नामाबर का दोबारा प्रकाशन शुरू होने के बाद राष्ट्रीय घटनाक्रम तेज़ी से बदला है। ज़ाहिर है इसकी एक वजह लगातार हुए विधानसभा चुनाव और कुछ उपचुनाव रहे जिनके आधार पर क़यास लगाए जाने लगे कि लोकसभा चुनाव 2019 में न होकर समय से पहले करवा दिया जाएगा। चूंकि कर्नाटक विधानसभा से लेकर कैराना/नूरपुर आदि उपचुनावों तक भारतीय जनता पार्टी की चुनावी लहर थोड़ा सुस्त पड़ती दिखती है, केवल इसी आधार पर यह मान बैठना कि देश के हालात सही हो रहे हैं ठीक नहीं होगा। चुनावों का सामाजिक हालात के साथ अब रिश्ता कमज़ोर पड़ चुका है। जो चुनावी नतीजे में दिखता है वह समाज का सच्चा अक्स नहीं है। हमने देखा है कि कैसे पहले भी सत्ताधारी दल चुनाव हारता है लेकिन समाज पर उसकी विचारधारा की जकड़ और मज़बूत होती जाती है। असल संकट यहां है।
लगातार स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों, किसानों और मजदूरों के जीने की स्थितियां दुष्कर होती जा रही हैं। लोगों के बीच नफ़रत फैल रही है। ऐसा नहीं कि शहरी अथवा कस्बाई मध्यवर्ग बहुत चैन से है। महंगाई बढ़ी है। पेट्रोल-डीज़ल के दाम अभूतपूर्व स्तरों पर हैं। अभी शहरों तक आंच वैसी नहीं पहुंची है कि लोग बेचैन हो उठें लेकिन गाव-कस्बों में सतह के नीचे की बेचैनी खुलकर सामने आ गई है। जो इलाके अब तक बिलकुल शांत पड़े हुए थे वहां भी नफरत ने अपनी पैठ बना ली है। ताज़ा उदाहरण मेघालय है जहां बीजेपी की सरकार बनने के तीन महीने के भीतर ही जनजातीय समुदायों और मज़हबी सिक्खों के बीच दंगे भड़क गए, जबकि 1987 के बाद से ऐसा यहां नहीं देखा गया था।
दूसरी ओर धरती एक अलग ही संकट से गुज़र रही है। हर बार 5 जून को हम पर्यावरण दिवस को मनाकर औपचारिकता निभा लेते हैं, लेकिन कभी आपने सोचा है कि ये धरती ही नहीं रहेगी तो काहे की राजनीति और कैसा ज्ञान? ऐसे चौतरफा संकट में हम किसका मुंह देखें?
देश-दुनिया में ऐसे तमाम लोग हुए हैं जिन्हें पढ़ना और समझना उम्मीद को बचाए रखता है। यह साल कार्ल मार्क्स की 200वीं जयन्ती का है। यहां भारत में आधुनिक काल के सबसे बड़े यायावर विद्वान माने जाने वाले राहुल सांकृत्यायन के जन्म की 125वीं जयन्ती अभी ही बीती है। संयोग नहीं कि राहुल और मार्क्स एक ही मंजिल के हमाराही थे अलबत्ता दोनों के तरीके अलग थे। अपने-अपने क्षेत्रों में अपने-अपने हक़ की लड़ाइयां लड़ते हुए हमें ऐसे विलक्षण लोगों के लिखे को भी पढ़ते रहना चाहिए ताकि बदलती हुई दुनिया की सही समझदारी विकसित कर सकें। इस अंक में मार्क्स और राहुल दोनों पर विशेष सामग्री है।
हमारे दौर के बड़े वैज्ञानिक स्टीफेन हॉकिंग पिछले दिनों गुज़र गए। उन्होंने इस अबूझ ब्रह्माण्ड की कई परतों को उघाड़ने का काम किया था। हॉकिंग 21 वर्ष की अवस्था के बाद तकरीबन निष्क्रिय हो चुके थे लेकिन खगोलीय रहस्यों को अपनी मेधा से भेदते रहे। उनसे ज्यादा कठिन लेकिन प्रेरक जीवन आसपास नहीं दिखता। उनका एक दिल छू लेने वाला साक्षात्कार इसी अंक में है। बाकी, हर बार की तरह समयानुकूल सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक सामग्री तो है ही। रघुवीर सहाय की आपातकाल के दौरान लिखी कविताओं में पाठकों को अपने दौर का अक्स दिखेगा। संघर्षों में एकजुटता बनाए रखें।
शुभकामनाओं के साथ