skip to Main Content

संपादकीय

नरेंद्र मोदी के नेतृत्‍व में भारतीय जनता पार्टी का मई 2014 में देश की सत्‍ता में आना एक लिहाज से वाकई बहुत सकारात्‍मक रहा है। इसे ऐसे समझें कि इस सरकार ने बीते चार साल के अपने कार्यकाल में आर्थिक मोर्चे पर जैसे सही-गलत और ऊटपटांग फैसले लिए हैं, उन फैसलों ने देशवासियों की जिंदगी को बिलकुल प्रत्‍यक्ष और बेहद करीब से प्रभावित किया। नोटबंदी और जीएसटी को लागू किया जाना ऐसे दो बड़े कदम कहे जा सकते हैं जिनसे तकरीबन एक भी भारतीय नागरिक अप्रभावित न रहा होगा। पेट्रोल-डीज़ल के दामों में ऐतिहासिक तेज़ी और महंगाई की चर्चा तो ख़ैर पहले की सरकारों में भी होती रही है, लेकिन करों और मुद्रा से जुड़ी चर्चाएं पहली बार इस देश में गली-नुक्‍कड़ की बहसबाजी का विषय बनीं। यानी एक ऐसे देश में जो अंग्रेज़ी को छोड़ बाकी भाषाओं में आर्थिक मोर्चे पर सर्वथा निरक्षर हुआ करता था, मोदी सरकार ने जनता को आर्थिक साक्षर होने के लिए बाध्‍य कर दिया। सवाल रोज़मर्रा की जिंदगी से जुड़े थे, लिहाजा लोगों की आर्थिक समझदारी भी अपनी ही भाषा में विकसित होनी थी।

लोक संवाद का प्राथमिक उद्देश्‍य ही आर्थिक मसलों को हिंदी में और लोकप्रिय शैली में पाठकों के सामने रखना रहा है। हिंदी में आर्थिक विषयों पर विमर्श की समकालीन दरिद्रता का ही नतीजा है कि ऐसी सारी सदिच्‍छाएं अनुवाद के जटिल समुद्र में डूब जाती हैं। आज से ठीक दस साल पहले 2008 के मार्च में देश में हिंदी के बिज़़नेस अखबारों का नया दौर शुरू हुआ था जिसका लक्षित श्रोता दूसरे और तीसरे दरजे के शहरों का हिंदीभाषी उपभोक्‍ता था। वह नागरिक, जिसे अंग्रेज़ी तो नहीं आती लेकिन जो शेयर बाज़ार और म्‍यूचुअल फंड में हाथ आज़माने का इच्‍छुक है। इकनॉमिक टाइम्‍स, बिज़नेस स्‍टैंडर्ड और बिज़नेस भास्‍कर जैसे तीन अखबार 2008-09 में शुरू हुए जबकि लोक संवाद काफी पहले से हिंदी में निकलता रहा है।

आज आर्थिक विषयों को हिंदी में प्रस्‍तुत करने की बाध्‍यता इस तथ्‍य से समझ आती है कि इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली जैसी अर्थशास्‍त्र की अकादमिक पत्रिका ने भी अपने संपादकीय हिंदी और अन्‍य भारतीय भाषाओं में प्रकाशित करने शुरू कर दिए हैं। अच्‍छी बात यह है कि ईपीडब्‍लू की अंग्रेजी सामग्री से उलट हिंदी और अन्‍य भारतीय भाषाओं की सामग्री वेबसाइट पर मुफ्त उपलब्‍ध है। इसकी सीमा यह है कि सामग्री मूल भारतीय भाषाओं में नहीं रची जा रही बल्कि अब भी अनुवाद पर ही आश्रित है।

भारतीय भाषाओं में आर्थिक साक्षरता के इस फैलते परिदृश्‍य में लोक संवाद का पुनर्प्रकाशन सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक ज़रूरी कदम है। कुछ समय तक स्‍थगित किए जाने से पहले लोक संवाद भी अनुवाद पर ही अनिवार्य रूप से आश्रित था, लेकिन अपनी दूसरी पारी में इसने अनुवाद पर अपनी निर्भरता समाप्‍त करने की सायास कोशिश की है।

प्रकाशन स्‍थगन के बाद ऑनलाइन जा रहे इस पहले अंक में आप पाएंगे कि अधिकांश सामग्री मूल हिंदी में रचित है। जब तक बहुत ज़रूरी न हो, अनुवाद से बचने की कोशिश की गई है। लोक संवाद का अप्रैल-2018 अंक आपकी स्‍क्रीन पर है। पत्रिका अपने मूल उद्देश्‍य को वापस हासिल करने में किस सीमा तक कामयाब हुई है यह निर्णय हम पाठक के हाथ में छोड़ते हैं।

शुभकामनाएं

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

Back To Top