मैं एक छोटे तंग कमरे में फर्श पर बैठा मरीज़ों को देख रहा था, जब मैंने कमरे के बाहर किसी के गिरने की आवाज़ सुनी। एक युवती बेहोश होकर गिरी हुई थी। मैंने फर्श पर ही उसकी जांच की, क्योंकि जहां मैं दवाखाना चला रहा था वहां उन्हें लिटाने की कोई और व्यवस्था नहीं थीI वह कमज़ोर दिख रही थी पर उसकी नब्ज़ स्थिर थी। उसका रक्तचाप थोड़ा कम था, पर वो ठीक ही लग रही थी। वह कुछ मिनटों में होश में लौटी।
एक सप्ताह पहले, उस इलाके में ‘सांप्रदायिक दंगा’ हुआ था। स्थानीय लोगों के एक विरोध प्रदर्शन के बाद, एक सुनियोजित भीड़ ने उनके घरों पर हमला बोल दिया था, हाथ में पत्थर और घर जलाने के लिए मशाल लिए। फिर पुलिस आई। और उसने वही किया जो स्थिति पर ‘नियंत्रण’ के लिए हमेशा करती है। आंसू-गैस के गोले दागे, लाठी चार्ज किया और कुछ .303 गोलियां दागीं, उस कुख्यात प्रथम विश्वयुद्ध की एनफील्ड राइफलों से जो दिल्ली पुलिस को 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ‘बाग़ियों’ से लड़ने के लिए दी गई थीं। उसके बाद बस्ती की घेराबंदी की गई और इस संवेदनशील इलाके में कर्फ्यू लगा दिया गया। युवा लड़कों को पुलिस मनमाने ढंग से उठाने लगी। उनमें से कई अगले कुछ सालों तक फिर दिखाई नहीं दिए।
(‘संवेदनशील इलाका’ ऐसी जगह को कहा जाता है जहां धार्मिक अल्पसंख्यक या दलित/आदिवासी समुदायों के गरीब लोग रहते हैं। उदाहरण के लिए जोर बाग, गोल्फ लिंक्स, सुंदर नगर और वसंत विहार ‘संवेदनशील इलाके’ नहीं हैं।)
खैर, जिस दिन कर्फ्यू में कुछ ढ़िलाई हुई, हम कुछ कार्यकर्ताओं के साथ दंगा प्रभावित क्षेत्र में गए थे। जो दृश्य हमने वहां देखा, वैसा ही था जैसा 1947 के बारे में मेरे माता-पिता ने मुझे बताया था या 1984 में जो मैंने खुद देखा था, बस शुक्र है कि यह थोड़ा छोटे पैमाने पर था। अधजले घरों में बीमार और कमज़ोर लोग। शरीर, दिल और आत्मा से घायल पुरुष, नाउम्मीद बैठे हुए, हिम्मत हारे हुए, अपनी उदास आँखों से हमें देख रहे थे। महिलाएं तो खैर कहीं दिखाई नहीं दे रही थीं। हमें तुरंत लगा कि हमें ‘कुछ करना चाहिए’। हमने लोगों से बात करने की कोशिश की और उनमें से कुछ जो बोल सके, उनसे पता चला कि उनके घर में या पड़ोस में कोई न कोई बीमार व्यक्ति है जिसे तुरंत चिकित्सकीय सहायता की ज़रुरत है। हमने ज़रूरत की चीज़ों की सूची बनायी ताकि हम प्रथमोपचार जैसा कुछ शुरू कर सकें। हमने कुछ बुनियादी दवाएं खरीदीं, जो अधिक मात्रा में खरीदी जाएँ तो बहुत सस्ती आती हैं।
स्थानीय लोगों ने एक कमरे की व्यवस्था की जो ऐसे घर में था जिसका कुछ हिस्सा जला हुआ था। हमने अपना अस्थाई दवाखाना वहां शुरू किया। हमने खांसी के सिरप, एंटीबायोटिक्स अथवा दर्द निवारक गोलियां, दमे की दवाइयां आदि बांटना शुरू की, और कभी कभार ज़ख्मों पर पट्टी कर दिया करते थे। उस महिला पर लौटें जो बेहोश हो गयी थी- मैंने उन्हें पानी दिया, एक कप चाय पिलाई और थोड़ा दिलासा व दवाएं देकर विदा किया।
बस्ती में हर दिन मैंने अपने देश के बारे में, लोगों के बारे में और जीवन के बारे में नयी-नयी बातें देखीं, जो मैं पहले नहीं जानता था। मैं गरीबी को प्रत्यक्ष रूप से अपने सामने देख रहा था। मैं अपने समय के कई बड़े कलाकारों से, संगीतकारों से मिला जो उपेक्षा की वजह से ख़तम हो रहे थे, और भी कई किस्से हैं, पर वह मैं और किसी दिन सुनाऊंगा।
दवाखाने में लगभग रोज़ जो मैंने अद्भुत बात देखी वह युवतियों का दवाखाने में या घर में अचानक बेहोश होकर गिर पड़ने की घटनाएं थीं। पहले दिन मैंने एक युवती को अचानक बेहोश हुए देखा था, दो हफ्ते बीतते-बीतते यह संख्या बढ़कर रोज़ लगभग चार-पांच हो गयी। मैं हैरान हो गया। चिकित्सकीय जांच में मैंने उन्हें ठीकठाक पाया। सभी युवा थीं, 20 वर्ष की उम्र से 40 वर्ष की उम्र के अन्दर ही होंगी, पर फिर भी वह बेहोश होतीं। वह सब गरीब थीं पर उनके परिवारों के पुरुष कोई भुखमरी के शिकार नहीं थे, तो फिर समस्या क्या थी? उस इलाके के पुरुष आम तौर पर रेहड़ी-पटड़ी वाले, साइकिल पंक्चर ठीक करने वाले, कारीगर, बढ़ई, मेकैनिक, बिजली का काम करने वाले, रिक्शा खींचने वाले, बस कंडक्टर और अन्य तरह की दिहाड़ी पर काम करने वाले थे, जो कर्फ्यू के कारण काम पर नहीं जा पा रहे थे और इसीलिए कमा नहीं पा रहे थे। जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे उनकी मामूली बचत गायब होती जा रही थी। जाड़े की गुनगुनी धूप में पुरुष बेकार, हताश भटकते रहते थे, पर फिर भी ठीकठाक दिखते थे। कभी कभार मज़ाक भी कर लेते थे। भुगतना औरतों को पड़ता था। उन्हें अपना चूल्हा जलाए रखने के लिए, अपने बच्चों की देखभाल के लिए, और जिन्हें पुलिस उठा ले गयी थी उन अपनों के लिए बड़ी परेशानियां झेलनी पड़ती थीं। मैं हालांकि फिर भी औरतों के बेहोश होने की घटनाओं के सिलसिले को समझ नहीं पा रहा था। जब तक एक के बाद एक महिलाओं ने मेरे सामने वही कहानी नहीं दोहराई। वह लगभग नहीं के बराबर खाती थीं, चाहे घर में खाना उपलब्ध हो, और पानी भी बहुत कम पीती थीं। पर क्यों?
बाद में मुझे बताया गया कि महिलायें पेशाब तो घर के किसी कोने में कर लेती थीं, जहाँ से पानी की निकासी हो। पर शौच के लिए केवल अँधेरा होने के बाद और पौ फटने से पहले ही जा पाती थीं। चूंकि रात का कर्फ्यू जारी था इसलिए वह तब तक खाना टाल देतीं थीं जब तक भूख से मरने की नौबत न आ जाए, ताकि उन्हें शौच के लिए जाना ना पड़ें। बस्ती में मैंने जो छह महीने बिताए उनमें मैंने महिलाओं के बारे में, उनकी चिंताओं, उलझनों और डर के बारे में काफी कुछ जाना। दुनिया के बारे में उनके नज़रिए, समाज में उनकी भूमिका, हौसले और दृढ़ निश्चयता के बारे में। इसके बावजूद उनकी नाज़ुक स्थिति बिलकुल साफ़ रूप से दिख रही थी। वह टूट रही थीं। बच्चों को और पुरुषों को सँभालने (जो चरम हताशा और गुस्से की अवस्था में थे) में रातों को सो नहीं पाने के अलावा, अपने गायब बेटों और परिजनों के लिए भी चिंतित और भयभीत थीं।
पी.टी.एस.डी के बारे में मुझे किताबों और अखबारों से (खासकर पूर्वोत्तर की ख़बरों के कारण) जानकारी थी, पर यहाँ जो था वो सतत जारी रहने वाला तनाव था। उनमें हर संभव मनोवैज्ञानिक विकार देखा जा सकता था। पहली दिक्कत जो तनाव, भूख और पानी की कमी पैदा करती है, वह है मासिक धर्म में समस्या। सभी महिलायें यह जानती हैं। परीक्षाओं, यात्रा, तनाव, शोक आदि के दौरान पीरियड नियमित नहीं रहते। हर वह औरत जिसका मासिक धर्म कुछ दिन भी देरी से होता है, जानती हैं कि यह कितना तकलीफदेह हो सकता है, और यहाँ तो कई महिलाओं को महीनों से मासिक धर्म हुआ ही नहीं था। ‘पी.टी.एस.डी’ के बारे में मैंने जो भी पढ़ा था, सब मेरी आँखों के सामने हो रहा था, रोज़।
मैं जब यह लिख रहा हूं, चार सप्ताह से अधिक हो चुके हैं कि कश्मीर में लगभग 80 लाख लोग अपने घरों में फंसे हुए हैं। राजनीतिक विशेषज्ञ, कार्यकर्ता, एक आइ.ए.एस अधिकारी जिसने इस्तीफा दे दिया- सब ने कश्मीर के लोगों की पीड़ा के बारे में बोला या लिखा है। हर किसी ने, सिवाए तथाकथित पत्रकारों के। जो कहा गया है उसमें मैं और कुछ जोड़ने में सक्षम नहीं हूं I पर मैं ठोस अनुमान लगा सकता हूं कि वहां की महिलाओं पर क्या गुज़र रही होगी। ऊपर लिखे मेरे अपने पेशेगत अनुभव के विपरीत, मैं यह समझता हूँ कि सब महिलाएं एक ही सामाजिक वर्ग से नहीं आतीं। कुछ उन महिलाओं जितनी गरीब होंगी जैसी मैंने 27 साल पहले देखी थीं, और कुछ अमीर। वह डॉक्टर, वकील, पत्रकार, यूनिवर्सिटी प्रोफेसर या गृहणियां हो सकतीं हैं , पर उनकी समस्याएं लगभग एक जैसी होंगी। हाँ, भुखमरी और शौचालयों की कमी की स्थिति सब में एक जैसी नहीं होगी। पर तनाव, भय और असुरक्षा समान होगी। जो स्वास्थ्य-संबंधी समस्याओं से जूझ रही होंगी, उन्हें चिकित्सकीय देखभाल – रोज़मर्रा और आपातकालीन दोनों – नहीं मिल पा रही होंगी। जो एक महीना पहले पूरी तरह स्वस्थ रहीं होंगी, उन्हें आने वाले कई वर्षों तक, या हो सकता है ज़िन्दगी भर भी, गंभीर समस्याएं होंगी। आपको एक उदहारण देना चाहूँगा। मध्यम-स्तर के उच्च रक्तचाप (हाइपर-टेंशन) या मधुमेह (डाइबिटीज़) वाले एक पुरुष और एक महिला जो गर्भवती नहीं है, दवाईयों के कुछ डोज़ न मिलने से भी शायद बच जाएँ। पर इन्हीं रोगों से ग्रस्त एक गर्भवती महिला इन दवाओं का केवल एक डोज़ न मिलने पर अपनी ज़िन्दगी और बच्चा खो सकती हैं।
इतनी बड़ी आबादी के एक साथ और इतनी लम्बी अवधि तक पी.टी.एस.डी का सामना करने के नतीजे भीषण होंगे। सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और शारीरिक समस्याएं इतनी ज़्यादा हैं कि यहाँ समझाना मुश्किल है। यह सेनिटरी नैपकिन की उपलब्धता जितनी साधारण बात से लेकर, व्यापक डिप्रेशन की महामारी और आत्महत्याओं तक हो सकती हैं। परिणाम नरसंहार जितने भयानक हो सकते हैं। सरकार को एक मिनट अधिक के लिए भी इस घेराबंदी को जारी रखने की सलाह देना गलत होगा। एक मामूली चिकित्साकर्मी का आज की शक्तिशाली सरकार से यही कहना है – समय रहते सुनिए वरना हम सब तबाह होने वाले हैं! पहले ही बहुत नुकसान हो चुका है। हम सब इस दिन के लिए उम्र भर पछतायेंगे।
मैं नास्तिक हूं इसलिए प्रार्थना भी नहीं कर सकता, लेकिन आप में से जो कर सकते हैं ज़रूर दुआ कीजये इन लोगों के लिए जो बिना अपनी किसी गलती के ऐसे अमानवीय हालात झेल रहे हैं । चाहे हिन्दू हों, सिख हों, मुस्लिम, ईसाई, जैन, बौद्ध या फिर नास्तिक। भारतीय हों या प्रवासी भारतीय या फिर गैर भारतीय, हम सब आज के दिन को उम्र भर पछताएंगे। यह सालों तक हमारे सामूहिक अन्तरात्मा पर बोझ बना रहेगा। देश की घायल आत्मा को ठीक करने का कोई मरहम नहीं है।