गन्ना उत्पादन में देश के सबसे अग्रणी क्षेत्रों में से एक चंपारण। चंपारण की धरती जो कभी निलहों यानी अंग्रेजों का आतंक झेलती थी वो आज सरकार का आतंक झेल रही है। सरकारी उदासीनता ने गन्ना किसानों को इस मोड़ पर ला खड़ा कर दिया है कि न उन्हें ये फसल करते बन रहा है और न छोड़ते। यहाँ के कृषि अनुसंधान केंद्र में कई विदेशी वैज्ञानिकों के शोधपत्र भी हैं जिनमें वो बताते हैं कि पूर्वी और पश्चिमी चंपारण की कृषि योग्य भूमि गन्ना उत्पादन के लिए श्रेष्ठ है। गन्ने को कम लागत और ज़्यादा मुनाफ़े वाले नकदी फसलों में गिना जाता है बावजूद इसके यहाँ के किसानों की कमर टूट गई है। चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष समारोह में करोड़ों खर्च कर नामचीन लोग भले ही इस धरती पर जुटे लेकिन किसी ने भी किसानों की सुध नहीं ली। पूर्वी चंपारण में कहीं सालों से मिल बंद पड़े हैं तो कहीं मिल होने के बावजूद किसानों को उनका बकाया भुगतान नहीं किया जा रहा है। ऐसे में गन्ने के सबसे ज़्यादा उत्पादन वाले जिले में गन्ने की खेती को लेकर किसानों का मोह भंग होता नजर आ रहा है।
क्या है चंपारण और गन्ना का संबंध
चंपारण के लोगों के लिए गन्ना उत्पादन ही विकल्प क्यों है इसके लिए यहां की भौगोलिक स्थिति और जलवायु को समझना बेहद ज़रूरी है। गंडक और उसकी सहायक नदियों के किनारे बसे इन दो जिलों की भूमि काफ़ी उर्वर है जो गन्ना उत्पादन के लिए श्रेष्ठ है। ज़्यादा मुनाफा देने वाली नकदी फसलों में गन्ने को गिना जाता है। पूर्वी–पश्चिमी चंपारण बिहार के उन जिलों में आता है जो बाढ़ और सुखाड़ दोनों को ही बराबर झेलता है। ऐसे में सबसे बढि़या विकल्प बनकर उभरता है गन्ना उत्पादन। गन्ने की खेती के बारे में बात करते हुए इस पर कई रिपोर्ट कर चुके पत्रकार आनंद प्रकाश बताते हैं कि गन्ना वो फसल है जिसे बहुत ही कम पानी की आवश्यकता होती है और बाढ़ में भी उसे कोई नुकसान नहीं होता जबतक कि उसका एक इंच भी हिस्सा पानी के ऊपर नज़र आता रहे। वे बताते हैं कि इस क्षेत्र में औसतन वर्षा 363एमएम होनी चाहिए लेकिन पिछले साल सिर्फ़ 197एमएम ही हुई। ऐसे में किसान अगर किसी और चीज़ की खेती करे तो लागत भी ज़्यादा लगेगी और उत्पादन भी प्रभावित होगा। अगर यहीं आप गन्ने को देखें तो उसके लिए 100एमएम की वर्षा भी पर्याप्त है। गन्ना एक ऐसी फसल है जिसे आप एक साल बोकर अगले तीन–चार सालों तक काट सकते हैं। इस लिहाज से ये कम लागत और ज़्यादा मुनाफ़े वाली नगदी फसलों में गिना जाता है।
उत्पादन में अग्रणी फिर भी किसानों की स्थिति बदहाल
भले ही चंपारण गन्ने की खेती के लिए जाना जाता हो, भले ही यहाँ एक बड़े रकबे में गन्ने की खेती होती हो, भले ही गन्ना कम लागत ज़्यादा मुनाफ़े वाली एक नकदी फसल हो लेकिन यहां किसानों की स्थिति बदहाल है और इतनी बदहाल है कि वे अब इसे धीरे–धीरे छोड़ने को मजबूर हो गए हैं। किसान बताते हैं कि सरकारी उदासीनता ही एकमात्र कारण है उनकी बदहाली का। पूछने पर कि क्या उनकी तरफ़ से उत्पादन में कोई कमी रह जाती है, वे बताते हैं कि कम उत्पादन का कभी प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि गन्ना उत्पादन के लिए यहां सारी परिस्थियां अनुकूल हैं।
पूर्वी चंपारण में तीन चीनी मिलें हैं। मोतिहारी, सुगौली, और चकिया। इसमें मोतिहारी और चकिया सालों से बंद हैं। बीच–बीच में कभी–कभी खुलती हैं बंद होती हैं। ऐसे में पूर्वी चंपारण के किसानों को अपना गन्ना पश्चिमी के मिलों में भेजना पड़ता है जिसका परिवहन खर्च किसानों को खुद ही उठाना पड़ता है। किसानों की एक और परेशानी है कि मिल से उन्हें समय पर पैसा नहीं मिलता और ये परेशानी कमोबेश इस क्षेत्र के सारी मिलों में है।
प्रधानमंत्री वादा करके गच्चा दे गए, कृषि मंत्री उल्टे पांव भागते हैं
2014 की रैली में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मोतिहारी आये थे तो चंपारण की जनता को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो यहां के लिए उनकी पहली प्राथमिकता होगी चीनी मिल को चालू करवाना, ताकि अगली बार जब वे आएं तो यहीं के मिल के चीनी की चाय पीकर उसकी मिठास दिल्ली तक ले जाएंगे। प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने विधानसभा चुनाव में भी एक रैली की थी लेकिन तबतक न चीनी मिल चालू हुए और न ही वो मिल के चीनी की चाय पीकर मिठास को दिल्ली ले गए।
सांसद राधामोहन सिंह के कृषि मंत्री बनने के बाद चंपारण की जनता को उनसे काफ़ी उम्मीदें रही होंगी क्योंकि एक कृषि अर्थव्यवस्था वाले जिले को कृषि कल्याण मंत्री मिलना सौभाग्य की बात थी लेकिन अब वे खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं। किसानों और मिल के मजदूरों में अपने सांसद सह कृषि मंत्री के ख़िलाफ़ घोर आक्रोश है। जब पत्रकार चीनी मिल को लेकर उनसे सवाल करते हैं तो मंत्री जी उल्टे पांव भागते हैं।
मिल चालू करने के सवाल पर कृषि मंत्री गन्ने को घाटे की फसल बताते हैं
चीनी मिल मजदूर यूनियन के महामंत्री परमानंद ठाकुर बताते हैं कि मिल चालू कराने और अन्य मांगों को लेकर उन्होंने कृषि मंत्री और उनके कार्यालय से बार–बार संपर्क करने की कोशिश की लेकिन कभी कोई आश्वासन तक नहीं आया। मंत्री कहते हैं कि मिल प्राइवेट है और गन्ना भी घाटे की फसल है तो कैसे चलेगा। उनका कहना है कि इस मामले में वे कुछ भी नहीं कर सकते। कृषकों के अनुसार पूर्वी चंपारण पूर्ण रूप से कृषि अर्थव्यवस्था वाला जिला है और चीनी मिल बंद होने के बाद से यहां की अर्थव्यवस्था एकदम चौपट सी हो गई है। लोग बताते हैं कि चीनी मिल चालू कराने के नाम पर यहां कई लोग नेता बनकर सत्तासुख भोग लिए लेकिन किसी ने भी इसके उद्धार के लिए कोई प्रयास नहीं किये। मोतिहारी और चकिया की चीनी मिल करीब चार हज़ार परिवारों के रोजी रोटी का स्रोत थी लेकिन अब लोगों को रोजगार के अभाव में यहां से पलायन करना पड़ रहा है। किसानों और मजदूरों का मिलाकर मिल के पास इनका कुल बकाया 40 करोड़ के लगभग बताया जाता है।
सरकारी आदेश के बावजूद मिलें गन्ना खरीद में करती है मनमानी
किसान बताते हैं कि गन्ने में तीन प्रकार के प्रभेद होते हैं जिसके आधार पर मिल उनसे गन्ना खरीदती है। उच्च क्वालिटी का गन्ना सबसे पहले खरीदा जाता है और उसके बाद सामान्य क्वालिटी और सबसे अंत में निम्न को खरीदा जाता है या फिर नहीं भी। किसानों ने जब प्रभेद को खत्म करने की मांग उठाई तो सरकार की तरफ़ से ये बात मान ली गई और आदेश आया कि मिल अब गन्ने में प्रभेद के आधार पर खरीद बंद करे। बावजूद इसके भारत सरकार के अधीनस्थ सुगौली चीनी मिल ने इस आदेश को नहीं माना और नतीजा कि 20 फीसद गन्ना अब भी खेतों में पड़ा हुआ है। किसान अब उसे धीरे–धीरे जलाने को मजबूर हो गए हैं।
किसान–मजदूरों के करोड़ों बकाया, दो मजदूरों ने कर लिया था आत्मदाह
मोतिहारी चीनी मिल बिड़ला ग्रुप की है और इसके मालिक हैं विमल नोपानी। मिल के पास किसानों और मजदूरों का कुल बकाया लगभग 40 करोड़ बताया जाता है। कई किसान और मजदूर हमें ऐसे भी मिले जो 17-18 साल से इस इंतज़ार में हैं कि शायद किसी दिन मिल उनके बकाये का भुगतान कर दे। इसी से तंग आकर चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह के दौरान 10 अप्रैल 2017 को मिल के गेट पर दो किसानों ने आत्मदाह कर लिया था। आज उस घटना को 2 साल होने जा रहे हैं लेकिन सरकार के तरफ़ से किसी ने भी उनके परिवार की सुध नहीं ली। उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ज़रूर उस वक्त आये थे लेकिन स्थानीय लोग आरोप लगाते हैं कि वे अपने रिश्तेदार और मिल मालिक नोपानी के लिए केस मैनेज करने आये थे।
किसान बताते हैं कि उसी दिन मोतिहारी में मुख्यमंत्री से लेकर कृषि मंत्री राधामोहन सिंह तक सभी मौजूद थे लेकिन कोई इधर झांकने तक नहीं आया। सभी लोग चंपारण सत्याग्रह समारोह के जश्न में डूबे हुए थे। मोतिहारी के एक किसान महावीर प्रसाद का मिल के पास 1 लाख रुपया बकाया है। यह बकाया 2002 से ही है। बीच में जब मिल चालू हुई तब उन्हें आश्वासन दिया गया कि इस बार चीनी बेचकर भुगतान कर दिया जाएगा, तो उन्होंने एक और सीज़न का गन्ना मिल को दे दिया लेकिन एक पाई अब तक उनके हाथ में नहीं आई। कमोबेश ऐसी ही कहानी यहां के हज़ारों किसानों की है।
मजदूर यूनियन के परमानंद ठाकुर और रामाधार सहनी बताते हैं कि पिछले 17 साल से यहां के मजदूरों को वेतन नहीं मिला है। कभी मिला भी तो आधा मिला या 25 फीसदी मिला। साहनी बताते हैं कि जब भी वे कुछ दिनों के लिए अनुपस्थित हुए तो नोटिस में केस कर देने की धमकी आती है। अपने बीच के मजदूरों के आत्मदाह के बाद मालिक और प्रबंधक ने उल्टा इनपर ही मुकदमा कर दिया था जिसके चलते कुछ दिनों तक इन्हें दूसरी जगह जाना पड़ गया था। बहुत निराशा के साथ वे बताते हैं कि चीनी मिल के चलते वे खुद तो बर्बाद हुए ही, उनकी अगली पीढ़ी भी बर्बाद हो गई।
गन्ना उत्पादन अब बनता जा रहा घाटे का सौदा
पूर्वी पश्चिमी चंपारण में कुल 13 चीनी मिलें हैं जिसमें लौरिया और सुगौली भारत सरकार के अधीनस्थ है। बकाया भुगतान को लेकर हालांकि स्थिति कहीं भी ठीक नहीं है। बकाये को लेकर पिछले साल जब किसानों ने सुगौली मिल के महाप्रबंधक से बात की तो उन्होंने कहा कि चीनी नहीं बिक पाने के कारण वे किसानों को उनके बकाये का भुगतान नहीं कर पा रहे हैं। भारत सरकार पाकिस्तान से चीनी आयात कर रही है जिसका नतीजा मिल चीनी नहीं बेच पा रही है और उन्होंने आश्वासन दे दिया कि जब वे चीनी बेचेंगे तो किसानों को उनका बकाया भुगतान कर दिया जाएगा। मिल के इस तर्क पर किसान कहते हैं कि बिहार के ये दो–तीन जिले आधे भारत को चीनी की आपूर्ति कर पाने में सक्षम हैं और उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र भी चीनी के बड़े उत्पादक राज्य हैं तो पाकिस्तान से चीनी आयात करने की ज़रूरत आखिर क्यों पड़ रही है। बाद में हालांकि पाकिस्तान से चीनी आयात होना बंद हो गया, तो फिर क्या कारण है कि चार महीने हो गए लेकिन अभी तक हमारा एक भी पैसा नहीं मिला है।
किसानों को पूर्वी चंपारण से बाहर की मिल में अपना गन्ना भेजने के लिए पांच हज़ार/टेलर देना पड़ता है लेकिन मिल से उन्हें कब पैसा मिलेगा वो कोई नहीं जानता। कई किसान हमें ऐसे भी मिले जो बताते हैं कि उन्होंने गन्ने की खेती के लिए लोन ले रखा है जिसका ब्याज उन्हें बैंक को देना पड़ता है लेकिन सरकारी मिलों के पास जो उनका पैसा है उसे लेकर सरकार अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझती।
सरकारी उदासीनता ही है एकमात्र कारण
गन्ने के रस से एथेनॉल बनाने के सरकारी आदेश के बाद किसानों को उम्मीद थी कि अब उनकी आमदनी बढ़ सकती है। भारत सरकार के अधीनस्थ सुगौली मिल के बारे में पत्रकार आनंद प्रकाश बताते हैं कि वह मुख्य रूप से एथेनॉल ही बनाती है। ऐसे में सरकार के पास विकल्प की कोई कमी नहीं है बावजूद इसके इतनी उदासीनता क्यों है ये तो सरकार ही जाने। किसानों की आमदनी दोगुना करने के सवाल पर किसान कहते हैं कि सरकार भाषणबाजी करने के बजाय चंपारण में आकर देखे कि किसी फसल का सबसे बढ़िया उत्पादक बेल्ट होने के बावजूद वहां के किसान निराश होकर उसकी खेती छोड़ने को मजबूर क्यों हैं। ठाकुर बताते हैं कि अगस्त 2018 में उन्होंने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने 2014 में किये गए वादे को प्रमुखता से डाला था लेकिन उसका कोई जवाब नहीं आया है।
लूट और घोटाले का अड्डा बन गई चीनी मिल
जब इन चीनी मिलों की शुरुआत हुई थी तो सरकार ने प्राइवेट मिलों को भी एक भूभाग दिया था जिसपर वे अपना गन्ना उत्पादन करें ताकि विषम परिस्थितियों में मिल का काम रुके नहीं। ऐसा ही एक बड़ा भूभाग मोतिहारी चीनी मिल को भी मिला जिसे मिल मालिक नोपानी के नेतृत्व में कई माफ़िया और सरकारी बाबू मिलकर लूट रहे हैं। मिल को घाटे में बताकर एसेट के रूप में उन जमीनों को बेचा जा रहा है। आज स्थिति यह है कि चीनी मिल के आधे से भी ज़्यादा जमीन पर एक पूरा का पूरा मोहल्ला बस गया है। अगर एसेट बेचा जा रहा है तो फिर किसानों और मजदूरों का भुगतान क्यों नहीं किया जा रहा है। किसानों के मुताबिक इस खेल में बड़े–बड़े लोग शामिल हैं, तभी यह खेल बेख़ौफ़ जारी है।
क्या चीनी मिल बन सकता है चुनावी मुद्दा?
चीनी मिल पूर्वी पश्चिमी चंपारण के लिहाज से कोई छोटी चीज़ नहीं है। कृषि योग्य भूमि के आधे हिस्से में जहां गन्ना उत्पादन होता हो वहां अगर गन्ना किसानों की स्थिति बदहाल है तो समझिये ये एक नहीं हर घर का मुद्दा है। इस लोकसभा चुनाव में चंपारण की धरती पर प्रधानमंत्री की कोई प्रस्तावित रैली है या नहीं ये नहीं पता लेकिन किसान और मजदूर वहां ज़रूर यह पूछने को बैठे हैं कि उन्होंने जो वादा किया था उसे पूरा क्यों नहीं किया? क्या दिल्ली तक इस मिल के चीनी की मिठास पहुंची? कृषि मंत्री राधामोहन सिंह तो पहले से ही एंटी इनकंबेंसी झेल रहे हैं, ऐसे में यहां की जनता क्या फैसला लेती है यह देखना दिलचस्प होगा। किसी की भी बने, यहां के गन्ना किसानों की बदहाल स्थिति को लोकसभा चुनाव में प्रमुखता से उठाना बहुत ज़रूरी है।
(ऋषिकेश शर्मा स्वतंत्र पत्रकार और पत्रकारिता के छात्र हैं)