जोतीराव (ज्योतिबा) फुले 19वीं सदी के भारत के अग्रणी चिंतक थे, जिन्होंने भारतीय समाज को सदियों से जकड़े जातिगत और स्त्री उत्पीड़न के ब्राह्मणवादी विचार के विरुद्ध संघर्ष को आधुनिक समता बंधुत्व स्वतंत्रता की जनवादी दृष्टि से वैचारिक-सैद्धांतिक आधार प्रदान किया; सबसे पहले सभी के लिए मुफ्त सार्वजनिक शिक्षा का सवाल उठाया, औपनिवेशिक व्यवस्था में किसान-दस्तकार समुदायों के निर्मम शोषण का प्रथम विस्तृत विवरण भी लिखा एवं श्रमिकों को संगठित करने के प्रथम प्रयास किये। पर अभी भी ज्यादा लोग फुले के लेखन से परिचित नहीं हैं। 1873 में लिखित ‘गुलामगिरी’ को तो कुछ हद तक जाना-पढ़ा भी गया है, पर 1883 में लिखित उनकी अत्यंत महत्वपूर्ण ‘किसान का चाबुक’ को बहुत कम जाना जाता है। इस पुस्तक का संक्षिप्त परिचय और आलोचना यहाँ प्रस्तुत है।
परिप्रेक्ष्य के लिए यह जानना जरुरी है कि अपनी युवावस्था के आरम्भ में ही फुले यूरोप-अमेरिका के 18वीं सदी की बुर्जुआ जनतांत्रिक क्रांतियों के अग्रणी मानवतावादी चिंतकों के विचारों से परिचित हो चुके थे। इनमें भी मानव समानता और मुक्ति के सबसे क्रांतिकारी चिंतक थॉमस पेन की ‘राइट्स ऑफ़ मैन’ फुले 1847 में पढ़ चुके थे और समता, बंधुत्व, मानव स्वतंत्रता के रेडिकल विचार उनके प्रेरणा स्रोत बन चुके थे। यूरोपीय विचारकों के इन विचारों से प्रभावित फुले भारत में यूरोपीय शासन की एक प्रगतिशील भूमिका मानते थे। पर इसके ठीक विपरीत ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन तंत्र द्वारा भारतीय समाज में ब्राह्मणवादी प्रभुत्व को मान्यता-संरक्षण और शासन चलाने के लिए उसके साथ किये गठजोड़ का यथार्थ अनुभव उनके दिमाग में बहुत सारे प्रश्न भी खड़े कर रहा था। औपनिवेशिक शासन की शोषणकारी नीतियों द्वारा शूद्र-अतिशूद्र किसान, दस्तकार और मजदूर समुदायों के जीवन में आई भारी तबाही-विपत्ति भी उनके सामने थी और इसके कारणों और उपायों पर भी वह चिंतित थे। शिवाजी के नेतृत्व में जो शूद्र कुनबी राजा जागीरदार बन कर खुद को मराठा कहने लगे थे (भोंसले, सिंधिया, होल्कर, गायकवाड़, आदि) खुद उनके दरबार-प्रशासनिक तंत्र में भी कैसे ब्राह्मणवादी प्रभुत्व हो गया था और उसके द्वारा शूद्रों-अतिशूद्रों के निर्मम शोषण के तथ्य का जिक्र भी फुले इस पुस्तक के प्राक्कथन में ही करते हैं।
पुस्तक के पहले अध्याय में फुले बताते हैं कि एक ओर तो अशिक्षित किसान ब्राह्मणवादी पुरातनपंथी धार्मिक विचारों की जकड़न के शिकार है, साथ ही औपनिवेशिक शासन का सारा तंत्र भी भट-ब्राह्मण कर्मचारियों पर ही टिका है। अपनी तीक्ष्ण व्यंग्यात्मक शैली में फुले विस्तार से इसका वर्णन करते हैं कि कैसे पूरे जीवन ही नहीं बल्कि उसके पहले मां द्वारा गर्भधारण के वक़्त से ही चालाक ब्राह्मण कर्मकांडों के द्वारा किसान परिवारों की लूट शुरू होती है और एक किसान की मृत्यु के बाद उसके बच्चों द्वारा श्राद्ध के रूप में जारी रहती है। जन्म, मृत्यु, विवाह हो या किसी का मकान बनना हो अर्थात जीवन के हर कार्य में ब्राह्मण कर्मकांड अनिवार्य अंग हैं और हरेक में दक्षिणा के नाम पर पंडे-पुजारियों की असीम लालसा-हवस प्रकट होती है और वे किसानों के खून-पसीने की मेहनत की उपज का एक बड़ा हिस्सा लूटने में सफल होते हैं। इसके आगे फुले चैत्र प्रथमा से फाल्गुन अंत की होली पूजा तक की तमाम अमावस्या-पूर्णिमा, एकादशी, चतुर्दशी, अष्टमी-नवमी, ग्रहण, मेलों-त्यौहारों, देवी पूजा, सत्यनारायण, रामायण, महाभारत, आदि की कथाओं के नाम पर ब्राह्मणी कर्मकांडों में पंडों द्वारा किसानों को फंसा कर की गई वर्ष भर की लूट का भी पूरा ब्यौरा देते हैं।
यही ब्राह्मण इन शूद्र किसानों के बच्चों को अपने संस्कृत विद्यालय में प्रवेश नहीं देते। हाँ, अहसान के तौर पर कुछ को प्राकृत मराठी विद्यालय में ले लेते हैं। इसके बदले मासिक शुल्क ही नहीं, अमावस्या-पूर्णिमा और तमाम तिथियों पर उनसे भेंट में सीधा (अन्न आदि सूखा, कच्चा भोज्य पदार्थ) भी वसूल करते हैं। और इसके बदले में जमीन पर कुछ अक्षर, मोदी (मराठी की एक पुरानी लिपि), थोड़ा कच्चा हिसाब, कुछ बेकार गाथाएं और लावणी जैसे गाने सिखाते हैं जिससे वे तमाशे में अभिनय करने लायक बन जाएं। पर इससे वे इस लायक भी नहीं हो पाते कि अपने घर का हिसाब-किताब ही पूरी तरह रख पाएं, किसी दफ्तर में क्लर्क, मामलातदार, वग़ैरह बनना तो बड़ी दूर की बात है।
इतने लम्बे वक्त से इस ब्राह्मणवादी शोषण-ठगी को चलते जाने का मुख्य कारण फुले के अनुसार ब्राह्मणों द्वारा अपने शासन व्यवस्था में पहुंचने के समय से ही शूद्रों को शिक्षा से वंचित रखने के अन्यायपूर्ण नियम-कायदे हैं। दूसरा कारण है कि राजसत्ता में जो भी रहा, चाहे शिवाजी जैसे शूद्र राजा ही क्यों न हो, उनके शासन तंत्र में ब्राह्मणों ने प्रभुत्व कायम कर लिया। इसके लिए वे शिवाजी की अशिक्षा और ब्राह्मणों की चालाकी को जिम्मेदार मानते हैं। शिवाजी के वंशजों के वक्त ब्राह्मण पेशवाओं द्वारा शासन अपने हाथ में लेकर किये गए अन्याय-अत्याचार का भी विस्तृत ब्यौरा यहां दिया गया है।
आगे फुले कहते हैं कि कायर ब्रिटिश हुकूमत भी इन्हीं ब्राह्मणवादी परम्पराओं, कायदों को न सिर्फ चलने दे रही है बल्कि इन पर हजारों रुपये भी खर्च करती है जो किसानों के खून-पसीने की कमाई से टैक्स के रूप में वसूल किये जाते हैं। उनकी शिकायत है कि ब्राह्मण सरकारी अमला किसानों की सही दयनीय हालत को ब्रिटिश हुक्काम तक नहीं पहुंचता, नहीं तो दयालु अंग्रेज हुकूमत जरूर उनकी दशा सुधारने के लिए कुछ कदम उठाती। निष्कर्ष में फुले कहते हैं कि ब्राह्मणवादी शोषण से धन और वक्त दोनों में अज्ञानी किसान की हालत इतनी बदतर हो चुकी है, पीढ़ियों से शिक्षा का इतना डर उसके दिमाग में बिठाया जा चुका है कि उसमें अपने बच्चों को शिक्षित करने की कूव्वत और हिम्मत बची ही नहीं है। यहाँ यह कह देना उपयुक्त होगा कि फुले जब किसान कह रहे हैं तो सिर्फ खेती करने वाले ही नहीं बल्कि पशुपालक, बागबान और कृषि से सम्बंधित अन्य काम करने वाले भी इसमें शामिल हैं।
दूसरे अध्याय में फुले ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता की नीतियों और देशी रजवाड़ों-जमींदारों तथा ब्राह्मणवादी तंत्र के साथ उसके गठजोड़ के परिणामस्वरूप शूद्र-अतिशूद्र किसानों, पशु पालकों, दस्तकारों के भयंकर शोषण और उससे उत्पन्न अकाल-भुखमरी की स्थिति की चर्चा करते हैं। इसके तहत वे मुख्यतः इन बिंदुओं की चर्चा करते हैं –
1. अंग्रेजी हुकूमत द्वारा किये गए जमीन बंदोबस्त में खेत का लगान उपज से जुड़ा नहीं बल्कि जमीन के रकबे से निश्चित होने और हर 30 साल में इसके बढ़ाये जाने की व्यवस्था
2. वन विभाग द्वारा गरीब किसानों और भूमिहीनों को लकड़ी, फल, पत्ते, आदि वन उत्पादों तथा गाय-बकरी पालक दूध बेचने वालों को चरागाह से वंचित करना
3. परिणामस्वरूप उत्पन्न खेती के संकट से बहुत से गरीब किसानों का परिवारों सहित मजदूरी के लिए मजबूर होना
4. ब्रिटिश कारखानों के सस्ते मशीनी उत्पादों के सामने दस्तकारों के उत्पादों के ना टिक पाने से बुनकरों, जुलाहों, आदि की बरबादी
5. साहूकारों द्वारा जमीन लिखवाकर सूद पर कर्ज देना और किसानों की जमीनें कब्ज़ा लेना
5. पहले के राजाओं-बादशाहों द्वारा शूद्र-अति शूद्रों को जो रोजगार मिलते भी थे, उनको भी अंग्रेजी राज में बंद कर सिर्फ ब्राह्मणों को सरकारी अमले में भर्ती करना
6. अंग्रेजी हुक्काम का भ्रष्टाचार, ऐशो-आराम और अपने मातहत ब्राह्मण अमले के जरिये सरकारी दफ्तरों, पुलिस, अदालत, आदि में किसानों का भारी शोषण-दहन
फुले बताते हैं कि इन सबके परिणामस्वरूप शूद्रों-अति शूद्रों के जीवन की वास्तविक स्थिति में अत्यंत गिरावट आई और वे भारी पैमाने पर अकाल और भुखमरी का शिकार होने लगे। अपने परिवारों-बच्चों की इस दर्दनाक हालत में कुछ न कर पाने में असमर्थ कुछ किसान-दस्तकार हताशा में नशे और अपराधी वृत्तियों का शिकार होने का ज़िक्र भी उन्होंने किया है।
फुले खास तौर पर शिक्षा व्यवस्था की बदहाली और किसानों को उससे वंचित रखने की आलोचना करते हैं। उनके अनुसार सरकार शिक्षा प्रसार के नाम पर किसानों से लाखों रुपये लोकल फंड इकट्ठा करती है पर उसमें से मुश्किल से एक तिहाई ही दिखावे के लिए खर्च कर यहां-वहां कुछ स्कूल बनाती है जिसमें कुछ पंडे शिक्षकों को रख देती है जो पढ़ाने के बजाय दिन भर अपने कर्मकांड में ही लगे रहते हैं। अंग्रेजी सरकार ने बहुत आलोचना के बाद शिक्षा के लिए जो हंटर आयोग बनाया था उस पर सख्त कटाक्ष करते हुए फुले कहते हैं कि उसने आम जनता के लिए शिक्षा की वास्तविक हालत जानने का प्रयास करने के बजाय बम्बई, मद्रास में सिर्फ ब्राह्मण, पारसी, ईसाई अभिजात लोगों की बात सुनी और वापस कलकत्ता की ओर कदम बढ़ा दिए। (अंग्रेजी हुकूमत द्वारा आम जनता के लिए सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था के बजाय सिर्फ ब्राह्मणों-अभिजातों के लिए उच्च शिक्षा पर ध्यान देने के मुद्दे पर फुले ने इस हंटर आयोग को एक प्रतिवेदन भी लिखा था, जिसे अलग से पढ़ा जा सकता है।)
फुले की बात के परिप्रेक्ष्य को समझने के लिए यहां कुछ ऐतिहासिक तथ्य प्रस्तुत करना जरुरी है। ब्रिटिश पूर्व काल में भारत में आम तौर पर कृषि भूमि ग्राम समाजों के सामूहिक प्रबंधन में होती थी और कृषि लगान की व्यवस्था मूलतः उपज के हिस्से पर आधारित थी। इसलिए पहले के राजा-बादशाह सामंती शोषक होते हुए भी खुद अपने हित में उपज को सुनिश्चित करने के लिए तालाब-कुंए आदि बनवाने में दिलचस्पी रखते थे। अकाल से बचने के लिए नई फसल को कुठारों में रख पिछली फसल को भोजन हेतु प्रयोग करने की परंपरा थी। इन ग्राम समाजों में भी शोषण-उत्पीड़न था पर दो साल से ज्यादा सूखा या प्राकृतिक आपदा होने से ही अकाल की स्थिति आती थी। लेकिन कॉर्नवालिस द्वारा 1793 में किये गए स्थाई जमींदारी बंदोबस्त या महालवाड़ी/रैयतवाड़ी व्यवस्थाओं में लगान को जमीन के रकबे की माप के आधार पर रुपये में तय कर दिया – उपज हो या नहीं; यह लगान हर 30 वर्ष में बढ़ाया भी जाता था। फिर जमींदार और उसके कर्मचारियों द्वारा अंग्रेजी सरकार को इतना लगान देने के बाद भी और वसूली/बेगार लिया जाता था। साथ में रेलवे आने के बाद फसल आने पर सस्ते दामों पर व्यापारियों द्वारा इसकी खरीदारी मालगाड़ियों से बंदरगाह होते हुए इसके निर्यात का बाजार भी शुरू हुआ। लेकिन फसल के बाद में जरुरत के वक्त अनाज के दाम बढ़ जाते थे। इसलिए अब अनाज भंडारण का बफर भी नहीं रहा और एक मौसम में बारिश न होने या कई बार तो अच्छी फसल के साल में भी अकाल पड़ने लगे क्योंकि लगान, कर्ज, सूद चुकाने की गरज में फसल के वक्त सस्ता बेचना और फिर महंगे दाम खरीदना ग्रामीण जनता की विवशता बन गया। 19 वीं सदी में अंग्रेजी सरकार के रिकॉर्ड मुताबिक 31 अकाल में 3 करोड़ 25 लाख लोग मरे, फुले के लिखते वक्त 1875-1900 में ही 2 करोड़ 60 लाख लोग अकाल मृत्यु के शिकार हुए। वैसे असली संख्या कहीं ज्यादा थी – ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लैंसेट के अनुसार 1890-1900 के दशक में ही 1 करोड़ 90 लाख लोग मरे। अच्छी फसल के साल 1943 में चर्चिल द्वारा फसल जब्त करा लिए जाने से बंगाल में 50 लाख लोग भूख से मरे।
यह निरंतर गंभीर होती दर्दनाक स्थिति फुले के सामने थी और यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि इसका मुख्य भुक्तभोगी समाज का ऊपरी ब्राह्मण-सवर्ण तबका नहीं बल्कि किसान, भूमिहीन मजदूर और दस्तकार शूद्र-अतिशूद्र जनता थी। इसीलिए यहां फुले ब्राह्मणों के साथ-साथ न सिर्फ ब्रिटिश शासकों बल्कि नए उभर रहे समाज सुधारकों पर भी व्यंग्य-कटाक्ष करते नजर आते हैं क्योंकि उनकी नजर में सर्वाधिक शोषित-पीड़ित जनता पर अन्याय के प्रतिकार के बगैर किसी राष्ट्रीय या सामाजिक सुधार का कोई अर्थ नहीं। 1947 तक के पूरे राष्ट्रीय आंदोलन पर उनकी यह शुरुआती टिप्पणी अहम है; अपने कुछ अन्य लेखों में उन्होंने इस पर और अधिक लिखा है।
तीसरे अध्याय में ज्योतिबा फुले अंग्रेजी औपनिवेशिक व्यवस्था द्वारा वंशागत अभिजात्य की ब्राह्मणवादी व्यवस्था को अपना एजेंट-सहयोगी बना लेने और दोनों के इस गठजोड़ द्वारा शूद्र-अतिशूद्र किसान-दस्तकार-मजदूर जनता के भयानक शोषण-दहन की आर्थिक व्यवस्था का विस्तार से विश्लेषण-वर्णन करते हुए इस अत्याचार के न रुकने पर ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को किसानों के विद्रोह के संकेत के रूप में इसके भयानक नतीजे होने की चेतावनी भी देते हैं।
फुले पहले प्राचीन भारत में मूल निवासी गणतंत्रों-राज्यों, उन पर आर्यों-यवनों के आक्रमण और वर्ण-जाति की उत्पत्ति पर अपने विचार रखते हैं। फिर मनुस्मृति आदि में ब्राह्मणों द्वारा बनाये गए अत्याचारी कायदों और शूद्र-अति शूद्रों को शिक्षा से वंचित करने तथा इसके प्रभाव से पैदा अज्ञान में ब्राह्मणों द्वारा उन पर किये गए नियंत्रण की चर्चा करते हैं। इसके बाद फुले कहते हैं कि अंग्रेज हुकूमत ने बहुत जल्दी ब्राह्मणों के इस नियंत्रण को समझकर उन्हें अपने शोषण में सहयोगी बना लिया जिससे उन्हें अपनी लूट में कम से कम प्रतिरोध का सामना करना पड़े और शीर्ष पर बैठे अंग्रेज ऐशो आराम का जीवन बिता सकें। इसके लिए उन्होंने ब्राह्मणों को अपने शासन में कर्मचारी रखा, उन्हें संरक्षण दिया। खुद और अपने ब्राह्मण कर्मचारियों की बड़ी कमाई के लिए उन्होंने अपने द्वारा स्थापित जमींदारी व्यवस्था में किसानों पर लगान के रूप में भारी टैक्स लगाए, जिन्हें हर 30 साल में बढ़ाने की भी व्यवस्था की। किसानों के बच्चों को शिक्षित करने के बहाने ‘लोकल फंड’ वसूलना शुरू किया, सड़क पर हर 6 मील पर एक्साइज (चुंगी) चौकी बना दी जो अपनी उपज बेचने जाते किसानों से लाखों रुपये इकठ्ठा करने लगी; शहर की मंडी में अनाज-सब्जी बेचने जाने पर म्युनिसिपल टैक्स लगा दिया और नमक तक पर कर लगा दिया। जो किसान जंगल से लकड़ी, फल, पत्ते, आदि एकत्र कर बेचते थे उन्हें वन विभाग ने जीविका से वंचित कर दिया। ऊपर से किसानों की उपज को मनमाने सस्ते दामों पर खरीद कर इंग्लैंड के मजदूरों को बेचने के लिए ख़रीदा जाने लगा जिससे इन व्यापारियों ने भारी कमाई की। पिछले अध्याय में अकालों की स्थिति के एक कारण के रूप में हम इसकी चर्चा पहले ही कर चुके हैं।
इसके आगे फुले कहते हैं कि भारत की पुरानी सामंती व्यवस्था में सभी किस्म के राजा बांध, नहर, कुएं, तालाब, सड़क, सराय, स्नानघर, पेड़-जंगल, आदि उपज के हिस्से के तौर पर वसूल किये सार्वजनिक कोष से करते थे, इनके लिए अलग से टैक्स नहीं लेते थे। अंग्रेजों ने सिंचाई, सड़क की व्यवस्था के लिए अलग से किसानों से वसूली शुरू की; साथ ही इन पर खर्च के नाम पर ब्रिटिश बैंकों से भारी कर्ज लेकर उसे भारतीय जनता पर लाद दिया गया, जिसके ब्याज के तौर पर सालाना सैंकड़ों करोड़ रूपया भारत के किसानों से टैक्स के रूप में वसूल होकर इंग्लैंड के बैंकों को जाने लगा। इस स्थिति में अधिकांश किसानों को फसल की लागत भी वसूल नहीं होती और वे लगान चुकाने के लिए भी सूदखोरों से कर्ज लेने को विवश होते हैं। ऊपर से सरकार कहती है कि किसान को कोई दिक्कत नहीं, उनकी गरीबी का कारण शादी-ब्याह में शान-शौक़त पर किया गया खर्च है।
फिर ब्रिटिश उद्योगों का सस्ता माल भारत आने लगा, उस पर आयात शुल्क भी शून्य कर दिया गया, जिससे वह देशी दस्तकारों के उत्पादों से सस्ता बिकने लगा। इससे लुहार, जुलाहे, बुनकर, चमड़े का काम करने वाले, जूते बनाने वाले, आदि सभी किस्म के भारतीय दस्तकार पूरी तरह बरबाद होकर भुखमरी का शिकार होने लगे। इसके आगे फुले बहुत विस्तार से ब्रिटिश औपनिवेशिक लूट का वर्णन करते हुए 4-5 बेटों और उनकी बहुओं के पूरे परिवार सहित 8 बैलों की खेती करने वाले किसान और सबसे निचले दर्जे के अंग्रेज – फ़ौज के गोरे सिपाही – के बीच तुलना करते हैं। वे दिन रात की हाड़तोड़ मेहनत के बाद किसान के घर, भोजन, वस्त्रों, आदि की दुर्दशा, शिक्षा-चिकित्सा के अभाव के साथ गोरे फौजी के वेतन, निवास, पलंग-बिस्तर, कपड़ों, भोजन, शराब, जूतों, इलाज-दवा, ऐश-आराम के जीवन की धुर विपरीत तस्वीर खींचते हुए अंग्रेजी औपनिवेशिक व्यवस्था की लूट और उसके स्वार्थी-भ्रष्ट ब्राह्मण कर्मचारियों की इस पूरे लूट के निजाम को चलाने में भूमिका को भी दिखाते हैं। वह कहते हैं कि यह व्यवस्था आम लोगों को बेईमानी और अनैतिक रास्ते अपनाने का प्रशिक्षण दे रही है।
निष्कर्ष में फुले ब्रिटिश सरकार को चेतावनी देते हैं कि यह लूट अगर कम नहीं हुई, हुकूमत के सरंजाम पर भारी खर्च के लिए अगर किसान-दस्तकार-मजदूर जनता को इसी तरह लूटा जाता रहा तो इसके भयंकर परिणाम के लिए तैयार रहे। एक प्रकार से फुले 1857 जैसे विद्रोह का इशारा करते हैं। हालांकि यह भी जान लेना जरुरी है कि पुराने सामंतों के नेतृत्व में हुए 1857 के विद्रोह के फुले विरोधी थे।
पुस्तक के चौथे अध्याय में फुले एक परिवार का उदाहरण लेकर किसानों के जीवन में छाई भारी विपत्ति का मार्मिक चित्रण करते हैं जिसको यहाँ संक्षेप में लिखना मुमकिन नहीं। उनके अनुसार अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन के पहले किसानों का जीवन तुलनात्मक रूप से बेहतर था, वे अकाल-भुखमरी का शिकार नहीं थे। लेकिन औपनिवेशिक शासन द्वारा किये जमीन बंदोबस्त में लगाए गए भारी टैक्स और अन्य किस्म की उगाही-वसूली, हर 30 साल में इनमें वृद्धि, अंग्रेज अफसरों और उनके मातहत ब्राह्मण कर्मचारियों की अय्याशी-लूट, पाटिल-कुलकर्णी आदि पारम्परिक पदाधिकारियों द्वारा औपनिवेशिक शोषण तंत्र में शामिल हो जाना, औपनिवेशिक शासन की नीतियों से कृषि के लिए जरुरी पशुधन का नष्ट होना, हर वर्ष अनाज, कपास, चमड़े, ऊन, आदि जिंसों का विदेशों में बड़े पैमाने पर निर्यात, विदेश में उत्पादित मालों का आयात, अंग्रेज शासन के गोरे अफसरों, इंजीनियरों, डॉक्टरों द्वारा ब्रिटिश सरमायेदारों के फायदे के लिए काम करना, इसके चलते किसान का सूदखोरों के जाल में फंसना, अपनी संपत्ति को गंवाते जाना, अशिक्षा-अन्धविश्वास के शिकार किसानों का ब्राह्मण कर्मकांडों द्वारा निर्मम शोषण। इन सबका नतीजा है बड़े पैमाने पर किसानों का अकाल, भुखमरी और महामारियों का शिकार होकर जान गंवाना। फुले बताते हैं कि इस विपत्ति भरे जीवन की हताशा-निराशा का नतीजा ही बड़ी संख्या में किसान परिवारों के नौजवानों का नशा, वेश्यावृत्ति, आपराधिक जीवन, जैसी बुराइयों में फंसकर अपने जीवन को बरबाद करने में भी हो रहा है। अंग्रेज सरकार द्वारा किसानों की शिक्षा के नाम पर लोकल फंड में लाखों रुपये की उगाही कर शिक्षा का कोई इंतजाम न करने की बात करते हुए फुले व्यंग्य से कहते हैं कि अगर किसान शिक्षित हो जाये तो वह चाबुक का शिकार होने के बजाय चाबुक चलाने लगेगा और उसके डर से ये सारे अंग्रेज अफसर-कर्मचारी चीखते-चिल्लाते सीधे अमेरिका जाकर रुकेंगे, जहाँ उन्हें दिन रात मेहनत कर अपना पेट भरना पड़ेगा।
एक और बहुत महत्वपूर्ण पक्ष जिसकी और फुले यहाँ संकेत करते हैं वह है उस वक्त राष्ट्रवादी आंदोलन की एकदम शुरुआती अवस्था में उस समय बन रही एसोसिएशनों-सभाओं के चरित्र का विश्लेषण। उनकी नजर में यह सब ब्राह्मणों का आंदोलन था। उनके अनुसार अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा, विदेश यात्रा, आदि से प्राप्त आधुनिकता का लाभ भी मात्र ब्राह्मणों को ही मिला था। इन सभाओं में आम किसानों-दस्तकारों के आर्थिक एवं सामाजिक शोषण का सवाल कहीं नहीं था, उनकी शिक्षा का सवाल इसमें शामिल नहीं था। बल्कि यह लोग तत्कालीन आर्थिक-प्रशासनिक व्यवस्था के बजाय किसानों के द्वारा विवाह, आदि में भारी व्यर्थ खर्च, आदि को उनकी गरीबी, बदहाली का कारण मानते थे।
अंतिम अध्याय में फुले सबसे पहले उस समय संपन्न शिक्षित तबके में आकार ले रहे राष्ट्रीय आंदोलन और उसके द्वारा राष्ट्रीय एकता के आह्वान पर तीखे सवाल उठाते हैं क्योंकि समाज का यह ब्राह्मणवादी सवर्ण तबका ऐतिहासिक रूप से शूद्र-अतिशूद्रों पर अत्याचारों के लिए जिम्मेदार था। उस समय भी यह वर्ग औपनिवेशिक सत्ता के साथ मिलकर किसान, दस्तकार, मजदूर वर्गों के शोषण में हिस्सेदार था। साथ ही यह उन्हें मनुष्य तक मानने को तैयार नहीं था। उनके मत से यह तबका कारोबारी, प्रशासनिक जरूरतों के लिए आधुनिक चिंतन का दिखावा करता था लेकिन अपने सांस्कृतिक, सामाजिक, व्यक्तिगत जीवन में पूरी तरह कट्टर पुरातनपंथी ब्राह्मणवादी रूढ़ियों-विचारों पर कायम था। इसलिए फुले इनसे सीधा सवाल करते हैं कि इनके साथ शूद्र-अतिशूद्र किसान, दस्तकार, मजदूर जनता की एकता किस आधार पर मुमकिन है? भोंसले, होल्कर, सिंधिया, गायकवाड़ जैसे शूद्र राजा भी फुले की दृष्टि से किसान शूद्र-अतिशूद्रों का शोषण करते हुए ऐशो आराम में मस्त थे और उनके शासन-दरबार में भी ब्राह्मणवादी तबका ही हावी था।
अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन के बारे में भी फुले का विचार था कि अपने घनघोर शोषण आधारित शासन को चलाने के लिए उन्होंने भी ब्राह्मणवादी तबके को मददगार मानकर उसे अपना मातहत सहयोगी मान लिया है। औपनिवेशिक शासन में उच्च पदासीन अंग्रेजों के मातहत सभी पदों पर यही तबका जड़ जमाकर भारतीय मेहनतकश जनता की निर्मम लूट का औजार और छोटा हिस्सेदार बन बैठा है। इसीलिए अंग्रेज हुकूमत कृषि के उत्थान और किसानों के कल्याण तथा शिक्षा के लिए कोई कदम नहीं उठाती। यहाँ तक कि इनकी शिक्षा के लिए वसूल किये जाने वाले लाखों रुपये फंड को भी उस मद में खर्च नहीं करती। फुले इस पर गुस्सा जताते हुए अंग्रेजी शासन के लिए इसके खतरनाक नतीजों की चेतावनी देते हैं।
साथ ही फुले मानते हैं कि कुछ सहृदय अंग्रेजों तथा मिशनरियों के कारण उनके जैसे कुछ शूद्रों को भी शिक्षा पाने का अवसर प्राप्त हुआ है जिससे उन्हें ब्राह्मणों ने लम्बे वक्त तक वंचित रखा था। कुछ शूद्रों-अतिशूद्रों को रेलवे, फ़ौज, आदि में नौकरियों का मौका भी मिला था। इससे उनमें जागृति और अपने अधिकारों की चेतना पैदा हुई थी। फुले थॉमस पेन, बेंजामिन फ्रैंकलिन, आदि यूरोपीय जनतांत्रिक-मानवतावादी चिंतकों से भी प्रभावित थे। उनकी नजर में अंग्रेज प्रबुद्ध और आधुनिक विचारों वाले थे। इसलिए औपनिवेशिक शासन के अत्याचारों और उसमें ब्राह्मणों के प्रभुत्व के बावजूद भी उन्हें यह उम्मीद थी कि शोषित-वंचित तबकों के जीवन की वास्तविक स्थिति सामने लाने और उनके जीवन में सुधार की तार्किक मानवीय अपीलों से अंग्रेज शासकों का नजरिया बदला जा सकता है। इसलिए वे औपनिवेशिक सरकार को किसानों के हित के लिए सामान्य और कृषि तकनीकी शिक्षा, सिंचाई व्यवस्था, जमीन को उपजाऊ बनाने और उत्पादकता बढ़ाने से लेकर बहुविवाह, नशे, अश्लील गाने-तमाशों पर रोक, आदि बहुत से कार्यों का सुझाव भी देते हैं।
इस प्रकार ‘शेतकर्याची आसुड’ में शूद्र-अतिशूद्र किसानों, दस्तकारों, मजदूरों के शोषण पर फुले के विचारों का सार-संक्षेप करें तो पाते हैं कि वे इस शोषण को कुछ चालाक ब्राह्मणों द्वारा मिथकों, कर्मकांडों, देवी-देवताओं के अभिशाप-वरदान के ढोंग-पाखंड की वर्ण-जाति व्यवस्था द्वारा भोले-भाले शूद्रों को ठग लेना मात्र तक सीमित नहीं समझते। बल्कि इसे समाज में स्थापित राजसत्ता द्वारा संचालित आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था के अंग के रूप में देखते थे। यद्यपि वे इन शब्दों का प्रयोग नहीं करते पर फुले वर्ण-जाति व्यवस्था को समाज के उत्पादन संबंधों और उससे जुड़े शासक-शासित के संबंधों के रूप में समझ रहे थे क्योंकि उत्पादन संबंधों के बिना सत्ता या शासक का कोई अर्थ नहीं। सत्ता के लिए सत्ता जैसी तो कोई चीज होती नहीं, सत्ता का आधार ही समाज के अधिकांश हिस्से द्वारा किये गए श्रम के उत्पाद को हस्तगत करना है, यह चाहे गुलामी की जंजीर में बंधे दासों से श्रम कराकर हो, या सामंती समाज में किसानों की उपज का बड़ा हिस्सा सामंतों द्वारा हथिया कर किया जाये, या फिर पूंजीवादी समाज में श्रमिकों की श्रम शक्ति द्वारा उत्पादित अधिशेष मूल्य पर पूंजीपति के मालिकाने के द्वारा हो।
लेकिन अधिकांश मेहनतकश जनता के श्रम की यह लूट सिर्फ सत्ता की फौजी या दंडात्मक ताकत के सहारे ही चला पाना बहुत मुश्किल होता। इसलिए शासक वर्ग ऐसे विचार-दर्शन को भी लेकर आये जो शासितों के दिमाग में इस लूट को उचित मान कर स्वीकार कर लेने का आधार बने तथा इस निर्मम लूट-उत्पीड़न की असहनीय पीड़ा में अफीम जैसा दर्द निवारक बन जाये। जैसा मार्क्स ने कहा हर समाज में प्रचलित प्रभावी विचार शासकों के ही विचार होते हैं। जब पशुपालन और कृषि से निजी संपत्ति अस्तित्व में आई जिस पर पहले पराजित बंदियों, फिर खुद अपने समुदाय के भी गरीब सदस्यों से श्रम कराकर मुखिया, सेनापति अपनी संपत्ति बढ़ा सकें और उसे आगे अपनी संतान को विरासत में दे सकें, तब से ही हर समाज में न सिर्फ एक शोषित वर्ग अस्तित्व में आया बल्कि पितृसत्ता द्वारा स्त्रियों का पराभव भी हुआ। साथ ही इस शोषक व्यवस्था को तार्किक, उचित ठहराने के लिए शासकों ने धर्म, अध्यात्म, दर्शन को भी जन्म दिया।
भारतीय उपमहाद्वीप के भूभाग में शोषण की व्यवस्था को उचित ठहराता शासकों का यह विचार-दर्शन ही ब्राह्मणवाद था क्योंकि इसके कर्मफल, पुनर्जन्म, मोक्ष, श्रेय-प्रेय और वर्णाश्रम के विचार शासितों को अपने जीवन के अन्याय और पीड़ा को सहन और स्वीकार करने में मदद करते थे। इसलिए उसके बाद जो भी शासक रहे उन्होंने ब्राह्मणवाद को अपना संरक्षण दिया। ब्राह्मणों के लिए भी प्रत्येक शासक के साथ गठजोड़ ही अभिप्रेय रहा। इसी लिए शक, यवन, हूण, मंगोल, गुर्जर, आदि जो भी अपनी सैन्य शक्ति से राजा बना उसे ही ब्राह्मणों ने क्षत्रिय स्वीकार कर लिया। अगर शूद्रों में भी कोई राजा बन बैठा (पाल वंश, नन्द वंश, पूर्व-दक्षिण के अन्य राजवंश, मराठा, आदि) तो ब्राह्मणों को उसके दरबारी-सहयोगी बनने में भी कोई तकलीफ नहीं हुई और शुरुआती टकरावों के बाद उन शासकों को भी ब्राह्मणों को अपने सहयोगी बना लेने में कोई ऐतराज नहीं हुआ क्योंकि वे इस बात को समझ गए कि ब्राह्मणवाद श्रम की लूट और शासितों द्वारा विद्रोह को रोकने में उनके लिए मददगार था। इस्लाम जैसे संगठित धर्म के साथ यह आरम्भिक टकराव ज्यादा हुआ लेकिन मुस्लिम शासकों ने भी अपने शासन के स्थायित्व के लिए बाद में ब्राह्मणवादी अभिजात तबके के साथ अहस्तक्षेप और सहजीवन को स्वीकार कर लिया और मुग़ल दरबारों में फिर से ब्राह्मणवादी अभिजात तबके को इज्जत का स्थान प्राप्त होने लगा।
फुले भी इसी बात की पुष्टि करते हैं जब वे कहते कि शूद्र राजाओं के दरबार-प्रशासन में भी ब्राह्मण ही छाए हैं और वहां भी शूद्र-अतिशूद्र किसानों का उतना ही शोषण होता है। इसी तरह अंग्रेजों ने भी जल्दी ही समझ लिया कि भारत की जनता पर राज्य करने के लिए ब्राह्मणवादी अभिजात तंत्र बहुत सहायक सिद्ध होगा। इसलिए 1857 से पहले कंपनी शासन के दौरान भारत के पुराने अभिजात वर्ग से जो थोड़ा बहुत टकराव हुआ भी, 1858 में विक्टोरिया की घोषणा द्वारा ब्रिटिश शासन ने इस अभिजात तबके को संरक्षण और उसके हितों में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन दे दिया गया और उन्होंने औपनिवेशिक प्रशासन में अधिकांश पदों पर उन्हीं को भर्ती करना शुरू किया। बदले में इस तबके ने भी खुद को ब्रिटिश शासन का ख़ैरख़्वाह घोषित किया जिसकी सबसे बड़ी वैचारिक अभिव्यक्ति औपनिवेशिक कर्मचारी बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के ‘आनंदमठ’ में हुई जिसमें ब्रिटिश शासन को ब्राह्मणवाद के पूर्ण समर्थन का ऐलान किया गया। इसी विचार पर चलते हुए हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन अंत तो औपनिवेशिक शासन के वफादार बने रहे। यही वजह है कि औपनिवेशिक हुकूमत शिक्षा के नाम पर बडी रकम टैक्स में वसूल करती थी लेकिन उसका इस्तेमाल भी किसानों की शिक्षा के बजाय ब्राह्मणवादी अभिजात वर्ग की उच्च शिक्षा के लिए ही करती थी। शूद्र-अतिशूद्रों को शिक्षा के जो मौके मिले थे वे कुछ मिशनरियों और सहृदय यूरोपीय व्यक्तियों के कारण ना कि औपनिवेशिक हुकूमत द्वारा उनके लिए किये गए किसी प्रयास की वजह से। फुले की बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि 1947 में भी भारत की साक्षरता दर मात्र 12% थी जिसमें भी शूद्र-अतिशूद्र शायद 1% से भी नीचे थे। यद्यपि कुछ नौकरियां फ़ौज, रेलवे, आदि में मिली थीं लेकिन 1893 में फ़ौज में लड़ाकू जाति के सिद्धांत के तहत महार, आदि दलित जातियों की भर्ती बंद कर दी गई।
निष्कर्ष यह कि अपने जीवन के अंतिम दशक में फुले इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे थे कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन शूद्र-अतिशूद्र जातियों के किसान-मजदूर-दस्तकारों के लिए एक निर्मम शोषण से भरा शासन था। उस पर वह कई सख्त टिप्पणी और कटाक्ष करते हैं और सुधार न होने पर विद्रोह की चेतावनी भी देते हैं। पर उसके खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन को खड़ा करने के जो प्रयास उस समय चल रहे थे उसका नेतृत्च भी ब्राह्मणवादी अभिजात तबके के हाथ में था जो अपने तात्कालिक आर्थिक-राजनीतिक हितों के लिए आधुनिक जनतांत्रिक सिद्धांतों की बात तो करता था लेकिन अपने सामाजिक-सांस्कृतिक चरित्र में पूरी तरह कटटर पुरातनपंथी था। अतः फुले की नजर में इस आंदोलन में शूद्र-अतिशूद्र जनता का कोई हित नहीं था। इसलिए फुले उसका सख्त विरोध करते हुए उससे जुड़ने से साफ इंकार भी करते हैं।
तब सवाल उठता है कि औपनिवेशिक शासन और ब्राह्मणवादी अभिजात तंत्र के खिलाफ एक स्वतन्त्र रेडिकल आंदोलन खड़ा करने का प्रयास फुले ने क्यों नहीं किया? यद्यपि 1885 में सत्यशोधक समाज के अंतर्गत फुले शूद्र जातियों के अलग धार्मिक संस्कारों के साथ-साथ श्रमिकों को भी संगठित करने का प्रयास कर रहे थे और उनके सहयोगी नारायण मेघजी लोखंडे ने मुंबई में प्रथम श्रमिक संगठन बनाया था लेकिन अपने जीवन के अंतिम वर्षों में उनका ध्यान धार्मिक-सामाजिक सुधारों पर ही ज्यादा रहा। इसे सिर्फ फुले की व्यक्तिगत ही नहीं उस समय तक भारत के किसान-श्रमिक जनसमुदाय की राजनीतिक चेतना, शिक्षा की सीमा ही मानना चाहिए। किन्तु उनके बाद भी उनके सत्यशोधक समाज में इस दिशा में आगे बढ़ने लायक नेतृत्व का अभाव था और वह जल्द ही बिखर गया।
फुले के बाद इस औपनिवेशिक शासन और ब्राह्मणवादी पुरातनपंथ के विरुद्ध एक राष्ट्रीय आंदोलन के विचार को आगे बढ़ाने का प्रथम गंभीर प्रयास कनाडा-अमेरिका में प्रवासी पंजाब के किसान-मजदूर तबके द्वारा हुआ जिसके संगठन ग़दर पार्टी ने मात्र राजनीतिक आजादी ही नहीं, बल्कि आर्थिक समानता और धर्म-जाति आधारित विभेद की समाप्ति को भी अपना लक्ष्य बनाया। भगत सिंह और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने भी इस दिशा में कदम बढ़ाये। मगर आम जनसमुदाय को राजनीतिक रूप से सचेत और संगठित करने के पहले ही सशस्त्र संघर्ष में कूद पड़ने की स्थितियों में यह धारा बहुत आगे नहीं बढ़ पाई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी अपनी वैचारिक समझ की गंभीर कमजोरियों की वजह से इस धारा के आधार पर आगे बढ़ने के बजाय अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के सामान्य फैसलों को ही भारत में लागू करने में जुटी रही। इसी का नतीजा था कि जिस ब्राह्मणवादी अभिजात तबके द्वारा नीत राष्ट्रीय आंदोलन के खिलाफ फुले सचेत कर रहे थे वह ही भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व हासिल करने में सफल रहा और उसने राजनीतिक सत्ता प्राप्त की लेकिन इस क्रम में भारतीय समाज में धर्म-जाति आधारित प्रतिक्रियावादी विचारों और अन्याय को भी स्थापित रखा। यही भारतीय इतिहास की बड़ी त्रासदी है।
(साभार: समयांतर)