मेरे बगल की सीट पर बैठा फ़रहद चार महीने बाद घर जा रहा था, लेकिन उसके चेहरे पर रत्ती भर उत्साह नहीं था. उसने 2 सितंबर को श्रीनगर जा रहे अपने एक दोस्त से अपने घर आने की सूचना भिजवायी थी. आखिरी बार 3 अगस्त की शाम उसकी बात अपनी मंगेतर और मां से हुई थी. ठीक दो दिन बाद 5 अगस्त, 2019 को वह हुआ, जिसने भारत और कश्मीर के सत्तर साल पुराने रिश्ते को तार−तार कर दिया.
महीने भर बाद वह 7 सितंबर की तारीख़ थी। एयर एशिया की फ्लाइट अपने साथ ढेरों अनिश्चय और भय लिए दुनिया के सबसे बड़े जिंदा कैदखाने की ओर बढ़ी चली जा रही थी. अस्सी मिनट के सफ़र में फ़रहद लगभग शांत ही रहा. मैं उसे बीच-बीच में टोकता रहा, घाटी के बारे में कुछ-कुछ पूछता रहा. ऐसी मनहूसियत से भरी यात्रा मैंने पहले कभी नहीं की थी.
वेलकम टु कैदखाना
श्रीनगर एयरपोर्ट पहुंचने पर एयर एशिया ने यात्रियों का स्वागत किया, “श्रीनगर एयरपोर्ट पर आपका स्वागत है. यह एक डिफेंस एयरपोर्ट है. तस्वीरें खींचना निषिद्ध है.” फरहद ने पहली बार मेरे टोके बगैर कहा, “जेल आगमन पर आपका स्वागत है. सिर्फ एयरपोर्ट डिफेंस का नहीं है, कश्मीर समूचा ही डिफेंस का है.”
एयरपोर्ट को जैसे किसी सन्नाटे ने घेर रखा था. बिल्कुल शांत. एयरपोर्ट के भीतर की लगभग सारी दुकानें बंद थीं. यात्रियों और सुरक्षाबलों की संख्या तकरीबन बराबर रही होगी. एयरपोर्ट के ठीक बाहर कश्मीरियों की भीड़ जमा थी. उनमें कुछ अपनों से गले मिलकर रो रहे थे. एक उम्रदराज महिला, जो 60 के करीब होगी, उसने फ़रहद को गले लगाया और उसे चूमने लगी. हृदयविदारक दृश्य था वह. उनके चेहरों की रंगत बता रही थी कि कुछ असामान्य घटा है. मैंने फ़रहद से दिल्ली में मिलने का वक्त मांगा और प्रीपेड टैक्सी स्टैंड की तरफ बढ़ गया. टैक्सी लेकर मैं सीधे प्रेस क्लब पहुंचा.
एयरपोर्ट के हैदरपोरा इलाके में कुछ दुकानें खुली थीं. बाकी रास्ते भर में ज्यादातर दुकानों के शटर गिरे मिले. जगह-जगह पर सुरक्षाबलों के नाके थे. वे जानना चाहते कि मैं दिल्ली से इस वक्त कश्मीर क्यों आया हूं. मैं जगह-जगह प्रेस कार्ड और पहचान पत्र दिखाता और उनसे गाड़ी पार होने देने की गुजारिश करता. कुछ जगहों पर वे दिल्ली का पहचान पत्र देखकर रियायत देते. कुछ नाकों पर रियायत नहीं भी मिलती और लगभग तीन से चार किलोमीटर लंबा डायवर्जन लेना पड़ता. हर तीस से पचास मीटर पर दो सीआरपीएफ जवान सड़क के दोनों ओर खड़े थे.
रास्ते में मैंने कई तस्वीरें खींचीं. कैब ड्राइवर गुलज़ार ने चेताया कि मैं तस्वीरें संभालकर खींचूं वरना परेशानी में पड़ सकता हूं. उनकी हिदायत दुरुस्त थी. कई दफ़ा सुरक्षाबलों ने फोटोग्राफरों और रिपोर्टरों के कैमरे यहां तोड़ दिए हैं. फोटो डिलीट करवाये जाते हैं. कश्मीर में रिपोर्टरों और फोटोग्राफर्स का सुरक्षाबलों के हाथों परेशान होना नयी बात नहीं है. इसे यहां सामान्य मान लिया गया है.
रास्ते भर मैं गुलज़ार से घाटी के हालात के बारे में बातचीत करता रहा. रास्ते में हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी के घर के बाहर गुलज़ार ने गाड़ी थोड़ा धीमी कर दी. उन्होंने गिलानी के घर की ओर इशारा करते हुए कहा, “देखो, गिलानी साब का घर. दिखा? जहां तारीक-ए-हुर्रियत का बोर्ड लगा है. वहीं रहते हैं गिलानी साब. अभी तो लोगों को उनसे मिलने नहीं दे रहे हैं.”
“गिलानी साब ही हमारे नेता हैं. इन्होंने अब तक जो-जो बातें कहीं, सारी सच साबित हुईं.”
मैंने गुलज़ार से पूछा कि उन्हें वो कौन-कौन सी बातें लगती हैं जो गिलानी ने कहीं और वो सच साबित हुई हैं.
“गिलानी साब कश्मीरियों से कहते रहे हैं कितनी भी भारतपरस्ती कर लो, कुछ फायदा नहीं होगा. आज देखो, इंडिया ने क्या किया. कश्मीर और भारत के बीच का जो पुल था आर्टिकल 370, उसे एक झटके में खत्म कर दिया. कश्मीरियों से एक बार पूछ तो लेते. खैर, उन्होंने (भारत) कश्मीरी अवाम और राजनीतिक कायदों की कद्र की होती तो सालों पहले रेफरेंडम नहीं करवाते?”
कश्मीरियों को दी जा रही यातनाओं और परेशानियों की कहानियां गुलज़ार सुनाते रहे. करीब तीन घंटे लग गये प्रेस क्लब पहुंचने में. आम तौर से दस किलोमीटर का यह रास्ता आधे घंटे में तय किया जा सकता था.
भागो! राशिद खान आया…
प्रेस क्लब में पत्रकारों की बतकही चल रही थी. उनमें कुछ मेरे पत्रकार मित्र भी शामिल थे. एक फोटोग्राफर मित्र ने हाथ मिलाते हुए कहा, “वेलकम टु हेल. तुम क्यों मरने आए हो यहां?” एक अन्य ने मिलते ही पूछा, “वापसी कब है तुम्हारी? जाने के पहले मिलकर जाना. तस्वीरें और वीडियो पेन ड्राइव में है, मेरे ऑफिस में जमा करा आना.” पत्रकार मित्रों से बातचीत में एक बात बिल्कुल स्पष्ट हो गयी थी कि “भारतीय मीडिया” के लिए यहां माहौल मुफीद नहीं है. स्थानीय पत्रकारों में कथित मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए गुस्सा है ही, लोगों में भी भारतीय मीडिया के प्रति विश्वास नहीं है.
कश्मीरियों के मुताबिक अनुच्छेद 370 हटने के बाद से ही जुमे की सामूहिक नमाज़ को सरकार ने अनुमति नहीं दी है. इस वर्ष सरकार ने ईद-उल-अज़हा की सामूहिक नमाज़ भी नहीं होने दी. बीती शाम सरकार ने ऐलान किया कि मुहर्रम का जुलूस निकालने की अनुमति भी नहीं है. मौलवियों को सरकार ने हिदायत दी कि वे मस्जिद के लाउडस्पीकर से किसी भी तरह की राजनीतिक टिप्पणी न करें. एक बुजुर्ग कश्मीरी ने बताया, “पहले भी सरकार और प्रशासन सामूहिक नमाज़ को वक्त-बेवक्त रोकती रही है, पर पहले इस तरह की पाबंदियां खासकर श्रीनगर और शहरी क्षेत्रों में होती थीं. मेरी याद्दाश्त में यह शायद 1990 के बाद हुआ है कि दूर-दराज के गांवों में भी लोगों को मस्जिद में नमाज़ पढ़ने नहीं दिया गया.”
बुजुर्ग की बात से अन्य कश्मीरी भी सहमति जताते हैं. एक व्यक्ति (42) ने कहा, “कश्मीरी मुसलमानों को अपने धर्म का पालन करने के अधिकार से वंचित किया जा रहा है.” यह कहते हुए आगे उसने जोड़ा, “हालांकि अब जब कश्मीर का भारत के संविधान से राब्ता ही नहीं रहा तो कैसे धार्मिक अधिकारों की उम्मीद की जाएगी. वो [सरकार] जितने जुल्म ढाहना चाहें, ढाहें. आज़ादी के लिए कुर्बानियां देनी ही पड़ती हैं.”
प्रेस क्लब में सूचना मिली कि सरकार की पाबंदी के बावजूद श्रीनगर के हसनाबाद क्षेत्र में रैनावारी धर्मशाला चौक पर शिया मुसलमान मुहर्रम का जुलूस निकालने वाले हैं. सुगबुगाहट थी कि यह जुलूस हिंसक भी हो सकता है. प्रशासन जुलूस के साथ बहुत सख्ती से निपटेगा, इसका अंदाजा था. जुलूस स्थल पर हालात बिगड़ने के आसार के मद्देनज़र पत्रकार साथियों ने मुझे कुछ बहुत जरूरी सलाह दी.
जुलूस के रास्ते को सुरक्षाबलों ने बंद कर दिया था. सैकड़ों जम्मू−कश्मीर पुलिस, सीआरपीएफ और सेना के जवान तैनात थे. दूसरी तरफ काला कुर्ता पहने सैकड़ों नौजवानों का जत्था कर्बला को याद करते हुए मर्सिया गा रहा था. मर्सिया गाते हुए जुलूस धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था. पुलिस लगातार अपील कर रही थी कि जुलूस आगे न बढ़े. मीडिया के लोग पुलिस के नाकों की तरफ खड़े होकर तस्वीरें लेने की कोशिश कर रहे थे. कहीं भी एक पल का इत्मीनान नहीं था कि पत्रकार अपने फोन या नोटबुक में कुछ ड्राफ्ट कर लें या फोटोग्राफर अपनी खींची हुई फोटो को एक बार देख ले. जुलूस और पुलिस दोनों की ही गतिविधियों पर मीडिया को चौकन्ना रहना था. हमला किसी भी ओर से हो सकता था.
जम्मू कश्मीर पुलिस के जवान फोटोग्राफरों को फोटो न खींचने की हिदायत दे रहे थे. भाषा हिदायत और चेतावनी की कम, धमकाने की ज्यादा थी. अचानक जुलूस के बीच से कुछ नौजवानों का समूह सुरक्षाबलों की ओर भागा. फट-फट जैसी धमाके आवाज़ की हुई. पुलिस ने जुलूस पर पैलेट चलाया था. लोगों में भगदड़ मची. जुलूस में मौजूद नौजवान पीछे हुए लेकिन भीड़ उत्तेजित हो गयी. इसी बीच एक झटके के साथ मेरी टी−शर्ट को पीछे से एक फोटोग्राफर साथी ने खींचा. उन्होंने जुलूस की ओर भागते हुए कहा, “रन, रन. राशिद खान इज़ देयर.”
मुझे सिर्फ इतना समझ आया कि भागना है. बाद में पता चला कि राशिद खान रैनावारी थाना क्षेत्र के स्टेशन हाउस अफसर (एसएचओ) हैं. उनके बारे में पत्रकारों के बीच मशहूर है कि वे पत्रकारों के लिए खतरा हैं. वे पत्रकारों पर जबरन लाठीचार्ज करवाते हैं. फोटोग्राफर फोटो खींचने न पाए, इसके लिए अपशब्द और थाने में पत्रकारों को देर-देर तक बैठाने जैसे हथकंडे वे अपनाते हैं. उनके आदेश पर पुलिस जान−बूझ कर कैमरों पर लाठी से हमला कर देती है.
रैनावारी में वही हुआ, जिसका डर पत्रकारों को था. एसएचओ राशिद खान के आदेश पर पत्रकारों पर लाठीचार्ज करवाया गया. जिस फोटोग्राफर साथी ने मुझे भागने को कहा था, वे लाठियों से गंभीर रूप से चोटिल हुए. एक अन्य फोटोग्राफर साथी के कैमरे पर पुलिस ने लाठी से प्रहार कर तोड़ दिया. बहुत सारे अन्य पत्रकार साथियों को हल्की-फुल्की चोट आयी.
भगदड़ के दौरान कुछ पल के लिए मैं और मेरे साथ एक और गैर-कश्मीरी पत्रकार बाकी कश्मीरी पत्रकारों के ग्रुप से बिछड़ गये थे. स्थानीय लड़कों के एक समूह ने हम दोनों को भारतीय मीडिया का प्रतिनिधि समझ कर घेर लिया. हमारे बाल खींचे और धक्कामुक्की की. हमने लड़कों को बताया कि हम अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों के लिए लिखते हैं. ऐसा बोलकर हम उन्हें यकीन दिलाना चाहते थे कि हम वही लिखेंगे जो हम देखेंगे. हम बाकी भारतीय चैनलों के जैसा कुछ भी मनगढ़ंत लिखने या बोलने नहीं जा रहे. वह तो बेहतर हुआ कि कुछ ही मिनट में एक फोटोग्राफर साथी तुरंत हम तक पहुंच गए और कश्मीरी में कुछ कहते हुए हमें खींचकर बाहर सुरक्षित जगह पर ले गये.
फ़हद के सवाल
मैं भीतर से हिल गया था, हालांकि वापस प्रेस क्लब आकर मुझे अहसास हुआ कि औरों के लिए यह सामान्य बात है. वे हर रोज़ भीड़ के गुस्से और सुरक्षाबलों की बर्बरता के बीच पत्रकारिता करते हैं. उन्होंने कनफ्लिक्ट जोन में काम करने के लिए खुद को तैयार किया है. एक कश्मीरी स्वतंत्र पत्रकार जो न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए भी लिखते हैं, उन्होंने कहा, “तुम दिल्लीवालों को एक-आध ऐसे अनुभव होने चाहिए. पता तो चले वहां के भारतीय मीडिया की करतूतों का खामियाज़ा किसे उठाना पड़ रहा है.”
कश्मीरवाला मैगजीन के एडिटर-इन-चीफ फ़हद शाह ने कहा, “दिल्ली में एक पत्रकार को ट्वीट करने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस उठा ले जाती है तो सिद्धार्थ वरदराजन, राजदीप सरदेसाई, रवीश कुमार सारे नामचीन पत्रकार उस पत्रकार के पक्ष में लिखना-बोलना शुरू कर देते हैं. ट्विटर ट्रेंड करने लगता है. मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला हो जाता है. लेकिन हर रोज़ कश्मीरी पत्रकार जान जोखिम में डालकर रिपोर्ट लिखता है, फोटो खींचता है, उसके बारे में दिल्ली के पत्रकारों को चिंता नहीं होती.”
फ़हद ने हाल में पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए काज़ी शिबली के बारे में बताया. 29 वर्षीय काज़ी शिबली कश्मीरियत वेबसाइट के संपादक हैं. 25 जुलाई को शिबली को अनंतनाग के शेरबाग थाने में बुलाया गया था. कश्मीर में पत्रकारों के लिए थाने बुलाया जाना रूटीन कार्य जैसा है. इसके लिए कोई नोटिस नहीं दिया जाता. दोस्त-यार के माध्यम से पुलिस संदेश भिजवा देती है कि फलाने को थाने भेज दो. उस दिन शिबली को भी लगा कि यह रूटीन काम ही है. वे घर के ही कपड़ों में थाने चले गये.
पहले तो पुलिस ने शिबली के बारे में कुछ भी जानकारी होने की बात से इनकार किया. अगस्त के आखिरी दिनों में शिबली के परिवार को गिरफ्तारी के दस्तावेज दिए गए. हफिंगटन पोस्ट को शिबली की बहन काज़ी इरम ने बताया कि पुलिस द्वारा भेजे गये दस्तावेज के मुताबिक काज़ी शिबली को पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) 1978 के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया है. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, 5 अगस्त के बाद तकरीबन दो से चार हज़ार कश्मीरियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया है. इरम ने हफिंगटन पोस्ट को बताया कि काज़ी की वेबसाइट पर एंटी-नेशनल रिपोर्ट छापने के आरोप लगाए गए हैं.
“क्या यह आपको मीडिया की अभिव्यक्ति पर हमला नज़र नहीं आता? या दिल्ली वाले पत्रकार सेलेक्टिव आउटरेज के धुरंधर हैं?” फहद ने मुझसे पूछा.
फ़हद, स्थानीय पत्रकारों और आम कश्मीरियों से बातचीत में मैंने महसूस किया कि वे भारत में कश्मीरी महिलाओं पर हो रही अभद्र और अश्लील टिप्पणियों से खासा नाराज़ थे. भारत की बड़ी आबादी क्यों कश्मीरी महिलाओं पर हो रही अभद्र टिप्पणियां पर खामोश है, पूरे प्रदेश को नज़रबंद किए जाने के खिलाफ भारत के लोगों में गुस्सा क्यों नहीं है- ये सवाल कश्मीरियों के मन में प्रबल हैं.
“डेढ़ महीने से घाटी में इंटरनेट और फोन बंद हैं. लाखों लोगों का अपने परिवारों से संपर्क टूट गया है. क्या दूसरे राज्यों के नागरिक अपने प्रदेशों में दो-चार दिन भी ऐसा होने देना चाहेंगे?” फहद ने मुझसे पूछा.
मोदी मीडिया पर गुस्सा
कश्मीर में इंटरनेट बंद होने के कारण सूचना के प्रसार की संभावनाएं बेहद सीमित हो गयी हैं. यह एक बड़ा कारण है कि स्थानीय पत्रकारों को भी जरूरी जानकारियां मिलने में गंभीर दिक्कतें आ रही हैं. एक स्थानीय पत्रकार ने मुझे श्रीनगर के सौरा में विरोध मार्चों की कुछ तस्वीरें दिखायी. उन तस्वीरों में प्रदर्शनकारियों ने “बीबीसी और अल-ज़ज़ीरा रिस्पेक्ट” के प्लेकार्ड उठा रखे थे.
कश्मीर के अलग-अलग इलाकों में लोगों ने एक स्वर में भारतीय चैनलों को प्रौपगैंडा का माध्यम बताया. डाउनटाउन के एक निवासी ने गुस्से में यहां तक कह दिया कि अगर गलती से भी आजतक, एबीपी, ज़ी न्यूज़ के रिपोर्टर उसे दिखें तो वह उन्हें दौड़ा-दौड़ाकर पीटेगा.
“सारी दुकानें बंद, सड़कों पर सन्नाटा, स्कूल बंद, सड़कों पर सिर्फ सुरक्षाबल और कंटीले तारों से जगह-जगह घेराव, एंबुलेंस तक चलने में दिक्कत आ रही है और ये अपने चैनल में बताते हैं कि कश्मीर में हालात सामान्य हैं. अगर ऐसी हड़ताल की स्थिति सामान्य ही होती है तो क्यों ये चैनल वाले दिल्ली में एक दिन के किसान मार्च पर भी बौखला जाते हैं? बताने लग जाते हैं कि एक दिन में व्यापार का कितना नुकसान हुआ. यहां हड़ताल को डेढ़ महीने से ज्यादा का वक्त होने जा रहा है, आप खुद ही सोच सकते हो व्यापार का किस कदर नुकसान हो रहा होगा. लेकिन भारतीय मीडिया को यह क्यों नहीं दिखता है? क्योंकि वे सब मोदी को खुश करने में लगे हैं”− उसने कहा.
भारतीय मीडिया के बड़े हिस्से की कश्मीर रिपोर्टिंग को लेकर कश्मीरियों के मन में भयानक गुस्सा है जिसके कई अनुभव मुझे हुए. उन्हें लगता है कि मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाकर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) का एजेंडा पूरा किया है.
“लेकिन ये भारतीय मीडिया क्यों सबकुछ जानकर भी झूठ और भ्रम का कारोबार कर रही है. अगर यही करना है तो खुद को मीडिया क्यों कहती है? जैसे सेना के जवान सिर्फ ऑर्डर फॉलो करते हैं, वैसे ही वे भी साफ कहें कि वे सिर्फ मोदी सरकार के आदेशानुसार कार्यक्रम चलाते हैं” − एक कश्मीरी शोधकर्ता ने कहा.
कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन, उत्पीड़न और दुर्व्यवहार किए जाने की हज़ारों कहानियां हैं. एमनेस्टी और जम्मू-कश्मीर कोलिशन फॉर सिविल सोसायटी जैसी मानवाधिकार पर काम करने वाली संस्थाएं अपनी रिपोर्टों में सुरक्षाबलों की बर्बरता का जिक्र करती रही हैं. जम्मू कश्मीर के विशेष राज्य का दर्जा खत्म करने के बाद घाटी में उत्पीड़न और मानवाधिकार उल्लंघन की बात सबसे पहले जम्मू और कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट (जेकेपीएम) की युवा कश्मीरी नेता शहला राशिद ने उठायी. शहला के पहले किसी ने भी खुलकर सुरक्षाबलों द्वारा कश्मीरियों को टॉर्चर किए जाने की बात नहीं की. स्थानीय लोगों के मुताबिक इसके दो कारण हैं. पहला, इंटरनेट और फोन बंद होने की वजह से घाटी से संपर्क करना मुश्किल है. दूसरा, सुरक्षा के दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर स्थानीय पत्रकार उत्पीड़न की कहानियां लिखने व बताने में हिचकिचाते हैं.
जुल्म की कहानियां
घाटी के कई क्षेत्रों में लोगों ने बताया कि सुरक्षाबल ग्रामीणों पर जुल्म ढहा रहे हैं. नौजवान लड़कों को बुरी तरह से पीटा जा रहा है. यातनाएं दी जा रही हैं. दक्षिण कश्मीर के ग्रामीण इलाके में रहने वाले एक व्यक्ति ने बताया, “रात में गांव को सुरक्षाबलों ने घेर लिया. लगभग हर घर से लड़कों को निकालकर सुरक्षाबलों ने राउंडअप किया. कुछ लड़कों को उनके गांव से दूर दूसरे बाहरी क्षेत्र में ले जाया गया. वहां दूसरे गांवों के लड़के भी थे. उन्हें लाठी से पीटा गया. उनके गुप्तांगों में मिर्च रगड़ी गयी. जब वे बेहोश हो जाते तो उन्हें होश में लाने के लिए बिजली का करंट दिया जाता.”
एक अन्य व्यक्ति ने साथी पत्रकार को बताया, “जब वे [सुरक्षाबल] हमें टॉर्चर करते थे, हम बस यही चाहते थे कि वे हमें गोली मार दें. दर्द इतना था कि हम अल्लाह-ताला से गुजारिश करते थे कि वे हमें इससे मुक्ति दें.” उसने बताया कि सेना के जवान उनसे पत्थरबाज़ों के नाम पूछते थे. “मैं उनसे चीख-चीखकर कहता रहा कि मैं मासूम हूं. पत्थर नहीं फेंकता, पर वे नहीं सुने. जब चीखता तो वे मुंह भी बंद कर देते कि आवाज़ बाहर न जाए,” उसने बताया.
ये लड़के और इनका परिवार अपनी पहचान किसी भी सूरत में जाहिर नहीं होने देना चाहते. वे तस्वीर खींचे जाने से घबराते हैं. उन्हें भय है कि अगर किसी भी तरह सुरक्षाबलों को यह मालूम लग गया कि उन्होंने टॉर्चर के बारे में मीडिया को बताया है तो समूचे परिवार पर भयंकर आफ़त आ सकती है. मैं सेना और सरकार के अधिकारियों से इन दावों की पड़ताल करने में असफल रहा. सेना ने कुछ प्रतिष्ठित अंतराष्ट्रीय संस्थानों को घाटी में कश्मीरियों के साथ टॉर्चर के सिलसिले जवाब में कहा, “सेना पर लगाये जा रहे इस तरह के आरोप तथ्यहीन और भ्रामक हैं.” राज्य के गवर्नर सत्यपाल मलिक ने भी मानवाधिकार उल्लंघन और सेना द्वारा उत्पीड़न की वारदातों का सिरे से खंडन किया है.
18 अगस्त को जेकेपीएम की नेता शहला राशिद ने कश्मीर के हालात पर एक ट्विटर थ्रेड लिखा. उसके एक ट्वीट में उन्होंने लिखा कि सेना के जवान रात को घरों में घुसकर लड़कों को उठा रहे हैं. घर की तलाशी ली जा रही है. जानबूझकर चावल को तेल के साथ मिला दिया जा रहा है.
अगले ट्वीट में शहला ने दक्षिण कश्मीर के शोपियां में सेना के कैंप में कश्मीरी लड़कों के उत्पीड़न का जिक्र किया. शोपियां में चार लड़कों को सेना के कैंप में बुलाया गया और उन्हें यातना दी गई. उन लड़कों के करीब माइक रखा था ताकि उनकी चीखें सुनकर इलाके के लोग डरें. इसके घटना के बाद से क्षेत्र में भय का माहौल है.
ट्वीट से आहत होकर सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता आलोक श्रीवास्तव ने शहला पर “भारतीय सेना की छवि खराब करने की कोशिश” करने के लिए मुकदमा दर्ज करवा दिया. 6 सितंबर को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने शहला के ऊपर भारतीय दंड संहिता की धारा 124-A (राजद्रोह), 153-A (धर्म, समुदाय, जन्म स्थान, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्यता) और 153 (दंगा भड़काने की कोशिश) के तहत मामला दर्ज किया. फिलहाल शहला राशिद को दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत से अंतरिम राहत मिली हुई है.
कश्मीरियों को शाह फैसल और शहला राशिद जैसे नए नेताओं से ज्यादा उम्मीद नहीं है. जनसंचार के माध्यम बंद होने के कारण उन्हें पता भी नहीं है कि राजनीति में क्या घट रहा है. पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के एक उम्रदराज कार्यकर्ता ने बताया, “शहला ने गलत कुछ भी नहीं लिखा. सेना, सीआरपीएफ, पुलिस और एजेसिंयों ने हमारा जीना मुहाल कर दिया है. अभी वे लड़कों को उठाएंगें, उन्हें टॉर्चर करेंगे तो वो बंदूक ही उठाएगा. बुरहान को इन्होंने [सुरक्षाबलों] ऐसे ही तैयार किया था.”
अल्लाह मेहरबान तो डॉक्टर निगहबान
कथित टॉर्चर पीड़ितों को परिवार अस्पताल ले जाने से भी बचते है. परिवारों के मुताबिक ग्रामीण अस्पतालों में पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं. बेहतर इलाज के लिए श्रीनगर जाना पड़ता है. कश्मीर में कॉमर्शियल गाड़ियां पूरी तरह से ठप हैं. पीड़ितों को अस्पताल न ले जाने का उससे भी महत्वपूर्ण कारण है कि अस्पताल सुरक्षाबलों और एजेंसियों की सख्त निगरानी में हैं. पीड़ितों का इलाज ज्यादातर घर पर ही हो रहा है. मोहल्ले-टोले के जान पहचान के डॉक्टर बहुत आग्रह के बाद घर आकर ही मरीज़ को दवा दे रहे हैं.
एक सरकारी अस्पताल डॉक्टर ने बताया कि दवाओं का बहुत कम स्टॉक बचा है. “वायरल बुखार को एक दो दिन टाला जा सकता है पर वे मरीज जो गंभीर रूप से घायल हैं, उनके लिए लाइफ सेविंग ड्रग्स जरूरी है, उसे टाला नहीं जा सकता,”
डॉक्टर ने बताया. गवर्नर सत्यपाल मलिक लगातार दावा कर रहे हैं कि घाटी में दवाइयों की पर्याप्त सुविधा है. डॉक्टर ने गवर्नर के दावे पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया. उन्होंने कहा, “आप पत्रकार हो. अपनी तहकीकात कर लो.”
पत्रकार साथी ने मुझे बताया कि श्रीनगर के ज्यादातर सरकारी अस्पताल खाली पड़े हैं. मैं श्रीनगर के श्री महाराजा हरि सिंह सरकारी अस्पताल पहुंचा. वहां सारे बेड खाली पड़े थे. हमने अस्पताल के कर्मचारियों से बात करने की कोशिश की. उन्होंने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया. थोड़ा आग्रह करने पर उन्होंने एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय अखबार के लिए लिखने वाले मेरे साथी को डॉक्टर से बात करने का मौका दिया. यह मौका उन्हें अंतरराष्ट्रीय और प्रतिष्ठित प्रकाशक होने की वजह से मिला था. मैं भारतीय मीडिया की छवि का नुकसान झेल रहा था.
“फिलहाल हमारा ज़ोर आपातकालीन सेवाओं के लिए दवाएं स्टॉक करने पर है. दवाइयों का स्टॉक तेजी से खत्म हो रहा है. मरीज़ों को न चाहते हुए भी लौटाना पड़ रहा है. हमारी एंबुलेंस सेवा भी लगभग ठप सी हो गयी है. हालात बिना सामान्य हुए हमें कोई रास्ता नज़र नहीं आता,” डॉक्टर ने पत्रकार साथी को बताया.
होटल की ओर लौटने के रास्ते में श्रीनगर के एक प्राइवेट अस्पताल के बाहर कई गाड़ियां खड़ी दिखीं. यह मैटरनिटी अस्पताल था. ज्यादातर गर्भवती महिलाएं यहां भर्ती थीं. एक महिला जिसकी उम्र 30 साल थी, उसने कहा, “अल्लाह का शुक्र है कि मैं जिंदा हूं. सुरक्षाबल एंबुलेंस तक को नाकों से पार नहीं होने दे रहे थे. हमारे पति ने उन्हें कर्फ्यू पास दिखाया, फिर भी नहीं माने.” महिला की सास ने बताया कि सुरक्षाबलों से जब वे एंबुलेंस को जाने देने के लिए निवेदन कर रहीं थीं तो एक जवान ने उनके मुंह पर कर्फ्यू पास फेंकते हुए कहा, “जाओ, घर में डिलीवरी करो.”
उस प्राइवेट अस्पताल के डॉक्टर ने कहा, “हमारे यहां जो मरीज़ पहुंच रहे हैं उन पर सच कहूं तो अल्लाह की ही मेहरबानी समझो. बहुत सख्त निगरानी लगा रखी है सुरक्षाबलों ने. हम डॉक्टरों के लिए सरकार ने कर्फ्यू पास जारी किया था, उसकी कोई कद्र नहीं है. नाकों पर कर्फ्यू पास दिखाने के बावजूद जाने नहीं देते.”
अस्पताल के एक अधिकारी ने बताया कि वे जरूरी दवाओं का इंतज़ाम करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. “अगर अगले चार-पांच दिनों में हम जरूरी दवाओं का बंदोबस्त नहीं कर सकें तो हमें अस्पताल की कुछ सेवाएं बंद करनी पड़ जाएंगी,” अधिकारी ने बताया.
हिरासत और गिरफ्तारी
घाटी की ज्यादातर राजनीतिक शख्सियतों को पुलिस ने नज़रबंद कर रखा है. जम्मू कश्मीर पुलिस ने उन्हें कर्फ्यू के मद्देनज़र सुरक्षा का हवाला देकर पुलिस हिरासत में लिया है. जम्मू और कश्मीर के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों (उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती) को पुलिस हिरासत में रखा गया है. नेशनल कॉन्फ्रेंस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला को पहले पुलिस ने हाउस अरेस्ट में रखा. फिर 15 सितंबर को उन पर पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) लगा दिया.
यह विडम्बना ही है कि पीएसए कानून को 1978 में फारूक अब्दुल्ला के पिता शेख अब्दुल्ला लेकर आये थे. आज खुद फारूक अबदुल्ला इस कानून की चपेट में आ गये हैं. गुपकार रोड स्थित फारूक अब्दुल्ला के आवास को सब-जेल में तब्दील कर दिया गया है. वहीं दूसरी तरफ उमर और महबूबा को हरि निवास में रखा गया है. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक डल झील के किनारे सेन्टॉर लेक व्यू होटल में तकरीबन 200 नेताओं को हिरासत में रखा गया है. इसके अलावा कुछ नेताओं को उत्तर प्रदेश की जेलों में भी ट्रांसफर किया गया है. श्रीनगर में हिरासत में लिए गये नेताओं के परिवारों को कुछ औपचारिकताएं पूरी करने के बाद मिलने की इज़ाज़त मिलती है. परिवार के सदस्यों के अलावा किसी अन्य को मिलने की इजाज़त नहीं है.
पत्रकारों के लिए राजनीतिक बंदियों के बारे में सूचना लेने का एक ही ज़रिया है- उनके परिवार. मैं शेर-ए-कश्मीर इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस सेंटर पहुंचा. वहां बीस-पच्चीस लोगों की भीड़ जमा थी. यह राजनीतिक बंदियों के परिवारों के सदस्य थे. मैं उनमें से कई परिवारों से बात करने की कोशिश करता रहा, लेकिन वे मुझे भारतीय पत्रकार जानकर बात करने से बचते रहे. एक पूर्व पीडीपी विधायक के दामाद ने बताया कि उनके ससुर को 5 सितंबर की देर शाम को पुलिस ने हिरासत में लिया था.
“हमें सिर्फ ये बताया गया कि शहर में कर्फ्यू है और इनकी सुरक्षा के मद्देनज़र इन्हें हिरासत में लिया जा रहा है,” पूर्व पीडीपी विधायक के दामाद ने बताया. “बहुत दिनों तक परिवार को उनसे [विधायक] मिलने नहीं दिया जा रहा था. एक महीने से ज्यादा का वक्त बीतने के बाद उन्हें पंद्रह मिनट के लिए मिलने का वक्त दिया गया. वे शांत पड़ गये हैं. अपना ज्यादा समय कुरान और किताबें पढ़कर बिता रहे हैं.”
जब मैं शेर-ए-कश्मीर इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस सेंटर के बाहर की कुछ तस्वीरें लेने लगा तभी एक सीआरपीएफ के जवान चीखा, “फोटो मत खींचो. क्या दिक्कत है आपको? किनसे मिलने आए हैं आप?” कहते हुए वह करीब आ गया. मैंने उसे अपना नाम बताकर प्रेस कार्ड दिखाया. दिल्ली का पहचान पत्र देखकर उसका रूख थोड़ा नरम हुआ. उसने कहा, यहां सब ठीक है. शांति है. लोग खुश हैं. क्यों आप लोग यहां माहौल खराब करने आते हैं?” गेट के बाहर खड़े राजनीतिक बंदियों के परिजन मेरी ओर देखने लगे. “हां, बिल्कुल, यहां सब कुछ ठीक है. आप तो दिखाते ही हो कि यहां सबकुछ नॉर्मल है,” राजनीतिक बंदियों के परिजनों में से किसी एक ने धीमे स्वर में कहा.
राजनीतिक अनिश्चय के बारे में कश्मीरियों की आम समझ बनती दिख रही है कि अनुच्छेद 370 खत्म करके भारत ने दुनिया को यह संदेश दे दिया है कि वह एक साम्राज्यवादी ताकत है और कश्मीर उसका उपनिवेश है. राजबाग इलाके में एक शख्स ने कहा, “कश्मीरियों ने वोट दिया, नेता चुना. भारत और कश्मीर के बीच जो विशेष कॉन्ट्रैक्ट संविधान में लिखा था, उसे ही भारत ने खत्म कर दिया. तो अब कौन सा नेता बचा? अच्छा हुआ कि हम कुछ कश्मीरी जो भारत में तमाम खामियों के बावजूद भरोसा रखते थे, उस भ्रम को तोड़ दिया. अब चीज़ें स्पष्ट हैं- आर या पार.”
“जिस पीडीपी के साथ भाजपा ने सरकार बनायी, उसके नेता को भी नहीं छोड़ा. सब हिरासत में हैं. पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस सबने भारत के साथ मिलकर कश्मीरियों के साथ मज़ाक किया,” एक अन्य व्यक्ति ने जोड़ा. एक तीसरे व्यक्ति ने कहा, “जब ये प्रो-इंडिया रहकर अपनी राजनीति करने वाले नेता ही उनके [भारत] न रहे तो बाकी कश्मीरियों की बात तो अब छोड़ ही दो. यहां हर एक घर ज्यादतियों से प्रभावित है, मरहम लगाने की जगह फौज़ के बल पर कश्मीर को कब्जे में करना चाहता है भारत.”
नब्बे के दशक की वापसी?
कश्मीर की राजनीति में बने वैक्युम को पूरा कर रहे हैं मिलिटेंट. लोगों में मिलिटेंट्स को लेकर सहानुभूति का भाव है. ऐसा इसलिए क्योंकि लोगों को लगता है कि नेताओं ने बहुत सारे राजनीतिक पैंतरे अपनाये, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ. कश्मीरी उन मिलिटेंट्स को “फ्रीडम फाइटर्स” बताने से गुरेज़ नहीं करते. कश्मीर में यह एक बड़ा फर्क आया 5 अगस्त के बाद.
मैं पहले भी कश्मीरियों से मिलिटेंसी को लेकर उनकी राय लेता रहा हूं. कभी उन्हें एक स्वर में मिलिटेंसी को लेकर समर्थन देते नहीं सुना. वे सुरक्षाबलों द्वारा किये जा रहे उत्पीड़न की बात कहते. वे उन स्थितियों का जिक्र करते कि कैसे सुरक्षाबलों की बर्बर कार्रवाई लड़कों को हथियार उठाने पर मजबूर करती है. इस बार मैंने महसूस किया कि कश्मीरी अवाम राजनीतिक वादाखिलाफियों और अत्याचार से हताश हो चुकी है.
श्रीनगर के सौरा में अनुच्छेद 370 खत्म किए जाने के खिलाफ लगातार विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. उन प्रदर्शनों में “वन सॉल्यूशन, गन सॉल्यूशन-गन सॉल्यूशन” जैसे नारे लगाये गये हैं. दुकानों के शटर और दीवारों पर बुरहान वानी के पोस्टर लगाये गये हैं. श्रीनगर के कई इलाकों में मैंने बुरहान को संबोधित करने वाले संदेश दीवारों और हाइवे पर लिखे देखे. कुछ जुमले हर बातचीत में रह रह कर आ रहे हैं- ‘इंडियन ऑक्युपेशन इन कश्मीर’, ‘आज़ादी’, ‘जुल्म’, ‘इंडियन मीडिया का प्रौपोगैंडा’, ‘झूठ’, ‘आर या पार’ आदि. वे कहते हैं, “जो करना है एक बार में करो. धीरे-धीरे मारने से बेहतर है एक बार में ही उड़ा दो.”
प्रेस क्लब में शोपियां के एक स्थानीय पत्रकार ने बताया कि उनके सूत्रों की जानकारी के मुताबिक दक्षिण कश्मीर के कई इलाकों में मिलिटेंट्स ने लोगों से शांति बनाये रखने को कहा है. कश्मीर के अलग-अलग इलाकों में लोगों से बातचीत करते हुए लगा कि वे भीतर से बहुत भरे हैं. बहुत कुछ अभिव्यक्त करना चाहते हैं लेकिन उन्हें अभिव्यक्त करने नहीं दिया जा रहा है.
एक साथी पत्रकार इस हालात को कुछ यूं बयां करते हैं, “कश्मीरी फटने का इंतज़ार कर रहे हैं.”
कश्मीर में जिस तरह के हालात बने हुए हैं, डर है कि कहीं कश्मीर वापस नब्बे के दौर में न लुढ़क जाये.