13 फरवरी 2019 को देश की सर्वोच्च अदालत ने राज्य सरकारों को वनभूमि पर आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों के निरस्त किए गए दावों के संबंध में जो कार्यकारी आदेश दिया है, उससे देश के कोने–कोने में अफरातफरी मच गयी है। ये बात अलग है कि किसी भी व्यक्ति या संगठन ने सत्तारूढ़ दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की तरह अभी तक यह नहीं कहा कि अदालत ऐसे आदेश देती ही क्यों है जिनका पालन व्यावहारिक रूप से संभव न हो। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि जिन्हें बेदखल करने का फ़रमान अदालत ने दिया है, वे देश के संविधान और उसकी संस्थाओं की तहेदिल से इज्ज़त करते हैं। वे यह मानते हैं कि यह एक कानूनी लड़ाई है जिसे पुख्ता तैयारी के साथ लड़ना होगा, न कि सबरीमाला मामले की तरह सर्वोच्च न्यायालय जैसी अग्रिम पंक्ति की संस्था की बेइज्जती कर के या किसी कोर्ट द्वारा किसी मामले में निर्णय लेने से पहले ही उसकी धज्जियां उड़ाने की धौंस देकर– जैसा कि भारतीय जनता पार्टी और उसकी आनुषंगिक इकाइयां यह कहते हुए अपने होने की वैधता साबित करती आ रही हैं कि ‘कोर्ट का निर्णय कुछ भी हो, मंदिर तो वहीं बनेगा’! जंगलों में रहते आए आदिवासियों व अन्य परंपरागत वनवासियों का धैर्य भी जंगल जैसा होता है– यह विवेक सर्वोच्च न्यायालय को संज्ञान में लेना चाहिए था।
बहरहाल, आदिवासियों और जंगल से जुड़े मुद्दों को देश की राजनीति की मुख्यधारा में लाने वाली शख्सियत डॉ. बी.डी. शर्मा ने एक जगह एक सच्ची घटना का हवाला देते हुए आदिवासी समुदाय की मानसिक/मनोवैज्ञानिक परिस्थिति का ज़िक्र किया है, जिसमें प्रौढ़वय का एक आदिवासी किसी मुकदमे में जज के सामने पेश होता होता है। जज उससे कुछ पूछते हैं और वह उसका जवाब देता है। जज उस बात को प्रमाणित करने के लिए पूछते हैं कि जो तुम कह कह रहे हो उसका कोई सबूत लाए हो? वह आदिवासी जवाब देता है– ‘’मैं यह कह रहा हूं। इसमें प्रमाण की ज़रूरत क्या है? मैं कह तो रहा हूं।‘’ यह कहकर वह कोर्ट रूम से बाहर निकल जाता है। यह हवाला आज भी इस आदेश के संदर्भ में उतना ही मौजूं है जितना तब रहा होगा। आज इस आदेश का मूल ज़ोर इसी एक भ्रामक तथ्य पर आधारित है कि जो लोग अपने दावों को पात्रता में नहीं बदल सके, वे बलात् अतिक्रमणकारी घोषित कर दिये जाएं और उन्हें तत्काल प्रभाव से जंगलों से खदेड़ने की कार्यवाही शुरू कर दी जाए। शायद देश के सर्वोच्च न्यायालय को गर्व के साथ इस एक तथ्य को स्वीकारना चाहिए कि देश में जनतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं और यहां न्याय पाने के अवसर इस एक आदेश से खत्म हो जाने वाले नहीं हैं।
सवाल है कि यह धैर्य बार–बार छले जाने के बावजूद आख़िर आता कहां से है? यह पहली बार नहीं है जब जंगल पर आदिवासियों व अन्य परंपरागत जंगल निवासियों की लड़ाई कानूनी रूप से कमजोर पड़ी हो। डॉ. बी.डी. शर्मा प्राय: एक बात कहते–लिखते आए और जिसका विस्तार से ज़िक्र उन्होंने अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के आयुक्त रहते हुए उनतीसवीं रिपोर्ट (1987-89) में भी किया है:
ज़मीन का मामला ज़मीन पर ही सुलझ सकता है न कि अदालतों में क्योंकि ज़मीन पर हक़ केवल कागज से तय नहीं हो सकते बल्कि उसके लिए जिस ज़मीन विशेष पर विवाद है, वहां जाकर ही मामले को समझना होना। जिन्हें कानून की समझ है वे यह जानते हैं कि कानून निरंतरता में काम करता है। यह कुछ सार्वभौमिक मूल्यों की बुनियाद पर आधारित होता है।
जब यह कहा जाता है कि देश में कानून का राज है, तो इसका मतलब यह भी है कि देश के लोगों के मन में अपने देश के क़ानूनों के प्रति सम्मान का भाव है। कानून का पालन किया जा रहा है, इसीलिए कानून का राज है। केवल कानून के भय से कानून का राज स्थापित होना संभव नहीं है क्योंकि कानून समाज व देश की बेहतरी के लिए बनाए जाते हैं न कि समाज को अपराधी साबित करने के लिए।
आदिवासियों, भूमिहीनों, सामुदायिक अधिकारों के लिए स्वतंत्र भारत की संसद ने 1950 में ही जमींदारी उन्मूलन कानून बनाया था, जिसे 1951 में हुए पहले संविधान संशोधन के माध्यम से संसाधनों के लोकतांत्रिक बंटवारे की दिशा में मील का पहला पत्थर बना दिया गया। इस संशोधन को देश में महज भूमि–सुधार लागू करने की दिशा में एक बड़ी परिघटना के तौर पर ही नहीं, बल्कि संसाधनों के समान/उचित वितरण के महान जनतांत्रिक स्वप्न को हकीकत में बदलने की ईमानदार कोशिश के तौर भी देखा जा सकता है। इस संशोधन के माध्यम से राजस्व ग्रामों में संसाधनों की अन्यायमुक्त और न्यायसंगत सामुदायिक व्यवस्था को कायम करने और भूमि–सुधार का लाभ काबिज, पट्टेधारियों, भूमिहीनों एवं आवासहीनों को दिए जाने की कोशिश हुई। यह संशोधन पूरे देश में लागू किया गया, हालांकि बाद में हर राज्य की अलग–अलग परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए इनके क्रियान्वयन के स्वरूप भिन्न रहे।
राज्य सरकारों ने ब्रिटिश काल से चली आ रही (सीमित स्तरों पर किन्तु केंद्रीकृत) तत्कालीन शासकों, जमींदारों, मालगुजारों, महलों, इलाकों, दुमालाओं की व्यवस्था को भंग करते हुए केवल निजी स्वामित्व की कृषि भूमि को छोड़कर अन्य समस्त संसाधन जैसे जंगल, ज़मीन, नदी, नाले, तालाब, रास्ते आदि समस्त संसाधन अपने अधीन लेने के लिए विभिन्न कानून बनाए।
सन 1950 तक तत्कालीन शासकों के नियंत्रण से सार्वजनिक प्रयोजनों के नैसर्गिक संसाधनों मसलन बड़े झाड़ छोटे झाड़ के जंगल, झुड़पी जंगल, जंगलात, जंगल खुर्द, पहाड़, चट्टान, पठार, घास, चरनोई (चारागाह), सरना, करात आदि विभिन्न मदों में लेकिन सार्वजनिक एवं निस्तारी प्रयोजनों, सामुदायिक व परंपरागत अधिकारों के लिए दर्ज़ जंगल, ज़मीन अर्जित की गयी और इन्हें राजस्व विभाग को सौंप दी गयी।
इन संसाधनों और ज़मीनों को दाखिल रहित घोषित करते हुए अलग अलग राज्यों में अलग अलग ढंग से वहाँ की भू–राजस्व संहिताओं में शामिल किया गया। उदाहरण के लिए, 1954 में अध्याय 18 में इन्हें दखल रहित माना गया जिसे 1956 में मध्य प्रदेश के पुनर्गठन के बाद भी ज्यों का त्यों रखा गया। राजस्व विभाग ने भू–आचार संहिता की धारा 234 के तहत इन ज़मीनों व संसाधनों पर ग्राम निस्तार पत्रक तैयार किए जिनमें इन संसाधनों पर गाँव के सार्वजनिक/सामुदायिक निस्तार, परंपरागत उपयोगों को दर्ज़ किया। यह आज भी ज्यों का त्यों दर्ज है।
बाद में और समानान्तर रूप से भू–आचार संहिता की धारा 237(1) में इन्हीं संसाधनों/ज़मीनों को सार्वजनिक/सामुदायिक प्रयोजनों के लिए आरक्षित करने के उद्देश्य से, धारा 237(2) के तहत इनके प्रयोजन बदले जाने 237(3) एवं 237(4) के तहत इनके आवंटन से संबंधित प्रावधान किए गए।
बाद में इसी भू–राजस्व संहिता के अध्याय 18 के तहत प्रावधानों, राजस्व अभिलेखों में दर्ज़ ब्यौरों को आधार बनाकर देश की संसद ने 1993 में संविधान में संशोधन करते हुए संविधान की 11वीं अनुसूची में इन सामुदायिक संसाधनों पर पंचायती राज व्यवस्था के अधिकार सुनिश्चित कर दिये। 1996 में आए पेसा कानून (पाँचवीं अनुसूची क्षेत्रों में पंचायती राज विस्तार कानून) के तहत ग्राम सभा एवं समाज के अधिकार सुनिश्चित कर दिए गए।
अब यह जानना दिलचस्प है कि ऐतिहासिक अन्यायों को खुद देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भिन्न–भिन्न समय पर कैसे बढ़ावा दिया। इन्हीं ज़मीनों और संसाधनों को जिन्हें सामुदायिक माना गया और जिन्हें संविधान की ग्यारहवीं अनूसूची, पंचायती राज व पेसा जैसे विकेन्द्रीकरण को प्रोत्साहित करने वाले क़ानूनों के माध्यम से स्थापित किया गया, उन्हीं संसाधनों व ज़मीनों पर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अलग–अलग निर्णयों से कैसे प्रभावित किया।
पहला, याचिका क्रमांक 202/95 (टी.एस.गोदाबर्मन विरुद्ध भारत सरकार) में 12 दिसंबर 1996 को इन्हीं ज़मीनों में से जंगल की मद में दर्ज़ ज़मीनों को वन संरक्षण कानून 1980 के दायरे में लेते हुए इन्हें वन भूमि परिभाषित कर दिया गया।
दूसरा, एक सिविल याचिका 19869/2010 (जयपाल सिंह विरुद्ध पंजाब सरकार व अन्य) में 28 जनवरी 2011 के फैसले में सार्वजनिक एवं निस्तारी प्रयोजनों के आधार पर इन्हीं ज़मीनों को पंचायती राज व्यवस्था के अधिकार, नियंत्रण व प्रबंधन का संसाधन किया।
अब सवाल यह है कि ऐसी सूरत में जब स्वयं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपने ही पूर्ववर्ती फैसलों में निरंतरता नहीं है बल्कि गहरे विरोधाभास हैं, तब 13 फरवरी को आए इस कार्यकारी आदेश की कानूनी वैधता को किस रूप में व्याख्यायित किया जाये? अगर इस आदेश का शब्दश: पालन भी हो तो इसके अनुसार जिन दावेदारों के दावे निरस्त हो चुके हैं क्या उन्हें बेदखल किया जा सकेगा? इन दावेदारों में अनुमानित रूप से दो–तिहाई से भी ज़्यादा दावे उन आदिवासियों व परंपरागत वनवासियों के हैं जो संविधान की पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र में रह रहे हैं और जहां पेसा कानून 1996 लागू होता है और जिसके अनुसार इन समस्त संसाधनों पर ग्राम सभा व समाज के अधिकार हैं। क्या यह एक आदेश उन्हें उनकी ग्राम सभा के सदस्य होने की अहर्ता छीन सकता है?
दावेदारों के दावों के निरस्त होने या किए जाने कि प्रक्रिया तो खैर शुरू से ही विवादों में रही है और जिसके लिए वन अधिकार (मान्यता) कानून के क्रियान्वयन पर निगरानी रखने के लिए आदिवासी मामलों का मंत्रालय (MoTA) समय–समय पर राज्य सरकारों को दिशानिर्देश जारी करते आया है, दावे तैयार करने के लिए ज़रूरी प्रमाणों को जुटाने के लिए भू–संपादन अधिकारी (उप मण्डल स्तरीय अधिकारी) को सारे रिकार्ड ग्राम सभा को सुपुर्द करने के आदेश भी देते रहा है और यहाँ तक कि इस प्रकरण (109/08) में भी अदालत के संज्ञान में विभिन्न सरकारों को इस बाबत किए गए पत्राचार को लाता रहा है, तब भी तीन न्यायधीशों को निरस्त करने की प्रक्रिया कैसे दोषमुक्त लग सकती है?
इस आदेश से माननीय सर्वोच्च न्यायालय की चारों तरफ किरकिरी हो रही है। ऐसे में स्वयं सर्वोच्च न्यायालय को अपनी साख बचाते हुए इस आदेश की समीक्षा करना चाहिए क्योंकि यह आदेश न केवल वंचितों को न्याय के अवसरों से ऐहिासिक रूप से वंचित करता है बल्कि एक संस्थान के तौर पर अपने ही विरोधाभासों को उजागर करते हुए अपनी ही भद्द पीटता है।