विजयादशमी (दशहरा) को प्रतीक और यथार्थ दोनों ही संदर्भों में शक्ति का पर्व माना जाता है। रावण का वध हो चुका है। सीता को छुड़ाया जा चुका है और मर्यादा पुरुषोत्तम राम अपना वनवास समाप्त कर के लौट रहे हैं। तमाम भारतीय ग्रंथों को देखें तो हम पाएंगे कि विजय का पर्व दरअसल एक परदा है। इस परदे के पीछे यानी विजयोल्लास के सार्वजनिक महोत्सव के बाद जो घटता है, वह अप्रिय है। आम तौर से महाभारत के मामले में ऐसा स्वीकार किया जाता रहा है कि कौरवों पर पाण्डवों की विजय के बाद बड़े पैमाने पर मारकाट हुई और जनता को अप्रत्याशित पीड़ा झलनी पड़ी थी। यहां तक कि इस कथा में वर्णित उद्धारकों भी तुच्छ मौत झेलनी पड़ी। मनुष्य की नियति अश्वत्थामा सी हो गई जिसे अस्तित्व के समंदर में बिना किसी उम्मीद या मुक्ति की संभावना के एक अंतहीन यात्रा करनी है। यही कारण है कि अमरत्व को अभिशाप मानते हैं।
रामायण भी अपने विजयपर्व पर कम विषादपूर्ण नहीं है। महाभारत में द्वेष और पिछले कर्मों का मिलाजुला बोझ भविष्य पर इतना भारी पड़ जाता है कि आप जान रहे होते हैं कि इससे राहत का एक पल भी काग़ज़ की नाव के जितना नाजुक है जो नियति के सैलाब में एक झटके में बह जाएगा, जहां नियति तहदार पापों की एक गठरी है। रामायण में विजय के ऐसे क्षण और ज्यादा विषादपूर्ण इसलिए जान पडते हैं क्योंकि राम अपने आप में मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, बावजूद इसके उनके नेतृत्व में प्राप्त विजय एक त्रासदी में परिणत हो जाता है।
इस त्रासदी के केंद्र में सीता हैं। दरअसल, रामायण में राम-रावण के युद्ध को अतिरिक्त प्रमुखता दी गई है। यह युद्ध ही जनता की उम्मीदों का स्थल है, मुक्ति का क्षण है। यदि आप राम और सीता की प्रेमकथा के चौखटे में देखें तो यह युद्ध एक गौण प्रसंग से ज्यादा कुछ नहीं लगेगा। युद्ध में विजय के बाद जो घटता है, जिसे उत्तरकांड में वर्णित किया गया है, वह इस ग्रंथ में व्याप्त विषाद के लिहाज से केंद्रीय महत्व रखता है। इस आख्यान के हिसाब से रामायण ठीक उलटा अर्थग्रहण कर लेता है: बुराई पर अच्छाई की जीत नहीं बल्कि अन्याय की स्थायी जीत। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का साक्षात्कार एक ऐसे अचल अन्याय के साथ होता है कि उनका कद छोटा हो जाता है।
विजयादशमी अवसादपूर्ण क्षण है क्योंकि असल और गहन पाप तो अब सतह पर आएगा, जब रावण के ऊपर राजनीतिक विजय का लक्ष्य पूरा कर लिया जाएगा। अब सीता के खिलाफ महान अन्याय का सिलसिला शुरू होगा जबकि राम जानते हैं और हर कोई जानता है कि सीता ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है कि उन्हें अन्याय भोगना पड़े। इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष तो और बुरा है: रावण ने तो बस सीता का हरण किया था लेकिन अब उन पर लगातार दोष मढ़ा जा रहा है। उन्हें निरंतर अपमानित किया जा रहा है जिससे उनकी प्रतिष्ठा धूमिल हो रही है और बहुत संभव है कि दोषारोपण करने वाले बेरहमी से उन्हें इसका दंड दे देंगे। उनके साथ जैसा बरताव हो रहा है, वहां हर मर्यादा तार-तार हो जा रही है। राम ने तो ‘अशुद्ध’ अहिल्या तक का उद्धार कर दिया था लेकिन यहां तो शुद्धता के प्रतिमान को ही दंडित किया जा रहा है। जिस मुक्तिदाता को हर किसी का उद्धार करना था, उसने न्याय को उलटा धर दिया है। यह दंड एक राजसिद्धांत के तहत तामील किया जा रहा है। राम अब केवल राजा हैं। वे अपनी प्रजा का भरोसा वापस पाना चाहते हैं। इस प्रजाधर्म के लिए वे सब कुछ त्याग देते हैं। वास्तव में यहां कोई धर्म नहीं है क्योंकि उन्होंने वनवास का फैसला प्रजा की मर्जी से नहीं किया था, लिहाजा प्रजा के दावे को यहां बहाना नहीं बनाया जा सकता। सीता भी एक अन्यायपूर्ण सुनवाई से गुज़र चुकी है, बावजूद इसके अफ़वाहों और अतिरंजनाओं के आगे न्याय की प्रक्रिया हार रही है। उनके साथ आपराधिक मानहानि की जा रही है और उन पर आरोप लगाने वाले इसमें हो रहे अन्याय से गाफि़ल हैं। धर्म को यदि जनधारणा का बंधक बना दिया जाए तो धर्म की परिभाषा दूषित हो जाएगी। ऐसे में ही राम एक कायर के रूप में हमारे सामने आते हैं जो सीता की आंखों में देखने का साहस तक नहीं जुटा पाते और छल से उन्हें निर्वासित करवा देते हैं। बावजूद इसके सीता के प्रति राम की निजी प्रतिबद्धता पर कोई सवाल नहीं है। राम भी उसी पीड़ा से गुज़रते हैं लेकिन वे न्याय नहीं कर पाते।
सीता का निर्वासन इस ग्रंथ का एक असंगत मोड़ है। राम और रावण की लड़ाई में अच्छे और बुरे की पहचान करना बहुत आसान है लेकिन संस्कृति के एकमुश्त भार में निहित बुराई के तत्व को पकड़ पाना और उसका साक्षात्कार करना तकरीबन असंभव काम है। राम को अपने सत्य में भरोसा नहीं है। सीता को त्यागते वक्त वे उन पर आरोप मढ़ते हैं। दोषमुक्त हो जाने के बाद वे पलट कर कहते हैं कि सीता के सार्वजनिक रूप से दोषमुक्त दिखने के लिए ऐसा करना जरूरी था। इस तरह सीता के अन्यायपूर्ण मुकदमे की आड़ में राम खुद को छुपा लेते हैं और बाद में वाल्मीकि की गवाही भी उनके लिए ओट का काम करती है। सीता खुद को निर्दोष साबित कर के भी दोषी रह जाती है। उसपर आरोप लगाने वालों ने भले कुछ न साबित किया हो, लेकिन वे ही सही माने जाते हैं।
वो तो वाल्मीकि की महानता रही कि उन्होंने इन सवालों को अधर में छोड़ दिया। नतीजे पर कहीं कोई मुलम्मा नहीं चढ़ाया। राम और उसके मानव अवतार के बीच फर्क कर के कोई ईश्वरीय खेल करने की कोशिश नहीं की। बाद में कई लेखकों ने, जैसे कि भवभूति और दिंगांग ने अंत को ज्यादा नाटकीय बना दिया: राम और सीता का मेल हो गया, क्योंकि अलगाव अपने आप में प्रेम की हार को साबित कर देता। सुखांत वाले इन नाटकों के बावजूद नैतिक द्वंद्व का कोई हल वास्तव में मौजूद नहीं है। राम पूरी तरह दोषमुक्त नहीं हुए। सीता उन्हें निष्ठुर कहती ही रही। इन नाटकों में राजा राम की गलती बताने के बजाय लोक को ही निरंकुश करार दिया गया है। यहां लोक का अर्थ जनता से नहीं बल्कि लोक की संस्कृति से है, उसकी कसौटियों से है। रावण को तो राम ने मार दिया लेकिन वे संस्कृति की कसौटियों से नहीं लड़ पाए। इसके लिए उन्हें बाहर से कवियों और संतों की मदद लेनी पड़ी।
इस प्रक्रिया में सत्य के समक्ष राम एक निराशाग्रस्त आत्मसंदेह की प्रतिमूर्ति बनकर उभरते हैं। वाल्मीकि की सीता सत्य के प्रश्न का स्थायी समाधान कर उन्हें इस दयनीयता से हमेशा के लिए मुक्त कर देती है। वह अपनी मां धरती की गोद में लौट जाती है। इस दुख से राम टूट जाते हैं। रावण से सीता को मुक्त कराना आसान था लेकिन सीता के सत्य को सांस्कृतिक बंधनों से मुक्त करना, जनधारणाओं के बोझ से उबारना राम के लिए तकरीबन नामुमकिन था। ये सांस्कृतिक कसौटियां इतना निष्ठुर हैं कि ये सब कुछ को सिर के बल खड़ा कर देती हैं। न्यायिक प्रक्रिया अन्याय में तब्दील हो जाती है, आरोपी आरोपित में। धार्मिक संदर्भ में देखें तो राम और सीता एक-दूसरे के बगैर अपूर्ण हैं लेकिन लोक संस्कृति में निबद्ध लैंगिक कसौटी के चलते उनका मिलन असंभव हो जाता है। कहानी जहां आकर रुकती है, ऐसा लगता है गोया वाल्मीकि कह रहे हों: विजयादशमी को खत्म हुई जंग तो महज दिखावा थी, इसके बाद वाली जंग सीता को अकेले ही लड़नी होगी क्योंकि राम जैसा कोई उद्धारक यहां नहीं है जो उनकी जंग लड़े। परंपरागत सत्य सीता के साथ नहीं है। सीता एक दिन कोई कदम उठाएगी, तब एक झटके में सारे सच अप्रासंगिक हो जाएंगे।
(इंडियन एक्सप्रेस से साभार)