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भाजपा के ‘गांधी” : दीनदयाल उपाध्‍याय

प्रतिबद्ध वामपंथी पत्रकार एवं न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव से जुड़े हुए सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष गाताड़े ने हाल में संघ के विचारक और एकात्‍म मानववाद के प्रणेता कहे जाने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय पर अध्‍ययन कर के एक पुस्‍तक लिखी है। नवनिर्मिति, वर्धा, महाराष्ट्र द्वारा प्रकाशित इस पुस्‍तक का नाम है ”भाजपा के गांधी”। भाजपा और आरएसएस दीनदयाल उपाध्‍याय (दीदउ) को गांधी के बरक्‍स क्‍यों खड़ा करने में लगे हैं, उसे समझने के लिए इस पुस्‍तक के कुछ अध्‍याय ज़रूर पढ़े जाने चाहिए।

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मुसलमानों के बारे में दीदउ

उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में सहभागी न होना या उसका विरोध करने के अलावा हिन्दू मुस्लिम एकता पर दीनदयाल का नज़रिया बहुत समस्याग्रस्त दिखता है। दीनदयाल ने ऐसे लोगों को मुस्लिमपरस्त कह कर संबोधित किया तथा ‘एकता’ की कांग्रेस नीति की मुखालिफत की।
संघ के एक मुखपत्र ‘राष्ट्रधर्म ’ में प्रकाशित एक लेख में दावा किया गया है कि संघ के विचारक दीनदयाल उपाध्याय ‘हिन्दू मुस्लिम एकता’ के खिलाफ थे और मानते थे कि एकता का मुददा ‘अप्रासंगिक’ है और मुसलमानों का तुष्टीकरण है। ‘मुस्लिम समस्या: दीनदयाल जी की दृष्टि में’ शीर्षक से उपरोक्त लेख राष्ट्रधर्म के विशेष संस्करण में प्रकाशित हुआ था जिसका विमोचन तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री कलराज मिश्र ने किया था। मासिक पत्रिका का उपरोक्त अंक उपाध्याय को समर्पित किया गया है और उसमें उनके बारे में तथा उनके नज़रिये के बारे में लेख है। इसमें प्रकाशित डा महेशचंद्र शर्मा का लेख, यह दावा करता है कि उपाध्याय ने कहा था कि ‘मुसलमान होने के बाद कोई व्यक्ति देश का दुश्मन बन जाता है।’ इनका संक्षिप्त परिचय यह है कि दीनदयाल उपाध्याय की 15 घंटों में संकलित रचनाओं का सम्पादन उन्होंने किया है और दीनदयाल उपाध्याय के चिन्तन के एक तरह से आधिकारिक विद्वान समझे जाते हैं। इसमें यह भी लिखा गया है
‘अगर देश का नियंत्राण उन लोगों के हाथ में है जो देश में पैदा हुए हैं मगर वह कुतुबुद्दीन, अल्लाउद्दीन, मुहम्मद तु्ग़लक, फिरोज शाह तुग़लक, शेरशाह, अकबर और औरंगजेब से अलग नहीं हैं, तो यह कहा जा सकता है कि उनके प्रेम के केन्द्र में भारतीय जीवन नहीं है।’
इंडियन एक्स्प्रेस: http://indianexpress.com/article/cities/lucknow/article-in-rss-monthly-deendayal-upadhyaya-was-against-hindu-muslim-unity/
महेशचन्द शर्मा के मुताबिक दीनदयाल मानते थे कि एक मुसलमान व्यक्तिगत तौर पर अच्छा हो सकता है, मगर समूह में बुरा हो जाता है और एक हिन्दू व्यक्तिगत तौर पर बुरा हो, मगर समूह में अच्छा हो जाता है। वह यह भी स्पष्ट करते हैं कि हिन्दू मुस्लिम एकता की बात करने वाले मुस्लिमपरस्त’ होते हैं और उन्होंने कांग्रेस की ऐसी नीति का विरोध किया था।
(http://indianexpress.com/article/cities/lucknow/article-in-rss-monthly-deendayal-upadhyaya-was-against-hindu-muslim-unity/)
देश के अलग अलग हिस्सों से आ रही रिपोर्टें इस बात की ताईद करती है कि कितनी तेजी से पंडित दीनदयाल उपाध्याय को ‘‘नए भारत’के आयकन के तौर पर स्थापित किया जा रहा है। इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त कांडला बंदरगाह को दीनदयाल का नाम देने का निर्णय हो जाने की ख़बर आयी। यहां तक कि इस कवायद में विदेश मंत्रालय के भी ‘कूदने’ की ख़बर पिछले दिनों आयी जब 22 सितम्बर 2017 को, जन्मशती समारोह के समापन के चन्द रोज पहले उसने अंग्रेजी तथा हिन्दी में एक ईबुक अपने वेबसाइट पर अपलोड कर दी जिसका शीर्षक था ‘एकात्म मानववाद’ अर्थात इंटिग्रल हयूमनिजम’ जिसके मुताबिक ‘‘भाजपा ही देश का एकमात्र राजनीतिक विकल्प है, हिन्दू विचार ही भारतीय विचार है और महज हिन्दू समाज ही आध्यात्मिक हो सकता है।’
(https://thewire.in/182878/mea-bjp-propaganda-hindutva-deendayal-upadhyaya-integral-humanism/)
वरिष्ठ पत्रकार एवं ‘द वायर’ के सम्पादक सिद्धार्थ वरदराजन लिखते हैं कि:
‘विदेश मंत्रालय की यह ई-किताब भाजपा एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा अपने आप को एक सम्मानजनक विचारधारात्मक आवरण ओढने की जोरदार कवायद का ही हिस्सा है। उनके वास्तविक गुरू – के बी हेडगेवार और एम एस गोलवलकर – बहुत अधिक जाने जाते हैं और इस कदर विवादास्पद हैं कि किसी भी किस्म की आलोचनात्मक छानबीन/पड़ताल के सामने कमजोर साबित हो सकते हैं, मगर जहां तक उपाध्याय के जीवन और नज़रिये का ताल्लुक है तो उनके बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है और फिर उन्हें इस तरह इस्तेमाल किया जा सकता है कि संघ के हिन्दुत्व दर्शन को व्यापक समूह के सामने, यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष भी अधिक ग्राह्य बनाया जा सकता है।’
उपाध्याय का जन्म 1916 में हुआ मगर उनके जिन्दगी के पहले तीन दशकों को लेकर विदेश मंत्रालय के इस स्तुतिपरक विवरण में एक ही महत्वपूर्ण बात दिखाई देती है – जबकि उनकी पीढ़ी के सर्वोत्तम ब्रिटिशों से भारत की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे – कि वह 1942 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े।
(https://thewire.in/182878/mea-bjp-propaganda-hindutva-deendayal-upadhyaya-integral-humanism/)
कोई भी अन्दाज़ा लगा सकता है कि यह महज शुरूआत है।
अगर सत्ताधारी जमातें – उस घटना के 450 साल बीतने के बाद, तमाम ऐतिहासिक तथ्यों को झुठलाते हुए – यह कहने का साहस कर सकती हैं कि हल्दीघाटी की लड़ाई अकबर ने नहीं बल्कि राणा प्रताप ने जीती थी, तो उन्हें यह दावा करने से कौन रोक सकता है कि हिन्दू मुस्लिम एकता की ताउम्र मुखालिफत करने वाले एक शख्स को उस अज़ीम शख्सियत के बरअक्स खड़ा कर दिया जाए जिसने हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए अपनी जान दी थी। क्या यह विरोधाभासपूर्ण नहीं होगा कि एक साथ आज़ादी के संघर्ष के नेता महात्मा गांधी, ऐसी शख्सियतों के साथ साथ खड़े कर दिए जाएं जो उनके विचारों के बिल्कुल खिलाफ खड़े थे।
अंत में, लगभग ‘‘नायक विहीन’संघ-भाजपा कुनबे में दीनदयाल उपाध्याय के महिमामंडन को समझा जा सकता है क्योंकि वह ‘गोलवलकर के चिन्तन’पर अडिग रहे मगर उन्होंने ‘पूरक के तौर पर गांधीवादी विमर्श की भाषा को भी अपनाया तथा संघ के विचारों को अधिक लोकप्रिय बनाया। केन्द्र में भाजपा के सत्तासीन होने के बाद नए भारत की भविष्यदृष्टि /विजन/ को लेकर बहुत कुछ बदल गया है। गांधी, नेहरू, मौलाना आज़ाद, अम्बेडकर, सुभाषचंद्र बोस एवं आज़ादी के आन्दोलन के तमाम अग्रणियों ने नवस्वाधीन भारत के लिए जिस समावेशी, प्रगतिउन्मुख समाज की कल्पना की थी, उसके स्थान पर इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई में जो नया भारत गढ़ा जा रहा है वह संघ परिवार की असमावेशी भविष्यदृष्टि /विजन/ पर आधारित है। और ऐसे ‘‘नए भारत’के आयकन, उसके प्रतीक तो दीनदयाल उपाध्याय ही हो सकते हैं।

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गाय के बारे में दीदउ

दिल्ली के मौलीचन्द्र शर्मा, नए बने संगठन ‘भारतीय जनसंघ’के दो महासचिवों में से एक थे – दूसरे व्यक्ति थे भाई महावीर। मुखर्जी की मौत के बाद उन्हें ही जनसंघ के अध्यक्ष पद का कार्यभार सौंपा गया। एक सनातनी संस्‍कृत विद्वान पंडित दीनदयाल शर्मा के बेटे मौलीचन्द्र शर्मा बीस के दशक में हिन्‍दू महासभा से जुड़े थे और जनसंघ से जुड़ने के पहले ही अपने आप में एक कद्दावर राजनीतिज्ञ थे। मुखर्जी ने जब भारतीय जनसंघ का आगाज़ किया तब उन्होंने जनसंघ की पंजाब-दिल्ली शाखा के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभायी थी।
आज़ादी के दिनों में वह भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस से भी सम्बद्ध रहे थे। राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दिल्ली इकाई के साथ भी उनके गहरे ताल्लुकात थे और जब महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर पाबन्दी लगी, तो इस पाबन्दी को हटाने के लिए उन्होंने ‘‘जनाधिकार समिति’नाम से नागरिक अधिकार समूह की भी स्थापना की थी। उन्हें अपनी सक्रियताओं के लिए पब्लिक सेफटी एक्ट के तहत गिरफतार किया गया था। (Choudhary, Valimi, ed. (1988). Dr. Rajendra Prasad: Correspondence and Select Documents, Volume 10. Delhi: Allied Publishers. pp. 150–151)
बाद में उन्होंने गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल और संघ सुप्रीमो गोलवलकर के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभायी ताकि संघ का अपना संविधान बनाने पर सहमति हो सके। (Page 11, Andersen, Walter K.; Damle, Shridhar D. (1987) The Brotherhood in Saffron: The Rashtriya Swayamsevak Sangh and Hindu Revivalism. Delhi: Vistaar Publications)
इस हक़ीकत के प्रति अनभिज्ञ कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय जनसंघ के कामकाज को नियंत्रित करता है, उन्हें अपने पद से बाद में इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि पार्टी बनाने की उनकी स्वतंत्र पहलकदमियां अग्रणी सदस्यों को रास नहीं आयीं– जिनका बहुलांश संघ की शाखाओं से निकला था। बलराज मधोक, जो जनसंघ की कार्यकारी कमेटी के संघ समूह/फैक्शन के सदस्य थे, उन्होंने संघ की पत्रिका आर्गनायजर में बाकायदा चेतावनी दी थी कि भारतीय जनसंघ का जो भी अगला अध्यक्ष बनेगा उसे पार्टी के संघ स्वयंसेवकों से ‘‘स्वैच्छिक सहयोग’ हासिल करना होगा।
(Page 11, Andersen, Walter K.; Damle, Shridhar D. (1987) The Brotherhood in Saffron: The Rashtriya Swayamsevak Sangh and Hindu Revivalism. Delhi: Vistaar Publications)
रेखांकित करनेवाली बात है कि पार्टी की सेन्‍ट्रल जनरल कौन्सिल के इंदौर में आयोजित सत्र में अपने अध्‍यक्षीय भाषण में शर्मा ने पार्टी संविधान में लिखित सिद्धांतों पर- धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद और जनतंत्र पर ”अटूट आस्था’पर जोर दिया था।
एक क्षेपक के तौर पर यहां नोट किया जा सकता है कि बकौल ए.जी. नूरानी, बाद के दिनों में भी, जनसंघ और उसकी वारिस भारतीय जनता पार्टी ने दो अन्य चुने हुए अध्यक्षों को – 1973 में बलराज मधोक को और 2005 में लालकृष्ण आडवाणी को – संघ के कहने पर अपने पद से चलता किया। (A. G. Noorani, 3 December 2005, “The BJP: A crisis of identity”. Frontline. Retrieved 2014-11-06)
मौलीचन्द्र शर्मा की विदाई के बाद हम पार्टी के अन्दर के सत्ता सम्बन्धों में ध्यान में आनेलायक बदलाव को देखते हैं। पार्टी के महासचिव का पद अध्यक्ष पद से अधिक महत्वपूर्ण हो गया और महासचिव होने के नाते दीनदयाल उपाध्याय संगठन के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बने– जिनसे न केवल यह अपेक्षा की जाती थी कि वह नीति को विकसित करेंगे बल्कि संगठन निर्माण को भी आगे बढ़ाएंगे। संघ के कार्यकर्ताओं का नेटवर्क अब पार्टी में पूरी तरह जड़मूल था और आपसी सन्देश और निर्देश अब बिना किसी रूकावट के पूरावक्ती सांगठनिक सचिवों के मार्फत मिलते थे, जो उसी आत्मानुशासन के साथ काम करते थे जिस तरह संघ में सक्रिय पूरावक्ती कार्यकर्ता करते थे।
जहां तक जनसंघ के गठन और विकास का सवाल है, विश्लेषकों का मानना है कि दीनदयाल उपाध्याय ‘‘एक अचूक और सक्षम प्रशासक साबित हुए’जिन्होंने ‘‘नीति और पार्टी सिद्धांत की चर्चा में अधिकाधिक रूचि दिखायी और जिन्होंने इस दौरान भारत में बड़े पैमाने पर भ्रमण किया।’और वही कुल मिला कर पार्टी के प्रधान प्रवक्ता बने, यह एक ऐसी भूमिका थी जो इसके पहले मुखर्जी और बाद में पार्टी अध्यक्ष के तौर पर मौलीचन्द्र शर्मा निभाते रहे। उनकी सहायता के लिए उन्हें दो सहायक सचिव दिए गए: पार्टी की उत्तर की इकाइयों के लिए और दक्षिण की इकाइयों के लिए जगन्नाथराव जोशी। जनसंघ की अहम नीतियां उनकी अगुआई में ही आकार ग्रहण कीं। गोहत्या पर पाबन्दी की मांग हमेशा पार्टी घोषणापत्र का हिस्सा रही, जिसका मतलब था कि वह आर्थिक और धार्मिक हितों की पूर्ति करेगी। मिसाल के तौर पर 1954 के घोषणापत्र में कहा गया है:
गाय हमारे सम्मान का बिन्दु है और हमारी संस्‍कृति का अमर प्रतीक। प्राचीन समयों से उसकी रक्षा की जा रही है और उसे पूजा जा रहा है। हमारी अर्थव्यवस्था भी गाय पर आधारित है। गोरक्षा, इस वजह से, महज हमारा पवित्र कर्तव्य नहीं है बल्कि एक अनिवार्य जरूरत भी है। मवेशियों की रक्षा करना और उनमें सुधार करना तब तक सम्भव नहीं है जब तक उनका कत्ल जारी रहे। मवेशियों की तेजी से घटती संख्या तभी रोकी जा सकती है जब तक उनके कत्ल को पूरी तरह से न रोका जाए। जनसंघ गोहत्या पर पूरी तरह से पाबन्दी लगा देगा और जनता तथा प्रशासन के सहयोग से उसकी गुणवत्ता को सुधार देगा।
(1954 Manifesto, BJS Documents, I, p. 68. See also Bharatiya Jana Sangh, Manifesto (1951), p. 5; 1958 Manifesto, BJS Documents, I, p. 119; Bharatiya Jana Sangh, Election Manifesto 1957, pp. 21-2; Election Manifesto 1962, pp. 16-17; Principles and Policy [New Delhi, 1965], p. 35 Page 149)
खुद दीनदयाल उपाध्याय ने ‘आर्गनायजर’ में लिखे अपने लेख में गोहत्या पर पाबन्दी की मांग करते हुए लिखा था कि ‘गाय राष्‍ट्र की पहचान है’:
‘गोहत्या निरोधी समिति / वह साझा मोर्चा जो विभिन्न धार्मिक एवं हिन्दूवादी संगठनों ने बनाया था – लेखक/ हमेशा यह मानती रही है कि गाय का मुद्दा हमारे लिए उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि भारतीयों के लिए मौलिक अधिकार का। इस मौलिक अधिकार की स्वीकृति या अस्वीकृति ही भारतीय स्वतंत्रता की प्रकृति को नियत करेगी। वे जो यह मानते हैं कि स्वराज का आशय केवल शासन के हस्तांतरण से है, तो वे स्वराज और परराज के बीच अंतर और असंतुलन को समझने में विफल हैं। हमारे लिए स्वराज्य की संकल्पना हमारे मूल्यों का पुनर्जन्म और सम्मान के प्रतीकों का अभ्युदय है। और गाय हमारे सम्मान के सभी प्रतीकों का केन्द्र है। इसलिए जब भी विेदेशी आक्रांताओं ने हमारे देश पर आक्रमण किया, सबसे पहले उन्होंने गायों पर विशेषकर प्रहार किया। स्वतंत्रता की हमारी चाहत हमेशा से गायों के संरक्षण के साथ जुड़ी रही है…।’
गोसंरक्षण का यह हमारा नारा न सिर्फ लंबे समय से दमित हमारी इच्छाओं की पूर्ति में सहयोग करेगा बल्कि संपूर्ण राष्‍ट्र जीवन में स्वयं चेतना की तरंगें भी भरेगा। यह मौजूदा सरकार के स्वरूप का भी कायापलट कर देगा। आज जो यह सरकार राष्‍ट्रीय सम्मान के सूचकों को संशय की भावना से देखती है, कल वही सरकार गो संरक्षण और गो विकास में गर्व की अनुभूति करेगी। तभी सरकार निरंतर प्रयास के जरिये प्रगति के रास्ते पर ठीक से चल पाएगी और राष्‍ट्र को महान बना पाएगी।
‘गायों के लिए संघर्ष आज़ादी और लोकतंत्र का संघर्ष है’ (आर्गनायजर, दिसम्बर 15, 1958, अंग्रेजी से अनूदित, दीनदयाल समग्र रचनावली, पेज 159-161, प्रभात प्रकाशन से साभार)।
याद रहे, गोहत्या पर पाबन्दी लगाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के लिए समानधर्मा संगठनों के साथ जिस साझे मोर्चे का गठन हुआ था, उसके द्वारा प्रेरित आन्दोलन के दौरान संसद के सामने जबरदस्त हिंसा हुई थी जिसके लिए भारतीय जनसंघ की भूमिका की भी पड़ताल हुई थी।

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हिंदुओं के बारे में दीदउ

उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों के उभार के अलावा – जबकि तीसरी दुनिया के तमाम मुल्कों में ऐसे संघर्ष तेज हो रहे थे – उस कालखण्ड की क्या विशिष्टता कही जा सकती है जब एक साधारण प्रचारक के तौर पर दीनदयाल उपाध्याय ने सामाजिक-राजनीतिक जीवन का आगाज़ किया। याद करें कि यही वह दौर रहा है जब नात्सीवाद-फासीवाद का उभार समूचे यूरोप को ग्रसने को करीब था और दूसरी तरफ सोवियत रूस में कम्युनिस्टों की अगुआई में चल रहा समाजवादी निर्माण का दौर तथा उसके साथ ही कई मुल्कों में कम्युनिस्टों की अगुआई में जुझारू संघर्ष की लहरें एक नयी इबारत लिखती दिख रही थीं। पीछे मुड़ कर देखें तो विश्व इतिहास में वह एक ऐसा मुक़ाम था जब सामन्तवाद, उपनिवेशवाद की पुरानी दुनिया भहराकर गिर रही थी और नयी दुनिया आकार ले रही थीं।
और इस झंझावाती दौर में हिंदू राष्ट्र की सियासत किस दिशा में आगे बढ़ रही थी इसका अन्दाज़ा हम लगा सकते हैं कि किस तरह गोलवलकर – जो उन दिनों संघ के सुप्रीमो थे – चीज़ों को, आसपास की परिस्थिति को देख रहे थे और किस तरह की कार्रवाइयों में मुब्तिला थे। यह इस बात को स्पष्ट करेगा कि दीनदयाल उपाध्याय जैसे स्वयंसेवक/प्रचारक उन दिनों क्या कर रहे थे। और यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि अपने खास किस्म के विश्वदृष्टिकोण के चलते जिसका फोकस ‘‘हिंदू धर्म की गौरवशाली परम्पराओं पर आधारित हिंदू राष्‍ट्र के निर्माण पर था’और जिसमें बरतानवी उपनिवेशवाद के बरअक्स मुसलमानों को बड़ा दुश्मन समझा जा रहा था और जिसमें नात्सीवाद-फासीवाद के अन्तर्गत हाथ में लिए गए ‘‘नस्लीय शुद्धिकरण’के अभियानों की तारीफ की जा रही थी, गोलवलकर के लिए यह मुमकिन नहीं हुआ कि वह इतिहास की बदलती धारा पर अपनी नब्ज रख सके। यह वह अडियल रुख़ था जिसके चलते न केवल वह व्यक्तिगत तौर पर उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष से दूर रहे बल्कि उन्होंने अपने संगठन के लिए कोई ऐसा सकारात्मक कार्यक्रम नहीं बनाया ताकि वह उसमें सहभागी हो सके।
जैसा कि जानते हैं कि हिन्दुत्व के फलसफे के प्रति उनका पहला प्रमुख सैद्धांतिक योगदान ‘‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ /1938/ के रूप में सामने आया। सतहत्तर पेज की इस किताब का एक उद्धरण यह बताने के लिए काफी है कि उसकी अन्तर्वस्तु के बारे में राय बनायी जाए। गोलवलकर ने लिखा था:
‘भारत की विदेशी नस्लों को चाहिए कि वह हिंदू संस्कृति और भाषा को अपना ले, उसे चाहिए कि वह हिंदू धर्म का सम्मान करना सीखे, हिंदू नस्ल और संस्कृति– अर्थात हिंदू राष्ट्र– के महिमामंडन के अलावा उसे अन्य किसी विचार पर गौर नहीं करना चाहिए और उन्हें अपने अलग अस्तित्व को भुलाकर हिंदू नस्ल में समाहित कर देना चाहिए या वे चाहे तो देश में रह सकते हैं, मगर उन्हें फिर हिंदू राष्ट्र के अधीन रहना पड़ेगा, किसी भी चीज़ पर दावा नहीं करना होगा, किसी भी तरह के विशेषाधिकार उन्हें हासिल नहीं होंगे– यहां तक कि नागरिक अधिकार भी नहीं मिलेंगे। कम से कम, उनके सामने और कोई रास्ता अपनाने के लिए नहीं होगा। हम एक प्राचीन मुल्क हैं; आइए एक प्राचीन मुल्क की तरह विदेशी नस्लों के साथ पेश आए, जिन्होंने इस देश में रहना तय किया है।’
(माधव सदाशिव गोलवलकर, वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड)
जानने योग्य है कि 77 पेज की उपरोक्त किताब गोलवलकर ने तब लिखी थी जब हेडगेवार ने उन्हें सरकार्यवाह के तौर पर नियुक्त किया था। ‘गैरों’के बारे में यह किताब इतना खुल कर बात करती है या जितना प्रगट रूप में हिटलर द्वारा यहूदियों के नस्लीय शुद्धिकरण के सिलसिले को अपने यहां भी दोहराने की बात करती है कि संघ तथा उसके अनुयायियों ने खुलेआम इस बात को कहना शुरू किया है कि वह किताब गोलवलकर की अपनी रचना नहीं है बल्कि बाबाराव सावरकर की किन्हीं किताब ‘राष्ट्र मीमांसा’ का गोलवलकर द्वारा किया गया अनुवाद है।
दिलचस्प बात है कि इस मामले में उपलब्ध सारे तथ्य इसी बात की ओर इशारा करते हैं कि इस किताब के असली लेखक गोलवलकर ही हैं। खुद गोलवलकर 22 मार्च 1939 को इस किताब के लिये लिखी गयी अपनी प्रस्तावना लिखते हैं कि प्रस्तुत किताब लिखने में राष्ट्र मीमांसा ‘मेरे लिये ऊर्जा और सहायता का मुख्य स्रोत रहा है।’मूल किताब के शीर्षक में लेखक के बारे में निम्नलिखित विवरण दिया गया है: ‘‘माधव सदाशिव गोलवलकर, एमएससी, एल.एल.बी. (कुछ समय तक प्रोफेसर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)।’
इसके अलावा, किताब की भूमिका में, गोलवलकर ने निम्नलिखित शब्दों में अपनी लेखकीय स्थिति को स्वीकारा था: ‘‘यह मेरे लिये व्यक्तिगत सन्तोष की बात है कि मेरे इस पहले प्रयास– एक ऐसा लेखक जो इस क्षेत्र में अनजाना है– की प्रस्तावना लोकनायक एम.एस. अणे ने लिख कर मुझे सम्मानित किया है।’(‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड, गोलवलकर की भूमिका से, पेज 3)
अमेरिकी विद्वान जीन ए कुरन– जिन्होंने पचास के दशक की शुरूआत में संघ पर अध्ययन किया तथा जो उसके प्रति सहानुभूति रखते हैं, अपनी किताब ‘‘मिलिटेन्ट हिन्दूइजम इन इंडियन पॉलिटिक्स: ए स्टडी आफ द आरएसएस” (1951) में इस बात की ताईद करते हैं कि किताब के रचयिता गोलवलकर ही हैं और उसे संघ की ‘बाइबिल’के तौर पर संबोधित करते हैं। एजी नूरानी अपनी चर्चित किताब ‘द आरएसएस एण्ड द बीजेपी: ए डिवीजन आफ लेबर’( पेज 18-19, लेफ्टवर्ड बुक्स) बताते हैं कि वर्ष 1978 में सरकार के सामने प्रस्तुत अपने लिखित शपथपत्र में अनुच्छेद 10 में आधिकारिक तौर पर बताते हैं कि-
”भारत ऐतिहासिक तौर पर प्राचीन समय से ही हिंदू राष्‍ट्र रहा है, इसे वैज्ञानिक आधार प्रदान करने के लिए माधव सदाशिव गोलवलकर ने एक किताब लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड”। अनुच्छेद 7 में उन्होंने उनकी किताब ‘‘‘बंच आफ थॉटस/विचार सुमन” (1966) का उल्लेख भी किया ताकि ‘‘संघ के कामों एवं उसकी गतिविधियों के उद्देश्य, वास्तविक स्वरूप, दायरा आदि के बारे में स्पष्ट हुआ जा सके।”
संघ सुप्रीमो के तौर पर गोलवलकर के विचारों का अन्य अहम मसला दलितों एवम स्त्रियों के प्रति तत्कालीन नेतृत्व का पुरातनपंथी नज़रिया रहा है जिस पर ब्राहमणवादी पुनरुत्‍थान का प्रभाव साफ दिखता है। यह अकारण नहीं था कि आज़ादी के वक्त जब नया संविधान बनाया जा रहा था, तब संघ ने उसका जोरदार विरोध किया था और उसके स्थान पर मनुस्मृति को अपनाने की हिमायत की थी। इस विरोध की बानगी ही यहां दी जा सकती है। अपने मुखपत्र ‘आर्गेनायजर’ (30 नवम्बर, 1949, पृष्ठ 3) में संघ की ओर से लिखा गया था कि-
”हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो ‘मनुस्मृति’में उल्लेखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम -पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।”
उन्हीं दिनों जब अम्बेडकर एवं नेहरू की अगुआई में ‘हिंदू कोड बिल’के जरिए हिंदू स्त्रियों को सम्पत्ति एवं विरासत में सीमित अधिकार दिलाने की पहल हुई तब गोलवलकर एवं उनके सहयोगियों ने महिलाओं के इस ऐतिहासिक सशक्तिकरण के खिलाफ व्यापक आन्दोलन छेड़ा था। उनका कहना था: यह हिंदू परम्पराओं एवं संस्कृति के प्रतिकूल है।
निश्चित ही दीनदयाल उपाध्याय– जो संगठन के अनुशासित प्रचारक थे– इस समूचे घटनाक्रम के न केवल गवाह थे बल्कि उसमें सहभागी भी थे, उनकी इसी निष्ठा के चलते वह संघ सुप्रीमो के करीबियों में शुमार किए जाते थे। बाद के दिनों में भी दीनदयाल ने संघ सुप्रीमो के इन जाति के महिमामण्डन के विचारों पर सवाल नहीं उठाया बल्कि उसे अलग ढंग से औचित्य प्रदान करते रहे। उनके तर्कों में अलग किस्म का परिष्कार दिख रहा था, मगर जाति की वैधता पर कहीं भी प्रश्न नहीं थे बल्कि उसे स्वधर्म के समकक्ष रखा गया था।
”हालांकि आधुनिक दुनिया में समानता के नारे उठते हैं, समानता की अवधारणा को सोच समझ कर स्वीकारने की जरूरत है। हमारा वास्तविक अनुभव यही बताता है कि व्यावहारिक और भौतिक नज़रिये से देखें तो कोई भी दो लोग समान नहीं होते… बहुत सारी उग्रता से बचा जा सकता है अगर हम हिंदू चिन्तकों द्वारा प्रस्तुत किए गए समानता के विचार पर गंभीरता से गौर करें। सबसे पहला और बुनियादी प्रस्थान बिन्दु यही है कि भले ही लोगों के अलग अलग गुण होते हैं और उन्हें उनके गुणों के हिसाब से अलग अलग काम आवंटित होते हैं, मगर सभी काम समान रूप से सम्मानजनक होते हैं। इसे ही स्वधर्म कहते हैं और इसमें एक स्पष्ट गारंटी रहती है कि स्वधर्म का पालन ईश्वर की पूजा के समकक्ष होता है। इसलिए स्वधर्म की पूर्ति के लिए सम्पन्न किए गए किसी भी कर्तव्य में, उच्च और नीच और सम्मानित तथा असम्मानित का प्रश्न उठता ही नहीं है। अगर कर्तव्य को बिना स्वार्थ के पूरा किया जाए, तो करनेवाले पर कोई दोष नहीं आता।”
[vii] [vii] C. P. Bhishikar, Pandit Deendayal Upadhyaya: Ideology and Perception: Concept of the Rashtra,vol. v, Suruchi, Delhi, 169
वैचारिक तौर पर गहरी नजदीकी हो या संगठन के उद्देश्यों को लेकर अनुशासित ढंग से कार्य करना हो, या नेतृत्व के हर आदेश को सर आंखों पर लेना हो, दीनदयाल उपाध्याय सभी परीक्षाओं में खरे उतरते गए। यह अकारण नहीं था कि संघ के एक वरिष्ठ नेता ने लिखा है कि गोलवलकर गुरुजी तथा दीनदयालजी दोनों के बीच ‘‘काफी तादात्म्य था।” दत्तोपंत ठेंगडी, जो संघ के एक दूसरे वरिष्ठ नेता थे तथा जिन्होंने भारतीय मजदूर संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना में योगदान दिया, लिखते हैं कि:
”पंडितजी का सबसे महत्वपूर्ण एवं आत्मीयता का अलौकिक संबंध तत्कालीन सरसंघचालक परम पूजनीय श्री गुरूजी के साथ था। परम पूजनीय श्री गुरू तथा श्री दीनदयाल जी के संबंधों का वर्णन करने में शब्द असमर्थ हैं। यह बात सभी निकटवर्तियों के ध्यान में आती थी कि स्वयंसेवक, प्रचारक तथा कार्यकर्ता के नाते दीनदयाल जी से श्री गुरुजी विशेष अपेक्षा रखते थे। दोनों की ”वेवलैंग्थ” (वैचारिक तरंग-दैर्घ्य) एक ही थी। किसी भी घटना पर श्री गुरुजी की प्रतिक्रिया क्या होगी, इसकी अचूक कल्पना दीनदयाल जी कर सकते थे।”
(पेज 11, तत्वजिज्ञासा, पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन, सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली 2016)
लाजिम था न दीनदयाल ने जाति के प्रश्न पर, न ही स्वतंत्राता संग्राम के प्रश्न पर और न ही नात्सीवाद के आकलन पर गोलवलकर से कुछ अलग बात कही थी और यही स्थिति तब भी थी जब गोलवलकर ने ‘‘संकर को लेकर हिंदू प्रयोगों” की बात करते हुए शेष हिन्दुओं की तुलना में उत्तर भारत के ब्राहमणों को वरीयता प्रदान की। उनका यह भी कहना था कि भारत में हिन्दुओं की एक बेहतर नस्ल मौजूद है और हिन्दुओं की एक कमजोर नस्ल मौजूद है, जिसे वर्णसंकर के माध्यम से बेहतर करना होगा।
गुजरात युनिवर्सिटी के समाज विज्ञान संकाय के विद्यार्थियों एवं शिक्षकों के सामने प्रस्तुत अपने इस व्याख्यान में (17 नवम्बर, 1960) गोलवलकर ने अपना यह नस्लवादी सिद्धांत पेश किया था (देखें, Organiser जनवरी 2, 1961, पेज 5)।
”आज के वक्त़ में संकर (क्रॉस ब्रीडिंग) के प्रयोग सिर्फ जानवरों पर किए जाते हैं। ऐसे प्रयोगों को मनुष्य जाति पर करने का साहस आज के कथित आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी नहीं किया। अगर आज कुछ हद तक मानवीय पार प्रजनन संभव हो सका है तो वह वैज्ञानिक प्रयोगों का नहीं बल्कि यौन सुख/कामुक वासना का ही परिणाम है। आइए अब देखते हैं कि हमारे पूर्वजों ने इस क्षेत्र में किस तरह प्रयोग किए। क्रॉस ब्रीडिंग अर्थात वर्णसंकर के जरिए मानवीय नस्ल को बेहतर करने के लिए उत्तर के नम्बूद्री ब्राहमणों को केरल में बसाया गया था और यह नियम बनाया गया था कि नम्बूद्री परिवार का बड़ा बेटा वैश्य, क्षत्रिय या शूद्र समुदायों की बेटियों से ही ब्याह करेगा। इसके अलावा एक अन्य साहसी नियम था कि किसी भी वर्ग की शादीशुदा महिला की पहली संतान नम्बूद्री ब्राहमण से पैदा होगी और बाद में वह अपने पति से प्रजनन कराएगी। आज इस प्रयोग को व्यभिचार कह सकते हैं, मगर वह वैसा नहीं था, क्योंकि पहली सन्तान तक ही सीमित था।”
कई सारे संदर्भों में अपमानजनक दिखने वाले इस वक्तव्य पर चाहे दीनदयाल उपाध्याय हों या संघ के अन्य वरिष्ठ कार्यकर्ता हों, कहीं से असहमति नहीं प्रगट होती। बकौल डॉ. शम्‍सुल इस्लाम (‘‘गोलवलकर्स वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड ए क्रिटिक, 2006, फारोस मीडिया, दिल्ली पेज 30-31) गोलवलकर का यह वक्तव्य बताता है कि वह हिन्दुओं में उत्तम नस्ल और हीन नस्ल की बात से इत्तेफाक रखते थे। दूसरे, उनका मानना था कि उत्तर भारत के ब्राहमण, विशेषकर नम्बूद्री ब्राहमण, ही उत्तम नस्ल से सम्बद्ध थे।

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