वाल्टर एंडर्सन से बातचीत
कुछ ही लोग होंगे जो आरएसएस को वाल्टर के. एंडर्सन के जितना जानते हों, जिन्होंने पांच दशक से ज्यादा वक्त इस दक्षिणपंथी संगठन पर अध्ययन करने में बिताया है और श्रीधर दामले के साथ मिलकर एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है द आरएसएस: अ व्यू टु द इनसाइड। जॉन्स हॉपकिंस युनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ एडवांस्ड इंटरनेशनल स्टडीज़ में प्रोफेसर एंडर्सन ने आउटलक को दिए एक साक्षात्कार में आरएसएस की कार्यप्रणाली, उसके अतीत और भारतीय समाज व राजनीति पर उसके बढ़ते प्रभाव के ऊपर खुलकर बात की है। प्रस्तुत हैं बातचीत के कुछ अंश:
हाल में योरप के अपने दौरे पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने आरएसएस की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ की थी। उन्होंने यह भी कहा था कि संघ का एजेंडा देश में आइएसआइएस जैसी परिस्थिति निर्मित करने का खतरा पैदा कर रहा है। आपको यह तुलना क्या वाजिब जान पड़ती है?
मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि यह तुलना किस संदर्भ में की गई थी लेकिन आसन्न चुनावों के मद्देनज़र ऐसे आरोपों का एक महत्व है और ये एक राजनीतिक विमर्श को जन्म देते हैं। ऐसी चीज़ें वस्तुत: फसाद पैदा करने की संभावना रखती हैं। एक राजनीतिक बयान देने के लिहाज से ऐसे दावे अतिरंजित हैं- बिना तथ्य के दावे। चुनाव करीब आएंगे तो आप पाएंगे कि ऐसे अतिरंजित दावों में वृद्धि ही होगी। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक अंग बन चुका है। यह परिघटना धीरे-धीरे बढ़ ही रही है। भारत जैसे एक विविध देश में ऐसे दावे अस्थिरता पैदा कर सकते हैं। अमेरिका की राजनीति भी अब ऐसी ही हो गई है। इतना राजनीतिक ध्रुवीकरण पहले कभी नहीं देखा गया था।
क्या आपको लगता है कि आरएसएस पर लगातार हमले से कांग्रेस को कोई लाभ होगा?
मुझे नहीं लगता कि आरएसएस पर हमला करना सही राजनीति है। इसके उकसावे में आकर बीजेपी के चुनाव प्रचार अभियान में आरएसएस और जोरशोर से सहयोग करेगा। वैसे तो आरएसएस ने हमेशा ही बीजेपी की मदद की है, लेकिन उसकी संलग्नता के स्तर में इससे फर्क पड़ सकता है। अतीत में हमने देखा है कि जब-जब पार्टी के कामकाज को खतरा पहुंचा है, आरएसएस ने कहीं ज्यादा उत्साह के साथ बीजेपी का समर्थन किया है। ऐसा 2014 के चुनाव से पहले हुआ था और 1977 में इमरजेंसी के ठीक बाद हुआ, जब उसने जनता पार्टी के रूप में चुनाव लड़ा। दोनों ही मौकों पर आरएसएस चुनावों में पूरी तरह सक्रिय रहा। इसीलिए आरएसएस के खिलाफ भारी प्रचार उसे बीजेपी के पीछे अपनी पूरी ताकत झोंकने को प्रेरित कर सकता है। आज से पहले आरएसएस के मुद्दे पर कांग्रेस बहुत सतर्कता बरतती रही है। उसका व्यवहार आरएसएस के प्रति आज तक तकरीबन रूखा रहा है। मुझे अचरज होता है कि क्या इस व्यवहार में बदलाव लाना कोई रणनीतिक फैसला है। मैं निजी तौर पर इसमें कोई रणनीतिक मूल्य नहीं देख पाता हूं। क्या आपको लगता है कि कांग्रेस इस रणनीति को अपनाकर अधिसंख्य हिंदू आबादी को खुद से अलग-थलग करना चाहेगी? मैं नहीं जानता कि इससे हिंदू अलग-थलग होंगे या नहीं, लेकिन इस बात को मैं दोहराना चाहूंगा कि इसके चलते आरएसएस कहीं ज्यादा सक्रिय भूमिका में आ जाएगा। आरएसएस के नेताओं के साथ अपनी बातचीत के आधार पर जो जानकारी मुझे मिली है, वो यह है कि आरएसएस 2014 की तरह बीजेपी को चुनाव प्रचार में इस बार सहयोग देने के पक्ष में नहीं है लेकिन कांग्रेस अगर उस पर लगातार हमला करती रही तो यह रणनीति बदल सकती है।
राहुल आरएसएस पर जीएसटी और नोटबंदी का विचार लाने के आरोप भी लगाते हैं। यह आरोप भी लगाते हैं कि वित्त मंत्रालय को विश्वास में लिए बगैर यह काम सीधे प्रधानमंत्री से करवाए गए। क्या आपको लगता है कि संघ परिवार का सरकार के ऊपर इतना ज्यादा प्रभाव है?
आरएसएस के अनुषंगी संगठन भले नीतियों को प्रभावित करने का प्रयास करें लेकिन मैं यह नहीं मानता कि इनका जीएसटी या नोटबंदी के साथ कोई लेना देना होगा। यह समझने के लिए आपको विजयादशमी पर आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत के दिए भाषण को दोबारा सुनना चाहिए। हर साल विजयादशमी पर आरएसएस प्रमुख भाषण देते हैं जिसमें अगले वर्ष के लिए संघ के लक्ष्य और प्राथमिकताओं की रूपरेखा को गिनाया जाता है। आमतौर से यह भाषण सामान्य शब्दावली में ही होते हैं हालांकि सितंबर 2017 में दिया गया भागवत का संबोधन थोड़ा अलग था। यह एक नीतिगत भाषण था। यह नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों की आलोचना के साथ-साथ भारत के विकास से जुड़ी प्राथमिकताओं पर एक वक्तव्य भी था। भागवत जीएसटी को लेकर आलोचनात्मक थे और उन्होंने छोटे उद्योगों, व्यापारियों व स्वरोजगार में लगे लोगों को हो रही दिक्कतों का जिक्र किया था। भागवत ने किसानों की बदहाली का भी जिक्र किया था और न्यूनतम समर्थन मूल्य को अपनाए जाने की बात कही थी तथा फसल बीमा, मृदा परीक्षण और ई-विपणन जैसी मौजूदा योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन के बारे में कहा था। मैंने जॉन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में अपने एक सहयोगी को बगैर यह बताए हुए कि यह किसका भाषण है, भागवत का भाषण दिखाया था और उनसे उस पर राय मांगी थी। भाषण में मोदी सरकार की आलोचना और उस पर हमले को देखते हुए उन्हें लगा कि यह तो प्रधानमंत्री के किसी विपक्षी का भाषण होगा। जब मैंने उन्हें यह बताया कि मोहन भागवत ने ऐसा कहा है तो उन्हें काफी दिलचस्प लगा कि आरएसएस भी बीजेपी सरकार की इतनी आलोचना कर सकता है। इसीलिए जीएसटी पर राहुल के आरोपों का कोई मतलब नहीं बनता।
आपने आरएसएस के अनुषंगियों के नीतिगत मसलों में लिप्त होने का जिक्र किया था।
संघ के कोई 36 आनुषंगिक संगठन है। किसानों के हितों पर भारतीय किसान संघ बात करता है तो अमीर और गरीब के बीच में बढ़ती खाई व बढ़ते हुए उपभोक्तावाद पर भारतीय मजदूर संघ बात करता है. प्रधानमंत्री जब दावोस में थे कि भारत भूमंडलीकरण में अगुवा ताकत बन रहा है तभी स्वदेशी जागरण मंच ने एक आपत्ति दर्ज कराई थी। इसी तरह 16 अप्रैल 2018 को मुंबई में कारोबारी समुदाय के समक्ष दिए एक अन्य भाषण में भागवत में बीएमएस और एसजेएम जैसे अनुषंगी संगठनों के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाने का एक प्रस्ताव दिया थ। ऐसा करते हुए उन्होंने दावा किया था कि जीएसटी और नोटबंदी आर्थिक वृद्धि में बाधा पहुंचा रहे हैं तथा कमजोर तबकों को नुकसान पहुंचा रहे है।
आपको क्या लगता है कि संघ जब इस तरह के मुद्दे उठाता है तो वह कोई अच्छी बात है या फिर वह ऐसा कर के राजकाज में कोई बाधा पहुंचाता है?
ज्यादातर लोकतंत्रों में सवाल खड़े किए जाते हैं। आंतरिक बहसें होती हैं, चर्चाएं होती हैं। यह सब लंबी दौड़ में हमेशा मदद करते हैं। इसके अलावा आरएसएस का सूचनातंत्र बीजेपी के मुकाबले या कहें कुछ एजेंसियों के मुकाबले भी बहुत तगड़ा है। वे लोग जमीन पर काम करते हैं और उन मुद्दों को समझते हैं जिनसे लोग नाखुश हो रहे हैं। वह ऐसी स्थिति में हैं कि सरकार को बता सकें कि क्या काम कर रहा है और क्या नहीं। आरएसएस किसी भी चुनाव सर्वेक्षण एजेंसी से बेहतर है. 2014 के चुनाव से पहले आरएसएस ने एक आंतरिक सर्वेक्षण किया था यह तय करने के लिए प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर मोदी का चयन किया जाए अथवा नहीं। स्वयंसेवकों के बड़ी संख्या में मोदी को वोट देने के बाद ही आरएसएस ने उन्हें समर्थन देने का फैसला लिया।
क्या आपको लगता है कि राहुल गांधी जब आरएसएस पर सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप करने और ध्रुवीकरण पैदा करने का आरोप लगाते हैं तो वह गलत निशाना साध रहे होते हैं?
मैं एक बात पक्के तौर पर कह सकता हूं कि रोजगार और अर्थव्यवस्था सबसे बड़े मसले हैं। कांग्रेस को रणनीतिक रूप से इन पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए न कि आरएसएस को निशाना बनाना चाहिए। आरएसएस विरोधी रणनीति काम करने वाली नहीं है। नौकरियों का न होना सबसे बड़ा मुद्दा है। अमेरिका में भी उपचुनाव आ रहे हैं और वहां सबसे बड़ा मसला डोनाल्ड ट्रंप की नकारात्मक शख्सियत के साथ अर्थव्यवस्था का संकट होगा। यहां आपके पास ट्रंप की जगह आरएसएस है। भारतीय अर्थव्यवस्था भले 7.5 फ़ीसदी की वृद्धि दर से दुरुस्त चल रही हो लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी को और ज्यादा आक्रामक होना चाहिए था। उन्होंने व्यवस्था में पर्याप्त उथल-पुथल अभी नहीं मचाई है। सरकारी योजनाओं का लक्ष्य गरीब हैं और यह भारतीय संदर्भ में जरूरी भी है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में आयुष्मान भारत योजना और गैस सिलेंडर से जुड़ी उज्ज्वला योजना जैसी तमाम चीजें जरूरी हैं। भारत में बराबरी लाने के लिए ऐसी योजनाएं अनिवार्य हैं। मुझे नहीं लगता कि कोई भी सरकार इन चीजों के बगैर आगे बढ़ सकती है। हर सरकार को गरीबों का ख्याल रखना ही होगा।
हमेशा से एक धारणा यह रही है कि आरएसएस छद्म तरीके से काम करता है। क्या आपको लगता है कि जिस तरीके से पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और उद्योगपति रतन टाटा ने खुलेआम आरएसएस के साथ संलग्नता दिखाई है, वह इस धारणा में कुछ बदलाव ला पाएगा?
ऐतिहासिक रूप से देखें हैं तो RSS अपने काम का प्रचार करने में हमेशा से संकोच करता रहा है, फिर वह अच्छे काम ही क्यों ना हो जैसा कि अभी केरल की बाढ़ में वह राहत कार्य कर रहा है और पहले आंध्र प्रदेश में ही उसने ऐसा ही किया है, जहां लाशों को हटाने में उसने तब मदद की जब सामने कोई नहीं आया था। दरअसल आजादी के बाद जो कुछ भी हुआ, मसलन जब संगठन पर प्रतिबंध लगाया गया, उसके बाद से ही वह ज्यादा अंतर्मुखी हो गया और सार्वजनिक प्रचार से दूर रहने लगा।
अब हालांकि संगठन खुल रहा है और दूसरों से संवाद कर रहा है जो कि अच्छी बात है। जहां तक भागवत के साथ प्रणब मुखर्जी के मंच साझा करने का सवाल है, तो एक लोकतंत्र में इसे स्वस्थ कहा जाएगा। सियासी दड़बे बनाना और पाले खींचना अच्छी बात नहीं है। लोगों को एक दूसरे से बात करनी चाहिए वरना लोकतंत्र में दरार पड़ जाती है। पूर्व राष्ट्रपति ने जिस किस्म की सभ्यता और शिष्टता दिखलाई, उसे भारतीय राजनीति में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा था कि हमें एक दूसरे के प्रति सहिष्णु होना चाहिए। BJP को भी यह संदेश अपने भीतर आत्मसात करने की जरूरत है।
ज्यादा सहिष्णु होने के अलावा आरएसएस और बीजेपी के समक्ष आने वाले वर्षों में आपको और क्या चुनौतियां दिखाई पड़ती हैं?
पहली चुनौती तो यही है कि कैसे हिंदू धर्म के भीतर जातिगत अस्मिताओं और हिंदुत्व के भीतर जातिविहीन रुझान के बीच मौजूद तनाव से निपटा जाए। दूसरी चुनौती छद्म समूहों की कार्रवाइयों से निपटने की है और आखिर में भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के भीतर शहरी और ग्रामीण के विभाजन को संबोधित करने की है।
(साभार: आउटलुक )