प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक और अर्थशास्त्री समीर अमीन बीते 13 अगस्त को पेरिस में गुज़र गए। उनका जन्म काहिरा में 3 सितंबर, 1931 को हुआ था। उनके पिता मिस्र के थे और उनकी मां फ्रेंच थीं। उनकी शुरुआती पढ़ाई-लिखाई मिस्र मे ही हुई। आगे की पढ़ाई पेरिस से करते हुए उन्होंने राजनीतिक अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि ली। छात्र जीवन से ही वे समाजवाद से सरोकार रखते आए थे। बहुत जल्द वे मिस्र की कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बन गए। उन्होंने 1957 से 1960 के बीच काहिरा के इंस्टिट्यूट फॉर इकनॉमिक मैनेजमेंट में काम किया। फिर नासिर की तानाशाही में कम्युनिस्टों के दमन के चलते उन्हें देश छोड़कर जाना पड़ा। वे सेनेगल के डकार में जा टिके। वहां वे यूएन अफ्रीकन इंस्टिट्यूट ऑफ इकनॉमिक डेवलपमेंट के निदेशक रहे और बाद में थर्ड वर्ल्ड फोरम के अफ्रीकी कार्यालय के निदेशक बने।
अपने समकालीन ज्यादातर मार्क्सवादी बौद्धिकों की तुलना में समीर अमीन दो कारणों से अलग थे। अव्वल तो समाजवाद के लक्ष्य के लिए प्रैक्सिस के प्रति उनकी निरपेक्ष और अडिग प्रतिबद्धता रही। वे कोई आरामतलब सिद्धांतकार नहीं थे जो समकालीन यथार्थ का विश्लेषण करने के लिए मार्क्सवाद के उपकरणों का इस्तेमाल करता हो और इसे एक पृथक बौद्धिक अभ्यास की तरह बरतता हो। इसके उलट वे एक संजीदा और प्रतिबद्ध एक्टिविस्ट थे, जिसके लिए बौद्धिक विमर्श अनिवार्यत: प्रैक्सिस का पूरक कार्य रहा। वे हमेशा साथी एक्टिविस्टों को संगठित करने में लगे रहे ताकि परिवर्तन लाने के लिए प्रभावी हस्तक्षेप किए जा सकें। इसी के चलते वे ज़मीनी आंदोलनों के साथ काफी करीब से जुड़े रहे। सेनेगल के कम्युनिस्ट आंदोलन से लेकर तमाम किस्म के एनजीओ संचालित आंदोलनों के साथ उनका जुड़ाव था और बदले में ये आंदोलन भी मदद और दिशा के लिए इनकी ओर ताकते रहते थे।
उनकी दूसरी विशिष्टता अपने मार्क्सवादी विमर्श में साम्राज्यवाद को केंद्रीय तत्व की तरह बरतना था। नवउदारवादी वैश्वीकरण को आम तौर से साम्राज्यवाद के छीजते जाने की प्रक्रिया के रूप में देखने वाले विकसित देशों व तीसरी दुनिया के कई मार्क्सवादियों (मंथली रिव्यू समूह इसका एक अपवाद कहा जा सकता है) की तुलना में उनका यह प्रस्थान-बिंदु एकदम अलहदा था। अमीन साम्राज्यवाद को न सिर्फ पूंजीवाद के केंद्रीय तत्व के रूप में देखते थे बल्कि श्रम के मूल्य के सिद्धांत के खांचे में उसे परखते थे। इसके लिए उन्होंने असमान विनिमय के सिद्धांत पर जो काम किया था, उसी के लिए उन्हें जाना जाता है।
यह तथ्य व्यापक रूप से स्वीकार्य है कि महानगरीय पूंजीवाद के साथ तीसरी दुनिया के नत्थी हो जाने के चलते असमान विनिमय की एक प्रक्रिया का उभार हुआ। यहां सवाल हालांकि उस ‘’मानक’’ से जुड़ा है जिसके बरक्स विनिमय को हम असमान कहते हैं। बहुत से लोगों ने इस प्रस्थापना को स्वीकार किया है, जो मिशेल कलेकी के इस विश्लेषण से निकला है कि महानगरीय पूंजीवाद के भीतर ‘’एकाधिकार की हद’’ में बढ़ोतरी ने तीसरी दुनिया में मूल जिंस उत्पादकों के दोहन में इजाफा किया है। इससे हालांकि मानक अथवा स्रोतबिंदु तय करने के लिहाज से कोई विशिष्ट ऐतिहासिक तिथि तय करना समीचीन हो जाता है (एक ऐसी तिथि जहां से एकाधिकार की हद में बढ़ोतरी को मापा जा सके) जिसके बरक्स हम विनिमय में असमानता को अवस्थित कर सकें।
अमीन सहित असमान विनिमय के अन्य सिद्धांतकारों, जैसे कि इमैनुएल ने किसी तिथि को प्रस्थान-बिंदु मानने के बजाय एक अवधारणात्मक स्थिति को मानक मानना उचित समझा। अमीन के लिए असमान विनिमय इस तथ्य में परिलक्षित होता है कि परिधि पर साधारण श्रम की एकल इकाई द्वारा एक निश्चित अवधि में किया गया मूल्य-संवर्द्धन दरअसल केंद्र में (यानी महानगरों में) इसी अवधि के भीतर साधारण श्रम की एकल इकाई द्वारा किए गए मूल्य-संवर्द्धन के मुकाबले कम गिना जाता है। इसका संबंध इस तथ्य से भी है कि परिधि पर श्रमबल का मूल्य महानगरों में उसके मूल्य से कम होता है।
यहां यह स्पष्ट होता है कि अमीन के लिए असमान विनिमय अपने आप में कोई अवधारणात्मक केंद्रीयता रखने वाली चीज़ नहीं है बल्कि मूल सवाल अतिशोषण (सुपर-एक्सप्लॉयटेशन) का है। मसलन, कुल श्रम अवधि (प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष) को समान रखते परिधि व केंद्र में उत्पादित जिंसों के परस्पर विनिमय में जब तक परिधि पर श्रमबल का मूल्य केंद्र में श्रमबल के मूल्य से कम बना रहेगा, अतिशोषण जारी रहेगा। इकलौता फ़र्क यह आएगा कि ज्यादा मुनाफा उनका बनेगा जो परिधि पर उत्पादित जिंसों का विक्रय करते हैं (और ये विक्रेता महानगरों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी हो सकती हैं)। इसीलिए साम्राज्यवाद और असमान विनिमय की अमीन की अवधारणा के केंद्र में परिधि के मजदूरों का अतिशोषण स्थित है।
उनक कुछ आलोचक, जैसे कि चार्ल्स बेतलेहम, दलील देते हैं कि श्रम की उत्पादकता के सापेक्ष श्रमबल का मूल्य परिधि के मुकाबले महानगरों में कम होता है लिहाजा परिधि के मजदूरों के अतिशोषण का सवाल ही नहीं उठता। इसका ज़ाहिर जवाब यह बनता है कि चूंकि दोनों क्षेत्र असमान जिंसों का उत्पादन करते हैं (जिसका लेना-देना श्रम के अंतरराष्ट्रीय विभाजन की औपनिवेशिक परिपाटी से है) लिहाजा श्रम की उत्पादकता की तुलना भौतिक संदर्भों में संभव नहीं है, चूंकि ऐसी तुलना अपने आप असमान विनिमय के प्रभाव को अपने भीतर समाहित किए हुए होगी। यह तुलना वास्तव में मूल्य के संदर्भ में की जानी होगी। संक्षेप में, यदि आप असमान विनिमय के प्रभाव का इस्तेमाल असमान विनिमय के मूल तथ्य को ही गलत ठहराने के लिए करते हैं, तो यह विडंबना के सिवाय और कुछ नहीं है।
श्रम के अंतरराष्ट्रीय विभाजन की औपनिवेशिक परिपाटी हालांकि असमान विनिमय के सिद्धांत के संबंध में एक सवाल खड़ा करती है। यदि श्रमबल का मूल्य केंद्र के मुकाबले परिधि पर कम है, तब क्यों नहीं सारी गतिविधियां परिधि से केंद्र की ओर स्थानांतरित हो जातीं। यह अपने आप में उस श्रम-विभाजन का निषेध कर देगा जिसके अंतर्गत परिधि मोटे तौर पर प्राथमिक जिंसों के उत्पादन तक सीमित रही आई जबकि केंद्र ने विनिर्माण के काम किए।
यह सवाल इमैनुएल के असमान विनिमय सिद्धांत के संदर्भ में तो और ज्यादा प्रमुखता से खड़ा होता है, जिनका कहना था कि परिधि और केंद्र पर उत्पादित जिंसों का विनिमय उनके उत्पादन मूल्य पर होता है न कि परिधि के मुकाबले केंद्र में मिलने वाली कम मजदूरी के आधार पर बने मूल्यों के हिसाब से। इमैनुएल मोटे तौर पर यह कह रहे थे कि पूंजी की आवाजाही दोनों बिंदुओं पर मुनाफे की दर को बराबर कर देती है, जबकि दोनों ही अपने-अपने उत्पादों के उत्पादन में विशेषज्ञता बनाए रखते हैं। इससे जो सवाल पैदा होता है, वो यह है कि पूंजी की यह आवाजाही आखिर इस विशेषज्ञता को पूरी तरह विरूपित क्यों नहीं कर देती और नतीजतन क्यों नहीं विनिर्माण का सारा धंधा केंद्र से उठकर परिधि पर स्थानांतरित हो जाता?
आज बिलकुल यही परिघटना हमें वैश्वीकरण के तहत एक सीमा तक देखने को मिल रही है, फिर भी यह दोनों क्षेत्रों के बीच श्रमबल के मूल्य में व्याप्त अंतर को नहीं मिटा सकी है (हालांकि दोनों का अलहदा दिशाओं में बढ़ना थम गया है चूंकि महानगरों में श्रम-उत्पादकता बढ़ने के साथ मजदूरी का बढ़ना रुक चुका है)। कहने का मतलब यह है कि समीर अमीन दरअसल केवल असमान विनिमय की सैद्धांतिकी ही नहीं गढ़ रहे थे बल्कि पूंजीवाद को कई चरणों से होकर गुज़रने वाली एक वैश्विक व्यवस्था के रूप में भी देख रहे थे (जिसमें मौजूदा वैश्वीकरण सबसे हालिया चरण है) और इस तथ्य को सूत्रीकृत कर रहे थे कि परिधि पर किया जाने वाला श्रम पूंजीवाद के प्रत्येक चरण में अतिशोषित ही रहता है। यह वैश्विक स्तर पर पूंजी के संकेंद्रण के मद्देनज़र मार्क्स के विश्लेषण को आगे बढ़ाने का एक अहम काम था।
समीर अमीन के विश्लेषण से यह सुस्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि परिधि को यदि वास्तविक प्रगति करनी है तो उसे वैश्विक पूंजीवाद से खुद को असम्पृक्त करना होगा। मेरे खयाल से असम्पृक्तता की ऐसी ज़रूरत पर अमीन ने जैसी निरंतरता और ताकत से बल दिया है, वैसा किसी ने नहीं किया। जापान इस मामले में अपवाद है जो महानगरीय पूंजीवाद का हिस्सा न होते हुए भी विकसित देशों की कतार में शामिल हो गया। वह ऐसा करने में इसलिए समर्थ हुआ क्योंकि वह कभी उपनिवेश नहीं रहा। और कोई भी देश इस कोशिश में अब तक कामयाब नहीं हो सका है, हालांकि अमीन के मुताबिक चीन में अकेले इसकी क्षमता दिखती है, जिसका श्रेय माओ के दौर में किए गए दीर्घकालिक सुधारों की पृष्ठभूमि को जाता है (बशर्ते पश्चिम के सैन्य आक्रमण का उसे शिकार न बनना पड़े, जैसा कि अमीन के मुताबिक चीन और उत्तर-सोवियत रूस के लिए बराबर खतरा है)।
अमीन साफ़ तौर से मानते थे कि नवउदारवादी पूंजीवाद का मौजूदा चरण अपने अंतिम छोर पर पहुंच चुका है। ऐसा नहीं कि खुद पूंजीवाद अनिवार्यत: किसी ऐसी सुरंग के दूसरे छोर पर पहुंच चुका हो जिसका मुंह बंद है। असल सवाल यह है कि यहां से आगे किधर जाना है। पूंजीवादी समायोजन के किसी नए दौर में या समाजवाद की ओर? यह हमारी प्रैक्सिस पर निर्भर करेगा। यही कारण है कि अपनी तकरीबन आखिरी सांस तक अमीन खुद क्रांतिकारी प्रैक्सिस में सक्रिय रहे और दूसरों को भी सक्रिय होने को प्रोत्साहित करते रहे। वे तो नए इंटरनेशनल के गठन तक का सुझाव दे रहे थे ताकि दुनिया भर में क्रांतिकारी प्रैक्सिस को समन्वित किया जा सके।
उनके स्वभाव की गर्मजोशी, कामरेडाना व्यवहार और दयालुता के बगैर अमीन के जीवन का कोई भी विवरण अधूरा रहेगा। उनका उत्साह, उनकी हँसी और लोगों को जोड़ने व उन्हें एक क्रांतिकारी प्रैक्सिस की ओर प्रवृत्त करने की उनकी अदम्य ऊर्जा किसी को भी संक्रमित और ऊर्जित कर देती थी जो उनके संपर्क में आता था। उनसे बात करना अपने आप में सीखने का एक सुखद अनुभव था, भले आप उनसे सहमत हों या नहीं। वे बात करते वक्त आपको तमाम विषयों की सैर पर ले जाते थे, युद्धोत्तर फ्रांस से लेकर 2008 के वित्तीय संकट तक वाया बांडुंग सम्मेलन। यह एक ऐसे कम्युनिस्ट से बात करने का सुख था जिसके मन में अब तक आस्था शेष थी। उनके तमाम दोस्त, कॉमरेड और प्रशंसकों को उनकी कमी बहुत अखरेगी।
(साभार: समयांतर)