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बाबा नागार्जुन की कविताएँ

बाबा नागार्जुन की कविताएँ

आज़ादी के सात दशक में हम कहां पहुंचे हैं, इस पर चर्चा के दौरान अपनी बात कहने के साथ यह ज़रूरी हो जाता है कि हम उस जनतानस को भी टटोलें जो आज जिंदगी के बुनियादी मोर्चों पर पूरी तरह संघर्षरत है। साहित्‍य हमेशा से जनता की भावनाओं को व्‍यक्‍त करने का आसान माध्‍यम रहा है। बाबा नागार्जुन ने अपने समय में कुछ ऐसी कविताएं लिखी हैं जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक जान पड़ती हैं।

भूल जाओ पुराने सपने

सियासत में

न अड़ाओ

अपनी ये काँपती टाँगें

हाँ, मह्राज,

राजनीतिक फतवेवाजी से

अलग ही रक्खो अपने को

माला तो है ही तुम्हारे पास

नाम-वाम जपने को

भूल जाओ पुराने सपने को

न रह जाए, तो-

राजघाट पहुँच जाओ

बापू की समाधि से जरा दूर

हरी दूब पर बैठ जाओ

अपना वो लाल गमछा बिछाकर

आहिस्ते से गुन-गुनाना :

”बैस्नो जन तो तेणे कहिए

जे पीर पराई जाणे रे”

देखना, 2 अक्टूबर के

दिनों में उधर मत झाँकना

-जी, हाँ, महाराज !

2 अक्टूबर वाले सप्ताह में

राजघाट भूलकर भी न जाना

उन दिनों तो वहाँ

तुम्हारी पिटाई भी हो सकती है

कुर्ता भी फट सकता है

हां, बाबा, अर्जुन नागा !

मोर न होगा … उल्लू होंगे

(आपातकाल में लिखी गयी कविता)

ख़ूब तनी हो, ख़ूब अड़ी हो, ख़ूब लड़ी हो

प्रजातंत्र को कौन पूछता, तुम्हीं बड़ी हो

डर के मारे न्यायपालिका काँप गई है

वो बेचारी अगली गति-विधि भाँप गई है

देश बड़ा है, लोकतंत्र है सिक्का खोटा

तुम्हीं बड़ी हो, संविधान है तुम से छोटा

तुम से छोटा राष्ट्र हिन्द का, तुम्हीं बड़ी हो

खूब तनी हो,खूब अड़ी हो,खूब लड़ी हो

गांधी-नेहरू तुम से दोनों हुए उजागर

तुम्हें चाहते सारी दुनिया के नटनागर

रूस तुम्हें ताक़त देगा, अमरीका पैसा

तुम्हें पता है, किससे सौदा होगा कैसा

ब्रेझनेव के सिवा तुम्हारा नहीं सहारा

कौन सहेगा धौंस तुम्हारी, मान तुम्हारा

हल्दी. धनिया, मिर्च, प्याज सब तो लेती हो

याद करो औरों को तुम क्या-क्या देती हो

मौज, मज़ा, तिकड़म, खुदगर्जी, डाह, शरारत

बेईमानी, दगा, झूठ की चली तिजारत

मलका हो तुम ठगों-उचक्कों के गिरोह में

जिद्दी हो, बस, डूबी हो आकण्ठ मोह में

यह कमज़ोरी ही तुमको अब ले डूबेगी

आज नहीं तो कल सारी जनता ऊबेगी

लाभ-लोभ की पुतली हो, छलिया माई हो

मस्तानों की माँ हो, गुण्डों की धाई हो

सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है प्रबल पिटाई

सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है ‘इन्द्रा’ माई

बन्दूकें ही हुईं आज माध्यम शासन का

गोली ही पर्याय बन गई है राशन का

शिक्षा केन्द्र बनेंगे अब तो फौजी अड्डे

हुकुम चलाएँगे ताशों के तीन तिगड्डे

बेगम होगी, इर्द-गिर्द बस गूल्लू होंगे

मोर न होगा, हंस न होगा, उल्लू होंगे

बाकी बच गया अंडा

पाँच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूँखार

गोली खाकर एक मर गया, बाक़ी रह गए चार

चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन

देश-निकाला मिला एक को, बाक़ी रह गए तीन

तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो

अलग हो गया उधर एक, अब बाक़ी बच गए दो

दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक

चिपक गया है एक गद्दी से, बाक़ी बच गया एक

एक पूत भारतमाता का, कन्धे पर है झण्डा

पुलिस पकड कर जेल ले गई, बाकी बच गया अण्डा

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