काफी लंबे समय तक स्थगित रहने के बाद नामाबर का प्रकाशन एक बार फिर से शुरू हो रहा है अलबत्ता अब यह केवल ऑनलाइन उपलब्ध होगी। इस बीच देश में काफी कुछ बदलाव आए हैं। गांव-गांव में हाथ में मोबाइल पहुंच गया है और सस्ते डेटा पैक ने सुदूर कोने में रह रहे लोगों का दुनिया से जुड़ना आसान बना दिया है। इसके फायदे भी हैं और नुकसान भी। फायदा यह है कि अब कोई भी अपनी बात आसानी से कई लोगों तक ऑनलाइन माध्यम से पहुंचा सकता है। मुद्रित अक्षरों की महत्ता अब भी कायम है लेकिन जिनके पास संसाधन नहीं हैं, वे बड़ी कुशलता से चाहें तो ऑनलाइन माध्यमों का प्रयोग कर सकते हैं।
इसका दूसरा और भयावह पक्ष फेक न्यूज़ यानी फर्जी खबरों के रूप में हमें बीते डेढ़ साल के दौरान देखने को मिला है। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में पहली बार फेक न्यूज़ की बात सामने आई थी जब पत चला था कि वॉट्सएप जैसे मंचों से फर्जी खबरें फैला कर मतदाताओं को फांसा जा रहा है। बहुत समय नहीं बीता था कि यह प्रवृत्ति अपने देश में भी देखने को मिल गई। नई तकनीक और मीडिया के साये में चीज़ें इतनी तेज़ी से बदली हैं कि वॉट्सएप और फेसबुक जैसे माध्यम से अब दंगे हो रहे हैं, हिंसा की भावना फैलायी जा रही है और नफ़रत का एक संगठित कारोबार सत्ता के संरक्षण में चल रहा है। विडम्बना यह है कि जो देश के कर्ताधर्ता हैं और जिन्हें इस देश के लोगों ने अच्छे दिन के नाम पर चुना था, वे खुद यह विषैला कारोबार चलाने वालों की सरपरस्ती करने में जुटे हुए हैं।
ऐसे में कोई भी वैकल्पिक बात अब केवल मुद्रित माध्यम से लोगों तक पहुंचाना काफी नहीं रह गया है। नए मीडिया के सहारे जब बात को पहुंचाने की सुविधा सबको मिली हुई है, तो वैकल्पिक कामों में लगे लोगों को इसका दोहन करना आना चाहिए। नामाबर के ऑनलाइन प्रकाशन के पीछे एक सोच यह भी है।
फरवरी 2018 के इस अंक में समकालीन घटनाक्रम पर कुछ टिप्पणियां हैं, कुछ ज़रूरी रिपोर्टें हैं, समाजवाद की ज़रूरत पर महान वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन का सर्वकालिक लेख है, भारतीय जनता पार्टी के विचारक कहे जाने वाले दीनदयाल उपाध्याय पर हाल में प्रकाशित एक पुस्तक के कुछ अंश हैं जो यह समझने में मदद करेंगे कि आखिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा को एक अदद नायक की तलाश क्यों करनी पड़ रही है और उसके लिए उन्होंने दीदउ को ही क्यों चुना है।
इनके अलावा कुछ सामयिक कविताएं हैं और हरिशंकर परसाई के मारक लघु व्यंग्य भी शामिल हैं। वैकल्पिक सिनेमा में मजदूरों के चरित्र-चित्रण पर एक ज्ञानवर्द्धक लेख भी है। दलित आंदोलन में हाल में आए उभार पर भीमा कोरेगांव की घटना के बहाने आनंद तेलतुम्बड़े का एक विचारोत्तेजक लेख है। हमें उम्मीद है कि नामाबर का यह अंक आपको अपने दौर के बारे में एक समग्र समझदारी कायम करने में मदद करेगा और समकालीन विमर्शों पर संघर्षरत जनता के पक्ष में खड़े होने की सलाहियत देगा।
शुभकामनाओं के साथ