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संपादकीय एक : एनआरसी के असल मायने

वो लोग जो राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की हिमायत कर रहे थे, अब इसका मसौदा पक्का होने और इससे स्वीकार कर लिए जाने के बाद उन लोगों को लग रहा होगा कि इससे “बाहरी लोगों के खतरे” से थोड़ा राहत मिलेगी. इन शिकायतकर्ताओं के मुताबिक “बाहरी” लोग अवैध रूप से उन बुनियादी अवसरों पर अतिक्रमण कर रहे हैं जो एनआरसी के विचारणीय क्षेत्र में आते हैं. इसके अलावा भी इस क्रिया को लेकर संभावित रूप से शिकायतकर्ताओं ने राहत की सांस ली है. अब उन्हें ये उम्मीद है कि एक बार “उचित और निष्पक्ष” प्रक्रिया से गुजरने के बाद भारतीय नागरिकों के तौर पर उनकी पहचान पुष्ट हो जाएगी तो उसके बाद वे बिना किसी बेचैनी के भाव के और बिना लोगों की संदेह भरी दृष्टि के, सार्वजनिक रूप से नजर आने के अपने सामाजिक अधिकार का प्रयोग कर सकेंगे.

एनआरसी के मुख्य शब्द सुझाते हैं कि उनकी ये क्रिया स्वस्थ सामाजिक और नैतिक स्थितियों का निर्माण करेगी. वो स्थितियां जिनमें एक “भारतीय” कह सकता है कि वे किसी बाहरी के बजाय एक-दूसरे के प्रति अपना फ़र्ज् निभाने के नैतिक कर्तव्य को निभाने पाने की बेहतर स्थिति में हैं. जहां तक भारत सरकार की बात है, तो वो ऐसा प्रतीत करवा रही है कि “न्यायपूर्ण” परिस्थितियों का निर्माण करना चाहती है जिन्हें लेकर तुरंत दिमाग में कौंध जाता है कि उनका अपने लोगों के लिए ये कर्तव्य है और शायद बाहरी लोगों के लिए नहीं. इसका मतलब ये निकलता है कि एक बार जब बाहरी के सवाल का सामना एनआरसी से कर लिया जाएगा तो फिर कोई बाहरी नहीं बचेंगे सिर्फ अंदरूनी लोग ही बचेंगे जिनका एक-दूसरे के लिए फ़र्ज़ होगा.

क्या वाकई में ऐसा ही है? मेज़बान क्षेत्र में भूमि पुत्रों के साथ एक प्रवासी का रोज़मर्रा का अनुभव क्या दिखाता है? जो प्रवासी जनसंख्या है वो हमेशा इस चीज को झेलती है कि कैसे “मूल निवासी” या भूमि पुत्र उन्हें नैतिक रूप से अपमानभरी दृष्टि से घूरते हैं. इस दृष्टि से घूरने का इस्तेमाल वो एक ताकतवर हथियार के तौर पर करते हैं जिससे एक प्रवासी के एक विस्तृत मानवता से जुड़ाव के अहसास को नष्ट कर सकें. इसलिए सार्वजनिक दायरे में आत्म-विश्वास और स्वायत्तता (और इसीलिए गरिमा) के साथ नजर आना भारतीय संदर्भों में एक सामान्य सवाल बन गया है. इसे भारत की पूरी राष्ट्रीय सीमा में किसी एक विशेष बाहरी के एकमात्र संदर्भ को लेकर परिभाषित नहीं किया जा सकता है.    

ये जो लोगों को उनके अधिकारों से वंचित करने और उन्हें गलत समझने की कहानी है वो मानवीय प्रश्न पर एनआरसी के अंतिम प्रस्ताव के माध्यम से खत्म हो जाएगी, ऐसा लगता नहीं. ये बड़ी विडंबना की बात है कि मौजूदा सरकार के समर्थक जो अकसर कहते हैं “हम लोगों में माद्दा था करने का और हम लोग पहले थे जिन्होंने ऐसा किया” उनकी इस रिवाजी भाषा में नैतिक साहस की कमी है. इस प्रकार की भाषा का जो नायकीय स्वर होता है वो अंतर्निहित त्रासदी को देखने से इनकार कर देता है. चाहे कितना ही ज़रूरी क्यों न लगे, क्या हम वाकई में सिर्फ माद्दे से ही इस मानवीय संकट को सुलझा सकते हैं जो एनआरसी की क्रिया के नतीजतन पैदा होने वाला है?

जीत की जो ऐसी भाषा है ये दिखाती है कि कैसे नैतिक भावनाएं सूख गई हैं क्योंकि ये अपना हाथ एक वृहद मानवता की तरफ बढ़ाने में असफल रहती है. वहीं दूसरी ओर ऐसा सुझाव है कि सीमा पार रहने वाले उन लोगों को देश में जगह दी जाए जो उनके अपने धर्म के हैं. ये जो दृष्टिकोण है, ये वही दृष्टिकोण है जो इजरायल की सरकार ने 1984-85 में सूडान में हो रहे गृह-युद्ध के दौरान अपनाया था. उस मामले में अरब मुल्कों के विरोध के बावजूद पीछे न हटते हुए इजराइली सरकार ने गृह युद्ध की आग में झुलस रहे सूडान के शरणार्थी शिविरों में फंसे हुए लोगों में से सिर्फ इथियोपियाई यहूदियों को ही विमानों के जरिए वहां से निकाला. नैतिक आधार पर इजराइली सरकार के इस दृष्टिकोण को दिक्कत वाला कहा जा सकता है क्योंकि उनको इस गृह-युद्ध में बाकी सब पीड़ितों की तुलना में इथियोपियाई यहूदियों में ज्यादा मानव मूल्य नजर आया. लेकिन भारत के मामले में इसका मतलब ये है कि ऐसा राज्य जो नौकरशाही वाली मशीन से चलाया जा रहा है, या विभाजनकारी इरादे वाले नेता या नेताओं द्वारा चलाया जा रहा है वो उन सब मामलों में सांप्रदायिक रवैया अपनाते हैं जहां बात मानवता के भविष्य आती है. यहां पर जो सवाल हमें पूछना चाहिए वो है किः क्या भारत सरकार को ऐसी क्रिया का उपयोग करना चाहिए जिसके प्रभाव में आने के बाद कई कमजोर लोगों का अस्तित्व भूमि पुत्रों की घृणा और दया पर निर्भर करेगा? एनआरसी का असल मायना ये है कि जिन लोगों को इस सूची से बाहर रखा जाएगा उन्हें नागरिक समाज के सदस्यों की सम्मिलित रूप से अत्यंत घृणा का सामना करना पड़ेगा या फिर भारत सरकार उन्हें शाश्वत संदेह की नजर से देखेगी. इसमें उजला पहलू यही है कि इसकी वजह से कुछ लोग उनको घृणा नहीं बल्कि दया की नजर से देखेंगे लेकिन अंततः उससे भी उन कमजोर लोगों को निष्कासन से कोई राहत नहीं मिलेगी.

अगर सरकार इस निष्कासन के पीड़ितों के बर्बाद और चोटिल चेहरों को देखने की ज़हमत उठाए तो कम से कम वो इन पीड़ितों का कुछ ख़याल रखेगी और फिर बद्तर ये होगा कि वो इस पूरे विषय पर ही अस्पष्ट बनी रहेगी. लेकिन जो भूमि पुत्र हैं उनके लिए ये अस्पष्टता एक गलती साबित होगी. क्योंकि इससे उनकी आकांक्षाएं रद्द हो जाएंगी और स्थानीय लोगों की लड़ाई कमतर हो जाएगी. वो लड़ाई जो जनसंख्या के परिसीमन के लिए वो लड़ते आ रहे हैं ताकि वैध नागरिक को उन लोगों से अलग किया जा सके जिन पर अवैध होने का आरोप है. लेकिन इस गलती का एक मानक पहलू ये है कि इसका इरादा गलत नहीं है. असल में इसका इरादा उस जरूरत से पनपा है जिसमें एक इंसान को बर्बाद और चोटिल करने से बचा जा सके.

अपने ही लोगों के साथ इस बढ़ते अनादर और कभी-कभी सीधे बैर के अनुभवों से उन प्रयासों पर लगाम लगनी चाहिए जिनसे अलगाव का एक आक्रामक भाव तेज़ हो जाता है. ये जो भाव है वो दकियानूसी है और इससे जाहिर होता है कि जो विशाल मानवीय चिंता है उससे हम दूर जा रहे हैं. ये नैतिक अनिवार्यता सरकार और नागरिक समाज दोनों पर ही लागू होती है.

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