आतंकवाद का लेना–देना किसी खास किस्म के व्यक्तियों से नहीं है बल्कि एक खास विधि, तकनीक या रणनीति के साथ है जिसमें निर्दोष नागरिकों की हत्या की जाती है अथवा उन्हें घायल किया जाता है, या फिर किसी युद्ध क्षेत्र के बाहर ऐसे फौजियों तक की हत्या कर दी जाती है जो हमले की विशिष्ट प्रकृति के चलते पूरी तरह निस्सहाय हो जाते हैं। आतंकवाद की ऐसी ही प्रकृति के कारण यह किसी व्यक्ति द्वारा, समूह द्वारा, या फिर राज्य मशीनरी जैसी किसी सामूहिक ताकत द्वारा अंजाम दिया जा सकता है। सीआरपीएफ के 40 जवानों की हत्या जिस कार बम हमले में हुई, वह ऐसी ही एक कार्रवाई थी और उसकी कड़े शब्दों में निंदा की जानी चाहिए। जैसा कि आतंकवाद के हर एक मामले में होता है, हमारी सहानुभूति और सांत्वना मारे गए सैनिकों के परिवारों, रिश्तेदारों, दोस्तों व परिजनों के साथ है। इस हमले का दोषी एक कश्मीरी युवक आदिल अहमद डार है जबकि उसे प्रशिक्षित और तैयार करने की जिम्मेदारी सार्वजनिक तौर पर जैश–ए–मोहम्मद नामक समूह ने ली है जो पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के अहम तबकों द्वारा प्रायोजित और समर्थित है। ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि तात्कालिक और दीर्घकालिक दोनों ही अवधि में हम किस तरह के इंसाफ की मांग उठाएं।
इंसाफ मांगने का आदर्श तरीका यह है कि उनके लिए दंड की मांग की जाए जो दोषी साबित हों। जैश–ए–मोहम्मद ने चूंकि इस हमले की जिम्मेदारी ले ली है लिहाजा उसके दोषी होने पर संदेह करने की वजह कम है। बावजूद इसके भारत सरकार को इसकी पुष्टि करने वाले सभी सबूतों को सार्वजनिक कर देना चाहिए ताकि पाकिस्तान, भारत और बाकी दुनिया की जनता को आश्वस्त किया जा सके कि वास्तव में दोषी कौन है और इस तरह से उन्हें सजा सुनाए जाने को लेकर न केवल चौतरफा दबाव बनाया जा सके बल्कि ऐसा करते हुए हर किस्म की साजिशाना थियरी का पर्दाफाश भी किया जा सके। चाहे जो भी हो, जैश के अतीत के मद्देनज़र यह ज़रूरी है कि पाकिस्तान सरकार के ऊपर उसके खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव बनाया जाए। पाकिस्तान खुद अपने लोगों और संस्थाओं के खिलाफ आतंकवादी हमलों को झेल चुका है लेकिन वहां के व्यापक सत्ता प्रतिष्ठान के भीतर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो एजेंटों में ‘अपने’ और गैर का पाखंड भरा विभाजन करके देखते हैं।
राज्य ऐसे एजेंटों को अप्रत्यक्ष मदद देता है व प्रायोजित करता है जो इस बात पर अख्तियार रखते हैं कि आतंकवादी हमले कब, कहां और कैसे किए जाने हैं। दूसरी ओर ऐसे आतंकवादियों की राज्य द्वारा देशों की सरहदों पर सीधे हत्या कर दिए जाने की रवायत रही है (ऐसी सबसे बड़ी और जघन्य कार्रवाई संयुक्त राज्य अमेरिका ने की है जिसने 1945 से लेकर अब तक अपनी भौगोलिक सीमा के बाहर जितने लोगों को मारा है उतना आंकड़ा दुनिया के सभी देशों द्वारा किए गए सम्मिलित संहारों में भी नहीं मिलता)। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की किसी भी गतिविधि को प्रायोजित करने वाला दरअसल वास्तव में उसे उकसा रहा होता है, भले ही वह उक्त कार्रवाई की अभिव्यक्ति न हो। दोनों के बीच फिर भी राजनीतिक दृष्टि से और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के संदर्भ में एक अहम गुणात्मक फ़र्क होता है। दूसरे वाले मामले में यह समझा जाता है कि आतंकी कार्रवाई किसी राष्ट्र के आधिकारिक सैन्यबलों द्वारा अंजाम दी गई युद्धात्मक कार्रवाई है, भले घोषित हो या नहीं। दूसरी ओर एक गैर–सरकारी ताकत को भले कोई सरकार कार्रवाई की तैयारी करने में प्रोत्साहन दे और यह चाहे कितना ही निंदनीय हो, वह युद्धात्मक कार्रवाई बिलकुल नहीं कही जा सकती। यही कारण है कि मोदी सरकार द्वारा पुलवामा पर हुए हमले को युद्धात्मक कार्रवाई का नाम दिया जाना न सिर्फ गलत है बल्कि राजनीतिक अर्थ में देखें तो यह बेहद खतरनाक भी है क्योंकि यह सैन्य–राजनीतिक दांव को अतिरंजित करने का काम कर रहा है। चूंकि यह सरकार किसी भी कीमत पर उन्मादी जुमलों को कायम रखना चाहती है, उससे यह आशंका पैदा होती है कि बीजेपी की योजना इस मौके का लाभ उठाकर आगामी लोकसभा चुनावों के आलोक में और ज्यादा साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने की है। इसका लक्ष्य जनता के आक्रोश को एक ओर पाकिस्तान की सरकार के खिलाफ और दूसरी ओर कश्मीर की जनता के खिलाफ मोड़ देना है– यह संघ परिवार की फासीवादी विचारधारा व राजनीति का हमेशा से केंद्रीय अंग रहे मुस्लिम विरोध का एक प्रच्छन्न उदाहरण है।
भारतीय फौज के द्वारा सीमापार पाकिस्तानी फौजियों पर किया गया कोई हमला ‘प्रतिशोध’ नहीं होगा क्योंकि इससे उन लोगों की मौतें होंगी और वे लोग चोटिल होंगे जिनका पुलवामा के हमले से कोई लेना–देना नहीं है। इससे पाकिस्तानी जनता के बीच इस बात को लेकर आक्रोश और कड़ुवाहट बढ़ेगी कि उनके सैनिकों और नागरिकों के साथ नाइंसाफी हो रही है, नतीजतन न सिर्फ वहां की सरकार बल्कि उन तबकों के प्रति भी वहां घरेलू समर्थन में इजाफा होगा जो इस किस्म के सीमापार हमलों में लिप्त हैं, जबकि इसके उलट ऐसे हर कदम उठाए जाने की ज़रूरत थी जिससे ये तबके अपने देश के भीतर ही अलगाव की स्थिति में पड़ जाते। पाकिस्तान के भीतर ज्यादा लोकतांत्रीकरण लाने और वहां सैन्य वर्चस्व के खात्मे अथवा उसमें निरंतर कमी लाने की दिशा में बढ़ने की जो भी उम्मीदें थीं, उन्हें ऐसी भारतीय कार्रवाइयों से गंभीर नुकसान पहुंचेगा जो वहां की जनता को युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद के नाम पर अपनी फौज को समर्थन देने की ओर प्रवृत्त करें। पाकिस्तानी समाज को लोकतांत्रिक बनाने के लिए वहां पर काम कर रहे तमाम प्रगतिशील तबके इस बात को अच्छी तरह समझते हैं (और भारत के प्रगतिशीलों के मुकाबले कहीं ज्यादा) कि वहां की आंतरिक प्रगति का सीधा संबंध दोनों देशों के रिश्तों के बीच ज्यादा सहजता, संतुलन और सामान्यता पर टिका है। इसके उलट सरहद के दोनों तरफ का धार्मिक अतिवाद दोनों देशों और उनके नागरिकों के बीच ज्यादा से ज्यादा नफरत व विद्वेष पैदा करने पर टिका है।
आतंकवाद का हमेशा एक विशिष्ट राजनीतिक संदर्भ होता है। इस मामले में संदर्भ कश्मीर का है, जैसा कि राजकीय व अराजकीय ताकतों द्वारा अपनाई जाने वाली नाजायज हिंसा के दूसरे उदाहरणों में भी (जिसमें भारत सरकार की हिंसा भी शामिल है) हमें देखने को मिलता है। यानी बुनियादी निदान तो स्पष्ट है। अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध से ही पाकिस्तान की सरकार जहां कश्मीर के अलगाव और उथल–पुथल भरे माहौल में दांव आज़मा रही है, वहीं ऐसा माहौल पैदा करने में एक के बाद एक भारत की सत्ता में आई सरकारों का हाथ रहा है जिसमें मौजूदा सरकार भी शामिल है जिसने कश्मीर के साथ अपनी संलिप्तता में एक विशिष्ट मुस्लिम–विरोधी तत्व को जोड़ दिया है। यहां तक कि आज़ादी से लेकर अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध के दौरान जब घरेलू हिंसा गंभीर स्तरों पर पहुंची थी, तो उसके पीछे राज्य की स्वायत्तता को लेकर किए गए वादों से सिलसिलेवार विश्वासघात ही का हाथ रहा। इस बीच किसी भी भारतीय प्रांत के मुकाबले सबसे ज्यादा राष्ट्रपति शासन का साया भी कश्मीर को ही झेलना पड़ा।
आज कश्मीर घाटी में कुल साढ़े छह लाख सैन्य टुकडि़यां तैनात हैं जिसके चलते सैन्यकर्मियों और नागरिकों का अनुपात यहां दुनिया के सबसे बदतर उदाहरणों में है। ऐसा तब है जबकि दिल्ली के मुताबिक हाल के वर्षों में यहां पहचाने गए आतंकवादियों की संख्या कोई सौएक से ज्यादा नहीं होगी। इतनी भारी संख्या में सेना की तैनाती दरअसल आम आबादी पर निगाह रखने और उसका दमन करने के उद्देश्य से है, जिसका अलगाव और दिल्ली के खिलाफ गुस्सा अब पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा व्यापक और गहरा हो चुका है। कश्मीरी मुसलमानों के बीच यह गुस्सा मौजूदा सरकार में और बढ़ा है जिसने पत्थरबाज़ों पर गोली दागने को सही ठहराया है, राहगीरों पर कभी–कभार होने वाली गोलीबारी को रियायत दी है तथा यहां की आबादी के साथ होने वाले शर्मनक बरताव को अनदेखा किया है। इसमें हमें उन पैलेट गनों का इस्तेमाल नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने सैकड़ों निहत्थे प्रदर्शनकारियों को ज़ख्मी और अपंग बना डाला। इस हकीकत के आलोक में यह असामान्य है कि भारतीय फौज अब यह कह रही है कि चह किसी भी बंदूकधारी को दखते ही गोली मार देगी जो तुरंत आत्मसमर्पण नहीं करेगा। इन तमाम परिस्थितियों में भी कश्मीरी युवा की जेईएम जैसे सीमापार संगठनों से प्रशिक्षण लेने या फिदायीन हमलों में खुद की ‘शहादत’ देने की इच्छाशक्ति में कोई कमी नहीं आई है। वे ऐसा कर के अपने साथ हुई नाइंसाफियों के खिलाफ एक नज़ीर पेश करना चाहते हैं।
पुलवामा जैसे हमलों को कम करने और अंतत: समाप्त करने की राह युद्धोन्मादी प्रदर्शन या सीमापार ‘सर्जिकल हमलों’ में निहित नहीं है, न ही दो परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों के बीच सैन्य तनाव को बढ़ाने में है। यह कश्मीर के राजनीतिक संदर्भ को संबोधित करने और इस प्रांत, खासकर कश्मीर घाटी में रह रहे लोगों को इंसाफ सुनिश्चित करने में निहित है, चाहे वे मुस्लिम हों या हिंदू पंडित, जो चाहते हैं कि वहां एक बार फिर अमन चैन का राज बहाल हो। पाकिस्तान के खिलाफ भारत सरकार की कार्रवाई नहीं बल्कि कश्मीर में उसका बरताव ही भविष्य को गढ़ने में काम आएगा। निरंतर पैदा किया जा रहा अलगाव क्या वहां अराजकीय आतंकवाद (सीमापार समर्थन प्राप्त या स्वतंत्र) और भारतीय सैन्यबलों के राजकीय आतंकवाद के दुश्चक्र की जमीन को और उपजाऊ नहीं बना देगा? या फिर हम इस दुश्चक्र को पूरी तरह तोड़ने की दिशा में काम करेंगे?
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