१
‘सत्याग्रह के बावत हम गीता का आधार लेते हैं. कारण सत्याग्रह गीता का मुख्य प्रतिपादित विषय है. कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि बैठो मत. जिन कौरवों ने तुम्हारा राज्य हड़पा है, उनसे युद्ध करने को तैयार हो जाओ. तब अर्जुन ने प्रश्न किया, यह कैसा सत्याग्रह है? इस प्रश्न का जो उत्तर कृष्ण ने दिया, वही गीता है. गीता सत्याग्रह पर एक मीमांसा है. अछूत लोग सवर्णों से समान अधिकार पाने का जो आग्रह करते हैं, वह सत्याग्रह है.’(1)
ये पंक्तियाँ डा. आंबेडकर ने अपने पत्र ‘बहिष्कृत भारत’ के 25 नवम्बर 1927 के अंक में सम्पादकीय लेख में लिखी थीं. इन्हीं पंक्तियों के आधार पर आरएसएस यह प्रचार कर रहा है कि डा. आंबेडकर ने अपने सामाजिक संघर्ष की प्रेरणा भगवद्गीता से ली थी. एक और पक्ष देखिए :
‘यह दुखद है कि भारत के मुसलमानों में समाज-सुधार का ऐसा कोई संगठित आन्दोलन नहीं उभरा, जो इन बुराइयों का सफलतापूर्वक उन्मूलन कर सके. असल में मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते कि वे बुराइयाँ हैं. परिणामत: वे उनको खत्म करने के लिए सक्रिय भी नहीं रहते. इसके विपरीत वे अपनी प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं.’(2)
ये पंक्तियाँ डा. आंबेडकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘Pakistan Or The Partition Of India’ में लिखी हैं. इन्हीं पंक्तियों के आधार पर आरएसएस प्रचार कर रहा है कि डा. आंबेडकर मुस्लिम-विरोधी थे.
मंडल आन्दोलन के दौर में आरएसएस की ओर से लाखों की संख्या में एक पुस्तिका वितरित की गई थी, जिसका नाम ‘राष्ट्रपुरुष डा. भीमराव आंबेडकर’ है. उसने ऐसे कलेंडर भी प्रकाशित किए थे, जिनमें उनके ऊपर श्रीराम को दर्शाया कर यह सन्देश दिया गया कि वे श्रीराम के भक्त थे. इस सबका मकसद डा. आंबेडकर को हिंदुत्व से जोड़कर दलित समाज को हिंदूवादी बनाना है.
उसी दौर में आरएसएस की एक लेखमाला ‘डा. अम्बेडकर और इस्लाम’ नाम से ‘ब्लिट्ज’ में छपी थी, जिसके आधार पर 4 और 5 जून 1993 को हिंदी दैनिक ‘राष्ट्रीय सहारा’ में रामकृष्ण बजाज ने दो किश्तों में लेख लिखा था. उसमें उन्होंने अपने भ्रम का निवारण करते हुए लिखा था, ‘मेरा मानना था कि डा. आंबेडकर एक कटु हिन्दू विरोधी थे. इसी दलील के आधार पर हिन्दू विरोधी होने के कारण वह मुस्लिम-समर्थक थे. लेकिन अब मुझे विश्वास हो गया है कि मेरी समझ गलत थी.’ इसके बाद उन्होंने लिखा, ‘हिन्दूधर्म की जगह उन्हें कौन-सा धर्म अपनाना चाहिए, इसके लिए डा. आंबेडकर ने इस्लाम सहित संसार के सभी मुख्य धर्मों का गहरा अध्ययन किया था. अंत में उन्होंने और उनके अनुयायियों ने बौद्धधर्म अपनाया, जिसकी जड़ मूलत: वही थी, जहाँ से हिन्दूवाद का जन्म हुआ था.’
हाल में जागृति विहार, मेरठ से प्रकाशित आरएसएस के पाक्षिक पत्र ‘राष्ट्रदेव’ के 1 सितम्बर 2017 के अंक में ‘बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर’ शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया गया है, जिसमें डा. आंबेडकर को हिन्दूवादी ही नहीं, बल्कि ब्राह्मणवादी भी बना दिया गया है. आरएसएस ने इस लेख में अपने एजेंडे—गाय, श्रीराम और ब्राह्मण-भक्ति को डा. आंबेडकर के दिमाग में घुसेड़ दिया है. कुछ प्रसंगों का अनर्थ करके वह डा. आंबेडकर को उसी तरह ठिकाने लगा रहा है, जिस तरह उसने बुद्ध, कबीर और रैदास को लगाया गया है. आरएसएस के इस लेख पर एक नजर डालते हैं—
‘बाबासाहेब का परिवार अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति का था. इसमें तीन सन्यासी हो गए. दादा जी श्री मालोजीराव ने रामानन्द सम्प्रदाय से दीक्षा ली थी. पिता श्री रामजी ने कबीरपंथ की दीक्षा ली. कबीर के ही गुरु रामानंद थे. रामजी के बड़े भाई, यानी बाबासाहेब के ताऊ जी, भी सन्यास लेकर घर छोड़कर गए थे. बाबासाहेब ने भी पत्नी रमाबाई (आई साहेब) के देहांत के बाद, (1935) में कुछ दिन सन्यासियों वाली भगवा कफनी पहिन ली थी. बचपन में पिताजी के आग्रह के कारण भीमराव व भाई-बहिनों को भोजन से पहले हिन्दू संतों की रचनाएँ—दोहे, कविता, अभंग आदि कोई-न-कोई याद कर सुनानी पड़ती थी. बाबासाहेब कहते हैं , इसी कारण संत तुकाराम, मुक्तेश्वर, एक नाथ, कबीर आदि की रचनाएं मुझे कंठस्थ हुईं.’ (3)
आरएसएस अतीत के आधार पर वर्तमान को व्यक्त करने का काम करता है. यही उसका झूठ है, जो वह बड़ी कुशलता से खड़ा करता है. क्या संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति होगा, जिसमें बचपन से मृत्यु-पर्यन्त कोई परिवर्तन न आया होगा? क्या गाँधी वही व्यक्ति थे, जो वह बचपन में थे? बचपन में सभी में परिवार के संस्कार होते हैं. संस्कारों से विद्रोह या उनमें परिवर्तन परिस्थितियों और वातावरण के अनुसार होता है. इस्लाम के पैगम्बर हजरत मोहम्मद के बाप-दादे मूर्तिपूजक थे, तो क्या इस आधार पर मोहम्मद साहेब को मूर्तिपूजक कहा जा सकता है? आरएसएस के कितने ही समर्थक उसकी हिंदूवादी विचारधारा से विद्रोह करके बाहर आए. देशराज गोयल के बाद एक उदाहरण हिंदी के आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी का है. उन्होंने स्वीकार किया है कि वह आरएसएस में थे. गाँधी की हत्या के बाद जेल भी गए थे. पर राहुल सांकृत्यायन की ‘मानव समाज’ पुस्तक पढ़कर वह मार्क्सवादी बने. वह कहते हैं, ‘मैंने महसूस किया कि देश में और भी लोग हैं, जो देश से उतना ही प्रेम करते हैं, जितना हम करते हैं. और भी लोग हैं, जो अपने धर्म को इतना प्रेम करते हैं, जितना हम करते हैं. मैं गरीब घर का था. संघ हिन्दू संगठन है और वहाँ भी पैसे वालों का दबदबा था. जातपात, छुआछूत जैसी विसंगतियां देखने को मिलीं. इसी वर्गभेद की वजह से मैं वामपंथ की तरफ चला गया.’ (4) उन्होंने बड़े पते की बात कही है कि ‘मैं गरीब घर का था.’ बात भी सही है, गरीब परिवारों के लोग ही ज्यादा धर्म-धर्म करते हैं. आरएसएस की सैकड़ों संस्थाओं के लाखों कार्यकर्ता गरीब घरों से हैं, जो हिंदुत्व के लिए हर समय मरने-मारने को तैयार रहते हैं. वह उन्हें हिंदुत्व की अफीम खिला कर मुसलमानों और ईसाईयों के विरुद्ध हिंसा में इस्तेमाल करता है.
यहाँ तक बाबासाहेब डा. आंबेडकर के दादा जी श्री मालोजीराव का ब्राह्मण रामानंद सम्प्रदाय में दीक्षा लेने का प्रश्न है, और यह बताने का प्रश्न है कि रामानन्द कबीर के गुरु थे, तो दलित लेखकों के द्वारा इस धारणा का अकाट्य तर्कों और प्रमाणों से खंडन किया जा चुका है कि कबीर ब्राह्मण रामानन्द के शिष्य थे. कबीर ही नहीं, रैदास भी ब्राह्मण रामानन्द के शिष्य नहीं थे. कबीर और ब्राह्मण रामानन्द की विचारधारा में जमीन-आसमान का अंतर है. कबीर और रैदास दोनों ही वेदों के निंदक थे, जबकि ब्राह्मण रामानन्द का धर्म ही वेदधर्म था. कबीर ने तो घोषणा ही कर दी थी—‘ब्राह्मण गुरु जगत का, साध का गुरु नाहिं/ उरझि-पुरझि कर मरि रह्या चारो वेदा माहिं.’ (5) वेदों में उरझ-पुरझ कर मरने वाले एक कर्मकांडी ब्राह्मण को कबीर अपना गुरु क्यों बनायेंगे? लेकिन आरएसएस ब्राह्मण रामानन्द को कबीर का गुरु बताकर बाबासाहेब डा. आंबेडकर को भी उनके दादा जी के बहाने ब्राह्मण रामानन्द का शिष्य बनाने पर तुला हुआ है. दूसरी ओर वह यह भी स्थापित कर रहा है कि बाबासाहेब ब्राह्मणधर्म की वैष्णवी पृष्ठभूमि से आते हैं. हो सकता है आरएसएस ने कहीं पूर्वजन्म का यह सिद्धांत भी गढ़ लिया हो कि बाबासाहेब डा. आंबेडकर पूर्वजन्म के ब्राह्मण थे. ब्राह्मण इस तरह की गल्पें कबीर और रैदास के बारे में गढ़ ही चुके हैं. वे इस भ्रम में जीते हैं कि ज्ञान सिर्फ ब्राह्मण के पास ही होता है. और अगर कोई अब्राह्मण, खासकर कोई शूद्र ज्ञानी हो गया है, तो वह ब्राह्मण पृष्ठभूमि से ही हो सकता है. यही शर्मनाक खेल आरएसएस डा. आंबेडकर के साथ खेल रहा है. इस खेल के पीछे उसकी भावना सिर्फ दलित समुदाय को हिंदुत्व से जोड़े रखना मात्र है. चूँकि डा. आंबेडकर दलित जातियों के नायक हैं, इसलिए उनके नायक को हिन्दू बनाना उनके मिशन का एजेंडा है. लेकिन डा. आंबेडकर और दलितों के विरुद्ध यह एक बड़ी खतरनाक साजिश भी है.
आरएसएस ने बाबासाहेब के दादा जी को ब्राह्मणवादी बना दिया है, जो वह नहीं थे, परन्तु उसने यह नहीं लिखा है कि तत्कालीन सवर्ण समाज उन्हें हिन्दू मानता भी था? उनके पिता रामजी के समय में क्या सामाजिक स्थिति थी, इस पर भी उसने कोई टिप्पणी नहीं की है. बाबासाहेब डा. आंबेडकर के प्रामाणिक जीवनी लेखक चांगदेव भवानराव खैरमोडे ने, जिन्होंने उनके साथ अंतिम समय तक काम किया था, उस समय की परिस्थति पर इस प्रकार प्रकाश डाला है—
‘उस समय रामजी सूबेदार पर हिन्दू संस्कारों का बड़ा प्रभाव था. हिन्दू संस्कारों के प्रति उनके मन में बड़ी आस्था और श्रद्धा थी. हिन्दू धर्म के असली रूप और उसके परिणामों को जानने-समझने के लिए उनके पास समय ही कहाँ था? उस समय दलित समाज की स्थिति पूरी तरह गतिहीन और लाचार थी. अधर्म भी उनके लिए धर्म था. दलित तो अपने आप को हिन्दू समझता था, किन्तु सवर्ण लोग उन्हें हिन्दू समझने के लिए तैयार नहीं थे.’ (6)
इससे स्पष्ट समझा जा सकता है कि दलितों के लिए उन्नीसवीं शताब्दी का दौर धर्म और अधर्म के अंतर को समझने का नहीं था. अशिक्षा के उस दौर में जैसा ब्राह्मण समझाते थे, बस वही उनके लिए धर्म होता था. और यह अच्छी तरह समझा जा सकता है कि ब्राह्मणों ने उन्हें क्या समझाया होगा? उन्होंने दलितों को स्वतंत्रता, समानता और समान मानव-अधिकारों का पाठ तो पढ़ाया नहीं होगा. उन्होंने उन्हें ब्राह्मण-भक्ति का ज्ञान ही समझाया होगा. इस ब्राह्मणवाद के निहितार्थ को समझने का उनके पास कोई विज्ञान नहीं था. खैरमोडे ने सही कहा है कि ‘उस समय दलित समाज की स्थिति पूरी तरह गतिहीन और लाचार थी.’ और ‘अधर्म ही उनके लिए धर्म था.’ उसी अधर्म को, जिसमें रामजी हिन्दू संतों की रचनाएँ गुनगुनाते रहते थे, आरएसएस उसे धर्म बता रहा है, और कह रहा है कि उसी ने बाबासाहेब के मनुष्य का गठन किया था. अगर उन अभंगों ने उनके व्यक्तित्व का गठन किया भी था, तो एक ब्राह्मणवादी हिन्दू के रूप में नहीं, बल्कि उसके विरोध में उन अभंगों ने बाबासाहेब के ज्ञानचक्षु खोले थे.
कटु सत्य यह है कि बाबासाहेब को धर्म और अधर्मं की पहिचान बुद्ध के दर्शन से हुई थी. स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का ज्ञान उन्हें बुद्ध से प्राप्त हुआ था. इस सम्बन्ध में उन्होंने स्वयं स्पष्ट करते हुए कहा था कि वे गीता के दर्शन को नकारते हैं. यह उन्होंने 3 अक्टूबर 1954 को आकाशवाणी से प्रसारित एक वार्ता में कहा था. उन्होंने कहा था–
‘प्रत्येक व्यक्ति का एक जीवन-दर्शन होता है, क्योंकि हरेक व्यक्ति का अपने को जीने का एक तरीका होता है, और इसी का नाम दर्शन है.
‘मैं स्पष्ट रूप से भगवद्गीता में वर्णित हिन्दू समाज-दर्शन को अस्वीकार करता हूँ, क्योंकि यह उस सांख्य-दर्शन के त्रिगुण पर आधारित है, जो मेरे विचार में कपिल-दर्शन का एक क्रूर विकृतीकरण है और जिसने हिन्दू सामाजिक जीवन के कानून के रूप में जातिप्रथा और श्रेणीकृत असमानता के सिद्धांत की रचना की है.’(7)
डा. आंबेडकर के इस कथन से आरएसएस के इस मिथ्या प्रचार का स्वत: ही खंडन हो जाता है कि उन्होंने गीता से प्रेरणा ली थी. उनके पिता को चाहे कितने ही संतों के सबद याद हों, पर सीधी बात यह है कि उनका जीवन-दर्शन स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता का था, और ये तीनों शब्द हिन्दूधर्म के किसी भी शास्त्र और किसी भी संत-वाणी में नहीं मिलते हैं. अत: जब ये तीनों शब्द हिन्दूधर्म के हैं ही नहीं, फिर वे हिंदुत्व से प्रभावित कैसे हो सकते हैं? ये तीनों शब्द उनके जीवन-दर्शन में कहाँ से आये? इस सम्बन्ध में उन्होंने उसी आकाशवाणी-वार्ता में इस प्रकार स्पष्ट किया है—
‘सकारात्मक रूप से मेरे सामाजिक दर्शन को तीन शब्दों में रखा जा सकता है—स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता. किन्तु कोई भी यह न समझे कि ये मैंने फ़्रांस की क्रान्ति से लिए हैं. मैंने इन्हें वहां से नहीं लिया है. मैंने इन्हें अपने गुरु बुद्ध की शिक्षाओं से ग्रहण किया है. मेरा दर्शन एक मिशन है. मुझे गीता के त्रिगुण सिद्धांत के विरुद्ध धर्मांतरण के लिए काम करना है. आजकल भारतीय दो भिन्न विचारधाराओं से शासित हैं. उनकी राजनैतिक विचारधारा संविधान में दी गई प्रस्तावना में निहित स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता के जीवन की है. पर, उनकी सामाजिक विचारधारा हिन्दूधर्म पर आधारित है, जो स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता को अस्वीकार करती है.’(8)
इसमें संदेह नहीं कि बाबासाहेब परिवार धार्मिक था, जैसा कि प्राय: सभी गरीब परिवार होते हैं. धार्मिक परिवारों में पूजापाठ और अंधविश्वास सामान्य बात है. बाबासाहेब का लालन-पालन भी ऐसे ही धार्मिक वातावरण में हुआ था. इसके बावजूद पूजापाठ के अंधविश्वास में उनका मन न रमता था. उनके पिता रामजी सूबेदार ने कबीरपंथ की दीक्षा ली थी. कबीरपंथ में यह कड़ा नियम है कि उसमें शराब और मांस वर्जित है. रामजी ने भी कबीरपंथी बनकर शराब और मांस का सेवन त्याग दिया था. चांगदेव लिखते हैं कि ‘कबीरपंथ की दीक्षा लेने के बाद घर का वातावरण पूरी तरह बदल गया था. उनको (रामजी को) छोड़कर घर के अन्य लोग मांसाहार करते थे. अब उनके घर में दो चूल्हे जलते थे. जिस दिन घर में मांस पकता था, उस दिन मांस पकाने वाला चूल्हा अलग होता था और शाकाहार वाला चूल्हा अलग जलता था. भक्ति, भजन और पूजा के कारण उनके घर का माहौल कैसे बना हुआ था, इसके बारे में डा. आंबेडकर स्वयं कहते हैं—
‘हमारा परिवार गरीब था. फिर भी उसके कारण घर का वातावरण स्पष्ट रूप से पढ़े-लिखे परिवार के योग्य ही था. हम लोगों में पढ़ने की अभिरुचि पैदा हो, हमारा चरित्र अच्छा बने, इसके लिए हमारे पिता बहुत ही सावधानी बरतते थे. वे हम लोगों को भोजन के लिए बैठने से पहले पूजा-स्थान में बिठाकर भजन, अभंग, दोहे आदि कहने लगते थे. हम सभी में से मैं हमेशा ही टालमटोल करता था….हमारे पिता जी को सारा का सारा पाठ पूरी तरह कंठस्थ था. वे बिना रुके अभंग के बाद अभंग कह सकते थे. पिताजी के पाठान्तर का हमारे लिए बड़ा आकर्षण था. उसी प्रकार मेरी बहिनें अपने मधुर गले से जब अभंग गाती थीं, तब मुझे भी ऐसा लगता था कि धर्म और धार्मिक शिक्षा मनुष्य के जीवन के लिए जरूरी है. …पिताजी द्वारा कंठस्थ ज्ञान के कारण मुझे मुक्तेश्वर, तुकाराम आदि संत कवियों के काव्य याद हो गए हैं. केवल इतना ही नहीं, मैं उन काव्यों के बारे में मन में सोचने लगा हूँ. मराठी संत कवियों का गहरा अभ्यास करने वाले मेरे जैसे बहुत ही कम लोग होंगे,’(9)
हिन्दू संतों के इसी विशद अध्ययन के बल पर डा. आंबेडकर ने गांधीजी को उत्तर दिया था कि—
‘किसी भी हिन्दू संत ने जातिव्यवस्था पर कभी भी हमला नहीं किया. इसके विपरीत वे जातिव्यवस्था में पक्के विश्वास करने वाले रहे हैं. वे उसी जाति के होकर जिए और मरे, जिसमें पैदा हुए थे. ज्ञानदेव ब्राह्मण के रूप में अपनी प्रतिष्ठा से इतने उत्कट रूप से जुड़े हुए थे कि जब ब्राह्मणों ने उन्हें समाज में बने रहने से इनकार कर दिया, तो उन्होंने ब्राह्मण पद की मान्यता पाने के लिए जमीन-आसमान एक कर दिया था. संत एकनाथ अछूतों को छूने और उनके साथ भोजन करने का साहस इसलिए करते थे, क्योंकि वे मानते थे कि इस पाप को गंगा में स्नान करके धोया जा सकता है. मेरे विचार में किसी भी हिन्दू संत ने छुआछूत के खिलाफ अभियान नहीं चलाया.’(10)
यह उद्धरण इसलिए दिया गया, ताकि आरएसएस के इस दूषित विचार का खंडन किया जा सके कि बाबासाहेब को अगर हिन्दू संतों के पद याद थे, तो इसका यह मतलब कदाचित नहीं है कि उनसे उन्हें जातिवाद के विरुद्ध लड़ने की कोई प्रेरणा मिली हो. इसके विपरीत वे उन पदों के आधार पर ही इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि सारे हिन्दू संत जातिवादी थे.
‘राष्ट्रोदय’ में प्रकाशित ‘बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर’ लेख में आरएसएस ने आगे लिखा है—
‘1913 में बड़ौदा महाराज सयाजीराव गायकवाड़ से प्राप्त छात्रवृत्ति के साथ भीमराव कोलम्बिया विश्वविद्यालय में पढ़ने गए. न्यूयार्क स्थित इस विश्वविद्यालय को उन्होंने इसलिए छोड़ा कि वहाँ के भोजन में गोमांस रहता था. बाबासाहेब के नाम पर संस्था बनाकर ‘बीफ फेस्टिवल’ करने वाले लोग उनके प्रति निकृष्ट द्रोह करते हैं.’(11)
इस घटना का उल्लेख करने के पीछे आरएसएस का निहितार्थ सिर्फ यह दिखाना है कि डा. आंबेडकर आरएसएस की तरह ही गोभक्त थे. इस घटना का सही वर्णन चांगदेव भवानराव खैरमोडे ने इस तरह किया है—
‘उन्होंने यूनिवर्सिटी के छात्रावास ‘हार्टले हाल’ में पहला एक सप्ताह गुजारा. लेकिन वहां का भोजन आमतौर पर गाय के मांस का बना होता था और वह भी अच्छी तरह पकाया हुआ नहीं होता था. वहां का भोजन भीमराव को पसंद नहीं आया. इसलिए उन्होंने ‘हार्टले हाल’ छोड़ दिया.’ (12)
खैरमोडे ने यह उद्धरण डा. आंबेडकर के 4 अगस्त 1913 को शिवनाक गौनाक जमेदार को भी लिखे गए पत्र से दिया है. यह पत्र अंग्रेजी में है, जिसमें ये पंक्तियाँ हैं—‘I don’t like the food and I don’t think I will, as majority of the dishes are ill-cooked and of beef.’ इससे यह पता चलता है कि बाबासाहेब एक सप्ताह तक ‘हार्टले हाल’ छात्रावास में बीफ खाते रहे थे. बीफ का मतलब सिर्फ गोमांस नहीं होता है. उसमें भैंस और भैंसे का भी मांस भी शामिल होता है. इससे कहीं भी यह साबित नहीं होता है कि उन्होंने बीफ इसलिए छोड़ा था कि वे गोभक्त थे, बल्कि इसलिए छोड़ा था, क्योंकि वह खराब तरीके से पकाया जाता था, इसलिए बाबासाहेब डा. आंबेडकर को गोभक्त बनाने की आरएसएस की साजिश से दलितों को सावधान रहने की जरूरत है.
२
‘मूकनायक’ का पहला अंक 31 जनवरी 1920 को निकला था. उसके मुखपृष्ठ पर तुकाराम का यह अभंग छापा गया था—
‘काय करूं आता धरुनिया भीड.
नि:शंक हे तोंड वाजविले.
नव्हे जगी कोणी मुकियांचा जाण.
सार्थक लाजून नव्हे हित.’
इसका अर्थ है— ‘अब मैं संकोच करके क्या करूं. मुझे अपना मुंह खोलने के लिए विवश किया गया है. इस संसार में जो अबोल (मूक) हैं, उनकी ओर से बोलने वाला कोई नहीं है. यह जानकार भी संकोच करने में कौन सी भलाई है?’ (13)
डा. आंबेडकर ने अनेक संतों की वाणी में से संत तुकाराम के अभंग को चुना था, जो ‘मूक नायक’ की पत्रकारिता के अनुकूल था. इस अभंग में मूक लोगों के दर्द को अभिव्यक्ति देने की बात कही गई है. यह अभंग हिन्दुओं का उत्पीड़न झेल रहे अछूतों के बारे में है, जिनकी मुक्ति के लिए आवाज उठाने वाला कोई नहीं था.
आगे आरएसएस ने बाबासाहेब डा. आंबेडकर को मन्दिर-प्रवेश अभियान से जोड़ते हुए लिखा है—
‘बाबासाहेब ने मन्दिरों में प्रवेश के लिए कई सत्याग्रह चलाए. इसमें अमरावती का अम्बादेवी मन्दिर सत्याग्रह, पूना का पार्वती मन्दिर सत्याग्रह तथा नासिक का कालाराम मन्दिर सत्याग्रह प्रमुख हैं. उस समय का उनका सोच यह था जो अम्बादेवी मन्दिर सत्याग्रह के समय व्यक्त हुआ (अगस्त 1927) – ‘हिंदुत्व पर जितना स्पृश्यों का अधिकार है, उतना ही अस्पृश्यों का भी है. हिंदुत्व की प्रतिष्ठा जितनी वशिष्ठ जैसे ब्राह्मणों, कृष्ण जैसे क्षत्रिय, हर्ष जैसे वैश्य, तुकाराम जैसे शूद्र ने की, उतनी ही वाल्मीकि, चोखामेला व रविदास जैसे अस्पृश्यों ने भी की है. हिंदुत्व की रक्षा करने के लिए हजारों अस्पृश्यों ने अपना जीवन दिया है. व्याध-गीता के अस्पृश्य दृष्टा से लेकर खडं की लड़ाई (इस युद्ध में राजाराम के सेनापति परशुराम भाऊ को मुगलों की गिरफ्त से छुड़ाया गया था) के सिदनाक जैसे अस्पृश्यों ने हिंदुत्व के संरक्षण के लिए अपना सर हथेली पर रखा. उनकी संख्या कम नहीं है. जिस हिंदुत्व को स्पृश्य व अस्पृश्यों ने मिलकर बढ़ाया और उस पर संकट आने पर अपने जीवन की परवाह न करते हुए उसकी रक्षा की. हिंदुत्व के नाम पर खड़े किए गए मन्दिर जितने स्पृश्यों के हैं, उतने ही अस्पृश्यों के भी हैं.’ (14)
निस्संदेह हिन्दू धर्म को जिन्दा रखने वाले शूद्र और अस्पृश्य वर्ग ही हैं. आज भी हिंदुत्व के लिए इन्हीं वर्गों को खून बहाते हुए देखा जाता है. सारे हिन्दू संस्कारों, आडम्बरों, रीतिरिवाजों और त्यौहारों को यही वर्ग अपने कन्धों पर ढो रहे हैं. होली, दिवाली, दशहरा, रामलीला, कृष्णलीला, नवरात (दुर्गा पूजा) सब इन्हीं के बल पर अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं. जबकि, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ग इन पर शासन करने वाला, हिंदुत्व का व्यापार करने वाला और उससे सर्वाधिक लाभ उठाने वाला वर्ग है. इसलिए इस बात में भी संदेह नहीं होना चाहिए कि जिस दिन शूद्र और अस्पृश्य वर्गों के कन्धों से हिंदुत्व का जुआ उतर जायेगा, तो सारे हिन्दू मन्दिर और व्यापार गधे के सर से सींग की तरह गायब हो जायेंगे. यही डर है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों मिलकर शूद्रों और अस्पृश्यों (पिछड़ी और दलित जातियों) को सत्ता बल से, धन बल से और राजनीति-बल से अनपढ़ और गरीब बनाकर रखे हुए हैं, ताकि वे आजीवन शासक बने रहें.
डा. आंबेडकर ने कुछ भी गलत नहीं कहा था. देवताओं की मूर्तियाँ बनाने वाले वे, मन्दिरों का निर्माण करने वाले वे, उनकी रक्षा करने वाले वे, यानी शूद्र और अस्पृश्य ! किन्तु मन्दिरों में प्रवेश करने वाले हिन्दू, उनकी कमाई खाने वाले हिन्दू और उनके नाम पर उन्माद भड़काने वाले हिन्दू, यानी द्विज ! डा. आंबेडकर ने बिल्कुल सही कहा था कि ‘हिंदुत्व की रक्षा करने के लिए हजारों अस्पृश्यों ने अपना जीवन दिया है.’ परन्तु उन्होंने यह सवाल भी उठाया था कि हिंदुत्व की रक्षा करके अस्पृश्यों को क्या मिला? हिंदुत्व ने उनके लिए क्या किया? क्या उन्हें सभ्यता का प्रकाश दिया? क्या उन्हें मनुष्य के बराबर दर्जा दिया? आरएसएस महाराणाप्रताप को हिंदुत्व का नायक मानता है. पर क्या उसने कभी उन लाखों खानाबदोश वीरों की चिंता की, जो राणाप्रताप के साथ जंगलों में घास की रोटी खाते हुए जीते थे, और जिन्होंने मरते दम तक राणाप्रताप का साथ दिया था. आज उनके वंशज किस बुरी हालत में दर-दर भटकते हैं, उस हिंदुत्व ने उनके लिए क्या किया, जिसके लिए उनके पूर्वजों ने अपना जीवन दिया? आरएसएस ने कभी उनकी कोई सुध ली? उनका पुनर्वास किया? उनकी शिक्षा का प्रबंध किया? उत्तर है, हिंदुत्व के ठेकेदार आरएसएस ने कुछ नहीं किया. वह यह कहकर तो दलित वर्गों पर प्रभाव डालता है कि उन्होंने हिंदुत्व की रक्षा के लिए यह किया है, वह किया है, पर वह यह क्यों नहीं बताता कि उसने दलितों के विकास के लिए क्या किया है, और जातिप्रथा के विनाश के लिए क्या किया है? डा. आंबेडकर ने अपने निबन्ध ‘Untouchability And Lawlessness’ में लिखा है, कि ‘हिन्दू समझते हैं कि दलित जातियां उनकी सेवा के लिए पैदा की गयी हैं.’ (15)
वे एक अन्य निबन्ध ‘Civilization or Felony’ में लिखते हैं कि हिन्दू कहते हैं कि उनकी सभ्यता दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता है, तो इस सबसे पुरानी हिन्दू सभ्यता ने भारत की जरायमपेशा जातियों, आदिम जन जातियों और अछूत जातियों को क्या दिया है? क्या उन्हें समानता का अधिकार और सभ्यता का प्रकाश दिया है?’ (16) यही प्रश्न आज आरएसएस से पूछा जाना चाहिए कि वह इन अस्पृश्यों को किस आधार पर हिन्दू मानता है, जबकि उसने इनके लिए कुछ किया ही नहीं है? हकीकत में इन जातियों का जो भी थोड़ा सा विकास हुआ है, वह डा. आंबेडकर के प्रयासों से लागू कराए गए आरक्षण के कानून से हुआ है, जिसे भी आरएसएस समाप्त करने की बयानबाजी करता रहता है.
आरएसएस ने दलितों को हिंदुत्व से जोड़ने के लिए एक और प्रसंग का सहारा लिया है. उसने लिखा है—
‘बाबासाहेब को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विषय में पूरी जानकारी थी. हिंदूधर्म छोड़ने की उनकी घोषणा के बाद 1936 के मकर संक्रांति उत्सव (पुणे, 13 जनवरी 1936) में संघ संस्थापक डा. हेडगेवार के अनुरोध पर वे कार्यक्रम में अध्यक्षता हेतु आए. कार्यक्रम समाप्त होने के बाद उपस्थित स्वयंसेवकों के बीच घूम-घूमकर उन्होंने प्रत्यक्ष जानकारी की कि संघ में लगभग 15 प्रतिशत कथित अछूत समुदायों से हैं. वे अपने व्यवसाय के निमित्त दापोली गए और वहां शाखा पर जाकर स्वयंसेवकों से खुले मन से बातचीत की.’ (17)
इसके बाद वह लिखता है—
‘संघ के जातिविहीन समरस समाज बनाने के प्रयत्न बाबासाहेब को प्रभावित करते थे.
‘जब नेहरु ने महात्मा गाँधी के हत्याकांड में वीर सावरकर और गोलवलकर (श्री गुरु जी) को गिरफ्तार किया, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर प्रतिबन्ध लगाया, तब बाबासाहेब ने, जो तत्कालीन कानून मंत्री थे, विरोध जताया था. संघ पर से प्रतिबन्ध हटवाने की उन्होंने कोशिश की, जिसके लिए संघ प्रमुख श्री गोलवलकर ने सितम्बर 1949 में उनसे मिलकर धन्यवाद दिया था. यह भी स्मरणीय है कि 1952 में मुंबई से लोकसभा के चुनाव तथा 1954 में भंडारा से लोकसभा के उपचुनाव में बाबासाहेब शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के प्रत्याशी थे, तब संघ के कार्यकर्ताओं व अन्य हिन्दुत्ववादी दलों ने बाबासाहेब का समर्थन किया था.’ (18)
अगर यह सच होता, तो डा. आंबेडकर चुनाव क्यों हारते? डा. बृजलाल वर्मा ने, जो आरएसएस की विचारधारा के लेखक हैं, लिखा है कि डा. आंबेडकर इसलिए हारे थे, क्योंकि उन्होंने मुसलमानों का पक्ष लिया था और कश्मीर के विभाजन की बात कही थी. (19)
इससे स्पष्ट समझा जा सकता है कि आरएसएस कितना बड़ा झूठ बोल रहा है. क्या कोई यकीन करेगा कि आरएसएस और हिन्दुत्ववादी दलों ने चुनावों में उन डा. आंबेडकर का समर्थन किया होगा, जिन्होंने मुसलमानों के पक्ष की बात कही हो और कश्मीर के विभाजन को सही ठहराया हो? सच यह है कि यही आरएसएस और अन्य हिन्दुत्ववादी दल उन दिनों डा. आंबेडकर के हिन्दू कोड बिल पर उन्हें हिन्दूधर्म का शत्रु कहकर उनके खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे और उनके पुतले जला रहे थे. रामचन्द्र गुहा ने अपने एक लेख ‘Which Ambedkar’ में ठीक ही सवाल उठाया है कि आरएसएस जो जयजयकार आज आंबेडकर की कर रहा है, वह जयजयकार उनके जीवनकाल में उसने क्यों नहीं की थी? ख़ास तौर से उस वक्त, जब डा. आंबेडकर संविधान का निर्माण कर रहे थे और हिन्दू स्त्रियों को अधिकार देने के लिए हिन्दू पर्सनल लॉ बना रहे थे, तो आरएसएस ने उनके इन दोनों ही कार्यों का विरोध किया था. उस समय आरएसएस के मुखपत्र ‘The Organiser’ के 30 नवम्बर 1949 के अंक में, संविधान के ड्राफ्ट पर, जिसे डा. आंबेडकर ने संविधान सभा को सौंपा था, जो सम्पादकीय लिखा गया था, उसमें कहा गया था— ‘भारत के नए संविधान के बारे में सबसे खराब बात यह है कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे भारतीय कहा जाए. इसमें न भारतीय कानून हैं, न भारतीय संस्थाएं हैं, न शब्दावली और पदावली है. इसमें प्राचीन भारत के अद्वितीय कानूनों के विकास का भी उल्लेख नहीं है, जैसे मनु के कानूनों का, जो स्पार्टा के लाइकुर्गुस या पर्शिया के सोलोन से भी बहुत पहले लिखे गए थे. आज मनुस्मृति के कानून दुनिया को प्रेरित करते हैं. किन्तु हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उनका कोई अर्थ नहीं है.’ (20) इसी लेख में गुहा और भी बताते हैं कि आरएसएस ने आंबेडकर को हिन्दू-विरोधी बताते हुए उनके द्वारा किये गए हिन्दू विवाह सुधारों के खिलाफ महीनों तक आन्दोलन चलाया था. सवाल है कि आरएसएस के लिए जो आंबेडकर 1949 से 1952 तक हिन्दू-विरोधी थे, वे चुनाव में उनका समर्थन कैसे कर सकते थे? फिर आज वह उसकी नजर में हिन्दू समर्थक, गोभक्त और भगवा-प्रेमी कैसे हो गए? क्या वह दलितों की आँखों में धूल नहीं झोंक रहा है?
आरएसएस ने आगे लिखा है—
‘बाबासाहेब ने जुलाई 1947 में संविधान सभा की झंडा समिति की बैठक में भगवाध्वज को राष्ट्रध्वज घोषित करने की चर्चा की थी. इसके अलावा उन्होंने संस्कृत भाषा को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव 11 सितम्बर 1949 को 13 अन्य सदस्यों को साथ लेकर प्रस्तुत किया और इस मामले पर पश्चिम बंगाल से चुने गए एक सदस्य लक्ष्मीकान्त मैत्र के साथ संस्कृत में वार्तालाप कर संविधान सभा के सदस्यों को चकित कर दिया था. यद्यपि दोनों ही मामलों में बाबासाहेब अपनी बात मनवा नहीं सके, पर उनकी सोच जगजाहिर हुई.’(21)
इसमें दो बातें कही गई हैं, एक भगवा ध्वज की, और दूसरी संस्कृत की. पहली बात में झूठ का तत्व शामिल है, और दूसरी बात पूरी तरह सच है. पहली बात में भगवा शब्द आरएसएस का अपना गढ़ा हुआ है. बाबासाहेब ने राष्ट्रध्वज में केसरिया अर्थात काषाय रंग और अशोक चक्र का समर्थन किया था, जिनका सम्बन्ध बौद्धधर्म से है. संस्कृत के सम्बन्ध में प्रमाण मिलता है कि भारत के विधि मंत्री के रूप में डा. आंबेडकर उन लोगों में थे, जिन्होंने संस्कृत को भारत संघ की राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था. इस प्रस्ताव पर पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने पीटीआई के संवाददाता को कहा था, ‘What is wrong with Sanskrit?’ (इसमें गलत क्या है?) (22)
इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि संस्कृत का प्रस्ताव रखने के पीछे बाबासाहेब डा. आंबेडकर का उद्देश्य राष्ट्रवादी हिन्दू नेताओं को, जो संस्कृत को भारतीय अस्मिता से जोड़ते थे, उनके छद्म का आईना दिखाना था. वे जानते थे कि ब्राह्मण कभी भी संस्कृत को जन-जन की भाषा नहीं बनने देंगे, क्योंकि ऐसा करने से उनके सारे रहस्य पर्दे से बाहर आ जायेंगे. और यही हुआ, ब्राहमणों ने संस्कृत को राजभाषा बनाने के प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया.
आरएसएस ने अपने संदर्भित लेख में जिन दो बातों का जोर देकर जिक्र किया है, उनमें एक बात भगवद्गीता पर बाबासाहेब की आस्था के सम्बन्ध है. इस विषय पर के. सुब्रामणियम की एक टिप्पणी देख ली जाये, जो ‘फ्री प्रेस इंडिया’ के 7 दिसम्बर 1944 के अंक में प्रकाशित हुई थी. इसमें उन्होंने लिखा था— ‘गीता पर डा. आंबेडकर का विष-वमन किसी को भी आश्चर्य में डाल सकता है. डाक्टर (आंबेडकर) ने गीता के अध्ययन में 15 वर्ष खर्च किए हैं और यह चकित कर देने वाली खोज की है कि इस किताब का लेखक या तो पागल आदमी था या फिर मूर्ख था.’ (23) यह मूर्ख लेखक दलितों के उत्थान के कार्य में डा. आंबेडकर की क्या सहायता कर सकता था?
आरएसएस ने दूसरा जोर इस बात पर दिया है कि डा. आंबेडकर ने मुसलमानों को न सुधरने वाली कौम कहा था. उनकी पाकिस्तान पर लिखी जिस किताब के हवाले से वह उन्हें मुस्लिम विरोधी बताता है, (जिसका एक उद्धरण इस लेख के आरम्भ में दिया गया है), उसी किताब में वे आगे क्या लिखते हैं, उस पर आरएसएस कोई चर्चा नहीं करता है. वे मुसलमानों में सुधार-भावना न होने का कारण हिंदुत्व को ही बताते हैं. वे लिखते हैं, ‘भारत से बाहर, तुर्की जैसे अनेक मुस्लिम देशों में क्रांतिकारी स्वरूप के सुधार हुए हैं. जब इन देशों के मुसलमानों के मार्ग में इस्लाम बाधक नहीं बना, तो वह भारत के मुसलमानों के मार्ग में बाधक क्यों बना हुआ है?’ वे जवाब देते हैं, ‘इसका सामाजिक कारण मुझे यह दिखाई देता है कि यहाँ मुसलमान एक ऐसे हिन्दू वातावरण में रहते हैं, जो धीरे-धीरे खामोशी से उन पर हावी होता जा रहा है. इसे वे अपने इस्लामीकरण के लिए खतरा महसूस करते हैं. इसलिए वे अपने इस्लामीकरण को सुरक्षित रखने के लिए हर वह चीज करते हैं, जो इस्लामिक है.’ इसका दूसरा कारण वे यह बताते हैं कि ‘भारत में मुसलमान हिन्दू-प्रभुत्व वाले राजनीतिक वातावरण में रहते हैं. यह वातावरण उन्हें हमेशा यह अनुभव कराता है कि हिन्दू उनका दमन करके उन्हें दलित वर्ग बना देंगे. यही वह चेतना है, जो उन्हें हिन्दू समाज और राजनीति में विलीन होने से बचाने के लिए सतत जागरूक रखती है. यही चेतना उन्हें, मेरे विचार में, अन्य देशों के मुस्लिमों की तुलना में अधिक पिछड़ा बनाए हुए है. मुझे लगता है कि उनकी सारी शक्ति सीटों और पदों के लिए, दूसरे शब्दों में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए हिन्दुओं के विरुद्ध संघर्ष करने में ही लगी रहती है, इसलिए उनके पास सुधारों के लिए समय ही नहीं है.’ (24)
इसी वक्त यह भी देख लिया जाय कि आरएसएस जिस हिंदुत्व से डा. आंबेडकर को जोड़ रहा है, उसके बारे में उन्होंने क्या कहा है? उन्होंने सीधे-सीधे आरएसएस जैसे हिन्दुत्ववादियों से प्रश्न किया है—
क्या हिन्दू धर्म समानता का दर्शन है?
क्या हिन्दू धर्म स्वतंत्रता का दर्शन है?’
क्या हिन्दू धर्म भ्रातृत्व का दर्शन है?
इन तीनों प्रश्नों के उत्तर आरएसएस के पास नहीं हैं. इसलिए डा. आंबेडकर इन प्रश्नों के संदर्भ में कहते हैं—
‘हिन्दूधर्म के दर्शन को मानवता का धर्म-दर्शन नहीं कहा जा सकता. बाल्फोर के शब्दों में अगर कहूँ, तो हिन्दूधर्म सामान्य मनुष्य के अन्तरंग जीवन को खत्म कर देता है. अगर यह वास्तव में कुछ करता भी है तो सिर्फ जीवन को पंगु बनाने का काम करता है. हिन्दू धर्म में सामान्य मनुष्यों के लिए कोई सुख नहीं है, इसमें सामान्य मानव-दुखों के लिए कोई संवेदना नहीं है, और इसमें कमजोर लोगों के लिए कोई सहायता भी नहीं है. यह ब्राह्मणों का स्वर्ग और सामान्य आदमी का नर्क है.’ (25)
अंत में, इस बात पर भी चर्चा कर ही ली जाए कि डा. आंबेडकर साम्यवाद के विरोधी थे. आरएसएस ने लिखा है—
‘बाबासाहेब का खुद को अनुयायी बताकर कम्युनिस्टों के साथ गठबंध-तालमेल की कोशिश भी उनके विचार के विरुद्ध है. बाबासाहेब ने साम्यवाद को ढकोसला बताया था. उन्होंने कहा था कि ‘सवर्ण हिन्दुओं और कम्युनिस्ट के बीच गोलवलकर (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन प्रमुख) एक अवरोध है. उसी प्रकार परिगणित जातियों और कम्युनिस्ट के बीच आंबेडकर अवरोध है. उनका मानना था कि दुनिया को गौतम बुद्ध एवं कार्लमार्क्स के बीच एक को चुनना होगा.’(26)
यहाँ भी दो बातें कही गई हैं. पहली बात में कोई संदेह नहीं है, आरएसएस मूलत: कम्युनिस्ट विरोधी है. उसकी मुख्य शत्रुता अगर किसी से है, तो वह कम्युनिज्म से ही है. इसलिए वह सदैव उस साम्यवादी दर्शन के खिलाफ रहता है, जो भौतिकवादी और वैज्ञानिक है, और उस ब्राह्मणवादी दर्शन का प्रचार-प्रसार करता है, जो परलोकवादी और अवैज्ञानिक है.. कम्युनिज्म वर्गविहीन समाज का वैज्ञानिक दर्शन है, जो जनता का शोषण करने वाले पूंजीवाद का विरोध करता है. आरएसएस कम्युनिज्म का विरोध करके जनता का शोषण करने वाले पूंजीवाद का समर्थन करता है. अर्थात, वह वर्गवाद, धर्मवाद, जातिवाद और शोषण को पालने वाले कारपोरेट पूजीवाद को स्थापित करता है. इसलिए वह क्रान्ति को रोकने के लिए सवर्ण और कम्युनिज्म के बीच सचमुच एक बड़ा अवरोध है. क्या इसी प्रकार दलितों और कम्युनिस्टों के बीच आंबेडकर भी अवरोध हैं? इसका जवाब हाँ में देना मुश्किल है. यह सच है कि तत्कालीन कम्युनिस्टों के एजेंडे में जाति के सवाल नहीं थे, इसलिए डा. आंबेडकर उनको पसंद नहीं करते थे. इसके विपरीत वे समाजवादियों को पसंद करते थे, जिनके राजनीतिक एजेंडे में दलित सवाल थे. इसीलिए 1952 के चुनावों में उन्होंने कम्युनिस्टों से तालमेल करने से मना कर दिया था. उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि ‘वे कम्युनिज्म में विश्वास ही नहीं करते हैं.’ (27) वे बौद्धधर्म को कम्युनिज्म से बेहतर मानते थे, शायद इसी वजह से वे बौद्ध भारत चाहते थे, कम्युनिस्ट भारत नहीं.
किन्तु, बौद्धधर्म में उनके धर्मांतरणके बाद भी स्थितियां बदली नहीं हैं. वे आज जीवित होते तो इस बात को जरूर अनुभव करते कि बौद्ध भारत में भी जाति, गरीबी और शोषण के सवाल बने हुए हैं और समाजवादी शक्तियां भी इन सवालों की उपेक्षा करके जातिवाद और धर्म की ही पूंजीवादी राजनीति कर रही हैं. इसलिए, भारत को आरएसएस और धर्म की जोंकों से निजात दिलाने का कम्युनिज्म के सिवा कोई रास्ता नहीं है. बाबासाहेब ने स्वयं कहा था कि श्रमिक वर्गों के दो शत्रु हैं—ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद. इन किन्तु, इन दोनों का खात्मा तभी हो सकता है, जब इसके लिए दलित शोषित वर्ग अपनी लड़ाई को वर्गीय बनाएगा.
(साभार: मीडियाविजिल)