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पुस्‍तक अंश – काले धन पर प्रो. अरुण कुमार की शीघ्र प्रकाशित पुस्‍तक की भूमिका

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 8 नवंबर 2016 को अचानक 500 और 1000 रुपये के नोट अमान्य कर दिए जाने की घोषणा ने लाखों भारतीयों को, खासकर सबसे गरीब लोगों को अनावश्यक संकट में डाल दिया. सैकड़ों हजारों दिहाड़ी मजदूर,  दुकानदार और छोटे व्यापारियों की आजीविका चली गई और देश की अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लगा. आने वाले हफ्तों में धीरे-धीरे साफ होता गया कि प्रधानमंत्री की यह कवायद बहुत  सुविचारित नहीं थी. उससे भी बुरी बात यह थी कि इसका क्रियान्वयन बहुत गलत तरीके से किया गया. इस फैसले के मध्यकालिक और दीर्घकालिक प्रभाव सामने आने में थोड़ा वक्त लगेगा, लेकिन  मेरे दिमाग में इस बात को लेकर खास संदेह नहीं है कि नोटबंदी को देश पर थोपा नहीं जाना चाहिए था. इस पुस्तक में हम देखेंगे कि इसके क्रियान्वयन में कहां गड़बड़ी हुई लेकिन फिलहाल इतना कहना काफी है कि काले धन की  समस्या पर इसका बहुत मामूली असर रहा है. विडंबना यह है कि इस कवायद के पीछे की वजह  को गलत नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि काली अर्थव्यवस्था ही भारत के लगातार गरीब और वंचित राष्‍ट्र बने रहने की मुख्य वजह है, जिसने पिछले दशकों के दौरान मिले आर्थिक लाभों पर पानी फेर दिया.

माना जाता है कि भारत की काली अर्थव्यवस्था का आकार देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 62 फ़ीसदी है जो (2016-17 की कीमतों के हिसाब से) 93 लाख करोड़ का राजस्व पैदा कर रही थी. यह राशि कृषि और उद्योग से होने वाली संयुक्त आय से भी ज्यादा है, जो जीडीपी का करीब 39 फ़ीसदी है. यह केंद्र और राज्य सरकारों के सरकारी व्‍यय को मिलाकर भी भारी पड़ती है, जो कि जीडीपी का करीब 27 फ़ीसदी है. काले धन के कारण देश की अर्थव्यवस्था 1970 के दशक के मध्य से ही सालाना औसतन 5 फ़ीसदी का वृद्धि-घाटा झेल रही है, जब काले धन की चर्चा अहम  हो उठी थी. यदि हम पिछले चार दशक के दौरान हुई वृद्धि दर में इस 5 फ़ीसदी को जोड़ लें तो हमारी अर्थव्यवस्था का आकार 1050 लाख करोड़ रुपए या कहें मौजूदा विनिमय दर के हिसाब से करीब 15 ट्रिलियन डॉलर आएगा जो कि फिलहाल 150 लाख करोड़ रुपए (2.2 ट्रिलियन डॉलर) है. वैसी स्थिति में भारत दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होता और मध्यवर्ती आय वाला राष्ट्र होता. तब भारत की अर्थव्‍यवस्‍था अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर होती. ऐसे में देश की प्रति व्यक्ति आय 7.4  लाख  रुपए (11000 डॉलर) होती जो कि वर्तमान में 100000 रुपये (1500 डॉलर) है. दूसरे शब्दों में कहें तो आज हमारे पास जितनी संपत्ति है उसके मुकाबले हम औसतन 7 गुना ज्यादा अमीर होते.

इस पुस्तक में हम देखेंगे कि भारत में काले धन की अर्थव्यवस्था क्यों फल-फूल रही है, यह हमें हमारी क्षमता के मुताबिक उपलब्धियां हासिल करने से कैसे रोकती है,  इसकी शुरुआत कहां से हुई,  नोटबंदी जैसी कवायद इसे कोई नुकसान क्‍यों नहीं पहुंचा पाती और लघु अवधि,  मध्यम अवधि व लंबी दौड़ में इसे जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए कौन से उपाय अपनाए जाने चाहिए.

पुस्तक का संयोजन कुछ इस प्रकार से किया गया है- पहले अध्याय में काले धन की अर्थव्यवस्था का एक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है. लोगों को ऐसा लगता है कि इसका लेना-देना केवल बेनामी आय से है. कुछ लोग इसे समानांतर अर्थव्यवस्था के रूप में भी देखते हैं.  पश्चिम में इसे अर्थव्यवस्था के एक अनौपचारिक क्षेत्र के रूप में देखा जाता है जबकि यह बात केवल अतिविकसित देशों के लिए ही सच है. इस अध्याय में हम बताएंगे कि विकासशील देशों में काला धन अतिविकसित अर्थव्यवस्थाओं से क्यों भिन्न है. यदि कालेधन की गणना की जानी है तो इस बात पर स्पष्टता आवश्यक है. तभी हम इसके परिणामों पर चर्चा कर सकेंगे और सुधारात्मक उपायों का प्रस्ताव कर सकेंगे.

दूसरे अध्याय में यह बताया गया है कि काली अर्थव्यवस्था भारत के लिए बुरी क्यों है. यह अध्याय काली अर्थव्यवस्था के सूक्ष्म वह बेहद आर्थिक प्रभावों की पड़ताल करता है.

तीसरे अध्याय में सरकार और नागरिक समाज के ऊपर काली अर्थव्यवस्था के प्रभाव की विशिष्टताओं पर नजर डालेंगे.

अध्याय चार काली अर्थव्यवस्था के कारणों की खोज करता है. इस परिघटना से जुड़ी भ्रामक धारणाओं की गहराई में पड़ताल की गई है और ऐतिहासिक संदर्भों में इसके स्रोत पर चर्चा की गई है.

अध्याय पांच में हम देखेंगे कि सरकारों ने पिछले 70 साल के दौरान कौन से विविध कदम उठाए हैं. जाहिर है इसके तहत 2016 में किया गया नोटबंदी का भयानक फैसला भी शामिल होगा. जिन समितियों और आयोगों ने उस परिस्थिति का विश्लेषण किया था उनके सुझाव और सिफारिशों की भी पड़ताल की गई है. अब तक जो कुछ भी प्रस्तावित किया गया है और जो भी प्रयास किए गए हैं, उन सब के बावजूद काली अर्थव्यवस्था के आकार में इजाफा ही हुआ है। यह साबित करता है कि न तो सही कारणों की पड़ताल की गई है और न ही उपयुक्त सुधारात्मक उपाय किए गए हैं.

मैंने निष्कर्ष के तौर पर यह बात कही है कि इस देश में काली अर्थव्यवस्था से मुक्ति पाने की कोई जादुई छड़ी नहीं है. इसके लिए सतर्कता के साथ कुछ उपाय खोजने होंगे जिसमें ध्यान रखा जाना होगा कि यह कदम लोकप्रियतावादी ना हो,  सरकारों के पास कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति हो,  मध्यावधि और दीर्घावधि में रणनीतियों के क्रियान्वयन का उनके पास धैर्य हो और यह सरकारें ऐसी आएं जो भ्रष्ट ना हों. केवल तभी भारत अपनी वास्तविक क्षमता को पहचान कर उसका दोहन कर पाएगा.

नोटबंदी से पहले काले धन की अर्थव्यवस्था की ओर सबका ध्यान 2011 में गया था जब सिलसिलेवार कई घोटाले सामने आए थे और अन्ना हजारे व अरविंद केजरीवाल ने मिलकर  देश से भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने के लिए एक आंदोलन की शुरुआत की थी. तकरीबन उसी वक्त इसी उद्देश्य के साथ एक और आंदोलन बाबा रामदेव ने भी शुरू किया. 2014 के लोकसभा चुनाव में यह मुद्दा प्रचार के केंद्र में आ गया और भारतीय जनता पार्टी में विदेश में जमा काले धन को लाने का वादा कर डाला. पार्टी के नेताओं ने वादा किया कि जब सारा काला धन देश में वापस आ जाएगा तब हर भारतीय परिवार को 15 लाख रुपए मिलेंगे. ऐसा आज तक नहीं हो सका है, न ही काली अर्थव्यवस्था की वृद्धि पर कोई लगाम लग सकी है.

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