प्रोफेसर आनन्द तेलतुम्बडे, जो आई.आई.एम अहमदाबाद के छात्र रह चुके हैं, आई.आई.टी में प्रोफेसर, भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड के कार्यकारी निदेशक और पेटोनेट इंडिया के सीईओ जैसे अहम पदों पर रहे चुके हैं और फिलवक़्त गोवा इन्स्टिट्यूट आफ मैनेजमेण्ट में ‘बिग डाटा एनालिटिक्स’ के विभागप्रमुख हैं, जिन्होंने 26 किताबें लिखी हैं, जो इकोनोमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली में नियमित स्तंभकार, ‘जाति–वर्ग’ के जाने–माने विद्वान, अग्रणी जन–बुद्धिजीवी और शिक्षा अधिकार कार्यकर्ता हैं, उन पर ‘‘शहरी माओवादी’’ होने के आरोप में गिरफतार किए जाने का खतरा मंडरा रहा है।
देश दुनिया के बुद्धिजीवियों, सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने उनके खिलाफ दायर मुकदमे को खारिज करने की मांग है। उनके समर्थन में आई आई टी खडगपुर ही नहीं आई आई एम अहमदाबाद और आई आई एम बंगलुरू के विद्वानों एवं छात्रों ने लिखित बयान भी दिए हैं, मगर सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंग रही है।
जानी–मानी लेखिका अरूंधती राय ने कहा है कि ‘‘उनकी आसन्न गिरफ्तारी एक राजनीतिक कार्रवाई होगी। यह हमारे इतिहास का एक बेहद शर्मनाक और खौफनाक अवसर होगा।’’
ऐसे नाजुक वक्त़ में शुरूआत करना मुश्किल जान पड़ता है जब आप जानते हों कि चन्द दिनों में या हफ्तों में – इस गणतंत्रा में गढ़े गए एक खतरनाक कानून की धाराओं के तहत – आप का एक करीबी दोस्त सलाखों के पीछे भेजा जाएगा।
दुनिया उसे आनन्द तेलतुम्बडे नाम से जानती है, लेकिन मेरे लिए वह हमेशा ही सिर्फ आनन्द रहा है।
बमुश्किल चार माह पहले, हम दोनों विजयवाड़ा के एक सेमिनार में साथ थे जहां आनन्द ने अपने एक बेहद जरूरी सरोकार पर बात रखी थी, जिसका फोकस दलित और वाम आन्दोलन के बीच के अन्तराल पर था।
बाद में अनौपचारिक गुफ्तगू में ऐसा लगा कि वह तनाव के उन दिनों से उबर गया है जब गोवा में उसके मकान पर उसकी गैरमौजूदगी में पुलिस ने छापा डाला था। वह एक ऐसी कार्रवाई थी जिसकी व्यापक भर्त्सना हुई थी। काबिलेगौर बात यह थी कि आई.आई.टी खड़गपुर के 120 से अधिक प्रोफेसरों, रिसर्च स्कालर्स और विद्यार्थियों ने – जहां इसके पहले आनन्द प्रोफेसर के पद पर कार्यरत थे – इस कार्रवाई की मुखालिफत की थी। उनके इस साझा बयान ने यह बात उजागर की थी कि वह किस तरह एक लोकप्रिय अध्यापक और सहयोगी रहे हैं जिसकी वजह से आम तौर ‘अराजनीतिक’ समझे जाने वाले परिसर ने भी उनकी हिमायत में बोलना जरूरी समझा था।
प्रस्तुत बयान का एक छोटा हिस्सा यहां साझा करना समीचीन होगा:
‘‘जैसा कि महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन ने कहा है “The important thing is not to stop questioning. Curiosity has its own reason for existing.” (सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रश्न उठाना बन्द न किया जाए। जिज्ञासा बने रहने के अपने कारण होते हैं।), अपने तमाम बौद्धिक योगदानों के जरिए प्रोफेसर तेलतुम्बडे ने एक ईमानदार सत्यशोधक का जीवन जिया है और अपनी पूरी जिन्दगी में अन्याय पर लगातार सवाल उठाया है। उन्होंने जो भी आलोचनाएं पेश की हैं और जिन भी प्रश्नों को उभारा है, उसे उन्होंने विद्वता के अत्यधिक अनुशासन में पेश किया है।’’
आनन्द ने अपनी दो बेटियों के बारे में मुझे बताया था – जिन्हें मैं अभी तक मिला नहीं हूं – और कहा था कि अपनी जिन्दगियों में वह किस तरह अपना रास्ता ढाल रही हैं। कोईभी देख सकता था कि एक प्रखर बुद्धिजीवी की उस शक्ल के पीछे – जिसने कभी भी सत्ता के सामने सच कहने से गुरेज नहीं किया – वहां एक आत्मीय पिता भी मौजूद है जो अपने करीबियों के साथ अपनी सन्तानों की बातें भी साझा करने में आनंदित होता है।
दरअसल लगभग डेढ दहाई का वक्फ़ा गुजर गया जब हम पहली दफा मुंबई के एक सेमिनार में मिले थे – जिसका आयोजन दलित इंटलेक्चुल कलेक्टिव ने किया था ( 20-21 सितम्बर 2003) और जहां दलित एवं हिन्दुत्व की अन्तर्क्रिया पर दो दिन चर्चा चली थी। उस पूरे तबादले खयालात को बाद में कोलकाता की ‘साम्या’ ने किताब की शक्ल में प्रकाशित किया था। (2005) किताब का शीर्षक था ‘हिन्दुत्व एण्ड दलित्स: पर्सपेक्टिवज फाॅर अंडरस्टैण्डिंग कम्युनल प्राक्सिज’, सम्पादन आनन्द तेलतुम्बडे)
किताब को जिन दिनों अंतिम शक्ल दी जा रही थी तब आनन्द को पीठ के दर्द ने जकड़ लिया था और उसका चलना फिरना मुश्किल हो गया था। उसने मुझे कॉल करके पूछा कि गुजरात के परिदृश्य पर क्या मैं उसके साथ साझा पेपर लिखने को तैयार हूं। मैंने इस प्रस्ताव पर तत्काल सहमति दी थी। दरअसल, 2002 के गुजरात दंगों में दलितों के एक हिस्से की सहभागिता को लेकर मेरा एक आलेख ‘इनवर्टिंग दलित कान्शसनेस: हिन्दुत्वाइंजिंग द दलित्स, कम्युनलायजिंग द मूवमेण्ट’ हमारी दोस्ती का एक बहाना बना था।
विगत पन्द्रह सालों को देखता हूं तो यह कह सकता हूं कि हमारी प्रत्यक्ष मुलाकातें बहुत कम हुई हैं, मगर हम जब भी मिलते हैं, आत्मीयता और परस्पर सम्मान के सोते को हमेशा महसूस किया जा सकता है।
कई बार ऐसे मौके आए हैं जब मैंने इस रिश्ते को समझने की कोशिश की है।
आनन्द एक जाना–माना बुद्धिजीवी, जिसने पूरी दुनिया का लगभग चक्कर लगाया है, कई कम्पनियों का वह सीईओ रह चुका है, सरकार की कुछ नीतियों का मसविदा बनाने में भी कभी उसने भूमिका अदा की है और अपुन बुनियादी तौर पर एक वाम कार्यकर्ता जिसे कागज़ कारे करने का भी शौक है। ऐसी क्या बात हैं जो हमें जोड़ती हैं ? मुझे लगता है कि शायद उसके अन्दर जो एक निरन्तर प्रक्रिया विद्यमान रहती है, जिसका प्रतिबिम्बन उसकी हालिया किताब ‘द रैडिकल इन अम्बेडकर’ (सह–सम्पादन प्रोफेसर सूरज येंगडे) जिसमें देश एवं दुनिया के अग्रणी विद्वानों ने लिखा है – में मिलता है, ‘जिसके तहत अब तक अनछुए परिप्रेक्ष्यों से डॉ अम्बेडकर की विरासत के रैडिकल पक्षों की पड़ताल करने’ की जो जद्दोजहद दिखती है, वह मुझे हमेशा ही आकर्षित करती है।
मुझे याद है कि वर्ष 2002 के उत्तरार्द्ध में किसी समय आनन्द के हाथ मेरा पेपर लग गया था और उसे पढ़ कर उसने फोन मिलाया था। इसे इत्तेफाक कह सकते हैं कि मैं उसके नाम से नावाकिफ नहीं था। फिलवक्त़ मेरी याददाश्त मुझे धोखा दे रही है, लेकिन लगता है कि अम्बेडकरवादी आन्दोलन के किसी कार्यकर्ता ने ही, जिसे आनन्द के विचार पसन्द थे, मुझे आनन्द की 1997 में प्रकाशित एक किताब की फोटोकापी पहले ही पढ़ने को दी थी।
किताब का शीर्षक था ‘अम्बेडकर इन एण्ड फार ए पोस्ट अम्बेडकर दलित मूवमेण्ट’ (सुगावा प्रकाशन, पुणे) और जो मुझे काफी अच्छी लगी थी, क्योंकि उसने दलित आन्दोलन को लेकर बिल्कुल नया रूख देखने को मिला था। महाराष्ट की प्रगतिशील बिरादरी के अग्रणियों में शुमार, मार्क्सवादी विचारक प्रोफेसर राम बापट ने इस किताब की भूमिका लिखी थी और बिल्कुल सही कहा था कि लेखक ने ‘‘ऐतिहासिक शख्सियतों की व्यक्तिपूजा करने की चली आ रही परिपाटी को तोड़ने में अदभुत साहस का परिचय दिया है।’’ उन्होंने इस बात को भी नोट किया था कि ‘‘किस तरह संस्कृतिकरण की सीमाओं को लांघने में दलितों की सांस्क्रतिक असफलता सामने आयी है, जिसने जेण्डर न्याय और असमानता के मसलों को दलित अभिजातों की निगाहों से ओझल होने दिया है।’’ और इसकी जड़ों को उन्होंने ‘‘इतिहास की उसी विडम्बना में खोजा था जिसके तहत दलितों का आन्दोलन – जो भौतिक वंचनाओं का शिकार होने में सबसे अग्रणी होते हैं – वह जीवन की भौतिक जरूरतों को लेकर बेहद बेरूखी भरे रहते हैं।’’
वर्ष 2003 में आनन्द की एक और किताब आयी थी जिसका शीर्षक था ‘मिथस एण्ड फैक्टस: अम्बेडकर ऑन मुस्लिम्स (विकास अध्ययन केन्द्र, मुंबई) जिसमें संघ परिवार द्वारा अम्बेडकर को अपने में समायोजित करने की कार्रवाइयों पर फोकस था। जिसके तहत न केवल उन्हें प्रातःस्मरणीय घोषित किया जा रहा था बल्कि हिन्दू धर्म के ऐसे महान चैम्पियन के तौर पर (मुस्लिम विरोधी के तौर पर) पेश किया जा रहा था, जो सांस्कृतिक राष्टवाद में यकीन रखते हैं।
मुझे हमेशा ही ताज्जुब हुआ है कि वह इतनी सारी चीजें एक साथ किस तरह मैनेज कर पाता है।
एक वक्त़ में भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड में कार्यकारी निदेशक, फिर पेटरोनेट इंडिया का पूर्व मैनेजिंग डायरेक्टर एवं सीईओ, आई.आई.टी में प्रोफेसर और इन्स्टिट्यूट आफ मैनेजमेण्ट में प्रोफेसर, लोकप्रिय अध्यापक, जनतांत्रिक अधिकार कार्यकर्ता और 26 किताबों का लेखन!
आनन्द की हर किताब अपनी अन्तर्वस्तु में मौलिक रही है। अलग–अलग मसलों पर प्रकाशित उसके लेखों में भी हम एक मौलिकता देखते आए हैं। हर मसले को, समस्याओं को गैर–पारम्पारिक तरीके से सम्बोधित करने की उसने हमेशा कोशिश की है। इकोनोमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली का उसका नियमित काॅलम इसकी बानगी प्रस्तुत करता है। वीकली के पूर्व–सम्पादक राममनोहर रेड्डी ने इंडियन एक्स्प्रेस के अपने आलेख ‘द आनन्द आई नो’ में साफ किया था कि किस तरह आनन्द का यह काॅलम बहुत लोकप्रिय रहा है।
अब अगर भीमा कोरेगांव के मसले को देखें, जहां पिछले साल हुई प्रायोजित हिंसा को लेकर (जनवरी 2018) हिन्दुत्ववादी संगठनों पर एवं उनके मास्टरर्माइंडों पर नकेल कसना दूर– जिनके खिलाफ रिपोर्टें भी दर्ज हैं – सरकार ने देश के चन्द अग्रणी बुद्धिजीवियों को ही निशाना बनाया, जिनमें आनन्द भी शामिल हैं। हम देखते हैं कि ‘द वायर’ में प्रकाशित अपने लेख में उसने ऐसे प्रयासों की सीमाओं की बात की थी। उसने स्पष्ट लिखा था कि ‘‘भीमा कोरेगांव का मिथक उन्हीं पहचानों को मजबूत करता है, जिन्हें लांघने का वह दावा करता है। हिन्दुत्ववादी शक्तियों से लड़ने का संकल्प निश्चित ही काबिलेतारीफ है, मगर इसके लिए जिस मिथक का प्रयोग किया जा रहा है वह कुल मिला कर अनुत्पादक होगा।’
विडम्बना देखिए कि जिस कार्यक्रम की सीमाओं के बारे में उसने लिखित असहमति प्रगट की थी, जिस कार्यक्रम में वह शामिल तक नहीं हुआ, उस कार्यक्रम के बाद हिंसा फैलाने के आरोप उस पर लगे हैं ।
आनन्द की किताबें उसके विचारों की गहराई और सरोकारों की व्यापकता को बयां करती है। ‘‘खैरलांजी: ए स्टेज एण्ड बिचटर क्राॅप (नवयाना, 2008) को देखें जिसका फोकस एक दलित परिवार के कतलेआम और उसके बाद की घटनाओं पर है,मगर इस प्रक्रिया में वह ‘‘हमारे समाज के रोगी हदय को बेपर्द करती है।’(अरूंधती राॅय) और इस बात को बयां करती है कि किस तरह सामाजिक, राजनीतिक और राज्य मशीनरी, मास मीडिया, न्यायपालिका, हर कोई किस तरह ‘‘ऐसे वातावरण का निर्माण करता है जहां ऐसी बर्बरता होती है और उसे ढंकने का भी काम होता है।’’
वर्ष 2011 में खैरंलाजी हत्याकांड पर फिर एक बार लौटते हुए उसकी एक अन्य किताब आयी थी ‘द पर्सिस्टन्स आफ कास्ट: इंडियाज हिडन अपार्टहाइड एण्ड द खैरलांजी मर्डर्स (नवयाना), जिसने इस मिथक को बेपर्द किया था कि जाति एक सामन्ती अवशेष है, और इस बात पर जोर दिया था कि किस तरह वह पूंजीवादी भारत में भी ठीक से समाहित हुई है और वैश्वीकृत भारत में भी। इसमें यह भी तर्क था कि किस तरह जाति–विरोधी सक्रियता ने तमाम घिसेपिटे मुहावरों को प्रतिबिम्बित किया है और उन्हें मजबूती दी है, अपने दुश्मनों और दोस्तों को पुराने पड़ चुके शब्दों से पहचाना है और आज़ाद भारत में, जाति के प्राधिकार को एक नया सहयोगी मिला है – राज्य और पुलिस।
या आप देखें ‘‘बी आर अम्बेडकर: इंडिया एण्ड कम्युनिजम’ (लेफ्टवर्ड, 2017) जहां वह इस बात को सामने लाया है कि किस तरह डा अम्बेडकर ने ‘इंडिया और कम्युनिजम’ नामक किताब लिखने की योजना बनायी थी, उन्होंने उसके लिए विषयसूची भी तैयार की थी और कुछ अध्याय लिखे भी थे। आनन्द ने इस किताब के लिए लगभग अस्सी पेज की प्रस्तावना लिखी है जिसका शीर्षक है ‘‘ ब्रिजिंग द अनहोली रिफ्ट’ जो तथ्यगत विवरणों और संदर्भों पर आधारित है, जहां वह उन सभी को चुनौती देते हैं जो सोचते हैं कि अम्बेडकर साम्यवाद या मार्क्सवाद के विरोधी थे।
ऐसा कोई भी शख्स जो अकादमिक दुनिया से वाकिफ है, बता सकता है कि बीता साल आनन्द के लिए बहुत आपा–धापी का साल रहा है। गोवा इन्स्टिट्यूट आफ मैनेजमेण्ट में ‘‘बिग डाटा एनालिटिक्स प्रोग्राम’’ शुरू करने की जिम्मेदारी के अलावा जहां इस विषय में पोस्टग्रेजुएट प्रोग्राम शुरू किया गया, जो मुल्क का पहला ऐसा पाठयक्रम है, वह दो किताबें पूरी करने में मुब्तिला था। ‘नवयान’ से ही प्रकाशित ‘‘रिपब्लिक आफ कास्ट: थिंकिंग इक्वालिटी इन द टाइम ऑफ निओलिबरल हिन्दुत्व’ की विद्वानों एवं प्रबुद्धजनों ने भूरि– भूरि प्रशंसा की थी। और दूसरी किताब थी ‘‘द रैडिकल इन अम्बेडकर (डा सूरज येंगडे के साथ सम्पादित, पेंग्विन रैण्डम हाउस) जिसमें दुनिया के अग्रणी विद्वानों के लेख शामिल थे।
कोई भी समझ सकता है कि एक बार सलाखों के पीछे भेजे जाने पर, जेल कर्मचारियों के लिए, आनन्द से जुड़ी यह तमाम बातें अर्थहीन होंगी। खाकी वर्दीधारी वे मुलाजिम इस बात को नहीं समझ सकते हैं कि किस तरह देश के एक अग्रणी जर्नल में आनन्द के काॅलम की प्रतीक्षा तमाम लोगाों को रहती है। उनके लिए आनन्द महज एक नम्बर होगा, जिसे जरूरत पड़ने पर बुलाया जा सकता है।
आज जब ऐसी सम्भावना प्रबल है कि निचली अदालत आनन्द को नियमित जमानत प्रदान न करे (जो इस केस में पहले भी हुआ है) हम फ्रेंच इतिहास के एक प्रसंग को याद कर सकते हैं जिसे ‘‘डेफू केस’’ के तौर पर याद किया जाता है।
वह 1890 का दशक था जब एक युवा यहूदी सैनिक अफसर डेफू (Dreyfus) को ‘देशद्रोह’ के आरोप में गिरफ्तार किया गया और सेन्ट हेलेना स्थित कुख्यात जेल भेज दिया गया। पुलिसवालों ने उसके खिलाफ इतना मजबूत केस तैयार किया था कि ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अब उसे सज़ा होकर ही रहेगी। इसे इत्तेफाक कह सकते हैं कि महान फ्रांसिसी लेखक एमिल जोला को इस घटनाक्रम का पता चला और उन्होंने वहां के अख़बारों में लेख लिखे – जिसका शीर्षक था ‘‘आई एक्यूज़’’ अर्थात ‘‘मैं आरोप लगाता हूं।’’ इन लेखों में उन्होंने डेफू की मासूमियत को लेकर और उसे किस तरह फंसाया गया इसके बारे में पर्दाफाश किया और फ्रेंच सरकार को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। देखते ही देखते देफू को रिहा करने की मुहिम ने इस कदर जोर पकड़ा कि सरकार को उसे रिहा करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
सवाल उठता है कि आज कौन तैयार है यह कहने के लिए – ‘आई एक्यूज़।’
(दि हिंदू से साभार)