मई के दूसरे सप्ताह में संयुक्त संसदीय समिति ने नागरिकता (संशोधन) बिल 2016 पर जनसुनवाई करने के लिए असम और मेघालय का दौरा किया। नागरिकता (संशोधन) बिल का मकसद नागरिकता एक्ट 1956 में संशोधन करना है। नागरिकता देने के लिए धर्म को आधार बनाने की वजह से इन संशोधनों का पहले से विरोध होता रहा है। जन सुनवाई के दौरान भी इन संशोधनों का भारी विरोध हुआ और धार्मिक आधार वाले तर्क की समस्या को भी सभी विरोध करने वाले पक्षों ने उठाया। जन सुनवाई के दौरान इस बिल का एक और खतरनाक पहलू उभर कर आया। इस बिल की वजह से असम के ब्रह्मपुत्र घाटी और बराक घाटी की जनता के बीच वैमनस्य पैदा होने की संभावना दिखाई दी। संयुक्त संसदीय समिति के दौरे के बाद असम के मुख्यमंत्री को जनता से शांति एवं सद्भाव कायम रखने की अपील करनी पड़ी।
भारत में राष्ट्रीयताओं की समस्या जटिल रही है। साथ ही शासक वर्ग द्वारा जनता के बीच फूट डालने के लिए राष्ट्रीयताओं के भेद को जिस तरह से इस्तेमाल किया गया उसने इस समस्या को और भी ज्यादा जटिल बना दिया। असम के मामले में इन चीजों के अलावा बांग्लादेशी अप्रवासी और शरणार्थियों के प्रति विद्वेष भड़काने वाली रणनीति ने भी अपना जहरीला प्रभाव छोड़ा। अब जैसे इतना ही काफी न हो, भाजपा सरकार नागरिकता एक्ट में साम्प्रदायिक संशोधन के द्वारा मुसलमानों की दोयम दर्जे की स्थिति को तो पुख्ता कर ही रही है, साथ ही असम और पूरे देश में साम्प्रदायिक विद्वेष भड़काने के लिए बारूद इकट्ठा कर रही है। असम की भाजपा सरकार ने नागरिकता (संशोधन) बिल पर अपना रुख स्पष्ट करने के लिए नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर की सूची जारी होने तक का समय मांगा है। असम सरकार का कहना है कि इस सूची के जारी होने के बाद अप्रवासियों के धार्मिक संगठन की स्थिति जानने के बाद वह अपनी अवस्थिति स्पष्ट करेगी। साफ है कि भाजपा इस सूची का इंतजार मुस्लिम अप्रवासियों के खिलाफ विषवमन के लिए कर रही है।
भारत की आबादी में एक भारी संख्या बांग्लादेशी लोगों की है। ये बांग्लाभाषी हिन्दू और मुसलमान दोनों हैं। असम के दक्षिणी तीन जिले जो बराक घाटी में आते हैं, वहां बहुसंख्यक आबादी बांग्लाभाषियों की है। इन बांग्लाभाषियों में मूल निवासियों के साथ-साथ 1947 के पहले और उसके बाद में अलग-अलग समय पर आने वाले अप्रवासी भी हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान चाय बागानों और अन्य उद्यमों में काम करने के लिए तत्कालीन बंगाल और देश के अन्य हिस्सों से लोगों को लाया गया था। 1947 से 1971 के बीच भी तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) से अप्रवासी आते रहे। 10 लाख बांग्लादेशी अप्रवासी 1971 में बांग्लादेश के जन्म के लिए होने वाले संघर्ष के समय असम आए। इनमें से 1 लाख लोग संघर्ष समाप्ति के पश्चात भी भारत में रुके रहे। 1979 से 1985 के बीच असम में बगैर दस्तावेजों के रह रहे अप्रवासियों के खिलाफ आंदोलन चला। इस आंदोलन की समाप्ति 1985 के असम समझौते द्वारा हुई। यह समझौता केन्द्र सरकार और आंदोलन के नेताओं के बीच हुआ। इस समझौते में तय किया गया कि 1961 से पहले आने वाले अप्रवासियों को पूर्ण नागरिकता दी जाए। 1971 के बाद आने वाले अप्रवासियों को वापस उनके देश भेजा जाए। 1961 से 1971 के बीच आने वाले अप्रवासियों को 10 साल तक वोट देने के अधिकार को छोड़कर नागरिकता के अन्य सभी अधिकार दिए जाएं। नागरिकता (संशोधन) बिल, 2016 का विरोध करने वाले असमी लोगों का एक तर्क यह भी है कि यह बिल असम समझौते का उल्लंघन करता है।
जिस नागरिकता एक्ट, 1955 में संशोधन की बात भाजपा सरकार कर रही है, वह उन विभिन्न तरीकों को स्पष्ट करता है जिसके आधार पर नागरिकता हासिल की जा सकती है। इसमें जन्म, वंश, पंजीकरण, देशीयकरण (नेचुरेलाईजेशन) और भारत में किसी परिक्षेत्र के समावेश द्वारा नागरिकता मिलने की बात कही गयी है। इसके अतिरिक्त यह एक्ट अप्रवासी भारतीयों के पंजीकरण और उनके अधिकारों का विनियमन करता है। यह एक्ट अवैध प्रवासियों को परिभाषित करता है और उनके द्वारा नागरिकता हासिल करने को प्रतिबंधित करता है। यह एक्ट देशीयकरण द्वारा नागरिकता हासिल करने के लिए भारत में 11 वर्ष के निवास की शर्त रखता है तथा अनधिकृत तौर पर देश में रह रहे विदेशियों को अवैध प्रवासी बताता है। नागरिकता(संशोधन) बिल, 2016 इन उपरोक्त दोनों शर्तों में संशोधन करता है। इसके अनुसार अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई अवैध प्रवासी नहीं माने जायेंगे, भले ही उनके पास कोई पासपोर्ट या वीजा न हो। साथ ही इन्हें देशीयकरण द्वारा नागरिकता हासिल करने के लिए 11 वर्ष के बजाय 6 वर्ष का ही निवास पर्याप्त होगा। इस तरह यह संशोधन धर्म के आधार पर भेद-भाव करता है और मुस्लिम, यहूदी आदि धर्मावलम्बियों के लिए नागरिकता आदि कठिन बना देता है। चूंकि इस संशोधन के पारित होने के बाद 1971 के बाद आए हिन्दू बांग्लादेशी प्रवासी देश के नागरिक बन जायेंगे, इस तरह इस पर असम समझौते के उल्लंघन का आरोप लग रहा है।
संयुक्त संसदीय समिति की जन सुनवाई के दौरान गुवाहाटी और सिलचर में अलग-अलग प्रतिक्रिया दिखाई दी। गुवाहाटी में बिल का विरोध करने वाले लोग इतनी भारी संख्या में आए कि समिति को व्यक्तिगत तौर पर पक्ष जानने के बजाए आॅन लाइन अपना पक्ष भेजने के लिए कहना पड़ा। गुवाहाटी ब्रह्मपुत्र घाटी में पड़ता है जहां बांग्लाभाषी अल्पसंख्या में हैं और यहां के असमी भाषी बिल को बांग्लाभाषियों की संख्या बढ़ाने के खतरे के रूप में देखते हैं। सिलचर जो कि बराक घाटी में पड़ता है, वहां समिति के सामने ज्यादातर प्रतिवेदन संशोधन के पक्ष में थे। मेघालय में सरकार समेत अन्य अधिकांश प्रतिवेदन संशोधन के विरोध में थे। समिति ने फिलहाल अपनी जनसुनवाई स्थगित कर दी है और नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर के जारी होने पर पुनः जन सुनवाई करने की बात की है। समिति को अपनी रिपोर्ट संसद के मानसून सत्र में पेश करनी है।
देश की जनता की सजगता ही यह सुनिश्चित कर सकती है कि भाजपा इस बिल का इस्तेमाल 2019 के चुनाव के तमाम हथियारों में से एक हथियार के रूप में न कर सके।
(‘नागरिक’ से साभार)