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जब राजा ने पेंदे के छेद से किया अग्नि का आवाहन!
एक समय की बात है। धरती पर आर्यावर्त नामक देश में एक राजा हुआ करता था। राजा के राज्याभिषेक के बाद सदियों बाद ‘धर्म’ का राज स्थापित हुआ था। देवतुल्य राजा के राज संभालते ही राज्य का एक बड़ा वर्ग प्रसन्न रहने लगा। नदियों में दूध बहने लगा, पेड़- पौधों फल- फूल के साथ राज्य की मुद्रा भी उगने लगी। जिसे भी आवश्यकता होती वो निडर होकर मुद्रा तोड़ लेता था। सभी भय, रोगमुक्त जीवनयापन करने लगे।
राजा बड़ा महान और मायावी था वह जिस मार्ग से बस गुजर भर जाता उसके पीछे पक्की सड़कें, गुरूकुल और अन्न के ढेर लग जाते थे। चिड़िया मंगलगीत गाती उड़ती थी। उसके राज्य में कोई दुखी न था सिवाय मूल निवासी असुरों के। राजा को देशद्रोही असुरों पर क्रोध तो बहुत आया लेकिन क्रोध का प्रयोग अपने शत्रुओं पर करने का उसे अद्भुत वरदान प्राप्त था। कहते हैं कि युवावस्था में राजा बनने से पहले वह हिमालय से तप कर लौटा था। वहां तप करने से देवता उससे प्रसन्न हुए थे और देवताओं ने उसे वरदान देते हुए आदेश दिया कि हे मनुष्य, आप यहां के लिए नहीं बने हो, आप प्रजा के बीच जाओ, राज करो। राजा ने ऐसा ही किया।
राजा के तपस्या के लिए हिमालय जाने से पूर्व बालपन के भी किस्से बहुत मशहूर थे। एक बार राजा जब बालक था तब निकट की नदी से मगरमच्छ का एक बच्चा घर ले आया। बालक के पिता ने उसे मगरमच्छ के इस बच्चे को सही सलामत नदी में छोड़ने का आदेश दिया और बालक ने तब भी ऐसा ही किया। देखते-देखते बालक की ये साहसिक कथा पूरे क्षेत्र में फैल गई।
अब पुन: बात करते हैं राजा के राज की। राजा को तपस्या के समय ही एक वरदान प्राप्त हुआ था। राजा अपने क्रोध से क्या-क्या कर सकता है इसकी चर्चा चारों दिशाओं में फैल चुकी थी। राजा का क्रोध और उससे जुड़ी मायावी शक्ति इतनी बलवान थी कि वो जिसकी ओर दृष्टि भर कर दे, वो उसके वशीभूत हो जाता था। राजा को सदियों तक कठोर तप से एक और अदभुत वरदान प्राप्त हुआ था। वरदान के अनुसार जो भी राजा की आलोचना करता था वो आलोचना करते ही भस्म हो जाता था।
समय बीतने के साथ उसका प्रताप बढ़ता ही जा रहा था। राजा लगातार प्रजा के कल्याण के लिए योजनाओं की घोषणा करने में व्यस्त था। आम राज्य लगभग आ चुका था लेकिन कुछ असुर लगातार उसके इस महान उद्देश्य में विघ्न डालने का यत्न करते रहते थे। राजा में बस एक कमी थी, राजा की डेढ़ भुजाएं थी और उसके कान कमज़ोर थे। इन सब कमियों के बाद भी राजा अपने दो सुयोग्य मंत्रियों अमितनाथ और अरूणेंद्र के दम पर राज्य चला रहा था। राजा के मंत्रियों ने सलाह दी कि आपको जनता को अपने दिल की बात बतानी चाहिए। राजा मुदित हुआ, परंतु राजा के दरबार में बैठे कुछ मार्गदर्शक लोगों ने सलाह दी कि हमें प्रजा के मन की बात भी सुननी चाहिए। राजा में अपने दो सबसे विश्वस्त मंत्रियों अमितनाथ और अरूणेंद्र की ओर उनकी राय जानने के लिए देखा। मंत्रीद्वय ने बिना समय गंवाए राजा को विनम्र सलाह दी कि राजा सिर्फ कहता है, सुनने का काम प्रजा का है।
यह प्रकरण वहीं समाप्त हो गया और पुन: किसी मार्गदर्शक ने मुंह नहीं खोला। हां, कुछ जागीरदारों ने समय-समय पर नियंत्रित विद्रोह करने की कोशिश की लेकिन राजा ने उनके पुत्रों को अपने दरबार में ऊंचे पद देकर अपनी तरफ मिल लिया। समय बीतने के साथ ये छोटे विद्रोही शत्रु राजाओं से जा मिले लेकिन उनके पुत्रों के राजा के दरबार में होने से राजा निश्चिंत था। समय बीतता गया और राजा के दरबार में छोटेमोटे विद्रोह के स्वर भी समाप्त हो गए। राजा ने मजबूत राज्य के लिए अपने दरबारियों और प्रजा से उनकी जिह्वा का बलिदान मांगा। राजा का आदेश सुनकर प्रजा में से बहुत लोगो़ं ने दो कदम आगे बढ़कर अपने हृदय तक बलिदान कर दिए। कुछ असुर लोगों ने बलिदान करने से मना कर दिया। राजा के आदेश की अवहेलना करने पर राजा के आदेश से सैनिकों ने विद्रोहियों की खोज-खोज कर जिह्वा काट दी।
परंतु वो उनका हृदय नहीं निकाल पाए। बढ़ते असंतोष को दबाने के लिए राजा ने धर्म का दांव चला, लेकिन राजा का ये दांव भी बेकार चला गया। राजा द्वारा ईश्वर के भव्य मंदिर की स्थापना में असफल रहने के कारण ऋषि मुनियों और पुजारियों में भीे असंतोष गहरा गया था। राजा की मुश्किल बढ़ती जा रही थी। राजा के गुप्तचर असंतुष्टों का पता लगाते और अगले दिन वो राजा के आदेश पर उनकी जिह्वा काटते थे। राज्य में कटी जिह्वा का पहाड़ बन गया था। कटी जिह्वा का पहाड़ देख राजा को भय हो गया कि यदि सबकी जिह्वा काट देंगे तो उसकी जय जयकार कौन करेगा। राजा ने उसकी आलोचना करने वालों की सजा में बदलाव करते हुए कहा कि आलोचकों के पेट पर बस जोर से लात मार कर उन्हें छोड़ दिया जाय। राजा ने अपने सबसे योग्य मंत्री अरूणेंद्र के कहने पर राज्य की मुद्रा भी बंद करवा दी लेकिन इससे विद्रोहियों को नुकसान होने की जगह राज्य में व्यापार लगभग नष्ट हो गया। कुछ बड़े व्यापारियों को छोड़ अधिकांश लघु व्यापारियों को भारी घाटा उठाना पड़ा। इस कारण से व्यापारी भी असंतुष्ट रहने लगे। इस त्रासदी का इतना भीषण प्रभाव हुआ कि राजा के कई प्रिय व्यापारी रातोंरात अपना व्यापार छोड़ दूर देश चले गए। कई व्यापारियों को तो राजा के सैनिकों ने सीमा पार करवाई।
प्रजा में असंतोष व्याप्त था परंतु राजा के मजबूत प्रचार तंत्र में उनकी आवाज़ दब कर रह गई। गुप्तचर काले कंबल ओढ़े कर सभी जगह विचरण करते और कभी भी किसी की भी पिटाई कर देते थे। विरोध करने पर राजद्रोही बताकर उन्हें गाय के गोबर के उपलों में ज़िंदा चुनवा दिया जाता था। विद्रोह दबाने के अभियान में राजा का ध्यान अर्थव्यवस्था से बिल्कुल हट गया जिसके फलस्वरूप राज्य में ईंधन महंगा हो गया और साथ ही बेरोज़गारी भी फैल गई। चूंकि राजा बड़ा दयालु और मायावी था अत: राजा से प्रजा का ये दुख देखा नहीं गया। वो दिनरात लगाकर अनुसंधान करता और नए-नए प्रयोग करता। उसके ही अनुसंधान के कारण पृथ्वी पर आज देखने वाले जलपान गृह, तांबुल भंडार और गौशालाओं की शुरुआत हुई। उस समय राजा के ही अनुसंधान से ये बात सामने आई कि गौशालाओं से प्राप्त गोबर का लेप किले की दीवार पर करने से शत्रुओं द्वारा हमले के समय उनके आग्नेयास्त्र निष्प्रभावी हो जाते हैं।
इसी बीच राजा के विरूद्ध हो रहे षडयंत्रों की कड़ी में राजा पर हो रहे हमलों का लाभ उठा एक पड़ोसी राजकुमार ने पड़ोसी राज्य के छोटे-छोटे राजाओं से मुलाकात करनी शुरू कर दी। इन राजाओं ने आपस में साजिश रच कर एक गठबंधन सेना का गठन कर लिया। इन राजाओं की रणनीति एक साथ कई दिशाओं से उसके गोबर लिपे किले पर हमला करने की थी। राजा को उसके गुप्तचरों ने उसे जैसे ही इस साजिश की सूचना दी राजा ने अपने विश्वासपात्र अरूणेंद्र और अमितनाथ को तुरंत आपात मंत्रणा के लिए बुलाया। दोनों मंत्रियों ने राजा को पहले सांत्वना दी, उसके बाद सलाह देते हुए कहा कि जनता की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है जो आपके द्वारा किए गए परोपकारी कार्य नहीं देख पा रही है। राजा ने विश्वस्तों से कहा कि वो जल्दी जनता से निपटने का उपाय ढूंढ कर लाएं अन्यथा वो राजा के कोप का भाजन बनने के लिए तैयार रहें।
कई दिनों के गहन विचार विमर्श के बाद विश्वस्त द्वय राजा के दरबार में लौटे और राजा के कान में कुछ कहा। राजा की आँखों की चमक देख कर लगा कि राजा को प्रजा के दुख और भ्रम दूर करने का बेहतरीन उपाय मिल गया है। राजा ने जल्दी ही राज्य में अकुशल, अर्धकुशल और कुशल कारीगरों की एक सभा बुलाई। राजा को कहानियां सुनाने का बहुत शौक था। उसने इस सभा में भी एक कहानी सुनाई। कहानी कुछ इस प्रकार थी:
“मैं (राजा) एक बार राज्य में विहार करते हुए जा रहा था, तभी मैंने एक दुकानदार को मार्ग के किनारे कुछ बेचते हुए देखा। मैंने देखा कि वो व्यापारी अपनी दुकान पर रखे जलपान को गर्म रखने के लिए एक अदभुत विधि का प्रयोग कर रहा था। व्यापारी ने अपनी दुकान के पीछे बहने वाले नाले में एक बर्तन को उलट कर रख दिया और उस बर्तन के पेंदे में एक छेद कर दिया था। इस छेद में एक नली जैसी चीज लगा रखी थी। इस नली के मार्ग से नाले से निकलने वाला पदार्थ उसके चूल्हे में ईंधन की तरह जल रहा था। इस मुफ्त के ईंधन से व्यापारी बिना किसी लागत के मुनाफा कमा रहा था।”
राजा ने पूरी सभा और प्रजा को इस तरह के उपाय अपना कर अपनी जरूरत पूरी करने की शिक्षा दे डाली। राजा का मन इतने से नहीं भरा क्योंकि वह दयालु और मायावी था इसलिए जानता था कि दरबारी और आलोचक दोनों ही आलसी हैं। चूंकि वो दयालु और प्रजापालक था इसलिए उसने राज्य में बह रहे सभी नालों में नलीनुमा चीज लगवा दी और उस नली का मुंह बस्ती की ओर कर दिया। अब वो पदार्थ पूरे वातावरण में फैल गया था। इसके बाद बस्ती से काफी दिनों तक कोई आवाज़ नहीं सुनाई दी, सिर्फ नम: नम: के मंत्र गूंजते रहे।
कुछ समय बीतने के बाद गुप्तचर ने खबर दी कि दो राजकुमारों और दो महिलाओं ने गुप्त बैठकें की हैं और नदी के पार गहरी साजिश रचा जा रही है।राजा फिर बेचैन हो गया लेकिन क्रोध वाला वरदान उसे याद आया। इधर मंत्रीद्वय आसपास के राज्यों में जा कर संधि कर रहे थे। इसी बीच राजा को नई कहानी याद आ गई। राजा ने फिर से सभा बुलाने का आदेश दे दिया।
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जब राजा ने प्रजा के लिए शुरू की कल्याणकारी कारावास योजना
राजा के परमादेश पर विशेष सभा आहूत कर दी गई थी। राज्यादेश का पालन हुआ और सभी मंत्री, संतरी, गुरूओं और दरबारी विद्वानों का जमावड़ा हुआ। सभा में चर्चा का विषय था कि ऐसा क्या हुआ है… सब तो ठीक चल रहा था! पशु-पक्षी और यहां तक कि नागरिक भी तो राजा के आवंटित विधान और आदेशों का पालन कर ही रहे थे। सदैव की भांति इस बार भी किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
तभी दरबानों ने राजा के आने का उद्घोष कर दिया। सदैव की भांति सभी दरबारी एक पैर खड़े हो गए। कई दरबारी तो सिर के बल खड़े हो गए। सभा की कार्यवाही शुरू करने का आदेश हुआ। राजा के सबसे विश्वस्त दुखी और चिंतित मुद्रा में धरती में गड़े जा रहे थे। राजा की इस विद्वत परिषद में सबसे खास उनके वित्त मंत्री ने एक पत्र पढ़ कर राज्य पर वर्तमान संकट की आदेशनुमा जानकारी दी। मंत्रिवर ने कहा कि हमारे राज्य में कुछ तत्व हमारे चक्रवर्ती, यशस्वी महाराज के विरूद्ध विद्रोह करने की योजना बना रहे हैं। ये विद्रोही भिन्न प्रकार के विद्यार्थी और उनके शिक्षक, वनवासियों, मजदूरों और सुविधा नागरिकों को हमारे राजा के विरूद्ध विद्रोह करने के लिए भड़का रहे हैं। राज्य पर संकट की घड़ी है। गुप्तचरों ने सूचना दी कि वे हमारे यशस्वी चक्रवर्ती व राजा की हत्या की साजिश रच रहे हैं।
भरी सभा में रहस्यमय शांति छा गई किंतु शीघ्र ही कौतूहल ने उसकी जगह ले ली। कुछ दरबारियों को क्रोध आया और बाकी सभी को मूर्छा। हे ईश्वर! कौन अधम, नीच, पापी ये दुस्साहस कर रहा है? म्यानों से तलवारों के निकलने से धातुओं के टकराने की ध्वनि साफ सुनी जा सकती थी। वातावरण में पहले तनाव, फिर उतनी ही तेज़ी से अफवाह फैलने लगी। सभी की अपनी अपनी समझ, निष्ठा और स्वादानुसार चर्चा होने लगी। राजर्षि ने सभी से समान मात्रा में विचलित, दुखी और व्यग्र होने का आदेश मिश्रित आह्वान किया। सभी दरबारियों ने हर बार की तरह ऐसा ही किया। समान मात्रा और समवेत स्वर में सब कुछ। राजा ने भरी सभा में घोषणा कि मैं राज्य के सभी निवासियों के लिए कितने कल्याणकारी काम कर रहा हूँ और वहीं कुछ नगरवासी इतनी निम्न कोटि के षडयंत्र कर रहे हैं। अगर मैं यानि आपका राजा नहीं रहा तो मेरे राज्य के नागरिक गरीब हो जाएंगे और जनता बेरोज़गार हो जाएगी। मुझसे भिन्न विचार रखने वाले देशद्रोही नर्क जाएंगे। राजा ने ऐसे देशद्रोहियों को तुरंत गिरफ्तार कर राजदरबार में प्रस्तुत करने के आदेश दिए।
सैनिक राजा के आदेश का मात्राश: पालन करने निकल पड़े। इन विद्रोहियों के निवास स्थलों से उन्हें बंदी बना कर राजदरबार के समक्ष प्रस्तुत किया। सैनिकों ने दरबार में महाराज को बताया कि बंदी लोगों में कई महिलाएं हैं। सैनिकों ने कहा- महाराज इनमें से एक बंदी महिला तो विवाहित होने के उपरांत भी विवाहित महिलाओं के जैसा साज-श्रृंगार नहीं करती। इतना ही नहीं, यह महिला ईश्वर की आराधना भी नहीं करती। इस महिला के पास एक विचित्र से व्यक्ति की प्रतिमा मिली है। सैनिकों ने महाराज को बताया कि ये महिलाएं वनवासियों के कल्याण और उनके अधिकारों पर कुछ वार्तालाप करती पकड़ी गई हैं। ये सामान्य बात नहीं है, ये तो राष्ट्रद्रोह की सूची के क्रमांक में सबसे ऊपर अर्थात जघन्य अपराध है। जब महाराज स्वयं जनता के कल्याण के लिए इतने चिंतित रहते हैं फिर इस प्रकार का प्रलाप कोई सामान्य नागरिक कैसे कर सकता है। एक मंत्री ने कहा कि यदि कोई नागरिक अथवा प्रजा राजा के विरूद्ध बातें करे तो उसे देशद्रोह ही माना जाएगा।
राजा मौन होकर चर्चा सुन रहे थे। दूसरे मंत्री ने तर्क दिया कि उनके राजा इतने दयालु और परोपकारी हैं इसलिए वे सभी के मन की बातें जान लेते हैं। इसी गुणवश महाराज ने सबके मन की बात जान ली और किसी नागरिक को कुछ कहने की आवश्यकता नही रही। अब ऐसे परोपकारी राजा के विरूद्ध षडयंत्र राष्ट्रद्रोह नहीं तो और क्या माना जाए।
विद्रोह के आरोपितों पर अनेक आरोप लगे, राज्य के सेनापति ने कहा कि इन विद्रोहियों ने राज्य में वनवासियों की एक सभा आयोजित की थी जहां राज्य के विरूद्ध अनर्गल प्रलाप किए गए और भोले भाले नागरिकों को भड़काया गया। ऐसा करने वाले ये नागरिक नर्क की अग्नि में जलने के पात्र हैं। महाराज की जय हों, महाराज शतायु हों, के उदघोष से सभा गूंज उठी। महाराज की सभा और दरबार में उपस्थित सभी नागरिकों और अधिकांश प्रजा ने इन्हें दोषी माना। इन लोगों कठोर कारावास की मांग उठी। राजा न्यायप्रिय और दयालु थे। उन्होंने कहा- इन्हें हम एक मौका देना चाहते हैं। अभी कुछ दिनों के लिए इन अधम लोगों को उनके घरों में नज़रबंद कर दिया जाय। महाराज ने कहा- शीध्र ही हम न्याय करेंगे। सभा में विद्रोहियों को दंडित कर समाज को संदेश देने पर सहमति बन चुकी थी, तभी एक दरबारी ने डरते हुए कहा कि महाराज यदि प्राणदान हो तो कुछ कहना चाहता हूँ। महाराज से पहले महामंत्री ने कहा- कहो।
दरबारी ने कहा- महाराज, आप निःसंदेह दयालु और परोपकारी हैं परंतु राज्य में आप द्वारा चलाई जा रही योजनाओं का लाभ प्रजा तक नहीं पहुँच पा रहा हैं। प्रजा दुखी है और प्रजा के मन की असली बात आप तक नहीं पहुंच पा रही है। राजा चूँकि दयालु थे इसलिए वे चुप रहे, दरबारी का सिर धड़ से अलग नहीं किया। राजा के कुछ विश्वस्तों ने उस दरबारी को चुप कराने की कोशिश की लेकिन वह कहते रहा- महाराज आज आप कुछ लोगों को कारावास भेज सकते हैं परंतु यदि इस प्रकार ही चलता रहा तो पूरी प्रजा के लिए कारावास कहां से लाएंगे।
इतना सुनते ही महाराज क्रोधित हो गए। उन्होंने उसे बंदी बनाने का आदेश दे दिया। इस पूरे प्रकरण से महाराज चिंतित तो थे परंतु कोई उनके मन की बात नहीं पढ़ सकता था। महाराज ने विद्वत परिषद को आदेश दिया कि वे पूरी प्रजा के लिए कारावास का निर्माण कराना चाहते हैं। महाराज ने अपने महारत्नों को शीघ्र ही समस्या का हल ढूंढ कर लाने का आदेश दिया। शीघ्र ही राजा के महारत्न दरबार में अपने समाधान के साथ लौटे। सभा दोबारा शुरू हुई।
राजा के सबसे विश्वस्त महारत्न ने कहा कि इस संपूर्ण समस्या का कारण राज्य में उच्च शिक्षा की उपलब्धता और सभी को अपने मत व्यक्त करने की स्वतंत्रता का सुलभ होना है। प्रजा भिन्न भिन्न प्रकार के ज्ञान अर्जित करती है जिसके कारण प्रजा के मन प्रश्न उठते हैं जो महाराज और स्वयं प्रजा के लिए भी अहितकर हैं। ये कालांतर में ईश्वर की सत्ता के लिए भी घातक हैं और हमारे परम यशस्वी चक्रवर्ती महाराज तो स्वयं पृथ्वी पर ईश्वर के प्रतिनिधि हैं ही। अतएव इस जगत की रक्षा के लिए महाराज को उच्च शिक्षा की सहज उपलब्धता को समाप्त करना होगा। इतना ही नहीं, प्रजा की मतभिन्नता महाराज के लिए खतरा है। राजा ने आदेश दिया कि राज्य के गुरूकुलों में सीमित विषयों पर ज्ञान दिया जाए। गुरूकुलों में बटुकों को ऐसे विषय नहीं पढ़ाए जाएं जिससे तर्कशक्ति का विकास हो। राज्य में आचार्यों को ऐसे आदेश दिए जाएं जिससे गुरूकुलों में मतैक्य का पोषण और विकास हो। राज्य में पुस्तकालय यदि हों तो उनको शीघ्र खाली करा कर इनमें देवालयों की अथवा तीर्थ स्थानों के रूप में विकसित किए जाए। राज्य में धर्म के प्रचार पर विशेष ध्यान दिया जाए एवं प्रजा द्वारा देवताओं की पूजा अनिवार्य कर दी जाए। राज्य में विशेष अभियान चलाकर वनवासियों से राज्य की भूमि को खाली कराया जाए।
राजा ने आदेश दिया कि राज्य में प्रजा में से चिन्हित कर स्वयंसेवी निरीक्षकों के कई दल बनाए जाएं जो म्लेच्छों, अधर्मियों, विधर्मियों और पापियों को चिन्हित कर तुरंत न्याय करें। इस प्रकार के त्वरित न्याय से राजकीय ईश्वर की कृपा राज्य पर पुन: बरसनी प्रारंभ हो जाएगी। दयालु और न्यायप्रिय राजा के आदेश सुनते ही सभा में राजा का जयघोष इतना उच्च स्वर हुआ कि ये जयघोष स्वर्ग तक पहुंचा। स्वर्ग से देवताओं ने पुष्पवर्षा की जिसका राजा ने प्रणाम कर धन्यवाद दिया।
राज्य में इस बीच छोटे मोटे विद्रोह के समाचार आते रहे। गुप्तचर निरंतर गुरूकुलों का निरीक्षण करते, राज्य के सैनिक पुस्तकालयों को ध्वस्त करते रहते। राज्य में तर्कशक्ति के क्षरण और मतैक्य के विकास पर राजा का विशेष ध्यान था। राजा के इन प्रयासों से संतोषप्रद परिणाम निकला हालांकि उसमें थोड़ा समय अवश्य लगा, परंतु शीघ्र ही गुप्तचरों ने सूचना दी कि निकट के वन में नदी के उस पार वनवासियों और विद्रोहियों व कुछ पड़ोसी राजकुमारों ने फिर से मंत्रणा की है।
राजा फिर उद्विग्न हो उठा। किले में बैठा वह नदी के उस पार वन से उठता धुआँ देख पा रहा था।