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बीजेपी के राज में मुसलमानों के हाशियाकरण का अर्धसत्य

सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में मुसलमान सांसदों की संख्या 22 से बढ़कर 27 हो गयी है। फिर क्या माना जाए कि देश पुराने समय में लौट आया है और भाजपा अब मुसलमानों के खिलाफ उस रूप में उग्र नहीं रह गयी है जिस रूप में पहले थी?

वैसा बिल्कुल नहीं हुआ है। सत्ताधारी एनडीए के घटक दलों के सांसदों की संख्या भी बढ़ी है लेकिन मुसलमान सांसदों की संख्या देखें तो पूरे एनडीए से कुल एक मुसलमान सांसद है जबकि बीजेपी के 303 सांसदों में एक भी मुसलमान नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद नरेन्द्र मोदी की कैबिनेट में तीन मुसलमान मंत्री थे जबकि इस बार मुसलमान के नाम पर सिर्फ मुख्तार अब्बास नकवी हैं।

इस पूरे समीकरण को किस रूप में पढ़ा जाना चाहिए या देखा जाना चाहिए? क्या हमें मान लेना चाहिए कि मुसलमानों की राजनीति का खात्मा हो गया है या फिर यह मानना चाहिए कि मुसलमान को अपनी राजनीति कुछ अलग तरह से करने की जरूरत है!

राजनीति के इस कालखंड के विकास को समझने के लिए हमें मंडल की राजनीति के शुरूआती दिनों को देखने की जरूरत होगी। अगर इसे मुसलमान बनाम हिन्दू के रूप में देखेंगे तो हमें वही चीजें नहीं दिखाई पड़ेंगी जो हम देखना चाहते हैं बल्कि वही दिखाई देगा जो बीजेपी-आरएसएस के बौद्धिक हमें दिखाना चाहते हैं।

उदाहरण के लिए, वर्तमान समय में जो माहौल बना दिया गया है उससे लगता है कि पूरे उत्तर भारत में मुसलमानों को धकिया कर किनारे कर दिया गया है। जबकि हकीकत यह है कि भाजपा की सफलता के सबसे बड़े गढ़ उत्तर प्रदेश में भी छह सीटें मुसलमानों ने जीती हैं। उसी तरह जिस राज्य में बीजेपी ने धार्मिक स्तर पर सबसे अधिक ध्रुवीकरण करवाया, उस पश्चिम बंगाल से भी छह मुसलमान सांसद जीत कर संसद भवन पहुंचे हैं। इसलिए यह कहना कि मुसलमानों को राजनीतिक रूप से बीजेपी के शासनकाल में हाशिये पर ला दिया गया है वह पूरी तरह सही नहीं है, बल्कि अर्धसत्‍य जैसा है।

उत्तर भारत के पिछले तीस वर्षों की राजनीति का लेखा-जोखा करें तो हम पाते हैं कि मुसलमानों को भी वही कीमत चुकानी पड़ी है जो कई राज्यों में कुछ खास जातियों को चुकानी पड़ी है। उदाहरण के लिए, मोदी-शाह के राजनीतिक क्षितिज पर काबिज होने के बाद महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में महारों को, उत्त्तर प्रदेश में चमारों को, हरियाणा में जाटों को व बिहार और उत्तर प्रदेश में यादवों को भी मुसलमानों की तरह हाशिये पर ला दिया गया है। जबकि हरियाणा में पांच साल पहले तक जाट मुख्यमंत्री था, उत्तर प्रदेश में दो साल पहले तक यादव मुख्यमंत्री था।

महाराष्ट्र की बात करें तो महार भले ही वहां मुख्यमंत्री न रहा हो, लेकिन दलितों का सबसे मुखर आवाज था, सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिकी में उनकी सुनी जाती थी। बिहार की स्थिति थोड़ी भिन्न थी क्योंकि वहां लालू यादव 2005 में ही सत्ता से बेदखल कर दिए गए थे लेकिन यादवों को पूरी तरह हाशिये पर ढ़केलने में बीजेपी और नीतीश को सफलता नहीं मिली थी, जो पिछले दो वर्षों में मिली है।

आरएसएस-बीजेपी ने इसके लिए पूरी तैयारी की, जाल बिछाया और उन जातियों के नेता उसमें फंसते चले गए। बिहार और उत्तर प्रदेश में जाटवों और यादवों ने मुसलमानों के साथ मिलकर सामाजिक ताने-बाने को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जब भाजपा के नेतृत्व में धार्मिक कट्टरता अपना वजूद लगातार फैलाए जा रही थी तो उसे सीधे तौर पर इन्हीं दो जातियों ने चुनौती दी। इसके लिए उन्होंने या तो गठबंधन बनाया या फिर एक साथ आए।

बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद कांशीराम और मुलायम सिंह ने मिलकर गठबंधन बनाया जिसमें मुसलमानों ने सीधे तौर पर भूमिका निभाई। इसी का परिणाम था कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद भी बीजेपी उत्तर प्रदेश में सत्ता पर तत्काल काबिज नहीं हो पाई जबकि उसके पास कल्याण सिंह जैसे बड़े रुतबे वाले नेता थे।

यही हाल बिहार में था। जबर्दस्त धार्मिक गोलबंदी का लालू ने जातिगत गोलबंदी से मुकाबला किया जिसमें मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग नहीं होने दिया।

बदली हुई परिस्थिति में हालांकि बीजेपी ने ब्लूप्रिंट में फेरबदल किया। उसने उत्तर प्रदेश में दलितों के बीच गोलबंदी करनी शुरू की और दलितों के ही नायकों की व्याख्या हिन्दुत्व के इर्द-गिर्द करनी शुरू कर दी। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित बद्री नारायण ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दुत्व का मोहिनी मंत्र’ में इस बात का विस्तार से जिक्र किया है कि किस प्रकार बीजेपी ने दलितों के प्रतीकों को हिन्दुत्व के नायकों के रूप में पेश किया। चूंकि हमारा इतिहास दमितों के इतिहास के प्रति हमेशा से ही क्रूर रहा है इसलिए समाज की सभी जातियां अपने को ब्राह्मण के समानान्तर रखने की कोशिश करती हैं। इसी कारण दलितों के प्रतीक भी हिन्दुत्व के नायकों की तरह मुसलमानों और अपने से कमतर जातियों के खिलाफ अवतरित किए जाने लगे।

इसलिए यहां सवाल यह नहीं है कि लोकतांत्रिक पद्धति में मुसलमानों की हैसियत खत्म हो नहीं हो पायी है या हो गई है। यहां सवाल यह है कि उनकी हैसियत कितनी रह गई है? और इसका जवाब यह है कि मुसलमानों की हैसियत पिछले पांच वर्षों में बिहार, उत्तर प्रदेश के यादवों, हरियाणा के जाटों, महाराष्ट्र के महारों और उत्तर प्रदेश के जाटवों से ज्यादा बुरी नहीं है। बस यहां एकमात्र अंतर यह है कि मुसलमानों के बारे में बार-बार बताया जाता है कि उनकी हैसियत खत्म कर दी गई है जबकि उन जातियों के बारे में कहा जाता है कि तुम्हें किनारे लगाया जा रहा है। वास्तविकता यह है कि उन जातियों को सिर्फ वोटर बना कर रख दिया गया है। अब उनकी हैसियत राजनीतिक शक्ति की नहीं रहने दी गई है।

कुछ लोगों का यह सवाल हो सकता है कि जब उन जातियों की हैसियत खत्म कर दी गई है तो नित्यानंद राय, संजीव बालियान या फिर मुख्तार अब्बास नकवी को मंत्री क्यों बनाया गया है? तो इसका जवाब सिर्फ यह है कि वे बीजेपी के गमले हैं जिन्हें घर सजाने के लिए वक्त-बेवक्त इस्तेमाल किया जाता है।

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