‘‘तुम्हारी महानता मेरे लिए स्याह अंधेरा है / मैं जानता हूं / मेरा दर्द तुम्हारे लिए चींटी जैसा / और तुम्हारा अपना दर्द पहाड़ जैसा / इसलिए, मेरे और तुम्हारे बीच / एक फासला है / जिसे लम्बाई में नहीं / समय से नापा जाएगा। – ओमप्रकाश वाल्मीकि
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1997 में आयी आत्मकथा ‘जूठन’आते ही चर्चित हुई थी। उस वक्त एक सीमित दायरे में ही उसके लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि का नाम जाना जाता था। मगर हिन्दी जगत में किताब का जो रिस्पान्स था, जिस तरह अन्य भाषाओं में उसके अनुवाद होने लगे, उससे यह नाम दूर तक पहुंचने में अधिक वक्त नहीं लगा। यह अकारण नहीं था कि इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के मध्य में वह किताब अंग्रेजी में अनूदित होकर कनाडा तथा अन्य देशों के विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल की गयी थी। एक मोटे अनुमान के हिसाब से देश के तेरह अलग अलग विश्वविद्यालयों में – जिनमें कई केन्द्रीय विश्वविद्यालय शामिल हैं – इन दिनों यह उपन्यास या उसके अंश पढ़ाए जा रहे हैं।
उपरोक्त आत्मकथा ‘‘जूठन’ का वह प्रसंग शायद ही कोई भूला होगा, जब इलाके के वर्चस्वशाली जाति से जुड़े किसी सुखदेव के घर हो रही अपनी बेटी की शादी के वक्त अपमानित की गयी उस नन्हे बालक (स्वयं ओमप्रकाशजी) एवं उसकी छोटी बहन माया की मां ‘उस रात गोया दुर्गा’बनी थी और उसने त्यागी को ललकारा था और एक ‘शेरनी’ की तरह वहां से अपनी सन्तानों के साथ निकल गयी थी। कल्पना ही की जा सकती है कि जिला मुजफ्फरनगर के एक गांव में (जो 21वीं सदी की दूसरी दहाई में भी वर्चस्वशाली जातियों की दबंगई और खाप पंचायतों की मनमानी के लिए कुख्यात है) आज से लगभग साठ साल पहले इस बग़ावत क्या निहितार्थ रहे होंगे। उनकी मां कभी उस शख्स के दरवाजे नहीं गयी।
इस नन्हे बालक के मन पर अपनी अनपढ़ मां की यह बग़ावत (जो वर्णसमाज के मानवद्रोही निज़ाम के तहत सफाई के पेशे में मुब्तिला थी और उस पेशे की वजह से ही लांछन का जीवन जीने के लिए अभिशप्त थी) गोया अंकित हो गयी, जिसने उसे एक तरह से तमाम बाधाओं को दूर करने का हौसला दिया।
विडम्बना ही है कि एक ऐसी रचना – जिसने उत्तर भारत में 90 की दशक में उठी दलित उभार की परिघटना में नया आयाम जोड़ा था और शेष समाज के संवेदनशील तबके को झकझोर कर रख दिया था तथा आत्मपरीक्षण के लिए प्रेरित किया था – उससे कुछ लोग ‘‘आहत’ होते दिख रहे हैं और उन्होंने यह मांग की है कि स्नातक स्तर के पाठयक्रम से उसके अंशों को हटाया जाए। मांग की अगुआई हिमाचल प्रदेश में सत्ताधारी पार्टी से जुड़़ा छात्र संगठन कर रहा है।
मालूम हो कि इस उपन्यास के अंग्रेजी अनुवाद के कुछ अंश हिमाचल युनिवर्सिटी के पाठयक्रम में कुछ साल से पढ़ाए जा रहे हैं। पश्चिम के कई देशों में पढ़ाए जा रहे इस उपन्यास से अचानक ‘आहत हो रही भावनाओं’का मामला यहां तक पहुंचा है कि पढ़ानेवाले अध्यापक इस सन्दर्भ में दलाई लामा से भी मिल चुके हैं और छात्रों के एक हिस्से की मांग को लेकर राज्य के उच्च शिक्षा निदेशक ने यह भी कहा है कि मामले की जांच करवाई जाएगी और जरूरत पड़ने पर उसे हटा दिया जाएगा। (http://www.mediavigil.com/print/casteist-mindset-of-amar-ujala-editors-proved /)
यह बात विचारणीय है कि पाठयक्रम की कथित विसंगतियों को लेकर दलाई लामा से मिलने की बात क्या मायने रखती है? मगर वह किस्सा फिर कभी।
प्रश्न उठता है कि ‘बस्स! बहुत हो चुका’जैसा कवितासंग्रह हो या ‘सलाम’शीर्षक से आया कहानी संग्रह हो या ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’जैसी रचना हो या ‘सदियों का सन्ताप’जैसी अन्य पुस्तक हो, साहित्य के इन तमाम रूपों के जरिए एक विशाल तबके के लिए अपमान-जिल्लत भरी जिन्दगी जीने की मजबूरी के खिलाफ अपनी जंग जारी रखनेवाले ओमप्रकाश वाल्मीकि की सबसे चर्चित रचना को अचानक निशाना बनाने की वजह क्या है? और वह भी उनके इन्तकाल के लगभग पांच साल बाद, जबकि वह अपनी रचना की हिफाजत करने के लिए भी मौजूद नहीं हों। ऐसी परिस्थिति आज नहीं तो कल विकसित होगी इसकी भविष्यवाणी गोया वाल्मीकिजी ने अपनी रचना में की थी? अपनी कविता ‘‘उन्हें डर है’में उन्होंने साफ लिखा था:
”उन्हें डर है / बंजड़ धरती का सीना चीर कर / अन्न उगा देने वाले सांवले खुरदरे हाथ / उतनी ही दक्षता से जुट जायेंगे / वर्जित क्षेत्र में भी / जहाँ अभी तक लगा था उनके लिए / नो एंटरी का बोर्ड / उन्हें डर है / भविष्य के गर्भ से चीख.चीख कर / बाहर आती हजारों साल की वीभत्सता / जिसे रचा था उनके पुरखों ने भविष्य निधि की तरह / कहीं उन्हें ही न ले डूबे किसी अंधेरी खाई में / जहाँ से बाहर आने के तमाम रास्ते / स्वयं ही बंद कर आये थे / सुग्रीव की तरह”
विडम्बना ही है देश के प्रबुद्ध जगत में भी इस मसले पर कोई सरगर्मी, कोई प्रतिक्रिया नहीं दिख रही है! मुमकिन है कि पेरूमल मुरूगन या हांसदा सोवेन्द्र शेखर जैसे लेखकों पर – इलाके के वर्चस्वशाली समूहों के पड़ रहे दबावों को खिलाफ आवाज़ उठानेवाले प्रबुद्ध जनों तक यह ख़बर पहुंची नहीं है या उसकी गंभीरता से वाकिफ़ नहीं हो सके हैं।
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‘जूठन’ को पाठयक्रम से बाहर कर दिए जाने की इस मांग को कैसे समझा जाए, यह मसला विचारणीय है। क्या यह कहा जाना मुनासिब है कि समाज एवं साहित्यजगत पर हावी ऐसे लोग अभी भी उस सच्चाई से रूबरू नहीं होना चाहते कि भारत में जातिप्रथा सदियों से उपस्थित रही है, जिसने शुद्धता और छूआछूत के नाम पर समाज के बड़े हिस्से को बुनियादी मानव अधिकारों से भी वंचित रखा है और आधुनिकता के आगमन के बाद ही इस संरचना में पहली बार कुछ हरकत, बदलाव की गुंजाइश दिख रही है?
अपनी चर्चित रचना ‘‘अछूत कौन और कैसे?’’ जिसमें वह अस्पृश्यता के जड़ तक पहुंचने की कोशिश करते हैं, डॉ. अम्बेडकर ने इसी दोहरे रूख की पड़ताल की थी।
”सनातन धर्मान्ध हिंदू के लिए यह बुद्धि से बाहर की बात है कि छुआछूत में कोई दोष है। उसके लिए यह सामान्य स्वाभाविक बात है। वह इसके लिए किसी प्रकार के पश्चात्ताप और स्पष्टीकरण की मांग नहीं करता। आधुनिक हिंदू छुआछूत को कलंक तो समझता है लेकिन सबके सामने चर्चा करने से उसे लज्जा आती है। शायद इससे कि हिंदू सभ्यता विदेशियों के सामने बदनाम हो जाएगी कि इसमें दोषपूर्ण एवं कलंकित प्रणाली या संहिता है जिसकी साक्षी छूआछूत है।”
(डॉ. अम्बेडकर, अछूत कौन और कैसे?)
विडम्बना ही है कि जाति प्रथा के महज उल्लेख से – उसके वर्णन से – भावनाएं आहत होने के मामले में हिमाचल प्रदेश के भद्रजन अकेले नहीं कहे जा सकते।
अभी कुछ समय पहले उधर मलेशिया में भारतीय मूल के निवासियों की गिरफ्तारी का मसला अचानक सुर्खियां बना था। बताया गया था कि ‘हिन्ड्राफ’(Hindraf) नामक संगठन के कार्यकर्ता इस बात से नाराज थे कि मलेशिया के स्कूलों में बच्चों के अध्ययन के लिए जो उपन्यास लगाया गया था, वह कथित तौर पर भारत की ‘छवि खराब’करता है। आखिर उपरोक्त उपन्यास में ऐसी क्या बात लिखी गयी थी, जिससे वहां स्थित भारतवंशी मूल के लोग अपनी ‘मातृभूमि’की बदनामी के बारे में चिन्तित हो उठे थे। अगर हम बारीकी से देखें तो इस उपन्यास में एक ऐसे शख्स की कहानी थी जो तमिलनाडु से मलेशिया में किस्मत आजमाने आया है और वह यह देख कर हैरान होता है कि अपनी मातृभूमि पर उसका जिन जातीय अत्याचारों से साबिका पड़ता था, उसका नामोनिशान यहां नहीं है।
यह सवाल किसी ने नहीं उठाया कि अपने यहां जिसे परम्परा के नाम पर महिमामण्डित करने में हम संकोच नहीं करते हैं, उच्च-नीच अनुक्रम पर टिकी इस प्रणाली को मिली दैवी स्वीकृति की बात करते हैं, आज भी आबादी के बड़े हिस्से के साथ (जानकारों के मुताबिक) 164 अलग अलग ढंग से छूआछूत बरतते हैं, वही बात अगर सरहद पार की किताब में उपन्यास में ही लिखी गयी तो वह उन्हें अपमान क्यों मालूम पड़ती है।
और मलेशिया में बसे आप्रवासी भारतीय अनोखे नहीं है।
अमेरिका की सिलिकान वैली -सैनफ्रान्सिस्को बे एरिया के दक्षिणी हिस्से में स्थित इस इलाके में दुनिया के सर्वाधिक बड़े टेक्नोलोजी कार्पोरेशन्स के दफ्तर हैं – में तो कई भारतवंशियों ने अपनी मेधा से काफी नाम कमाया है। मगर जब कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में पाठयक्रमों की पुनर्रचना होने लगी, तब हिंदू धर्म के बारे में एक ऐसी आदर्शीकृत छवि किताबों में पेश की गयी, जिसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं था। अगर इन किताबों को पढ़ कर कोई भारत आता तो उसके लिए न जाति अत्याचार कोई मायने रखता था, न स्त्रियों के साथ दोयम व्यवहार कोई मायने रखता था। जाहिर है हिंदू धर्म की ऐसी आदर्शीकृत छवि पेश करने में रूढिवादी किस्म की मानसिकता के लोगों का हाथ था, जिन्हें इसके वर्णनमात्रा से भारत की बदनामी होने का डर सता रहा था। साफ था इनमें से अधिकतर उंची कही जानेवाली जातियों में जनमे थे। अन्ततः वहां सक्रिय सेक्युलर हिन्दोस्तानियों को, अम्बेडकरवादी समूहों तथा अन्य मानवाधिकार समूहों के साथ मिल कर संघर्ष करना पड़ा और तभी पाठयक्रमों में उचित परिवर्तन मुमकिन हो सका। (http://www.huffingtonpost.com/entry/erasing-caste-the-battle_b_9817862.html?section=indiaCd )
यह दलील दी जा रही थी कि हिन्दुओं में जाति एवं पुरूषसत्ता का चित्राण किया जाएगा तो वह ‘हिन्दु बच्चों को हीन भावना’से ग्रसित कर देगा और उनकी ‘प्रताडना’का सबब बनेगा, लिहाजा उस उल्लेख को टाला जाए। ऊपरी तौर पर आकर्षक लगनेवाली यह दलील दरअसल सच्चाई पर परदा डालने जैसी है क्योंकि वही तर्क फिर नस्लवाद के सन्दर्भ में भी इस्तेमाल किया जा सकता है और किताबों से उसकी चर्चा को गायब किया जा सकता है।
अम्बेडकर के विचारों से प्रेरित ओमप्रकाश वाल्मीकि के लेखन को इस तरह विवादित बना देने को लेकर – जो एक तरह से समूचे ‘‘दलित लेखन’के प्रति वर्णवादी मानसिकता की नकारात्मक प्रतिक्रिया का सटीक उदाहरण है – एक क्षेपक के तौर पर हम अमेरिका में ब्लैक लिटरेचर अर्थात अश्वेत साहित्य के प्रति श्वेत प्रतिक्रिया की भी पड़ताल कर सकते हैं। वैसे दलित लेखन को लेकर कथित वर्चस्वशाली जातियों की प्रतिक्रिया बरबस अश्वेत लेखन को लेकर श्वेत प्रतिक्रिया की याद ताज़ा करती है:
”किसे गुणवत्तापूर्ण/श्वेतसाहित्य कहा जाए इसे लेकर उच्च-नीच अनुक्रम/हाईरार्की की दुराग्रही अवधारणा और फिर उसी साहित्य में किन /श्वेत/ पात्रों को मानवीय समझा जाए और उनकी जिन्दगियों की नकारात्मक घटनाओं को लेकर एक विमर्श बना है। यह कोई बौद्धिक या आकलन का मुददा नहीं है..; यह नस्लीय मुददा है…
…महान अश्वेत लेखक जेम्स बाल्डविन ने लिखा है कि किस तरह श्वेतजन अपने खुद के अस्तित्व को लेकर उन भ्रांतियों-भ्रमों / जिन्हें श्वेत वर्चस्व ने गढ़ा है / से रूबरू होने से इन्कार करते हैं, जिनको वह निर्मित करते हैं तथा उसी पर जिन्दगी गुजार देते है; किस तरह उन छद्मों से परे अपने अस्तित्व की पड़ताल करना भी उनके लिए कठिन होता है…
(http://www.gradientlair.com/post/44561535092/white-responses-to-black-literature)
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आखिर जब किताब कुछ साल से पढ़ायी जा रही थी तब भावनाओं के अचानक आहत होने की बात कहां से पैदा हुई। क्या इसका ताल्लुक राज्य में हुए हालिया सत्ता परिवर्तन से जोड़ा जा सकता है।
साफ है कि जिस किस्म का सियासी समाजी माहौल बन रहा है, जहां मनु और उसके विचारों की हिमायत करने पर इन दिनों किसी को एतराज होना तो दूर, आप सम्मानित भी हो सकते हैं, उस पृष्ठभूमि में डॉ. अम्बेडकर के विचारों के रैडिकल अन्तर्य/अन्तर्वस्तु को लोगों तक पहुंचाती दिखती किताब – भले ही वह आत्मकथा हो – उस पर इन यथास्थितिवादियों की टेढ़ी निगाह जाना आश्चर्यजनक नहीं लगता।
फिलवक्त़ केन्द्र में तथा देश के कई राज्यों में सत्तासीन इस जमात के लोगों का चिन्तन तरह समूचे मुल्क को रूढिवाद और परम्परा के गर्त में ढकेल देना चाहता है, इसकी एक मिसाल दी जा सकती है। (http://www.mediavigil.com/morcha/rss-is-in-favour-of-manu-smritint) दिसम्बर माह की 10 तारीख को जयपुर में बाकायदा एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था जिसका शीर्षक था ‘‘मनु प्रतिष्ठा समारोह’जिसमें संघ परिवार के अग्रणियों ने साझेदारी की थी। इसमें यह बात जोर देकर कही गयी थी मनु की छवि को इतिहासकारों ने विकृत किया है। याद रहे कि जयपुर ही वह शहर है जहां मनु की मूर्ति की स्थापना भाजपा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत के जमाने में उच्च अदालत में की गयी थी। यह किसी की चिन्ता का विषय उन दिनों नहीं बना था कि डॉ. अम्बेडकर की मूर्ति अदालत के कहीं कोने में पड़ी है।
भले ही यह बात अब इतिहास की किताबों में दर्ज हो, मगर हमें नहीं भूलना चाहिए कि पचास-साठ के दशकों में उत्तर भारत में चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, ललई सिंह यादव ‘‘पेरियार’, रामस्वरूप वर्मा आदि कइयों ने अपने लेखन से जो अलख जगाए रखी, अपने सामाजिक सांस्कृतिक प्रबोधन से उत्पीड़ित समुदाय को मुक्ति के फलसफे से अवगत कराया, भाग्यवाद के घटिया चिन्तन से तौबा करना सिखाया, उसी मुहिम ने तो बाद में दलित-उत्पीड़ित एसर्शन/दावेदारी की जमीन तैयार की।
पचास-साठ के दशकों से हालात काफी बदले हैं, मगर इसके बावजूद ऐसे विचारों की ताप समाप्त नहीं हुई है। वह नए-नए नौजवानों को आमूलचूल बदलाव के फलसफे से रूबरू करा रही है।
ऐसे उथल-पुथल भरे माहौल में ओमप्रकाश वाल्मीकि की भारतीय समाज की तीखी आलोचना निहित स्वार्थी तत्वों को कैसे बरदाश्त हो सकती है, जो न केवल यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं बल्कि वर्णव्यवस्था से सदियों से उत्पीड़ित तबकों को धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ खड़ा करके एक नए किस्म की पेशवाई को- ब्राहमणवादी हुकूमत को- कायम करना चाहते हैं।
इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि वर्ष 2014 में जब से मोदी की अगुआई में सरकार बनी है तबसे दलितों के उभार की कई घटनाएं सामने आयी हैं और दिलचस्प यह है कि हर आनेवाली घटना अधिक जनसमर्थन जुटा सकी है। दरअसल यह एहसास धीरे धीरे गहरा गया है कि मौजूदा हुकूमत न केवल सकारात्मक कार्रवाई वाले कार्यक्रमों /आरक्षण तथा अन्य तरीकों से उत्पीड़ितों को विशेष अवसर प्रदान करना/ पर आघात करना चाहती है बल्कि उसकी आर्थिक नीतियों- तथा उसके सामाजिक आर्थिक एजेण्डा के खतरनाक संश्रय ने दलितों एवं अन्य हाशियाकृत समूहों/तबकों की विशाल आबादी पर कहर बरपा किया है।
यह अधिकाधिक स्पष्ट होता जा रहा है कि हुकूमत में बैठे लोगों के लिए एक ऐसी दलित सियासत की दरकार है, जो उनके इशारों पर चले। वह भले ही अपने आप को डॉ. अंबेडकर का सच्चा वारिस साबित करने की कवायद करते फिरें, लेकिन सच्चाई यही है कि उन्हें असली अंबेडकर नहीं बल्कि उनके साफसुथराकृत /sanitised संस्करण की आवश्यकता है। वह वास्तविक अंबेडकर से तथा उनके रैडिकल विचारों से किस कदर डरते हैं, यह गुजरात की पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के दिनों के उस निर्णय से समझा जा सकता है जिसने किसी विद्वान से सम्पर्क करके लिखवाये अंबेडकर चरित्र की चार लाख प्रतियां कबाड़ में डाल दीं, वजह थी कि उस विद्वान ने किताब के अन्त में उन 22 प्रतिज्ञाओं को भी शामिल किया जो डॉ. अंबेडकर ने 1956 में धर्मांतरण के वक्त़ अपने अनुयायियों के साथ ली थीं।
(http://www.baiae.org/resources/great-people/dr-babasaheb-ambedkar/12-ambedkar-writings-and-speeches/7-22-vows-of-dr-ambedkar.html /)
और शायद इसी एहसास ने जबरदस्त प्रतिक्रिया को जन्म दिया है। और अब यही संकेत मिल रहे हैं कि यह कारवां रूकने वाला नहीं है।
चाहे चेन्नई आईआईटी में अंबेडकर पेरियार स्टडी सर्कल पर पाबंदी के खिलाफ चली कामयाब मुहिम हो (https://kafila.org/2015/06/05/no-to-ambedkar-periyar-in-modern-day-agraharam/) या हैदराबाद सेन्ट्रल युनिवर्सिटी के मेधावी छात्रा एवं अंबेडकर स्टुडेंट एसोसिएशन के कार्यकर्ता रोहिथ वेमुल्ला की ‘सांस्थानिक हत्या’के खिलाफ देश भर में उठा छात्र युवा आन्दोलन हो (https://kafila.org/2016/01/22/long-live-the-legacy-of-comrade-vemula-rohith-chakravarthy-statement-by-new-socialist-initiative-nsi/) या महाराष्ट्र में सत्तासीन भाजपा सरकार द्वारा अंबेडकर भवन को गिराये जाने के खिलाफ हुए जबरदस्त प्रदर्शन हों या इन्कलाबी वाम के संगठनों की पहल पर पंजाब में दलितों द्वारा हाथ में ली गयी ‘जमीन प्राप्ति आन्दोलन’ हो – जहां जगह-जगह दलित अपने जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को लेकर सामूहिक खेती के प्रयोग भी करते दिखे हैं, या उना के बहाने चली जबरदस्त हलचल हो जब यह नारा उठा था कि ‘‘गाय की पूंछ तुम रखो, हमें हमारी जमीन दो।’
भीमा कोरेगांव ‘‘शौर्य स्मृति दिवस’ के हुए विराट आयोजन और उसमें आम जनसाधारण की व्यापक सहभागिता, जिसमें आज के ‘‘पेशवाओं’को शिकस्त देने की उठी आवाज़ तथा उसकी प्रतिक्रिया में रूढिवादी ताकतों का संगठित हिंसाचार, हिन्दुत्ववादी संगठनों की बदहवासी भरी हरकतें इसी बात की ताज़ी मिसाल है।
इस समूची पृष्ठभूमि में यह अकारण नहीं कि ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचना को ‘‘आहत भावनाओं’’ की दुहाई देते हुए वह दफना देना चाहते हैं, नफरत पर टिके अपने निज़ाम के लिए कुछ और पलों की गारंटी करना चाहते हैं।