बाबा साहेब आम्बेडकर के अधिग्रहण की मुहिम के बाद अब भगवा ताकतों के निशाने पर प्रेमचंद हैं. आरएसएस के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ ने अपने 5 अगस्त (2018) के अंक को प्रेमचंद पर केन्द्रित किया है. हिंदुत्व के रंग में रंगने की मुहिम में ‘पांचजन्य’ की स्थापना है कि ‘प्रेमचंद की भारतीयता उनके हिन्दू होने का पर्याय है. इसमें इस देश का राग है, मातृभूमि का स्वर है, जो हजारों वर्षों की हिन्दू संस्कृति से निकला है. उनकी कहानी उनके हिन्दूपन को स्पष्ट करती है. उनका साहित्य 95 प्रतिशत हिन्दू समाज पर केन्द्रित है. प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ की उज्ज्वला योजना के सन्दर्भ में नरेन्द्र मोदी द्वारा चर्चा के उल्लेख के बहाने यह भी लक्षित किया गया है कि मोदी प्रेमचंद से प्रेरणा लेते हैं.
स्वाभाविक ही है कि ‘पांचजन्य’ के इस भगवा महायज्ञ की पुरोहिताई कमल किशोर गोयनका करते क्योंकि वे लम्बे समय से प्रेमचंद को हिन्दू रंग में रंगने के अभियान छेड़े हुए हैं. अंक में गोयनका का लम्बा साक्षात्कार प्रकाशित है जिसमें उन्होंने भगवा तर्कों द्वारा प्रेमचंद का शुद्धीकरण करते हुए यह ज्ञानदान किया है कि ‘प्रेमचंद ने जो प्रगतिशील लेखक संघ में उद्घाटन भाषण दिया था उसमें एक भी शब्द मार्क्सवाद से जुड़ा नहीं है. प्रेमचंद ने इसकी स्थापना भी नहीं की थी. उन्होंने इस संस्था की कोई कल्पना नहीं की थी. अपने भाषण में प्रेमचंद आध्यात्मिक आनद की बात करते हैं. आध्यात्मिक तृप्ति की बात करते हैं. आध्यात्मिक संतोष की बात करते हैं.’
झूठ भगवा प्रचारकों का पुराना हथियार है वर्ना गोयनका प्रेमचंद के भाषण के उस अंश को अवश्य याद रखते जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘बंधुत्व और समता, सभ्यता तथा प्रेम आदर्शवादियों का सुनहला स्वप्न रहे हैं. धर्म प्रवर्तकों ने धार्मिक, नैतिक और आध्यात्मिक बंधनों से इस स्वप्न को सचाई बनाने का सतत किन्तु निष्फल प्रयास किया है. हम अब धर्म और नीति का दामन पकड़कर समानता के ऊंचे लक्ष्य पर पहुँचना चाहें तो विफलता ही मिलेगी. हमें एक ऐसे संगठन को सर्वांगपूर्ण बनाना है जहाँ समानता केवल नैतिक बंधनों पर आश्रित न रहकर अधिक ठोस रूप प्राप्त कर ले.’
इतना ही नहीं, प्रेमचंद ने वर्गीय दृष्टि अपनाते हुए अन्यत्र यह भी लिखा कि ‘मनुष्य समाज दो भागों में बंट गया है. बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और बहुत छोटा हिस्सा उन लोगों का जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने बस में किये हुए हैं.’ प्रेमचंद ने यह तक लिख डाला कि ‘जब तक संपत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार रहेगा, तब तक मानव समाज का उद्धार नहीं हो सकता. जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन न होगा, जब तक संपत्ति-व्यक्तिवाद का अंत न होगा, संसार को शांति न मिलेगी.’
लेकिन तथ्यों, तर्कों से संघियों का क्या वास्ता? वे तो गोयबल्स का अनुकरण करते हुए झूठ और कुतर्कों की फसल काटते हैं.
‘पांचजन्य’ द्वारा प्रेमचंद के हिन्दूकरण के इस अभियान में प्रेमचंद की आरंभिक रचनाओं के हवाले से उन्हें हिंदुत्व के पाले में खींचने का दुष्प्रयत्न किया गया है. ‘जिहाद’ कहानी के हवाले से यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है कि ‘जब एक हिन्दू जिहाद के लिए अपना बलिदान दे सकता है, तो हजारों हिन्दू बलिदान क्यों नहीं दे सकते.’ इतना ही नहीं, प्रेमचंद ने अपनी जिन कहानियों में हिन्दुस्तान शब्द का प्रयोग किया है, उसे ‘हिन्दुस्थान’ के रूप में संदर्भित किया गया है. एक लेख में प्रेमचंद को ‘आर्यसमाज का सिपाही’ कहा गया है तो दूसरे में स्वामी श्रद्धानंद का अनुयायी.
इस अंक के एक लेख का तो शीर्षक ही है ‘साहित्य का रंग : खूनी लाल नहीं सर्वहितैषी भगवा’. एक अन्य लेख में यह तक कहा गया है कि ‘सोजे वतन से चला उनका राष्ट्रवाद ‘गोदान’ में गाय की महत्ता की कहानी कहते हुए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की व्याख्या भी कर जाता है.’ और यह भी कि ‘गोदान’ के मुख्य केंद्र में भारतीय संस्कृति में सर्वाधिक श्रद्धेय गाय है.’ और ‘गोदान’ के माध्यम से यह भी बताया गया है कि हमारे जीवन के संस्कारों में गाय का कितना आध्यात्मिक महत्व है.’ पांचजन्य के इस अंक में मनोरंजन का भरपूर सामान जुटाते हुए ‘गोदान’ उपन्यास का महत्व इन आप्तवचनों में प्रस्तुत किया गया है- ‘हमारी हिन्दू संस्कृति में गाय का गोबर सर्वाधिक पवित्र मना जाता है जहाँ पूजा में उसके लेप के बिना हमारे कोई भी आध्यात्मिक संस्कार पूरे नहीं होते. ऐसे गाय-गोबर और उसके गोदान से पूर्ण है ‘गोदान’ महाकाव्य.’
उल्लेखनीय यह भी है कि ‘पांचजन्य’ के प्रेमचंद के शुद्धीकरण के इस महायज्ञं में हिन्दी साहित्य समाज की मुख्यधारा का एक भी लेखक, बुद्धिजीवी शामिल नहीं है. एक ऐसा पत्रकार जरूर शामिल है जो इन दिनों ‘दैनिक जागरण’ की छावनी पर मुस्तैदी से तैनात रहकर अपनी भगवा ‘विजय’ के ‘अनंत’ उन्माद में लोटता पोटता रहता है. इस अंक में भी अपनी समिधा के रूप में उसने ‘वामपंथ के शिकार बने प्रेमचंद’ शीर्षक से एक बेसिरपैर का लेख लिखा है जिसमें मेरा भी तर्पण किया है. उस पर रायपुर के भगवा साहित्य महोत्सव के मेरे द्वारा किये गए वैचारिक विरोध का आतंक अब तक प्रेत की तरह मंडरा रहा है.
‘पांचजन्य’ का यह समूचा अंक और प्रेमचंद के भगवाकरण का अभियान गोयबेल्स की तर्ज़ पर मिथ्या प्रचार का निकृष्टतम उदाहरण है, जिसे साहित्य के विकृतिकरण के अधोबिंदु के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए. आने वाले समय में झूठ और दुष्प्रचार का यह अभियान कितना भयावह और हाहाकारी होगा, यह सचमुच अकल्पनीय है. प्रेमचंद की इस लिंचिंग पर हम सचमुच आक्रोशित और संतप्त हैं.