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बैंक घोटाले, मोदी सरकार और पूँजीवाद

बैंक मानव उपभोग लायक कुछ भी उत्पादित नहीं करते। पहले उनका मुख्य काम सिर्फ़ व्यापारिक गतिविधियों की विभिन्न पार्टियों के बीच तय शर्तों और वक़्त पर सही भुगतान सुनिश्चित करना और इसका सही हिसाब रखना था। साथ ही जिनके पास अतिरिक्त धन हो बैंक उसे सुरक्षित जमा रखने और ज़रूरत के वक़्त भुगतान का कार्य भी करते थे। इस उपलब्ध धन को बैंक व्यावसायिक गतिविधियों हेतु लघु अवधि के लिए क़र्ज़ के तौर पर भी देते थे। लेकिन पूँजीपतियों के बीच कम लागत पर अधिकतम उत्पादन और बाज़ार में प्रभुत्व की प्रतिद्वन्द्विता में चल-अचल पूँजी में निवेश की ज़रूरत लगातार बढ़ने के चलते, पूँजीपतियों को शेयर पूँजी में निवेश, क़र्ज़, भुगतान गारण्टियों, आदि के रूप में पूँजी उपलब्ध कराने में बैंकों की भूमिका बढ़ती गयी। अपनी उपरोक्त वर्णित भूमिकाओं से पूँजी की बड़ी मात्रा की उपलब्धता वाले बैंकों ने उद्योग-व्यापार में मध्यस्थता से आगे बढ़कर पूरी अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण क़ायम कर लिया है क्योंकि वही पूँजीपति प्रतिद्वन्द्विता में ठहर और आगे बढ़ सकते हैं जिन्हें बैंकों के द्वारा निरन्तर बढ़ती मात्रा में पूँजी की उपलब्धता सुनिश्चित हो। इसके एवज़ में श्रमिकों की श्रम शक्ति द्वारा उत्पादित और पूँजीपतियों द्वारा हस्तगत अधिशेष मूल्य का एक बड़ा भाग बैंकों को प्राप्त होता है। इससे उनकी पूँजी लगातार विशालकाय होती गयी है। एकाधिकार पूँजीवाद के युग में तो बढ़ते मुनाफ़े़ की हवस में इन्होंने पूरी अर्थव्यवस्था को अपने जुए का अड्डा बना दिया है। लेकिन इस जुए में उनकी जीत होने पर तो मेहनतकश जनता की जेब कटती ही है, किसी दाँव में उनके हारने पर भी हानि की वह रक़म उनकी सेवक पूँजीवादी सरकारें विभिन्न ज़रियों से हमारी जेब से ही वसूल कर उनकी भरपाई करती है।

अब मरणासन्न पूँजीवाद के संकट के दौर में तो दुनिया-भर में बैंकों के बारे में सिद्धान्त ही बन गया है– Too big to fail, too big to jail. अर्थात बैंक इतने शक्तिशाली हैं कि कोई पूँजीवादी सरकार उन्हें डूबने देने की हिम्मत नहीं कर सकती; और उनके मालिकों/शीर्ष प्रबन्धकों को किसी भी जुर्म में सज़ा भी नहीं दे सकती।

आज भारत की तस्वीर भी पूरी तरह यही है। सिर्फ़ उदारीकरण के पिछले 25 वर्षों के इतिहास को ही देखा जाये तो बैंक बीसियों लाख करोड़ रुपये क़र्ज़ों और फ़्रॉड में डुबा चुके हैं, कई का तो दिवाला निकल गया; कितने पूँजीपति उसके बल पर ही खरबों की सम्पत्ति के मालिक बन गये हैं। पर इसके कारण इनमें से किसी सरमायेदार, सेठ-महाजन का आज तक कुछ न बिगड़ा, बल्कि उनके पास और दौलत इकट्ठी होती गयी। कुछ दिन पहले पंजाब नेशनल बैंक में नीरव मोदी-मेहुल चोकसी समूह द्वारा किया गया फ़्रॉड सामने आने के बाद से इस कि़स्म की लूट के सामने आने का एक नया दौर ही शुरू हुआ है। इस फ़्रॉड की कुल रक़म बढ़ते-बढ़ते अब 12,700 करोड़ रुपये तक पहुँच गयी है, साथ ही इनकी कम्पनियों द्वारा लिये गये अन्य क़र्ज़ों को जोड़ा जाये तो कुल रक़म 21 हज़ार करोड़ रुपये से भी अधिक होने का अनुमान है। इसके अतिरिक्त रोटोमैक के विक्रम कोठारी द्वारा 4290 करोड़, द्वारकादास सेठ नामक फ़र्म द्वारा 390 करोड़ रुपये, आदि कई फ़्रॉड के मामले सामने आये हैं। पर इससे पहले के सालों में भी स्थिति यही रही है। कांग्रेसी शासन के आखि़री दो वित्तीय वर्षों में 6 हज़ार करोड़ रुपये सालाना क़र्ज़ फ़्रॉड के मामले सामने आये थे। मोदी सरकार आने के पहले वित्तीय वर्ष में 15 हज़ार करोड़, दूसरे साल में 16 हज़ार करोड़ और तीसरे साल में 18 हज़ार करोड़ रुपये के ऐसे ही फ़्रॉड सामने आये हैं। यह चौथा साल अभी पूरा होना बाक़ी है और पिछले दिनों ख़बरों में रहे मामले ही 30 हज़ार करोड़ रुपये के लपेटे में जा पहुँचे हैं।

लेकिन सिर्फ़ इतना ही नहीं है। एक और क़िस्म का भी फ़्रॉड है जिसे ‘विलफ़ुल डिफ़ॉल्टर’ अर्थात इरादतन ग़बनकर्त्ता कहा जाता है। रिज़र्व बैंक ने क़र्ज़ न चुकाने वालों में भी यह एक ख़ास श्रेणी बनायी है जिसमें बैंक मज़बूरीवश तभी किसी को डालते हैं जब क़र्ज़ लेने वाला ख़ुद ही सुसाइडल क़दम उठाकर उनके सामने और कोई विकल्प न छोड़े। इसका मतलब यह प्रमाणित और जगज़ाहिर हो चुका है कि उसने लिए हुए क़र्ज़ का ग़बन कर लिया, चुकाने की हैसियत है, फिर भी इरादतन नहीं चुकाता। पिछले साल 30 सितम्बर को ही ऐसे इरादतन ग़बन की रक़म भी बढ़कर 1 लाख 11 हज़ार 739 करोड़ पहुँच चुकी थी। इनमें 11 तो 1 हज़ार करोड़ से ऊपर का क़र्ज़ हज़म करने वाले हैं; उनमें से भी सबसे बड़ा विनसम डायमण्ड का मालिक जतिन मेहता है जो भागकर सेण्ट किट्स का नागरिक बन गया है। वैसे यह कुल रक़म भी थोड़ी कम ही दिखायी गयी है क्योंकि इसमें विजय माल्या का सिर्फ़ 3 हज़ार करोड़ ही दिखाया गया है।

इसके अतिरिक्त एनपीए या क़र्ज़ की अन्य डूबी हुई रक़म को जोड़ा जाये तो पिछले कुछ सालों में ही बैंकों के ज़रिये पूँजीपतियों द्वारा लूट ली गयी कुल रक़म 10 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा जा पहुँचेगी, जिसमें इस रक़म का कई साल का ब्याज़ शामिल नहीं क्योंकि बैंक वसूली न होने पर इसे जोड़ना ही बन्द कर देते हैं। बट्टे खाते में डाली गयी रक़म या राइट ऑफ़ का बड़ा हिस्सा भी इसमें शामिल नहीं है। पिछले दो दशकों का हिसाब भी अगर एकत्र कर इसमें जोड़ा जाये तो सिर्फ़ उदारीकरण के दौर में ही एक भयंकर लूट का इतिहास सामने आयेगा।

लेकिन क्या वास्तव में इन मामलों को फ़्रॉड कहना सही है? फ़्रॉड कहने से ऐसा आभास होता है जैसे कि यह बैंकिंग प्रबन्धन की कमज़ोरियों का फ़ायदा उठाकर कुछ जालसाजों-ग़बनकर्ताओं द्वारा किये गये अपराध हैं जिसके खि़लाफ़ सरकार, बैंकिंग और पुलिस-न्याय व्यवस्था जाँच और सज़ा के लिए क़दम उठा रही है। वित्त और अन्य मन्त्री, प्रशासक भी यही बयान दे रहे हैं कि रिज़र्व बैंक तथा अन्य संस्थाओं के नियामकों, प्रबन्धकों, ऑडिटरों की लापरवाही या मिलीभगत से ये अपराध हुए हैं और अब इनके खि़लाफ़ सख़्त कार्रवाई की जा रही है। परंतु सारी प्रणाली और घटनाक्रम पर ध्यान दें तो वास्तव में ऐसा नहीं है।

पहली बात तो यह कि ये सब बैंकों, सीबीआई, रिज़र्व बैंक, सरकार को आज से नहीं बल्कि बहुत पहले से मालूम था। जैसे पीएनबी ने ख़ुद स्टॉक एक्सचेंज को सूचना दी है कि गीतांजलि का फ़्रॉड 2 मार्च 2017 को ही मालूम हो चुका था। कोठारी के बारे में भी डेट ट्रिब्यूनल ने 1 जुलाई 2017 को ही फ़्रॉड की घोषणा कर दी थी। द्वारकादास सेठ के मामले में भी 2015 से ही ख़बर थी, पर सीबीआई ने रिपोर्ट ही नहीं लिखी। अन्य सभी मामलों में भी ऐसी ही सूचनाएँ हैं कि यह सब वर्षों से बैंक, रिज़र्व बैंक, सीबीआई, सरकार तक सबकी जानकारी और सहमति से जारी था लेकिन अब जबकि मोदी, चौकसी, माल्या, मेहता, द्वारकादास, आदि विदेश भाग गये या रक़म विदेश या देश में ही ठिकाने लगायी जा चुकी, सुबूत नष्ट किये जा चुके तो अब इन्हें फ़्रॉड घोषित कर कार्रवाई की नौटंकी जारी है।

दूसरी बात यह कि ये तो वे मामले हैं, जहाँ ख़ुद क़र्ज़ लेने वालों ने भागकर सब वैकल्पिक रास्ते बन्द कर लिये अन्यथा भूषण, एस्सार, वीडिओकोन, यूनिटेक, आदि तमाम पूँजीपति इनसे भी बड़ी रक़में दबाकर आराम से भारत में ही मौजूद हैं, उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, उन्हें कोई फ़्रॉड भी घोषित नहीं करता, बल्कि वे पहली कम्पनियों को ‘बीमार’ बनाकर, नये कारोबार शुरू कर ख़ुद अपनी सेहत और दौलत को और ऊँचाइयों पर पहुँचा रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि फ़्रॉड की ख़बर ज़ाहिर होने पर ख़ुद पीएनबी ने 30 बैंकों को एक पत्र भेजकर कहा कि यह फ़्रॉड अकेले उनके ही बैंक में नहीं हुआ, शेष बैंक भी इसमें शामिल थे और यह सब 7 साल से चल रहा था! इसका अर्थ है कि नीरव मोदी-मेहुल चोकसी की कम्पनियों द्वारा बैंक क़र्ज़ लेने के लिए अपनाया गया तरीक़ा कोई अजूबा नहीं था न ही चोरी-छिपे चल रहा था, बल्कि यह एक सामान्य कारोबारी तरीक़ा था जिसका चलन पूरे बैंकिंग उद्योग में है।

एक और बात प्रचारित करने का प्रयास ज़ोरों पर है कि पीएनबी, ओबीसी जैसे बैंकों में अधिक फ़्रॉड की वजह इनका सरकारी बैंक होना है क्योंकि सरकारी बैंकों में प्रक्रियाएँ कमज़ोर हैं, भ्रष्टाचार और राजनीतिक दख़लन्दाज़ी अधिक है। इसके आधार पर कई विश्लेषक इनके निजीकरण के लिए इन घटनाओं को सशक्त तर्क के रूप में प्रयोग कर रहे हैं। किन्तु तथ्य इस तर्क की पुष्टि नहीं करते। पहले फ़्रॉड की ही बात लें तो संसद में वित्त मन्त्रालय ने स्वयं बताया कि 2014 से 2017 के तीन सालों में बैंकों में कुल 12778 फ़्रॉड हुए जिनमें से एक तिहाई अर्थात 4156 निजी बैंकों में हुए, शेष सरकारी बैंकों में। मतलब बैंक सरकारी हैं या निजी क्षेत्र में, इससे फ़्रॉड में कोई कमी-बेशी नहीं होती। फिर चोकसी के गीतांजलि समूह को क़र्ज़ देने वाले बैंकों के समूह का नेतृत्वकारी बैंक निजी क्षेत्र का आईसीआईसीआई बैंक ही है। फिर भी गीतांजलि समूह को मात्र 100 करोड़ रुपये की जमानत पर 5280 करोड़ रुपये का क़र्ज़ मिला था। उसके पास पिछले साल मार्च से ही ऑडिटरों द्वारा इसके पूरे कारोबार के सन्देहास्पद होने की जानकारी भी थी, लेकिन उससे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। थोड़ा अतीत में जायें तो हर्षद मेहता से लेकर केतन पारीख के शेयर बाज़ार फ़्रॉड एवं अन्य मामलों में देशी-विदेशी बैंकों की लिप्तता की जानकारी भी जगज़ाहिर है जिनके विरुद्ध भारतीय सरकार और नियामकों ने कभी कोई कार्रवाई नहीं की है। इसके अतिरिक्त निजी क्षेत्र में भी बैंकों के दिवालिया होने का एक बड़ा लम्बा इतिहास है, उसको कोई धूर्त ही नज़रअन्दाज़ कर सकता है। यूरोप-अमेरिका से शुरू हुए वैश्विक वित्तीय संकट में भी वहाँ के विशाल निजी बैंक ही शामिल थे जिनमें से कई को तो बचाने के लिए वहाँ की सरकारों को उनका राष्ट्रीयकरण करना पड़ा जिसका सारा बोझ वहाँ की मेहनतकश जनता पर टैक्स लगाकर या ‘ख़र्च कटौती’ के नाम पर शिक्षा-स्वास्थ्य की सुविधाओं से वंचित कर पूरा किया जा रहा है। सबसे बड़ी बात तो यह कि अगर निजी क्षेत्र इतना स्वच्छ और कार्यकुशल है तो नीरव मोदी, चोकसी, कोठारी, माल्या, मेहता, द्वारकादास, आदि सब तो निजी क्षेत्र के ही हैं, फिर इन्होंने फ़्रॉड क्यों किये?

यहाँ एक सवाल उठाया जायेगा कि अगर क़र्ज़ डूबने और फ़्रॉड होने में सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है, तब फिर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक हानि में और निजी क्षेत्र के बैंक लाभ में क्यों हैं? हालाँकि हम सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सत्ताधारी पार्टी के क़रीबियों को कुछ हद तक अधिक फ़ायदा पहुँचाये जाने की बात से इंकार नहीं कर सकते, लेकिन लाभप्रदता में अन्तर का सबसे मुख्य कारण तो निजी क्षेत्र के बैंकों द्वारा रोज़गार की गारण्टी और असंगठित श्रमबल का सार्वजनिक क्षेत्र के संगठित कर्मचारियों के मुकाबले अधिक शोषण है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में जहाँ कुल परिचालन ख़र्च का 60% से अधिक कर्मचारियों पर होता है, वहाँ निजी क्षेत्र के बैंकों में यह अनुपात 40% से भी कम है। साथ ही प्रति कर्मचारी अधिक उत्पादकता अर्थात काम का ज़्यादा बोझ और लम्बा कार्यदिवस भी अधिक अधिशेष मूल्य पैदा करता है।

स्पष्ट है कि इतनी बड़ी मात्रा में डूबे क़र्ज़ों और फ़्रॉड की परिघटना को न तो निजी–सरकारी बैंकों के अन्तर के आधार पर समझा जा सकता है, न ही कांग्रेस–भाजपा की नीतियों में भेद के आधार पर, और न ही कुछ अपराधियों द्वारा किये गये फ़्रॉड कहकर। इसे समझने के लिए हमें वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था में बैंक, बीमा, आदि वित्तीय क्षेत्र और उद्योग–व्यापार क्षेत्र के पूँजीपतियों के परस्पर सम्बन्धों को समझना चाहिए। पूँजीवादी व्यवस्था में प्रत्येक पूँजीपति को प्रतिद्वन्द्विता में टिके रहने, अधिक से अधिक बाज़ार हासिल करने और अपना अधिकतम मुनाफ़ा सुनिश्चित करने के लिए निरन्तर अधिक से अधिक चल-अचल पूँजी के निवेश की आवश्यकता होती है। आज एक ओर तो उत्पादन के प्रत्येक क्षेत्र में पहले ही पूँजी की जकड़बन्दी होने से बाज़ार के विस्तार की सम्भावनाएँ बहुत सीमित हो चुकी हैं, दूसरी ओर हर उद्योग में कुछ पूँजीपतियों का एकाधिकार क़ायम हो चुका है। इसलिए दूसरे को पछाड़कर आगे बढ़ने की यह होड़ अत्यन्त गलाकाट हो चुकी है। इसलिए सभी पूँजीपतियों के लिए वित्तीय पूँजीपतियों से अधिकाधिक पूँजी प्राप्त कर अपने कारोबार को निरन्तर विस्तारित करने का दबाव हमेशा बना रहता है। फिर स्वयं बैंक, बीमा, आदि वित्तीय पूँजीपतियों में भी एकाधिकार की होड़ है और उन्हें भी आवश्यकता रहती है कि वे अपना बाज़ार हिस्सा बढ़ाने हेतु ज़्यादा से ज़्यादा कारोबारियों का वित्तीय पोषण कर उनके द्वारा हस्तगत अधिशेष में अपनी हिस्सेदारी और मुनाफ़ा सुनिश्चित करें। दोनों का यह परस्पर हित निश्चित करता है कि बैंक उद्योग-व्यापार की अधिक से अधिक कम्पनियों को क़र्ज़ और निवेश के विभिन्न रूपों में अधिकाधिक वित्तपोषण करते रहें।

इस प्रक्रिया को नीरव मोदी के कारोबार के उदाहरण के ज़रिये भी समझा जा सकता है। मोदी की तीनों कम्पनियों में उसकी अपनी कुल जमा पूँजी मात्र 400 करोड़ रुपये थी। बैंकों ने उसे 3992 करोड़ का क़र्ज़ दिया हुआ था, ऊपर से अब तक 12700 करोड़ के एलओयू सामने आये हैं। रायटर्स के मुताबिक़ कुल 20 हज़ार करोड़ उसे ‘सरकारी’ बैंकों ने दिया था, जिसके बल पर उसका सारा व्यापार, दौलत खड़ी हुई थी। उसकी कम्पनियाँ इस वित्तीय पूँजी के सहारे ही तेज़ी से विस्तार कर रही थीं और वह दुनिया-भर के देशों में अपने नये-नये स्टोर खोल रहा था। वास्तविकता यह है कि उसने कभी कोई क़र्ज़ वापस नहीं किया। बल्कि वह हर बार पहले से बड़ा क़र्ज़ लेता था, जिससे पिछले क़र्ज़ को जमा दिखाया जाता था। इसके बल पर ही वह बड़ा पूँजीपति बना था; इस पूँजी से ही उसका मुनाफ़ा आता था और बैंकों को रुपये तथा विदेशी मुद्रा के क़र्ज़ पर ब्याज़ तथा एलओयू आदि पर कमीशन मिलता था। यह चक्र जब तक चला तब तक सब सामान्य था, जब टूटा तो इसे फ़्रॉड का नाम दिया जा रहा है। यही हाल अन्य पूँजीपतियों का भी है। नीरव मोदी और पीएनबी के मामले में दोनों द्वारा लिखे जा रहे विभिन्न पत्र यही बता रहे हैं। एक ओर पीएनबी बता रहा है कि नीरव मोदी को दिया गया क़र्ज़ कोई फ़्रॉड नहीं बल्कि बैंक-पूँजीपतियों के बीच सामान्य कारोबारी रिश्ता था, वहीं नीरव मोदी को शिकायत है कि उसके कारोबार में कोई दिक़्क़त नहीं थी, अगर पीएनबी उसको जनवरी में फिर से नया क़र्ज़ दे देता, तो सब सामान्य चलता रहता!

बैंक दो कि़स्म से क़र्ज़ देते हैं। एक, नया कारख़ाना लगाने, विस्तार करने, उन्नत तकनीक और मशीनें लगाने, आदि बड़े निर्माण में स्थाई निवेश के लिए दिये गये क़र्ज़ निश्चित अवधि के होते हैं जिन्हें मासिक, त्रैमासिक, छमाही, सालाना, आदि अन्तराल पर मूल व ब्याज़ की किश्तों में चुकाना होता है। दूसरे, उत्पादन के लिए सामग्री, श्रम शक्ति ख़रीदने, उत्पादित माल के भण्डारण और उत्पादक और उपभोक्ता के बीच मध्यस्थ व्यापारियों से माल का भुगतान आने तक उधार देने के लिए बैंक नक़द उधार, ओवरड्राफ़्ट, गारण्टी, लेटर ऑफ़ क्रेडिट, लेटर अण्डरटेकिंग, पैकिंग क्रेडिट, बिल डिस्कॉउण्टिंग, आदि कई रूपों में कारोबारी क़र्ज़ देते हैं, जो कहने के लिए तो 3, 6, 9 महीने या एक-डेढ़ साल में चुकाने होते हैं पर कभी चुकाये नहीं जाते, बस ब्याज़ चुका दिया जाता है, वह भी अक्सर अगला क़र्ज़ और बड़ी रक़म का लेकर। इसी पूँजी के बल पर सभी पूँजीपति अपने उत्पादन और कारोबार का विस्तार करते हैं, दूसरे पूँजीपतियों से प्रतिद्वन्द्विता करते हैं। पर पूँजीवादी व्यवस्था के अनिवार्य नियम से सभी पूँजीपतियों द्वारा किया जाने वाला यह निरन्तर विस्तार हर कुछ वर्ष में ‘अतिउत्पादन’ का संकट पैदा करता है क्योंकि अधिकांश जनता की क्रय क्षमता सीमित होने से उत्पादन बाज़ार माँग से अधिक हो जाता है। तब इन विस्तार करते पूँजीपतियों में से कुछ के लिए यह चक्र टूट जाता है, वे दिवालिया हो जाते हैं, उद्योगों की क़ब्रगाह में उन्हें दफ़ना दिया जाता है और उनके लिए क़र्ज़ एनपीए, विलफ़ुल डिफ़ॉल्टर, फ़्रॉड, आदि के रूप में सामने आते हैं। साथ ही कभी-कभी विभिन्न कारणों से किसी बैंक द्वारा किसी पूँजीपति को नया क़र्ज़ नहीं मिले तब भी उसका कारोबार तबाह हो जाता है, क़र्ज़ डूब जाता है।

पिछले 4 साल में सामने आये बैंक क़र्ज़ संकट को भी इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। 1991-92 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के समय भारतीय अर्थव्यवस्था में बैंक क़र्ज़ की कुल मात्रा उस समय के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की 19% थी। इसके बाद के पहले दशक 2001-02 तक यह बढ़कर 25% हो गयी। लेकिन उसके बाद 2003 से 2008 तक जो एक अस्थाई वृद्धि का दौर चला उसमें बैंक क़र्ज़ की मात्रा तेज़ी से बढ़कर लगभग दोगुनी हो गयी। अर्थात इस आर्थिक विस्तार के मूल में बैंकों द्वारा औद्योगिक-व्यापारिक पूँजीपतियों को दिये गये भारी क़र्ज़ थे। इसके बाद जब वैश्विक आर्थिक संकट शुरू हुआ तो भारत में इसके प्रभाव को टालने के लिए और अधिक बैंक क़र्ज़ दिये गये। इस तरह कुल बैंक क़र्ज़ की मात्रा बढ़कर जीडीपी का 52% हो गयी जबकि इस दौरान जीडीपी की संख्या में भी बड़ी वृद्धि हुई थी। लेकिन बाज़ार संकट के प्रभाव को अधिक वक़्त तक नहीं टाला जा सका और पूँजीपतियों की लाभप्रदता में 2011-12 के साल से तेज़ गिरावट आनी शुरू हो गयी। परिणामस्वरूप 2013-14 का वर्ष आते-आते बहुत से पूँजीपतियों के लिए क़र्ज़ की किश्तें छोड़िए, ब्याज़ चुकाना भी मुश्किल हो गया। उसका नतीजा ही पिछले वर्षों में डूबते क़र्ज़ों और राइट ऑफ़ की रक़म में भारी वृद्धि है।

पर इस स्थिति से जब बैंकों के लिए संकट पैदा होता है तो वे सरकारी हों या निजी दोनों दौड़कर सरकारी मदद के लिए ही जाते हैं जो अधिक पूँजी, कि़स्म-कि़स्म की रियायतों, रिज़र्व बैंक द्वारा सस्ते क़र्ज़, आदि विभिन्न रूपों में दी जाती है और इसका बोझ अधिक टैक्स, बढ़ी क़ीमतों और सार्वजनिक सेवाओं में कटौती के ज़रिये मेहनतकश और निम्नमध्यवर्गीय जनता पर डाला जाता है। भारत में ही उदारीकरण के दौर में ही लगभग 6 लाख करोड़ रुपये पुनर्पूँजीकरण के रूप में सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को तो दिये ही हैं, साथ ही जब कोई निजी बैंक भी घाटे में गया है तो उसको या तो सरकारी बैंक में विलय या अन्य माध्यमों के ज़रिये सरकार ने ही बचाया है जिसका सारा बोझ आम मेहनतकश जनता के सिर पर ही पड़ा है। बैंकों के माध्यम से होने वाली यह लूट पूँजीवाद का अभिन्न, अनिवार्य अंग है। बैंक सरकारी या निजी होने से यह चरित्र नहीं बदलता। अमेरिका-यूरोप में यही काम निजी बैंकों के ज़रिये किया गया, कुछ बैंकों का संकट में राष्ट्रीयकरण भी हुआ। भारत में दोनों कि़स्म के बैंकों के ज़रिये हो रहा है, सरकारी बैंक ज़्यादा हैं तो ज़्यादा उनके ज़रिये ही होता है। इस प्रकार बैंक निजी हो तब तो उसका मालिक कोई निजी पूँजीपति होता ही है, बैंक सरकारी हो तब उसके मालिक सब पूँजीपति मिलकर होते हैं, क्योंकि सरकार के मालिक पूँजीपति हैं, उत्पादन के साधनों के मालिक पूँजीपति हैं! निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बीच की बहस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था में अन्तर्निहित लूट से ध्यान हटाने के लिए छेड़ी जाती है – ना तो निजी बैंक मेहनतकश जनता की लूट में कोई कमी छोड़ते हैं, ना सरकारी। दोनों को ही घाटा हो तो उसकी भरपाई आम मेहनतकश जनता से ही की जाती है।

पूँजीवाद में निजी पूँजी तो निजी लाभ के लिए है ही, सार्वजनिक क्षेत्र भी समाजवादी नहीं बल्कि राजकीय पूँजीवाद ही है जो पूँजीपति वर्ग के लाभ के लिए काम करता है। हाँ, सत्ता वाली पार्टी के क़रीबियों को अधिक लाभ होता है जिसे आपसी संघर्ष में अन्य पूँजीपति क्रोनी पूँजीवाद कहकर आलोचना करते हैं ताकि पूरी पूँजीवादी व्यवस्था पर चोट न हो। पर मार्क्सवादी दृष्टिकोण से सारा पूँजीवाद ही लूट पर आधारित है; साफ़, ईमानदार, शोषणमुक्त पूँजीवाद कभी भी, कहीं भी होता ही नहीं है। वर्तमान बैंकिंग घटनाक्रम में भी कांग्रेस आदि बुर्जुआ दलों के दृष्टिकोण से की गयी आलोचना और मार्क्सवादी दृष्टिकोण से की गयी आलोचना में यह फ़र्क़ होना ज़रूरी है।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)

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