ता है कि दिल्ली में किसकी सरकार है। कुछ लोग इस जीत में निहित पहचान की राजनीति को लेकर असहज हैं, लेकिन लोग अपनी उसी पहचान को चुनते हैं जिसे वे आगे रखना चाहते हैं। यह कहना पर्याप्त नहीं है कि लोगों को मर्ख बना दिया गया है और उनका भ्रम दूर किया जाना ही होगा। क्या लोगों को ज्ञान देने के लिए कोई दूसरा महानायक आएगा जिसकी पहचान की राजनीति हमारी पसंद की होगी?
मुसलमानों का सवाल
मुसलमानों का क्या हो? इसमें कोई अचरज की बात नहीं कि मोदी को मुसलमानों से बहुत लगाव नहीं है। वास्तव में बीजेपी के साथ ही ऐसा है क्योंकि उसका निर्माण ही हिंदू आक्रोश के आधार पर हुआ है। ठीक वैसे ही मुसलमानों में भी बीजेपी या आरएसएस के प्रति कोई खास लगाव नहीं रहा। यहां यह याद करना मौजूं होगा कि हिंदू आक्रोश और हिंदू धर्म के पुनर्गठन की भव्य परियोजना तथा भारत को उसके शीशे में उतारने का काम उन्नीसवीं सदी में शुरू हुआ था। आरएसएस के बनने तक तो इस परियोजना ने करीब 70 साल कामयाबी से बिताए थे।
अपने सामूहिक अतीत का निषेध और अपने वर्तमान में भारतीय मुस्लिम नामक संज्ञा की मौजूदगी उस पुनर्गठन के दो अनिवार्य आयाम रहे (संयोग से जिसकी शुरुआत बंगाल से हुई)। उस परिवेश में भारतीय मुस्लिमों की असहजकारी मौजूदगी और तक़सीम से जुड़े सदमे व शर्मिंदगियां तब भी एक समस्या थी और आज वह कई गुना हो चुकी है। कई लोगों को लग रहा है कि इस चुनाव नतीजों के बाद वह परियोजना अब पूरी होने के कगार पर पहुंच चुकी है। मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता। चाहे जो हो, आरएसएस उस परियोजना की सबसे बड़ी वाहक है और राजनीति में कट्टर होने का मतलब ही होता है अपने विरोधियों के प्रति कठोर होना। किसी भी बदलावकारी राजनीति के स्वभाव में यह बात होती है, मसलन जैसा हमने फ्रांसीसी क्रांति में देखा कि हर नई लहर के बाद पहले वाली कट्टर ताकत नरम जान पड़ने लगती है। ठीक है कि साध्वी प्रज्ञा जीत गईं, लेकिन हमें थोड़ा ठहर कर अभी देखना होगा।
मुसलमान डरा हुआ है
इस चुनाव में तमाम कथित मुसलमानपरस्त दलों का तकरीबन सफ़ाया हो गया है। ऐसा हालांकि सिर्फ इसलिए नहीं हुआ कि उन्हें मुसलमानपरस्त के तौर पर देखा जाता है। उन्हें भ्रष्ट समझा जाता है और इसीलिए देशद्रोही भी माना जाता है। मान लेना चाहिए कि मुस्लिम वोट अब अप्रासंगिक हो चला है। यह खतरनाक है। दुख देने वाला है, लेकिन फर्स्ट पास्ट द पोस्ट के आधार पर बनी चुनावी प्रणाली ऐसी ही है, क्या करेंगे। हम यदि सियासी बदलाव चाहते हैं तो हमें उसी स्तर पर चुनावी सुधार की भी जरूरत होगी जो आनुपातिक प्रतिनिधित्व से ही संभव हो सकता है। अब यह बात आप एक ऐसे देश में कह कर देखिए जिसका विभाजन ही पृथक निर्वाचन मंडल से उपजी तबाही के कारण हुआ।
मुसलमान बहुत डरा हुआ है, इसमें कोई शक नहीं और बीते पांच साल में उसके ठोस कारण मौजूद हैं। कोई नहीं जानता कि उनके साथ क्या होने वाला है लेकिन उन्हें याद दिलाया जाना चाहिए कि वे विभाजन की हिंसा के बाद भी बने रहे थे और भिवंडी, अमदाबाद, मुरादाबाद, भागलपुर, मलिहाणा, बंबई और यहां तक कि 2002 के नरसंहार के बाद भी यहां कायम रहे। बीते पांच साल भी उन्होंने काट ही लिए हैं।
कौन जानता है कि कल क्या होगा, लेकिन हमारा राजनीतिक अतीत जिन रास्तों से होकर यहां तक पहुंचा है वह पूरी तरह बेकार नहीं हो चुका है। जैसा कि आंबेडकर कहते थे, जनतंत्र केवल एक चुनाव का मामला नहीं है। यह रोज़मर्रा की लाखों–करोड़ों जनतांत्रिक प्रक्रियाओं, छोटे–छोटे रोज़ाना के संघर्षों से मिलकर बनता है। ये छोटे–छोटे संघर्ष तो जारी रहेंगे। इन्हें जारी रखना ही होगा।
अब आरएसएस ने गांधी पर चूंकि पूरी तरह फ़तह हासिल कर ली है, तो उसे सोचना होगा कि वह कोई 20 करोड़ भारतीय मुसलमानों के साथ क्या करने जा रहा है। इन्हें गायब तो किया नहीं जा सकता। इन्हें शिविरों में भी नहीं रखा जा सकता। इन्हें आप मार भी नहीं सकते। ये खुद बखुद गायब भी नहीं होने वाले। आप इन्हें अगर बदहाल, हताश, निराश रखेंगे तो ये भारत के पांवों में बेडि़यों की मानिंद पड़े रहेंगे या अलबट्रास की तरह रहेंगे जो अपनी राख से उठ खड़ा होता है। इसमें संदेह है कि अपनी आबादी के पांचवें हिस्से को वंचित रखकर भारत गौरव ओर समृद्धि के मार्ग पर आगे बढ़ पाएगा। इसीलिए मुसलमानों को नीचे रखने की कोई भी राजनीति देशविरोधी और राष्ट्रविरोधी होगी। यह एक सहज समझदारी है लेकिन भारत के असली भक्त जो वास्तव में इस देश को विकास और समृद्धि की राह पर देखना चाहते हैं उन्हें यह बात बार–बार याद दिलानी होगी।
भारतीय मुसलमानों की किस्मत में चाहे जो हो, इस देश की किस्मत में और भी बहुत कुछ देखना बदा है। वजूद का यह संकट जितना गहराता जाएगा, हम निराश होते जाएंगे। हो सकता है कि हम में से कई लोग चुप हो जाएं या फिर बेपरवाह ही हो जाएं। ऐसी सूरत में पिछली सदी के बेहतरीन अस्तित्ववादी नाटक ‘वेटिंग फॉर गोदो’ की कुछ पंक्तियां दुहराने से बेहतर मैं कुछ नहीं पाता हूं:
मैं अब और नहीं चल सकता, लेकिन मुझे चलना ही होगा। यह बेशक मामूली सी बात है, लेकिन इससे बेहतर कुछ और है क्या।