इलाहाबाद, माफ़ कीजिए प्रयागराज में इस बार का कुंभ अभूतपूर्व है। पहले छह साल पर अर्धकुम्भ मनाया जाता था, लेकिन मोदी और योगी की माया से यह ‘दिव्य–कुंभ’ हो चुका है। जो भी आधा–अधूरा है, मोदी जी उसे दिव्य करार देते हैं। विकल हो चुके अंगों के लिए एक सम्मानजक शब्द ‘विकलांग’ रचा गया था जिसे वे पहले ही ‘दिव्यांग’ घोषित कर चुके हैं।
इस बार के कुंभ का बजट पिछली बार के मुकाबले तीन गुना बताया जा रहा है (दिव्यता के लिए खर्च तो करना ही पड़ता है)। इसे एक अंतरराष्ट्रीय स्वरूप देने दिल्ली और लखनऊ की सरकारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। पूरी दुनिया को आमंत्रित किया गया है कि वे ‘गंगा–यमुना–सरस्वती’ की पवित्र त्रिवेणी के संगम पर डुबकी लगाकर मोक्ष प्राप्त कर लें। आस्था में डूबे भक्तों और नवगठित किन्नर अखाड़े सहित सभी 14 अखाड़े मकर संक्रांति पर पहला शाही स्नान करके ‘दिव्य विजुअल्स’ की रचना कर चुके हैं। कुंभ की चमचमाती रोशनी में गंगा का गंदला प्रदूषित जल कोई मुद्दा नहीं है। यही ‘विज़ुअल्स’ कॉफ़ी टेबलबुक में सजकर भारतीय संस्कृति (हिंदू और भारत को समानार्थी मानती है सरकार) की महानता का घोष करेंगे।
बहरहाल, हम आपको गंगा के प्रदूषण की हजारों बार कही गई उस कहानी को सुनाकर बोर नहीं करना चाहते जिसके साफ़ न होने पर केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने कभी जल समाधि लेने की घोषणा की थी। वे जीवित हैं और हमारी दुआ है कि वे सुदीर्घ जीवन जिएँ। वैसे भी जब दिल्ली में यमुना की लाश सरकार को बेचैन नहीं करती तो गंगा तो काफ़ी दूर है और बीच–बीच में साँस लेते भी दिख जाती है। वैसे भी वैज्ञानिक प्रमाणों और सरकारी रपटों से उलट मोदी प्रिय संघदुलारे पद्म पत्रकार रजत शर्मा के चैनल इंडिया टीवी ने गंगाजल के शुद्ध होने की मुनादी कर दी है।
हम बात करेंगे ‘सरस्वती’ की जिसके बारे में धार्मिक मान्यता यही है कि लुप्त धारा के रूप में वह आज भी प्रयागराज के संगम में बह रही है। यानी वैदिक साहित्य मे उल्लिखित सरस्वती नदी का यहीं गंगा–यमुना में संगम होता था। सरकार के तमाम प्रचार साहित्य में भी यह बात जोर–शोर से कही गई है।
लेकिन ठहरिए, यही सरकार अरबों रुपये ख़र्च करके लुप्त सरस्वती का जो रास्ता खोज रही है, उसका प्रयागराज तो छोडिए, उत्तर प्रदेश से भी कोई नाता नहीं है। केंद्र सरकार जिस सरस्वती परियोजना पर काम कर रही है वह हरियाणा के यमुनानगर में आदिबद्री नामक स्थान से निकलकर राजस्थान और गुजरात होते हुए अरब सागर में गिरती है। उपग्रहों की मदद से रिमोट सेंसिंग करते हुए लुप्त सरस्वती के मार्ग की कथित तौर पर खोज भी की जा चुकी है।
हरियाणा में सरकार ने 2015 में बाक़ायदा सरस्वती धरोहर विकास बोर्ड की स्थापना की थी जिसकी पहली बैठक उसी साल 24 नवंबर को हुई। तब से काफ़ी काम हो चुका है। बीती 2 जनवरी को भी इसकी चंडीगढ़ में बैठक हुई जिसमें सरस्वती नदीं में पानी बहाव के लिए बनी डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) को मंजूरी दी गई। बैठक की अध्यक्षता हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने की। बैठक में हरियाणा–हिमाचल सीमा में रामपुर हेडियान, कांबोयान व छिल्लौर क्षेत्र में करीब 300 एकड़ जमीन पर पानी का रिजर्ववायर बनाने की योजना को मंजूरी दी गई। बरसात के दिनो में इसमें पानी इकट्ठा किया जाएगा और बाद में सौ एम.एम.क्षमता की करीब साढ़े सात किलोमीटिर लंबी पाइप लाइन से सरस्वती नदी में (खोदे जा रहे रास्ते में) छोड़ा जाएगा। इस पर करीब 126 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। सरस्वती के पुनर्जीवन की योजना अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय से ही चल रही है। किसी नदी को पुनर्जीवित करने के बहाने इतने बड़े पैमाने पर जल संग्रह परियोजना का अमल में लाया जाना एक अच्छा कदम ही कहा जा सकता है।
लेकिन सवाल है कि जो सरकार सरस्वती नदी को हरियाणा से निकालकर अरब सागर तक ले जाने में जुटी है, वही सरकार अपने खजाने से प्रयागराज में उसी नदी के होने को कैसे प्रचारित कर सकती है। क्या यह आस्था के नाम पर फ़रेब नहीं है? सरकार सरस्वती को कच्छ की खाड़ी में भी गिरा रही है और संगम में भी मिला रही है। इससे बड़ा मज़ाक सिर्फ़ यही है कि श्रद्धालु आँख मूँदे सब कुछ स्वीकारते जाते हैं। भक्त होने का यही आनंद है। मूँदौै आँख कतउ कोई नाहीं।
सच्चाई यह है कि इलाहाबाद में सरस्वती को पहुँचाने के पीछे पंडागीरी से जुड़ा लोभ–लालच है। इस मिथक को बाक़ायदा प्रचारित–प्रसारित किया गया। नदियों के संगम को हमेशा प्रयाग कहा जाता रहा है। प्रयाग यानी यज्ञभूमि, तो जहाँ भी नदियाँ मिलती रही होंगी वहाँ संगम को पवित्र मानकर यज्ञ होते रहे हैं। उतराखंड में आज भी कई प्रयाग हैं। ऐसे में प्रयागराज को अतिरिक्त महत्व देने के लिए सरस्वती की कहानी गढ़ी गई ताकि बाक़ी प्रयागों से यहाँ ज़्यादा कमाई हो सके।
किसी भी पवित्र कहे जाने वाली तिथि या पर्व पर नदियों के किनारे मेला लगना सभ्यता के विकासक्रम के दौरान होने वाली एक सामान्य घटना है। लेकिन 12 साल पर कुंभ होने की परंपरा का उल्लेख किसी प्राचीन ग्रंथ में नहीं है। सबसे पुराना उल्लेख चीनी यात्री ह्वेनसांग का है जिसने लिखा है कि कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन हर पाँच साल में प्रयाग जाकर अपना सर्वस्व दान कर देते थे। वहाँ भी पाँच साल की बात है 12 साल की नहीं। यह हर वर्ष लगने वाला माघ मेला भी हो सकता है। यूँ भी ‘पेशवाई’ और ‘शाही स्नान’ जैसे शब्द बताते हैं कि यह मेला मुगल काल में संगठित हुआ होगा।
जो भी हो, सरकार को हक़ नहीं है कि नदियों का रास्ता अपनी मनमर्जी से बदले। अगर सरस्वती हरियाणा से निकलकर अरब सागर की ओर बहती थी तो उसका प्रयागराज में संगम कराना सरकारी धन का दुरुपयोग है। सरस्वती के लुप्त होने का एक अर्थ बुद्धि और विवेक का लोप होना है और जनता का इस स्थिति में होना, शासकों के लिए हमेशा फ़ायदे में रहा है। लेकिन दिक्कत यह है कि इक्कीसवीं सदी के 19वें बरस में सरस्वती की कृपा आम जनता पर भी होने लगी है। जाग्रत बुद्धि यह ज़रूर पूछेगी कि सरस्वती के नाम पर यह छल कब तक होता रहेगा ? वह भी करदाताओं के पैसे पर?