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लोन के ‘राइट ऑफ’ के नाम पर ये क्‍या चल रहा है?

वित्त राज्य मंत्री शिव प्रताप शुक्ल ने यह जानकारी सदन में दी कि देश के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने वित्तवर्ष 2014-15 से सितंबर 2017 तक 2.47 लाख करोड़ का एनपीए लोन राइट ऑफ कर दिया है।

ये किसका पैसा है जो बड़े उद्योगपतियों को कर्जे के रूप में दिया जाता है और फिर राइट ऑफ के बहाने माफ कर दिया जाता है? यह हमारे आपके खून पसीने की कमाई है जिसे पेट्रोल डीजल पर टैक्स बढ़ा-बढ़ा कर वसूला जाता है और एक दिन सरकार सदन में कहती है कि वो पैसे तो आप भूल जाइए, वह तो राइट ऑफ कर दिया गया है और यही सरकार किसानों से कर्जे की पाई पाई वसूलना चाहती है! क्या आपने कभी सुना कि ट्रैक्टर से कुचले जाने वाले किसान ज्ञानचंद का कर्ज राइट ऑफ कर दिया गया?

सारा खेल इस सुंदर से शब्द राइट ऑफ में छुपा दिया जाता है। कोई बैंक किसी कर्ज को तभी “राइट ऑफ” करता है, जब उसकी वसूली बहुत मुश्किल हो जाए यानी “राइट ऑफ” से सीधा अर्थ ऐसे कर्ज से है जो रिकवर नहीं हो पा रहा है। और हमें यह तक नहीं बताया जाता कि किस-किस उद्योगपति का कितना कितना लोन राइट ऑफ किया है। यह बात पूछने पर कानून कायदे झाड़ दिए जाते हैं।

2017 में जेटली बोलते हैं मोदी सरकार ने एक रुपए भी कर्ज माफ नहीं किया है तो आज ये क्या है? तीन साल के भीतर 2.47 लाख करोड़ आपने राइट ऑफ कर दिया। जितना कुल बीस साल में नहीं किया गया होगा उतना आपने तीन साल में कर दिखाया? इतने बड़े कर्ज का बैंकों को वापस न लौटना अर्थव्यवस्था के लिए विनाशक साबित होने जा रहा है।

आप इसे और सीधे शब्‍दों में समझिये। जब 2017 में माल्या के कर्जे के बारे में पूछा गया तो अरुण जेटली ने कहा था कि वह कर्जा माफ नहीं किया गया है, उसे राइट ऑफ कर दिया गया है। अब माल्या पर कुल 9000 करोड़ का कर्जा था। इसका अर्थ यह हुआ कि इन तीन साल में माल्या सरीखे 27 लोग और पैदा हो गए लेकिन हम उनके बारे में कुछ नहीं जानते?

यहाँ तक कि 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने रिजर्व बैंक को निर्देश दिया कि वह उसे उन लोगों के नाम बताए जिन्होंने बैंकों की 500 करोड़ से ज्यादा की रकम डकार ली और जो इसके बाद भी ऐशो आराम की जिंदगी जी रहे हैं, लेकिन किसे जानने में रुचि है?

यदि SC/ST एक्ट में जरा सी छेड़छाड़ की बात सामने आ जाए तो पूरे भारत में आग लग जाती है, सरकार दबाव में आकर तुरन्त पुनर्विचार याचिका दाखिल करती है. लेकिन जब हमारे पैसा इन उद्योगपतियों को फ्री में दे दिया जाता है तो हम ये तक नहीं पूछते कि इस तरह के राइट ऑफ करने के फैसले पर आखिरी मुहर लगाता कौन है?

इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने एक बार इन 28 बैंकों से आरटीआइ के तहत यह सवाल पूछा कि 100 करोड़ या उससे ज्यादा के कर्ज को बट्टे खाते में डाल दिया जाए, इस पर आखिरी फैसला किसका था? कौन सी समिति बनी? उसके कितने मेम्बर थे? उसमें ये निर्णय कैसे लिया गया? कुछ तो बताओ!

सारे बैंको ने गोलमोल से जवाब दे दिए दिए। जैसे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने कहा, उसके मुताबिक यह मंजूरी ‘संबंधित समिति की विवेकाधीन शक्ति’ के अनुसार दी जाती है पर यह नहीं बताया कि विवेकाधीन शक्ति से क्या आशय है? क्या ऐसी समितियां स्थायी होती हैं या फिर अलग-अलग मामलों से निपटने के लिए अलग-अलग समितियां बनती हैं?

दरअसल इतने मूर्खतापूर्ण ढंग से ये बैंकिंग सिस्टम डिजाइन किया गया है कि इस प्रक्रिया के लिए कोई तय नीति ही नहीं है।

आप तो बस एक बात समझ लीजिए कि न कोई 2जी घोटाला बड़ा है न कोई कोल ब्लॉक घोटाला बड़ा है… देश का सबसे बड़ा घोटाला इस तरह के एनपीए लोन को राइट ऑफ कर देना है.

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