मार्क ट्वेन ने कभी कहा था – धूम्रपान की आदत छोड़ने में मैं ख़ासा माहिर हूँ; यह काम मैंने हज़ारों बार किया है।सन्धान की यह केवल तीसरी शुरुआत है। वह भी काग़ज़ पर छप कर नहीं। अभी केवल वेब–पेज़ के रूप में। अतः यह दावा तो नहीं किया जा सकता कि हमलोग शुरुआत करने के विशेषज्ञ हो गए। बल्कि ये मनायें कि इस मामले में ट्वेन सरीखी महारत न हासिल हो। इरादा नयी शुरुआत का और हौसले दूर तक चलने के हों तो फिर से शुरू करने में कोई बुराई नहीं है।
हज़ारों साल पहले एक्लेसियास्टीज़ की किताब में कहा गया था – जो हो चुका है, वही फिर होगा। जो किया जा चुका है, वही फिर किया जायेगा। सूरज के तले कुछ भी नया नहीं है। लेकिन दूसरी तरफ़ हेराक्लिटस का कहना था – तुम एक ही नदी में दो बार पाँव नहीं रख सकते। पानी हर पल बदल चुका होता है। अगला पाँव नयी नदी में पड़ेगा।बुद्धिमानी शायद इसमें हो कि एक जेब में एक्लेसियास्टीज़ और दूसरी में हेराक्लिटस को रख कर चला जाय। एक कुछ बिल्कुल नया कर गुज़रने के घमण्ड को क़ाबू में रक्खेगा तो दूसरा नये का सामना करने की हिम्मत देगा। जो हो चुका है वही फिर होगा तो भी कुछ नया होगा। और, उम्मीद है, जो कहा जा चुका है वही फिर से कहा जाय तो भी कुछ नया कहा जायेगा और अर्थ कुछ नये निकलेंगें। समय की उसी नदी में आप दो बार पाँव नहीं रख सकते।
और, इस नदी में त्वरण है। समय के बदलने की रफ़्तार बदल चुकी है। पिछली एक सदी में जितना कुछ हुआ है, उतना पहले के हज़ार सालों में नहीं हुआ था। इन्सानी इतिहास का प्रवाह समय के उबड़–खाबड़ भूगोल से गुज़रा है। थोड़ी देर का समतल थके विजेताओं को उस असीम–अनन्त चरागाह की तरह दिखने लगता है जिसकी खोज में वे पाँच सौ या पाँच हज़ार साल पहले निकले थे। इतिहास के अन्त की घोषणाएँ होती हैं। लेकिन घोषणाओं की समाप्ति के पहले ही समय का समतल समाप्त होने लगता है। आगे कुछ के लिये ख़तरनाक ढलान है तो दूसरों के लिये कठिन चढ़ाई है।
एक समतल हमारा भी है। कुछ भिन्न अर्थों में और कुछ दूसरी तरह का। इसे भारतीय उपमहाद्वीप कह सकते हैं या सभ्यता–संस्कृति का वह मैदानी इलाका जो सिन्धु–घाटी के अतीत से आज के वर्तमान तक फैला है। इसके अन्तर्गत हिन्दी पट्टी का और भी सपाट मैदान है जहाँ बिरले ही कुछ बड़ा घटित होता है। और जब घटित होता है तो संस्कृति के दिक्–काल में प्रकाश–वर्षों की दूरी तक दिखलायी पड़ता है। मध्य–युग के भक्त–कवि इस समतल के उत्तुंग शिखर हैं। बीसवीं सदी की शुरुआत के कवि–कहानीकार और इक्कीसवीं सदी के टेली–धर्मोपदेशक आस–पास की, कम या ज्यादा, गर्वोन्नत पहाड़ियाँ हैं। हिन्दी संस्कृति की सपाटता पिछली शुरुआतों के समय भी हमारी (सन्धान की) फ़िक्रमन्दी का सबब थी और इसी सपाटता का भू–विज्ञान आज भी हमारे सोच–विचार का विषय है।
सपाटता का आरोप अतिरेक लगे या इससे सांस्कृतिक भावनाओं को ठेस पहुँचे तो यह सफ़ाई दी जा सकती है कि हम सब इन्हीं मैदानों के जीव हैं। यह किसी बाहरी का हमला नहीं, अन्दर के लोगों की चिन्ता है। धन और साम्राज्य के लिये तो बाहर से हमले हुए हैं, लेकिन हमारे सभ्यतात्मक–सांस्कृतिक ऐश्वर्य ने शायद ही किसी आक्रमण या अनुकरण को न्यौता दिया हो। हम कहा करते हैं – कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। लेकिन शत्रु श्रीकान्त वर्मा के “कोसल” की तरह युद्ध किये बिना ही लौट जाते हैं। हम सोचते हैं यह हमारी अक्षौहिणी सेनाओं का भय है। कविता में दूत उलझन में है। कहता है –
जो भी हो
जय यह आपकी है।
बधाई हो।
राजसूय पूरा हुआ
आप चक्रवर्त्ती हुए –
वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गए हैं
जैसे कि यह –
कोसल अधिक दिन टिक नहीं सकता
कोसल में विचारों की कमी है।
– श्रीकान्त वर्मा
प्रश्न हमारे लिए भी छूटे हैं। हिन्दी सभ्यता–संस्कृति के बारे में ढेरों प्रश्न अनुत्तरित हैं। ज्ञान–विज्ञान में, सिद्धान्त और विचार में, मानविकी और कलाओं में हमारा क्या योगदान है। इन्सानी तहज़ीब के इतिहास और भूगोल में हमारी अपनी जगह कितनी है। आदिकाल और मध्य–युग के महाकाव्यों के बल पर और हिन्दी–प्रदेश में आधुनिकता के प्रवेश के समय के कुछ साहित्य के सहारे हम एक विशिष्ट और सुव्यक्त संस्कृति होने के दावे कब तक कर सकेंगें। और साहित्य के क्षेत्र में भी आसार अच्छे नहीं हैं। पचास–साठ करोड़ के हिंदी प्रदेश में साहित्यिक कृतियों के पाँच सौ प्रतियों के संस्करण भी बिक नहीं पाते। बाज़ार पर, फूहड़ता पर, पूँजीवाद और वैश्वीकरण पर दोष मढ़कर सन्तोष नहीं किया जा सकता। संस्कृतियों के भूमण्डल में हमारे अपने द्वीप के सिकुड़ते जाने का ख़तरा है। कारण – हिन्दी प्रदेश में विचारों की कमी है।
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सभ्यताओं के अनेक रूप हैं और उनकी चिरजीविता के अनेक स्रोत। प्रत्येक संस्कृति को अपने आप में सम्पूर्ण जीवन–रूप मानने के इस तथा–कथित उत्तर–आधुनिक समय में सभ्यताओं की तुलना निषिद्ध है। इतिहास और भूगोल में निबद्ध उनके शरीरस्थ रूपों में अन्तर्निहित किसी ऐसे सत्व का सन्धान जो आसव–रूप में गहरे प्रवाहित हो और प्रकट रूपों का अतिक्रमण करता हो, बहुसांस्कृतिकता के आधुनिकोत्तर वैयाकरणों द्वारा अवैध घोषित किया जा चुका है।
विडम्बना यह है कि स्वयं जीवन की भाषा व्याकरण के निषेधों का निषेध करती रहती है। वास्तविक इतिहास में और प्रत्यक्ष जीवन में संस्कृतियों की तुलना उनकी वैश्विक प्रतियोगिता के रूप में चलती रहती है। जिन संस्कृतियों में सपाटता का क्षैतिज बल किसी भी उभार को उठने नहीं देता उनके दिक्–काल में अन्य संस्कृतियों के दूरस्थ शिखर ही दृश्यमान होते हैं। ऐसी सभ्यताओं में पहले के समय में अनुकरण और अनुवाद से काम चलता था। अब वहाँ सपाटता की सैद्धान्तिक व्याख्या है और उसका दार्शनिक पिष्ट–पोषण है। क्षैतिजता के महिमा–मण्डन के इस लोक–लुभावन प्रसंग में क्लासिकीय–रूढ़िवादी वाम–पन्थ और नव–क्लासिकीय–नव–रूढ़िवादी दक्षिण–पन्थ दोनों ही अपने अपने ढंग से शामिल हैं।
बाँयीं तरफ़ सिद्धान्त और विज्ञान के शुरुआती कदमों को इतिहास और सभ्यता के अन्तिम सत्य में ढाल देने का रूढ़िवादी आलस्य है। उन्नीसवीं सदी के सैद्धान्तिक यथार्थ–भेदन और बीसवीं सदी की समय–सापेक्ष उपलब्धियों को काल–निरपेक्ष सत्य के उद्घाटन का और सभ्यता के चरमोत्कर्ष का दर्ज़ा देने का कूढ़मग़्ज़ उपक्रम है। सैद्धान्तिक यथार्थ–भेदन को पैना करने और आगे बढ़ाने, अपने समय की प्रकृति पहचानने और भविष्य की उपलब्धियों की नींव रखने की बजाय बीते इतिहास के शिला–लेख लिखने और अपने समय को किसी तरह काट लेने का कामकाजू इरादा है। यह ऐसा वाम–पन्थ है जो दो पैरों पर लँगड़ाता है। सिद्धान्त वाले पैर में रूढ़ि–ग्रस्तता का रोग लगा है और व्यवहार वाले पैर में पापुलिज़्म का।
दाँयीं तरफ़ सत्य के उद्घाटन और इतिहास के गतिशास्त्र के पचड़ों में पड़ने की ज़रूरत और भी कम है। वहाँ इतिहास के अन्त की घोषणाएँ अभी भी हवा में गूँज रहीं हैं। शत्रु अन्तिम रूप से पराजित हो चुका है। ज़रूरत पड़ने पर उसके प्रेत का भय दिखाकर और उसके बिजूखे को दो–चार लगाकर रास्ते की अड़चनों से पार पाया जा सकता है। सभ्यता और संस्कृति के वे समतल मैदान जहाँ सृजन और जिजीविषा की कुछ बौनी फसलें ही बोयी जा सकें, पूँजी के साम्राज्य के चतुर्दिक विस्तार के लिये मुफ़ीद इलाके हैं।
सिद्धान्त, विचार और संस्कृति के विमर्श में बाँयें और दाँयें के बीच एक ऐसा इलाका भी है जो वैचारिक धुँधलके में लिपटा रहता है। उसके बारे में तय करना मुश्किल होता है कि वह बाँयें में आता है या दाँयें में। सम्भवतः दोनों के बीच बाँधा गया सिद्धान्तों और विमर्शों का वह एक ऐसा अकादमिक पुल है जिसपर सारा यातायात बाँयें से दाहिने की ओर प्रवाहित है। वाम इसका प्रस्थान–बिन्दु है और दक्षिण इसका गन्तव्य।
इस इलाके में विचार–पद्धति के अनूठे करिश्मे हैं। मसलन ज्ञान–विज्ञान के कुछ सुविधाजनक प्रखण्ड चुनकर उनके उद्गम–स्थलों की पुरालेखीय–पुस्तकालयी खुदायी की जाती है और यह दिखाया जाता है कि किस प्रकार अब के समय में विज्ञान के रूप में स्थापित ये विषय अपने जन्म के समय पूर्वाग्रह, अन्ध–विश्वास, धर्म और सत्ता में लिथड़े हुए थे। फिर निष्कर्ष यह निकाला जाता है कि विज्ञान और धर्म–परम्परा–लोकसंस्कृति के बीच का विभाजन सत्तासीन शक्तियों की आधुनिकतावादी परियोजना की विचारधारात्मक रणनीति है। अन्यथा ज्ञान–विज्ञान, धर्म, परम्परा, मान्यताएँ और अन्ध–विश्वास – ये सभी सामान जाति के प्राणी हैं। सबके अपने अपने सत्य हैं। विज्ञान का विशेष दर्ज़ा इस प्रकार सन्देह के घेरे में लाया जाता है। तर्कबुद्धि की आन्तरिक तर्कसंगति असम्भव बतायी जाती है। ज्ञान को सत्ता का उपकरण मात्र सिद्ध करने के साथ–साथ इस विचार–पद्धति में सत्ता की विराट संरचनाओं – जैसे कि राज्य, वर्ग– संरचना, पूँजी – से ध्यान हटाकर ताकत के उस “माइक्रो–फिज़िक्स” पर केन्द्रित किया जाता है जिसके मुताबिक ताकत सभी सामाजिक सम्बन्धों में तरल पदार्थवत समान रूप से प्रवाहित है।
इसी विचार–पद्धति की एक समानान्तर बहती धारा में भाषा की संरचना में जगत की संरचना को पूर्णरूपेण स्थित बताया जाता है। कर्त्ता यहाँ भाषा के खेल का खिलाड़ी है, जो भाषा की संरचना का ही उत्पाद या अवयव है। जगत को भाषा–संरचना का तुल्य–रूप सिद्ध कर देने के बाद यहाँ उस संरचना की बखिया किनारे से उधेड़ने की उत्तर–संरचनावादी परियोजना भी है। इस कारण यहाँ संरचना की क्षैतिजता में हाशिये की केन्द्रीयता है।
विचार के इस धुँधलके में इतिहास में न कोई अर्थ है, न उसकी गति के पीछे कोई कार्य–कारण सम्बन्ध। संस्कृति में मूल्यों की किसी व्यवस्था का निवास नहीं है। इन्सानियत का कोई लक्ष्य या उद्देश्य नहीं है। मुक्ति एक आख्यान है। और, यह महाख्यानों पर अविश्वास का उत्तर–आधुनिक युग है।
यह सब खेल विश्वविद्यालयों और अकादमिक संस्थानों तक सीमित रहता तो अधिक चिन्ता की बात नहीं होती। मगर वैचारिक धाराओं का प्रभाव सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक जीवन पर पड़ता है। हिन्दी के वैचारिक–सांस्कृतिक जगत में इस प्रभाव के ख़तरे और भी गम्भीर हैं। वैचारिक और सांस्कृतिक नक़ल हमेशा नुकसानदेह होती है, मगर ग़लत और उलझे हुए विचारों की फैशन–परस्ती में नक़ल – वह भी उन लोगों के द्वारा जिनका अपना कोई वैचारिक योगदान न हो और जिनसे विचारों का निर्वाह न हो पाये – दुहरा नुकसान पहुँचाती है। न तो वह सही विचारों का आयात होने देती है न ही उनके उत्पादन की आन्तरिक प्रक्रिया को बल देती है।
उत्तर–आधुनिक, उत्तर–संरचनावादी विचार–पद्धति के द्वारा आधुनिकता की सारी आलोचना और महीन स्क्रूटिनी के बाद भी मोटा प्रश्न छूटा रहता है – आधुनिकता की लगभग अबाध यात्रा और उसकी कमोबेश निर्विवाद सफलता के पीछे क्या कारण हैं। जैसे सिद्धान्त के कमरे में यथार्थ का हाथी बैठा हो और उसपर किसी की नज़र ही न पड़े। उसी तरह की स्थिति उत्तर–उपनिवेशवादी सिद्धान्तकारों की भी है। उपनिवेश–काल इनके लिये मानव–इतिहास का सबसे गहरा प्रसंग है जिसकी छाप उत्तर–औपनिवेशिक देशों से कभी मिटाये न मिटेगी। इन समाजों की सारी प्रक्रियाएँ उपनिवेश–काल के दौरान हमेशा के लिये विकृत और प्रदूषित की जा चुकी हैं। ऐसे सिद्धान्तकारों के कमरों में भी तीसरी दुनिया के मौजूदा यथार्थ का हाथी बैठा है जो उनके सिद्धान्तों की पकड़ से बाहर है।
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हिन्दी के लिये चिन्ता की बात होनी चाहिये कि यहाँ विचार के नाम पर एक तरफ़ मार्क्सवाद का रूढ़िवादी कैरीकेचर है तो दूसरी तरफ़ उत्तर–उपनिवेशवादी विमर्श की फ़ैशन–परस्त नक़ल है। मात्र प्रतिबद्धता और सरोकार के भोथरे प्रतिमानों के आधार पर न तो युगीन साहित्य की रचना या परख की जा सकती है, न उन्नत संस्कृति के बीज बोये जा सकते हैं। पश्चिम के “प्राच्यवाद” की फूकोल्डियन और उत्तर–संरचनावादी आलोचनाओं के आधार पर जिन उत्तर– उपनिवेशवादी अकादमिकों ने हार्वर्ड, प्रिन्सटन, कोलम्बिया या कैम्ब्रिज में कुर्सियाँ हासिल की हैं उनके आचार्यत्व के अधीन हिन्दी समाज और संस्कृति के वैचारिक प्रतिमान नहीं गढ़े जा सकते।
इस विचार–पद्धति की यदि यथार्थ से चलते–फिरते मुठभेड़ होती भी है तो उससे प्रायः इच्छित निष्कर्ष ही निकाले जाते हैं। सामाजिक आन्दोलनों और सब–आल्टर्न तबकों पर उत्तर–औपनिवेशिक सैद्धान्तिकी का जोर इसका एक प्रमाण है। इन आन्दोलनों की स्वाभाविक बहुविधता एवं बहु–उद्देश्यता को तथा इन तबकों की हितों–आकांक्षाओं और आचार– व्यवहार की अनेक–रूपता को एक ऐसे दर्शन के रथ में नाध लिया जाता है जहाँ अनेकता, बहुलता, शरीरस्थता और अनुभवजन्यता ही जागतिक यथार्थ के सबसे बुनियादी तत्त्व माने जाते हैं।
हाशिये पर धकेल दिये गये लोगों की लड़ाइयाँ वाज़िब और ज़रूरी हैं। लेकिन उनकी सफलता के लिये भी सामाजिक समग्र की सैद्धान्तिक समझ अनिवार्य है। और, यह समझ एक प्रकार की अतिरेकी प्रस्थापनाओं के बरक्स दूसरे प्रकार की अतिरेकी प्रस्थापनाओं के सहारे नहीं प्राप्त की जा सकती। समाज की सभी संरचनाओं को केवल वर्ग–संरचना में ढाल देना अतिसरलीकरण ही नहीं, एक गम्भीर ग़लती भी है। लेकिन इस ग़लती और रूढ़िवादिता को दुरुस्त करने का तरीक़ा यह नहीं है कि जगत के सभी प्रत्यक्ष रूपों को यथार्थ के ऐसे स्वायत्त घटकों का दर्ज़ा दे दिया जाय जो एक दूसरे से सर्वथा असम्बद्ध और एक दूसरे में सर्वथा अनपचेय (irreducible) हों।
सामाजिक समग्र की पकड़ के लिये जगत और यथार्थ को समझने के प्रकटतः स्थूल लेकिन वस्तुतः बलिष्ठ तरीक़ों पर पहले महारत हासिल करनी होगी। सिद्धान्तों की महीन क़सीदाकारी ऐसी शुरुआत की सही जगह नहीं है। विचार की यात्रा डगमग क़दमों से ही सही, लेकिन स्वयं करनी होगी। पहिये का पुनराविष्कार तो बुद्धिमानी नहीं है। सीखना सभी से होता है। लेकिन नये पुराने सभी पथों पर यात्राएँ अपने पैरों और अपने उद्यम से करनी होती है।
अपने पैरों से यात्रा का अर्थ यह नहीं कि प्रत्येक संस्कृति का अपना स्वायत्त ज्ञान–काण्ड होगा। उसके अपने आन्तरिक प्रतिमान होंगें और उनपर आधारित अपनी स्वयंसिद्ध महानता होगी। उदाहरण के लिये, हिन्दी का अभी तक का ज्ञान–काण्ड मुख्यतः साहित्याचार्यों के चिन्तन–मनन–प्रवचन का प्रतिफल रहा है। इन आचार्यों ने सुविधानुसार बहुत कुछ बाहर से लिया है और बहुत कुछ ख़ुद भी गढ़ा है। इसमें कोई दोष नहीं। लेकिन दोष पूरी वैचारिक–सैद्धान्तिक संरचना के बन या न बन पाने में है। ऐसी संरचना उभारने के प्रयास या तो अनुपस्थित हैं या बाहर से उनका ऐसा आयात है जिसके उपरान्त बदल–तराश कर उन्हें अपनी ज़रूरत के मुताबिक बना लेने के कौशल का अभाव है। विडम्बना ये है कि इन आचार्यों के ज्ञान–पराक्रम से अभिभूत हिन्दी के कुछ उत्साही जन उनमें से कुछ को दुनिया के सबसे बड़े इतिहासकारों से बड़ा इतिहासकार, भाषाविज्ञानियों से बड़ा भाषाविज्ञानी, सिद्धांतकारों से बड़ा सिद्धान्तकार और मार्क्स के पाये का युग–द्रष्टा बताते हैं। अपनी विभूतियों पर ऐसा गर्व हिन्दी के लिये हानिकारक हो सकता है।
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इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक, सम्भव है, भारत शर्मिन्दगी की कुछ और सीढ़ियाँ उतर चुका हो। जिस शर्म से गुजरात का सिर झुकना चाहिए था, पाँच साल पहले उसे दिल्ली की पगड़ी पहना कर राष्ट्रीय गौरव का दर्ज़ा दिया जा चुका है। जैसे लोगों पर सभ्य और उन्नत देशों में मानवता के विरुद्ध अपराध के मुकदमे चलाये जाते हैं वैसे लोग सत्ता के शीर्ष पर स्थापित हैं। अब अंदेशा ये है कि कहीं इनकी अगली जीत लोकतन्त्र के इस भारतीय संस्करण का अन्तिम अध्याय न सिद्ध हो। अगर ऐसा हुआ तो हिन्दी विद्वत्–जनों की छोटी–बड़ी टुकड़ियां राष्ट्रीय विद्वत्–जनों की बड़ी फ़ौज के साथ उस पथ पर सभ्यता–संस्कृति–साहित्य के झाडू लगा रहीं होंगीं जिस पथ से गये होंगें महाजन,
यह है उनकी अशर्फ़ी
ये हैं ख़ून के दाग़
ये रहे चिड़िया के डैने
यह है उनका निशान
महाजन जिस पथ से जाते हैं
अपने निशान छोड़ जाते हैं।
– उदय प्रकाश
लेकिन विद्वत्–जनों की एक दूसरी टुकड़ी ऐसी भी होगी जो हर बार की तरह इस बार भी इन महाजनों की लोकप्रियता से आँख चुरा रही होगी। बेशक, ऐसे बुद्धिजीवी और प्रगतिशील जन महाजनी करतूतों का पर्दाफ़ाश साहस के साथ करते रहेंगें। शुबहा इस बात को लेकर है कि वे “लोक” को अपने विश्लेषण के दायरे में लाने का साहस जुटा पायेंगें या नहीं। महाजनों के करतूत महाजनों की प्रकृति के अनुरूप हैं। लेकिन उनकी लोकप्रियता के स्रोत कहाँ पर स्थित हैं?
हो सकता है, ऐसा न भी हो। “स्वतन्त्र” मीडिआ के पराक्रमी पत्रकारों द्वारा इन महाजनों के विजय की पूर्व–घोषणाओं के बावजूद, सम्भव है, जीत न हो पाये। ऐसी दशा में लोक के विवेक का महिमा–मण्डन कुछ आसान तो हो जायेगा। लेकिन प्रश्न फिर भी मौजूद रहेंगें। अपनी करतूतों के बावजूद महाजन लोकप्रिय क्यों हैं?
गणतन्त्र, लोकतन्त्र, पूर्व–आधुनिक खाप पंचायतों और दिल्ली के उत्तर–आधुनिक जनपदों के इस आधुनिक क्षण में, जहाँ पूर्व–आधुनिकता सीधे उत्तर–आधुनिकता में प्रवेश कर रही है, लोक और समुदाय प्रत्येक सत्य और प्रत्येह मूल्य की अन्तिम कसौटी हैं। लोकतन्त्र के राजनैतिक विमर्श और व्यवहार में लोक को वही दर्ज़ा प्राप्त है जो धर्म में ईश्वर को। लोक इतिहास का निर्माता और शासकों का नियन्ता है। अन्तिम कसौटी को तब किस कसौटी पर कसा जाये? बर्तोल्त ब्रेख़्त ने हुक्मरानों पर तंज़ किया था कि उन्हें अपने लिये नयी जनता चुन लेनी चाहिये। यह तंज़ अपने ऊपर वापस लौटे – यह तो अच्छी बात नहीं होगी। क्या इन्क़लाबियों को इन्क़लाब से पहले नयी संस्कृति के बीज बोने पड़ेंगें और लोक की नयी फ़सल उगानी पड़ेगी?
हिटलर और नात्सी प्रकरण का उदहारण घिस चुका है, लेकिन उसकी शैक्षणिक सम्भावनायें रिक्त नहीं हुईं हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि हिटलर चुनकर नहीं आया था और उसे लोक–स्वीकार्यता हासिल नहीं थी। नात्सी कुकृत्यों में तत्कालीन जर्मनी का लोक भागीदार था। इतिहास और समाज में लोक की सदैव सहृदय और अनिवार्यतः प्रगतिशील भूमिका के बारे में आश्वस्त रहने के समुचित आधार उपलब्ध नहीं हैं।
लोकचेतना युगचेतना से सम्बद्ध होती है लेकिन उनके बीच अनिवार्यतः एक अन्तराल भी होता है। इतिहास के गतिशास्त्र के जटिल एवं बहु–कारणिक होने के पीछे एक महती भूमिका इस अन्तराल की भी है। सामाजिक ब्रह्माण्ड में वस्तुजगत, मनोजगत और अन्तरवैयक्तिक–साम्बन्धिक जगत अन्तर्गुम्फित होते हैं। सामाजिक संरचनाओं की परस्पर उलझती परतों की समझ इतिहास–निर्माण के व्यावहारिक उपक्रमों के लिये भी ज़रूरी है। ऐसी समझ युगचेतना का हिस्सा पहले बनती है, लोकचेतना का बाद में। युगचेतना का हिस्सा भी वह अंशतः व्यक्त और अंशतः अव्यक्त रूप में बनती है। क्रान्तियों में और अन्य युगान्तरकारी प्रसंगों में युगचेतना से लैस विचारों की और उनके वाहकों की अग्रगामी भूमिका इन्हीं कारणों से बनती है। ऐसी समझ के अभाव में तथा युगचेतना और लोकचेतना के बीच के अन्तराल के कारण असभ्यताओं और दुर्घटनाओं का इतिहास अक्सर दुहराया जाता है।
भारतीय राजनीति की मुख्य धारा में राष्ट्रवाद और पापुलिज़्म का ख़तरनाक मिश्रण मौजूद है। अलग–अलग रूपों में और अलग–अलग तरीक़े से दक्षिण–पंथ और वाम–पंथ – दोनों ही इससे ग्रस्त हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने जो गुल खिलाये हैं वे सभी के सामने हैं। दक्षिण–पंथ हमारे विचार का मसला नहीं है, या है तो एक वस्तुगत परिघटना की तरह है जिससे निपटना हमारा कर्त्तव्य है और हमारे लिये चुनौती है। हमारी चिन्ता और हमारे सरोकार वाम–पंथ की मौजूदा दशा को लेकर हैं। वैचारिक रूढ़ि के साथ–साथ व्यवहारगत पापुलिज़्म की जड़ों तक पहुँचना और उनसे निजात पाने के उपाय तलाशना आज की सख़्त ज़रूरत है।
महाजनों की लोकप्रियता से निपटने के राजनैतिक उपाय तो रोज़ाना करने होंगें। लेकिन दैनन्दिन संघर्ष से परे इस लोकप्रियता की जड़ें लोक में और संस्कृति में ढूँढनी होंगीं। ये कशमकश विचार और व्यवहार – दोनों ही क्षेत्रों में चलेगी। इतिहास के गतिशास्त्र की तथा समय, समाज और संस्कृति के बनावट की बलिष्ठ व्यावहारिक समझ हासिल करनी पड़ेगी।
कहने की ज़रूरत नहीं कि यह लम्बा–चौड़ा विषय है। विचारों का पूरा ब्रह्माण्ड इससे बनता है। यह न तो एक लेख में समेटा जा सकता है, न एक पुस्तक में, न एक पुस्तकालय में। उम्मीद है कि सन्धान निरन्तर किसी न किसी रूप में इस विषय से जूझेगा। टिप्पणियों का यह गुच्छा पेश करने के पीछे मन्तव्य यह है कि सन्धान की वैचारिक जद्दोजहद फिर से शुरू हो।
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गहराई की कगार ख़तरे की लकीर भी होती है। गहरे उतरने की क़ाबिलियत न हो तो कगार पर खेलना समझदारी का सबूत नहीं होता। समय, समाज और मनुष्य की नियति (मनुष्य से मेरा तात्पर्य स्त्री, पुरुष तथा अन्य सभी इन्सानों से है) ऐसे विषय हैं जिनकी गहराई का पूरा अनुमान पेशेवर विशेषज्ञों और बहुज्ञानी दार्शनिकों तक को नहीं है। लिहाज़ा, इन टिप्पणियों को दर्ज़ करने से पहले यह चेतावनी ख़ुद के लिये ज़रूरी है। क़ाबिलियत न होने के बावजूद इन विषयों में उतरना तो पड़ेगा ही। फ़र्क ये है कि ज्ञानीजन इनमें अपने सुव्यवस्थित ढंग से उतरते हैं और हमें व्यावहारिक और सहजबुद्धि के तरीक़े अपनाने होंगें।
मनुष्य का समय ब्रह्माण्डिक समय नहीं है। वो ऐतिहासिक समय है। इतिहास की गति ही मनुष्य के समय की प्रकृति निर्धारित करती है। समाज और संस्कृति की संरचनाएँ और उनके बदलाव के क्रम ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही देखे–समझे जा सकते हैं। अतः इतिहास के प्रवाह–शास्त्र के बारे में कुछ बुनियादी बातों को याद कर लेना ज़रूरी है।
नदी के प्रवाह में बहने वाली मछलियों के लिये नदी की धारा को मोड़ पाना असम्भव है। इतिहास के प्रवाह में बहने वाले मनुष्यों के लिये इतिहास की धारा को मोड़ पाना मुश्किल तो बहुत है, पर असम्भव नहीं है। मछलियाँ नदी नहीं बनातीं। मनुष्य इतिहास बनाते हैं। लेकिन अपने ही बनाये इतिहास के सामने वे बेबस भी हैं। निर्माता होने के साथ– साथ वे इतिहास का उत्पाद भी हैं। जैसे अपनी बनावट से बाहर निकल पाना मुश्किल है, वैसे ही इतिहास के प्रवाह से बाहर निकलने का कोई उपाय नहीं है। धारा के बाहर से धारा की अभियान्त्रिकी सम्भव नहीं दीखती।
इतिहास के प्रवाह–शास्त्र को समझने में सबसे बड़ी दिक़्क़त यहीं से पेश आती है। जो स्वयं प्रवाहित है वह प्रवाह के शास्त्र को कैसे समझे? धारा में बहते हुए धारा को मोड़ने के उपाय कैसे करे? ज्ञानीजनों के कुछ ऐसे सम्प्रदाय भी हैं जो इस समस्या के सामने घुटने टेक देते हैं। समस्या को ही काल्पनिक या तर्कजनित बताकर उसका समाधान प्रस्तुत करते हैं। उनके मुताबिक मनुष्य का ज्ञान उसकी आन्तरिक बनावट का हिस्सा है। अनुभूति और संस्कृति का ऐसा अन्तर्मुखी उत्पाद है जिसका कोई बाह्य नहीं है। अनुभव–जन्य ज्ञान बाह्य कसौटी पर कसा नहीं जा सकता और संस्कृति–जन्य ज्ञान संस्कृति–सापेक्ष सत्यों का ही उद्घाटन कर सकता है। अतः वस्तुजगत का वस्तुगत ज्ञान असम्भव है।
इसी के समानान्तर मनुष्य की कर्त्ता–शक्ति को भी असम्भव बताया जाता है। संस्कृति की संरचना में और इतिहास के प्रवाह में उसका विलयन कर दिया जाता है। कर्त्ता–शक्ति एक भ्रान्ति है जो मनुष्य के अस्तित्व की शर्तों से अनिवार्यतः उत्पन्न होती है। अस्तित्व स्वयम्भू है और वही सर्वस्व है। उसमें हस्तक्षेप और नये अस्तित्व का सृजन ऐसी भ्रान्तियाँ हैं जो समग्र अस्तित्व का अंग हैं। इतिहास का कोई कर्त्ता या निर्माता नहीं है। मछलियाँ मुग़ालते में रहती हैं कि उनकी प्रजाति नदी की धारा को मोड़ सकती है।
प्रत्येक विचार और दर्शन को जगत और जीवन से रू–ब–रू होना ही पड़ता है। और जगत और जीवन का सत्य तो यही है कि इतिहास की धारा में प्रवहमान होने के बावजूद मनुष्य ने धारा में हस्तक्षेप की तरक़ीब निकाली है। समाज और संस्कृति का उत्पाद होने के बावजूद मनुष्य उनमें पूरी तरह घुल नहीं जाता। उसका एक अधिशेष बचता है जो कर्त्ता–शक्ति के रूप में प्रकट होता है और उन स्थितियों में हस्तक्षेप करता है जिनका वह स्वयं उत्पाद है।
लेकिन मनुष्यता जो करती है, प्रत्येक मनुष्य वही नहीं करता। नदी की धार में हर मछली का अपना तैरना है, अपनी मशक्कत, अपनी अठखेलियाँ, और अपने शिकार हैं। इतिहास के प्रवाह में व्यक्ति–रूप मनुष्य की स्थिति भी मिलती–जुलती है। लेकिन फ़र्क़ भी हैं। मनुष्य की चेतना और मछली की चेतना में गुणात्मक भिन्नतायें हैं। प्रकृति का उत्पाद एवं परिस्थतियों का दास होने के बावजूद प्रत्येक मनुष्य में समझ, सम्प्रेषण, अनुसन्धान, आविष्कार और हस्तक्षेप की शक्ति है। जिन परिस्थितियों का वह दास है उनमें दख़ल देने की क़ुव्वत भी उसके पास है। मनुष्य की चेतना उसकी कर्त्ता–शक्ति को दिशा व निश्चित रूप देती है; उसकी कर्त्ता–शक्ति उसकी चेतना के विस्तार के लिये ज़मीन मुहैय्या कराती है।
एकल और समग्र के बीच शुद्ध योगफल का सम्बन्ध केवल अंकगणित में सम्भव है। व्यक्ति की चेतना और कर्त्तृत्व का मनुष्यता की चेतना और कर्त्तृत्व के साथ सरल योग या सम–विभाजन के रिश्ते नहीं हैं। यूँ तो प्रत्येक व्यक्ति की आय प्रति–व्यक्ति–सकल–राष्ट्रीय–आय के बराबर नहीं होती, लेकिन, कम से कम, इस पद को परिभाषित किया जा सकता है। सकल–राष्ट्रीय–आय में जनसंख्या से भाग देकर इसकी गणना की जा सकती है। प्रति–व्यक्ति–सकल–राष्ट्रीय–चेतना जैसा कोई पद तो परिभाषित भी नहीं किया जा सकता। प्रति–व्यक्ति–सर्वहारा–चेतना उस मजदूर में निवास नहीं करती जो सरकारी दफ़्तर के गेट पर या यूनियन ऑफिस के आँगन में हनुमान की मूर्त्ति स्थापित करता है। या खाप पंचायतों में बैठकर अन्तर्जातीय विवाह करने वालों को सज़ा सुनाता है।
मनुष्यता की समग्र कर्त्ता–शक्ति का मनुष्यों में बराबर बँटवारा यदि सम्भव भी होता और उसके ऐतिहासिक कार्यभार के टुकड़े इकाई मनुष्यों को सौंप दिये जाते, तो भी वास्तविक मनुष्य ज़्यादातर ऐसे ही कार्यों में लगा रहता जो उसकी इतिहास–निर्धारित “सेवा–शर्तों” के बाहर हैं। हाड़–माँस का मनुष्य सचेतन तौर पर इतिहास की चाकरी नहीं करता। या यूँ कहें कि ऐसा करने वाले या ऐसा करने का दावा करने वाले गिने–चुने ही होते हैं। इतिहास के प्रवाह–शास्त्र की गुत्थियाँ अनेक हैं। लेकिन उनमें भी यह गुत्थी ख़ासी दिलचस्प और उलझी हुई है। इतिहास से उदासीन मनुष्य उसकी चाकरी से इन्कार करता है। जीने की रोज़ाना जद्दोजहद में ज़िन्दगी बिताता है। खटता है, खेलता है, शिकार करता और शिकार होता है। लेकिन, इतिहास फिर भी उससे अपना काम करवा लेता है। उसके जाने बग़ैर उससे अपना मक़सद साध लेता है।
इतिहास के ऐसे मूर्त्तिकरण (reification) पर ऐतराज़ किया जा सकता है जिसमें उसे चालबाज़ियों, योजनाओं, मन्तव्यों और गन्तव्यों से लैस किसी प्राणी की तरह पेश किया जाय। दार्शनिक प्रणाली–शास्त्र की ऐसी किसी बहस में पड़ने की बजाय हमारे लिये रूपकों के इस्तेमाल के समय कुछ एहतियात बरतना काफ़ी रहेगा। हमारा ज़ोर सिर्फ़ इस बात पर है कि समय की बनावट और इतिहास का प्रवाह सोचने–समझने के ज़रूरी विषय हैं। रूपकों के सहारे अवास्तविक को वास्तविक और अनुपस्थित को उपस्थित तो न दिखाया जाय, लेकिन इसका उल्टा करने की दार्शनिक कसरत भी न हो। ऐसे सिद्धान्तों की कमी नहीं है जो इतिहास में प्रवाह नहीं देखते, प्रवाह की कोई दिशा नहीं देखते, बल और गति का, कार्य और कारण का कोई सम्बन्ध नहीं देखते। जब धारा ही नहीं तो धारा को मोड़ने की चुनौती कैसी? वे मनुष्य की कोई नियति नहीं मानते, मानव–जाति का कोई गन्तव्य नहीं स्वीकारते। गुत्थी सुलझाने का यह ऐसा तरीक़ा है जिसमें गुत्थी का अस्तित्व ही नकार दिया जाता है। मूर्त्तियों के सहारे अनुपस्थित को उपस्थित दिखाना निश्चय ही ठीक नहीं है। लेकिन विमर्शों की जादूगरी में उपस्थित को अनुपस्थित कर देना भी वाजिब नहीं है।
6
सनद रहे कि इतिहास का कोई नया प्रवाह–शास्त्र यहाँ प्रस्तावित नहीं है। यहाँ वही कहा जायेगा जो पिछले डेढ़ सौ सालों से कहा जाता रहा है। तरह–तरह से कहा जाता रहा है। बेशक, मायने कुछ अलग निकल सकते हैं। दुनिया बदल जाय तो पुरानी बातों में नये अर्थ पैदा होने लगते हैं। मुमकिन है कुछ अर्थ ऐसे भी निकाले जाँय जो लिखते वक़्त सोचे भी न गए हों। कहे जाने के बाद हर बात कहने वाले से स्वतन्त्र हो जाती है।
फ़ायरबाख़ पर मार्क्स की ग्यारहवीं थीसिस जगत्प्रसिद्ध है। फ़लसफ़ों में दुनिया को तरह–तरह से समझा गया है, मगर असल मुद्दा तो उसे बदलने का है। कह देने के बाद यह जुमला भी मार्क्स से स्वतन्त्र हो गया। इसके ऐसे इस्तेमाल होने लगे जिसके बारे में मार्क्स ने सपने में भी न सोचा होगा। वजह कि डेढ़ सौ साल बाद कैसे–कैसे इन्क़लाबी पैदा होंगें और दुनिया बदलने को लेकर कैसी–कैसी बहसें होंगीं – यह सब उनके सपने में भी नहीं आया होगा। इतिहास के प्रवाह का सबसे दुरुस्त और सबसे कामयाब शास्त्र लिखने वाले शख़्स के लिये भी इतिहास की सटीक भविष्यवाणी सम्भव नहीं थी।
भविष्यवाणी इतिहास के प्रवाह–शास्त्र का मक़सद नहीं है। जिसकी भविष्यवाणी की जा सके वह और कुछ भले ही हो, मनुष्य का इतिहास नहीं हो सकता। कुछ फ़लसफ़े ऐसे भी हैं जो भविष्यवाणी को विज्ञान की शर्त मानते हैं। जो भविष्यवाणी न कर सके वह विज्ञान नहीं। मार्क्सवाद से चिढ़ने वाले दार्शनिक इस दलील के सहारे उसके विज्ञान न होने के सबूत पेश करते हैं। उसे विज्ञान समझने वालों की खिल्ली उड़ाते हैं। दूसरी तरफ़ ऐसे मार्क्सवादियों की बहुतायत है जिन्हें इस बात से ठेस पहुँचती है और वे अनाप–शनाप दलील देने लगते हैं। मसलन, क्या मार्क्सवाद ने यह भविष्यवाणी नहीं की है कि पूँजीवाद के बाद समाजवाद आयेगा? या, माओ की सुनें तो, सामन्तवाद के बाद “नया जनवाद” आएगा? कुछ तो इस भविष्यवाणी को इतना पुख़्ता समझते हैं कि अगर “नया जनवाद” नहीं आया तो इसे सामन्तवाद के जारी रहने का सबूत मानते हैं।
बहस इस बात पर नहीं है कि पूँजीवाद के युग के उपरान्त इतिहास समाजवाद के दौर में प्रवेश करेगा। या यूँ कहें कि ऐसी बहस उन्हीं हल्क़ों में है जहाँ समाजवाद के बीसवीं सदी के प्रयोगों को उसके शास्त्रीय मॉडल के रूप में पेश किया जाता है और उनके अंत को समाजवाद का का अंत बताया जाता है। यह एक अलग विषय है जो अलग चर्चा की माँग करेगा। फ़िलहाल हमारा ताल्लुक़ इस बात से है कि इतिहास का कैसा सिद्धान्त सम्भव है और वह इतिहास की कैसी भविष्यवाणी कर सकता है।
इतिहास के प्रवाह को बहुत नज़दीक से देखें – रोज़–ब–रोज़ की ज़िन्दगी के स्तर पर देखें – तो वह प्रवाह के रूप में दिखेगा ही नहीं। वह चौतरफ़ा पसरी हुई ज़िन्दगी की शक्ल में दिखेगा। लगभग स्थिर और स्थायी सामाजिक ब्रह्माण्ड के रूप में दिखेगा। चौड़े पाट वाले समवेग प्रवाह में प्रवाहित प्राणी को गति का बोध नहीं होता। या होता है तो जलप्रपात के मुहाने पर पहुँच कर होता है।
पहले ही चर्चा हो चुकी है कि सभी इतिहास में प्रवाहित हैं और बाहर निकलने का कोई उपाय नहीं है। किनारे खड़े होकर प्रवाह को नहीं देखा जा सकता। लेकिन इतिहास का सिद्धान्त फिर भी रचा जा सकता है। कारण, बीत चुका इतिहास हमारी बौद्धिक नज़रों के सामने होता है। जो दिखायी दे – सीमित अर्थों में ही दिखायी दे – उसका सिद्धान्त रचा जा सकता है। लेकिन इतिहास के बड़े काल–खण्ड और उसके प्रवाह के बड़े मोड़–घुमाव ही हमें दिखायी पड़ते हैं। जो नज़दीक से दिखायी दे वह इतिहास की गति नहीं, ज़िन्दगी का फैलाव है। अतः यह स्पष्ट है कि ऐसे प्रेक्षण के आधार पर रचा गया इतिहास–सिद्धान्त वृहद कालावधि का ही सिद्धान्त हो सकता है। सोलहवीं सदी की रोज़ाना ज़िन्दगी हमें दिखायी नहीं पड़ती। इतिहास के सिद्धान्त के लिये इतने बारीक प्रेक्षण की ज़रूरत भी नहीं है। लेकिन सोलहवीं सदी से अब तक की पाँच सदियों का बहाव मोटे तौर पर देखा जा सकता है। इतिहास के सिद्धान्त–निर्माण के लिये कच्चा माल इसी पैमाने के अवलोकन से मिलता है।
ज़ाहिर है कि इतिहास का ऐसा सिद्धान्त उसके अगले चरण की रूपरेखा प्रस्तुत कर सकता है। यह उसके अधिकार–क्षेत्र के अन्दर है। लेकिन वह आने वाले दिनों, महीनों या वर्षों में जो सब घटित होगा उसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता। प्रश्न यह है कि “कलियुग के बाद फिर सतयुग आएगा” की तर्ज़ पर की गयी भविष्यवाणियों को विज्ञान–सम्मत भविष्यवाणी का दर्ज़ा दिया जा सकता है या नहीं। उदहारण के लिये, समाजवाद की भविष्यवाणी को कैसे समझें? अगर अपेक्षा यह है कि समाजवाद कब, कहाँ और किस रूप में आयेगा – यह बताया जा सके, तो इस कसौटी पर इतिहास का सिद्धान्त खरा नहीं उतर सकता। मार्क्सवाद इस बात की भविष्यवाणी नहीं करता कि अगला इन्क़लाब कब और किस देश में आयेगा। ऐसी भविष्यवाणी किसी के लिये सम्भव नहीं है।
वस्तुजगत के ऐसे प्रखण्ड हैं जहाँ विज्ञान सटीक भविष्यवाणियाँ कर सकता है। मगर यह यथार्थ के सभी प्रखण्डों के लिये सच नहीं है। भविष्यवाणी की सामर्थ्य विज्ञान की अनिवार्य शर्त नहीं है। प्राकृतिक विज्ञान तक के कई हिस्से ऐसे हैं जहाँ भविष्यवाणी सम्भव नहीं है। जटिल–जैविक संरचनायें इसका एक उदाहरण हैं। उनकी गति और उनका विकास उनकी आन्तरिक प्रक्रियाओं पर तथा “संरचना”और “पर्यावरण” के परस्पर सम्बन्धों पर इतने नाज़ुक ढंग से मुनहसर हैं कि कार्य–कारण सम्बन्धों की एवं भविष्य के विकास–क्रम की बारीक एवं सटीक गणना असम्भव है। इसके बावजूद जटिल एवं जैविक संरचनाओं का विज्ञान है और अद्भुत रूप से सफल है। इतिहास का उदाहरण आये तो “संरचना” और “पर्यावरण” सम्बन्धी जटिलताओं के साथ–साथ मनुष्य की कर्त्ता–शक्ति और उसके हस्तक्षेप अतिरिक्त जटिलता पैदा करते हैं। यह हस्तक्षेप आन्तरिक प्रक्रियाओं को बदलता है और नयी प्रक्रियाओं को जन्म देता है। इससे “संरचना” के “पर्यावरण” की गोद में बैठने के नये विधान उभर सकते हैं। यहाँ भविष्य के विकास–क्रम की सटीक गणना और भी असम्भव है। लेकिन इससे इतिहास के प्रवाह–शास्त्र की सम्भावना ख़ारिज नहीं हो जाती।
यथार्थ के ऐसे प्रखण्डों में, जहाँ सटीक भविष्यवाणी में समर्थ यान्त्रिक विज्ञान सम्भव नहीं है, नये यथार्थ रचने की सुनिश्चित अभियान्त्रिकी भी सम्भव नहीं होती। यहाँ प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप भर किया जा सकता है। और ऐसे हस्तक्षेप के परिणामों की भी सटीक गणना नहीं की जा सकती। अतीत में इतिहास के प्रवाह को देखते हुए और वर्त्तमान की परिस्थितियों के मुताबिक ये अन्दाज़े लगाये जा सकते हैं कि किस प्रकार के हस्तक्षेप से किस प्रकार की प्रक्रियायें शुरू हो सकती हैं तथा उनके कैसे परिणाम निकल सकते हैं। चूँकि प्रक्रियायें आपस में जटिल रूप में अन्तर्गुम्फित हैं और उनसे उभरने वाली तथा उनपर आधारित सम्पूर्ण संरचना पर बाहर से पर्यावरण का भी प्रभाव पड़ता है, अतः इसमें आश्चर्य नहीं कि इतिहास–निर्माण की सटीक एवं सुनिश्चित अभियान्त्रिकी उपलब्ध नहीं है।
मानव इतिहास और समाज के सन्दर्भ में सिद्धान्त और व्यवहार के द्वन्द्व को इस पृष्ठभूमि में ही समझा जा सकता है। इस द्वन्द्व की ठीक समझ न होने से क्रान्तियों की बनावट, उनके शास्त्र और उनकी रणनीति के बारे में भी ग़लत समझदारियाँ पैदा होती हैं। मार्क्स की ग्यारहवीं थीसिस की ग़लत व्याख्याओं की जड़ में भी सिद्धान्त और व्यवहार के परस्पर सम्बन्धों की ग़लत समझदारी है।
7
जीवन गहरा है, लेकिन जीते हम सतह पर हैं। मनुष्य की रोज़ाना ज़िन्दगी इस सतह का निर्माण करती है और इसे परिभाषित करती है। सतह पर उछल–कूद बहुत है। यहाँ अनगिनत मनुष्यों के बेतरतीब हस्तक्षेप हैं। ज़िन्दगी मनुष्य से रोज़–रोज़ के स्तर पर जो कुछ करवाती है उसके कुछ नियम हैं। इन नियमों से व्यवस्थायें बनती हैं, सामाजिक संरचनायें परिभाषित होती हैं। लेकिन नियमबद्धता के बावजूद प्रत्येक मनुष्य के पास कर्त्तृत्व और हस्तक्षेप की कुछ शक्ति भी है। व्यक्ति के स्तर पर आवंटित यह कर्त्ता–शक्ति सीमित और अणु–स्तरीय है। इसके एक बड़े भाग के व्यवस्था और संरचना में नाध लिये जाने के बाद भी एक अधिशेष बचता है। इस अधिशेष कर्त्ता–शक्ति के अनगिनत अणु–रूप सतह पर हलचल मचाये रहते हैं। सतह पर कोई व्यवस्थित और नियमबद्ध लहर नहीं होती। जीवन का यह स्तर हमेशा अशान्त और विक्षुब्ध होता है। इस हलचल का प्रसार व्यापक लेकिन आकृति स्थानीय, छोटी और अस्त–व्यस्त होती है। बिरले ही यह किसी लहर का रूप लेती है। इस अशान्त और बेतरतीब सतह का कोई गतिशास्त्र प्रतिपादित कर पाना असम्भव कार्य है।
यहाँ शायद यह सफ़ाई देने की ज़रूरत हो कि ज़िन्दगी की सतह से हमारा तात्पर्य सतही ज़िन्दगी का आरोप लगाने का नहीं है। हमारा मतलब यह भी नहीं है कि आम लोग तो सतही ज़िन्दगी जीते हैं और ख़ास लोग गहराई में जीते हैं। जीते सभी सतह पर हैं। जो विशिष्टजन राजधानियों में सत्तासीन होकर व्यवस्थायें चलाते हैं, हार्वर्ड या कोलम्बिआ में जीवन के गहरे तलों का गतिशास्त्र ढूँढते हैं, या कहीं और बैठकर आध्यात्मिक गहराइयों के गोते लगाते हैं, वे सभी जीते सतह पर ही हैं। व्यक्ति का जीवन – चाहे वह आम का हो या ख़ास का – जीवन की सतह परिभाषित करता है और वहीं व्यतीत होता है।
अगर जीने से जीवन की सतह भर बनती है तो जीवन के गहरा होने से हमारा क्या तात्पर्य है? सतह के नीचे की परतें क्या हैं और कहाँ से आती हैं? इन सवालों के मुकम्मिल जवाब दे पाना तो मुश्किल है। लेकिन जीवन की गहराई को और उसके अनेक परतों वाले यथार्थ को उदाहरणों और रूपकों के सहारे समझने की कोशिश की जा सकती है।
मनुष्य के जीने से समाज बनता है। और समाज वापिस मनुष्य के जीवन की पूर्व–शर्त बन जाता है। लेकिन समाज केवल सतह नहीं है। वह केवल रोज़ाना की ज़िन्दगी से नहीं बनता। उसके अन्दर कम या ज़्यादा गहरी परतें हैं, व्यक्त या अव्यक्त संरचनायें हैं, स्थूल या सूक्ष्म नियम हैं, और कार्य–कारण सम्बन्धों के कम या अधिक स्थायित्व वाले सन्तुलन हैं। अन्तर्भूत संरचनाओं के स्तर पर देखें तो मनुष्य समाज के निमित्त के रूप में दिखायी पड़ता है। वह अव्यक्त संरचनाओं को व्यक्त रूप देता है। एक तरह से हाड़–माँस का मनुष्य उन कोशिकाओं की तरह है जिनसे समाज का शरीर बनता है। आज मेरे शरीर में जो पदार्थ कोशिकाओं के रूप में है उनका कोई भी अणु–परमाणु दो–तीन वर्षों बाद मेरे शरीर में नहीं बचेगा। उनकी जगह नयी कोशिकायें आ चुकी होंगीं। लेकिन मेरा शरीर, कुछ मामूली बदलावों के साथ, उसी रूप–गुण के साथ रहेगा जो मेरे व्यक्ति–रूप पहचान का आधार है। ऐसा इसलिये है कि शरीर के पदार्थ और उसकी कोशिकाओं के पीछे एक अमूर्त्त सी संरचना है। पदार्थ के नये अणु–परमाणु उस संरचना के पुराने अणु–परमाणुओं को विस्थापित करते रहते हैं, लेकिन संरचना वही रहती है। शरीर के गुण संरचना से तय होते हैं। समाज की भी संरचना है और मनुष्य–रूप पदार्थ उस संरचना को व्यक्त रूप देता है। इसीलिये कुछ पीढ़ियों के बाद जब आज का एक भी व्यक्ति जीवित नहीं बचेगा, कुछ बदलावों के साथ, समाज लगभग वैसा ही बना रहेगा।
प्रत्येक रूपक की सीमायें होती हैं। कोशिकाओं वाले रूपक की भी सीमायें हैं। मसलन, शरीर की कोशिकाओं के पास कर्त्ता–शक्ति नहीं है। कोशिकायें अपना मन नहीं बदलतीं और आज कुछ नया करने की नहीं सोचतीं। लेकिन समाज का कोशिका–रूप मनुष्य कर्त्ता–शक्ति से सम्पन्न है। बेशक यह कर्त्ता–शक्ति पूरी तरह स्वतन्त्र नहीं है। यह प्रकृति और समाज का संयुक्त उत्पाद है और उनके नियमों के अधीन है। लेकिन, उत्पाद होने बावजूद, वह प्रकृति और समाज दोनों में हस्तक्षेप कर सकती है। यह कर्त्ता–शक्ति प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकती, लेकिन उन्हीं नियमों के इस्तेमाल से ऐसी चीज़ें कर सकती है जो मनुष्य–रहित प्रकृति के लिये अपने–आप करना सम्भव नहीं होता। उसी तरह यह कर्त्ता–शक्ति अधिकांशतः सामाजिक संरचनाओं में नाध ली जाती है, लेकिन फिर भी उसका एक अधिशेष बचता है जो इन संरचनाओं में हस्तक्षेप करता है।
मनुष्य की कर्त्ता–शक्ति दर्शन की सबसे पुरानी पहेलियों में से है जो अब विज्ञान के लिए भी चुनौती है। जो नियमों और संरचनाओं का उत्पाद है वह उन्हीं नियमों और संरचनाओं में हस्तक्षेप कैसे कर सकता है? कर्त्ता–शक्ति मनुष्य की बनावट का एक ऐसा आविर्भूत गुण (emergent property) है जिसे उस बनावट के अवयवों में अपचयित नहीं किया जा सकता। महत्त्व की बात सम्भवतः ये है कि मनुष्य प्रकृति द्वारा रचित है और समाज द्वारा भी। उसकी बनावट का यह द्वैत उसकी कर्त्ता–शक्ति को सम्भव बनाने का प्रमुख स्रोत प्रतीत होता है। समाज द्वारा संरचित मनुष्य पूरी तरह समाज द्वारा रचित नहीं है। यहाँ एक अधिशेष भी है जिसकी जड़ प्रकृति में है और जो शरीर के उत्पाद के रूप में प्रकट होता है। यह अधिशेष सामाजिक संरचना में विलयित–संलयित नहीं होता और समाज के स्तर पर कर्त्ता–शक्ति के रूप में प्रकट होता है। दूसरी तरफ़ मनुष्य की सामाजिक संरचना प्रकृति–सापेक्ष अधिशेष का स्रोत है। सामाजिक मनुष्य ज्ञान और व्यवहार के योग से प्रकृति के नियमों का उल्लंघन किये बिना प्रकृति में हस्तक्षेप करता है। उन नियमों का इस्तेमाल ऐसे कामों के लिये करता है जिन्हें प्रकृति स्वयं नहीं कर सकती थी। यह तब सम्भव नहीं था जब मनुष्य की प्रजाति ने पशुजगत से बहिर्गमन नहीं किया था। कामचलाऊ ढंग से समझा जाय तो समाज में हस्तक्षेप करने वाली कर्त्ता–शक्ति प्रकृति–जन्य अधिशेष के कारण है, और प्रकृति में हस्तक्षेप की प्रभावी शक्ति मनुष्य के समाज के रूप में गठित होने के बाद ही आती है।
व्यक्ति–रूप कर्त्ता द्वारा पैदा की गयी अनियन्त्रित हलचल के अलावा सतह की गति सामाजिक संरचना की गहरी परतों की गति से भी जुड़ी हुई है। सतह पर बड़ी लहरें भी आती हैं जिनका उद्गम सामाजिक संरचना की गहराइयों में होता है। संरचनागत बल सतह की गति को पूरी तरह निर्धारित तो नहीं करते, लेकिन इन बड़ी लहरों को अवश्य निर्धारित करते हैं। व्यक्ति–रूप कर्त्ता–शक्ति अपने एकल हस्तक्षेपों से इन बड़ी लहरों को प्रभावित नहीं कर सकती। उद्वेलित सतह पर भी वह अपनी आम उछल–कूद ही मचाये रखती है।
इसके बावजूद संरचना की गहरी परतों में हस्तक्षेप किया जा सकता है। सतह और गहराई को जोड़ने वाली प्रक्रियाओं के चलते यह सम्भव होता है। ग्यारहवीं थीसिस में जब दुनिया बदलने की बात की गयी थी तब मतलब अन्दरूनी परतों पर ऐसे उद्वेलन पैदा करने से था जिनसे सामाजिक समग्र में बड़े बदलाव लाये जा सकें। ऐसे उद्वेलन और ऐसे बदलाव की दो पूर्व–शर्तें स्पष्ट हैं।
एक तो यह कि सतह की गतिकी और गहरी परतों की गतिकी के अन्तर्सम्बन्धों की जानकारी होनी चाहिये। ऐसे हस्तक्षेप जो किये तो सतह पर जाँय लेकिन प्रभावित गहरी परतों को करें – इस जानकारी के आधार पर ही संयोजित किये जा सकते हैं। व्यक्ति–रूप कर्त्ता की सतह पर उछल–कूद से इतर ऐसे हस्तक्षेप उन सुनियोजित प्रक्रियाओं और बलों को जन्म देते हैं जो सतह से गहरी परतों तक की यात्रा करते हैं।
दूसरी शर्त है ऐसे हस्तक्षेप के लिये सामूहिक कर्त्ता का गठन। अन्दरूनी परतों की गति का ज्ञान हो तब भी व्यक्ति–रूप कर्त्ता के अकेले या अनियोजित उद्यम से ऐसा हस्तक्षेप सम्भव नहीं है। ऐसे सामूहिक कर्त्ता का गठन और उसके द्वारा ऐसा हस्तक्षेप जो सामाजिक संरचनाओं में गहरे बदलाव की प्रक्रियायें चालू कर सके – इन दोनों का योग क्रान्तिकारी व्यवहार कहलाता है।
8
ग्यारहवीं थीसिस में क्रान्तिकारी व्यवहार पर ज़ोर है। लेकिन सिद्धान्त का निषेध नहीं है। क्रान्तिकारी व्यवहार सामाजिक संरचना की सही समझ पर निर्भर है। लेनिन की प्रसिद्ध उक्ति – क्रान्तिकारी सिद्धान्त के बिना क्रान्तिकारी आन्दोलन सम्भव नहीं है – इसी सच्चाई को रेखांकित करती है। सिद्धान्त और व्यवहार दोनों जगत में संलिप्त हैं। वामपन्थ में सिद्धान्त को जगत से निर्लिप्त समझने की या उसे रूढ़ि बना देने की प्रवृत्ति आम है। दूसरी तरफ़ हर प्रकार के कर्म को व्यवहार का दर्ज़ा दे दिया जाता है। दोनों ही समस्यायें हैं।
जिन सिद्धान्तों से हमारा सरोकार है वे सभी जगत के बारे में हैं। लेकिन जगत से उनका सम्बन्ध धुँधलके में लिपटा रहता है। ज्ञानशास्त्र की उलझनें अनेक हैं। ज्ञान जगत के बारे में भले ही हो, स्थित वह मनुष्य की चेतना में है। और चेतना की सीमायें हैं। जगत के सारे तथ्य और वहाँ की सारी सूचनायें चेतना तक नहीं पहुँचती। ऊपर से चेतना की अपनी बनावट है जो जगत से आने वाली सूचनाओं को हू–ब–हू ग्रहण करने में बाधा बनती है। तथ्यों के अर्थापन और उन्हें संसाधित (process) करने के दौरान उनमें अपना रंग भी घोल देना इस बनावट का अनिवार्य अंग है। आंशिक सूचनाओं तथा उनकी ऐसी प्रोसेसिंग के आधार पर जगत का जो चित्र चेतना बनाती है और उसके जो सिध्दान्त गढ़ती है वे किस हद तक सही और विश्वास–योग्य हो सकते हैं?
बात तब और बिगड़ती दिखायी पड़ती है जब हम इस हक़ीक़त से रू–ब–रू होते हैं कि मनुष्य की चेतना के अतिरिक्त प्रकृति में ग़लती का कोई और स्रोत या स्थान नहीं है। अचेत प्रकृति में तो सब कुछ प्रकृति के नियमों के अधीन होता ही है, पशु–जगत में भी ग़लती का कोई स्थान नहीं। आस्था और विश्वास की – जिसमें अन्धविश्वास भी शामिल है – एकमात्र जगह मनुष्य की चेतना है। आस्तिक बैल या अन्धविश्वासी घोड़े कहीं नहीं पाये जाते।
दूसरी तरफ़ व्यवहार और जगत का सम्बन्ध रौशनी के दायरे में है। पारदर्शी तो वह भी नहीं है लेकिन सिद्धान्त की तुलना में व्यवहार के फल आसानी से देखे जा सकते हैं। बीज डालने से फ़सल उग आती है। फ़सल काटने की मंशा से बीज डालना मनुष्य का व्यवहार है। चेतना–सम्पन्न कर्त्ता का जगत में हस्तक्षेप है। लेकिन अगर यह जानना हो कि बीज से पौधा निकलता क्यों है तो जैविक संरचनाओं के विज्ञान की ज़रूरत पड़ेगी। इस विज्ञान में ऐसे पदों और अवधारणाओं की आवश्यकता होती है जिनके बीज या पौधे से सम्बन्ध प्रत्यक्ष नहीं हैं। यही नहीं, ज्ञान की एक तह पर स्थित “क्यों” के उत्तर जैसे ही हासिल किये जाते हैं, अगली तह के “क्यों” सामने खड़े दिखायी देते हैं। “व्यवहार” की तरफ़दारी यहीं से पैदा होती है। फ़सल काटने से मतलब है तो बीज डालना क़ाफ़ी है।
मगर यह कैसे नज़रअन्दाज़ करें कि जैविक संरचनाओं के विज्ञान के बाद के सौ सालों में फ़सल उगाने को लेकर जो तरक़्क़ी आयी है वैसी पहले के दस हज़ार सालों में नहीं आयी थी। अभी इस बहस को छोड़ दें कि जेनेटिक्स के अस्तित्व में आने के बाद बीजों और फ़सलों के बदल दिये जाने का और जैविक पर्यावरण में असन्तुलन का ख़तरा भी पैदा हुआ है। प्रकृति में नुकसानदेह हस्तक्षेप के ख़तरे विज्ञान ने पैदा तो किये हैं, लेकिन इस वजह से विज्ञान को तिलांजलि देकर दस हज़ार साल पुराने व्यवहार पर वापिस जाना सम्भव नहीं है। जैसा कि वाल्टेयर ने रूसो को लिखा था – चौपाया चलने की आदत मानव–जाति के बचपन में छूट गयी। अब दो पैरों पर चलने का कोई विकल्प नहीं है।
बहरहाल, मसला यहाँ यह है कि व्यवहार प्रत्यक्ष है। ज्ञान और विज्ञान अप्रत्यक्ष हैं। व्यवहार के नतीज़े जगत में प्रकट होते हैं। ज्ञान का रसायन मनुष्य की चेतना में पकाया जाता है। उसमें जगत और चेतना दोनों की मिलावट होती है। मुश्किल यह भी है कि जगत का समग्र चेतना को उपलब्ध नहीं है। वह चालाकी और सूझ–बूझ से जगत का ज्ञान हासिल करती है – जितना उपलब्ध है उसी से काम चलाती है। बचाव इससे है कि वह इस ज्ञान को जगत की कसौटी पर जाँचती–परखती रहती है।
अभियान्त्रिकी विज्ञान से पैदा होती है। विज्ञान ज्ञान का हिस्सा है। ज्ञान सिद्धान्त– सम्पन्न होता है। मगर हर सिद्धान्त ज्ञान नहीं होता। सिद्धान्त को जगत की कसौटी पर खरा उतरना होता है। सही सिद्धान्तों से नये व्यवहार की सम्भावना पैदा होती है, नये नतीज़ों तक पहुँचने का रास्ता खुलता है। धारा को मोड़ने की अभियान्त्रिकी इतिहास के प्रवाह–शास्त्र को समझने के बाद ही सम्भव है।
हैरत की बात है कि इन्क़लाबियों के कुनबे में उस किसान विवेक का दबदबा है जो दस हज़ार साल तक अनुभव और व्यवहार के सहारे फ़सलें उगाता रहा। व्यवहार की प्रत्यक्षता के कायल विज्ञान की अप्रत्यक्षता को सन्देह की दृष्टि से देखते हैं और प्रायः सिद्धान्त को जगत से असम्बद्ध समझते हैं। इतिहास की धारा को मोड़ देने का दावा करने वाले उसके विज्ञान और उसकी अभियान्त्रिकी से लगभग अनभिज्ञ हैं। धारा में उछल–कूद को वे व्यवहार का दर्ज़ा देते हैं। और ऐसे व्यवहार को वे दुनिया बदलने मूलमन्त्र समझते हैं। मार्क्स ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनकी ग्यारहवीं थीसिस का यह हश्र होगा। वामपन्थ में भी विचारों की कमी है।
(रवि सिन्हा विगत चार दशकों से वामपंथी और प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े रहे हैं। एक सैद्धांतिक भौतिकीविद (theoretical physicist) के तौर पर प्रशिक्षित रवि सिन्हा ने अपनी पीएचडी MIT से हासिल की है। यह लेख काफिला से साभार है।)