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बेरोज़गारी की भयावह होती स्थिति

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ 2014 से लेकर 2016 के बीच दो सालों में देश के 26 हज़ार 500 युवाओं ने आत्महत्या की। 20 साल से लेकर 30-35 साल के युवा डिप्रेशन के शिकार हो जा रहे हैं, व्यवस्था नौजवानों को नहीं जीने नहीं दे रही है। बड़े होकर बड़ा आदमी बनाने का सामाजिक दबाव, माँ-बाप, नाते-रिश्तेदार सभी लोग एक ही सुर में गा रहे हैं। जिस उम्र में नौजवानों को देश-दुनिया की परिस्थितियों, ज्ञान-विज्ञान और प्रकृति से परिचित होना चाहिए, बहसों में भाग लेना चाहिए, उस समय नौजवान तमाम शैक्षिक शहरों में अपनी पूरी नौजवानी एक रोज़गार पाने की तैयारी में निकाल दे रहे हैं और फिर भी रोज़गार मिल ही जायेगा, इसकी कोई गारण्टी नहीं हैं। ऐसे में छात्र-नौजवान असुरक्षा और सामाजिक दबाव को नहीं झेल पा रहे हैं। एडमिशन न मिलने, किसी परीक्षा में सफल न होने पर आये दिन छात्र-नौजवान आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसी घटनाओं की बाढ़-सी आ गयी है।

लाख कोशिशों के बाद भी सरकार बेरोज़गारी पर अपनी असफलताएँ छुपा नहीं पा रही है। ब्रिक्स देशों के सम्मलेन के दौरान मोदी का भाषण इसका ताजा उदाहरण है। ”फ़ोर्थ इण्डस्ट्रियल रिवोल्यूशन में पूँजी से ज़्यादा महत्व प्रतिभा का होगा। हाई स्किल परन्तु अस्थायी वर्क रोज़गार का नया चेहरा होगा। मैन्यूफै़क्चरिंग, इण्डस्ट्रियल प्रोडक्शन डिजाइन में मौलिक बदलाव आयेंगे। डिजिटल प्लेटफ़ार्म, आटोमेशन और डेटा फ्लोस (प्रवाह) से भौगोलिक दूरियों का महत्व कम हो जायेगा। ई-कामर्स, डिजिटल प्लेटफ़ार्म, मार्केट प्लेसेस जब ऐसी टेक्नालॉजी से जुड़ेंगे, तब एक नये प्रकार के इण्डस्ट्रियल और बिज़नेस लीडर सामने आयेंगे।”

इस भाषण को सुनकर ही यह बात समझ में आ जाती है कि रोज़गार को लेकर मोदी और भाजपा की सोच क्या है? स्थायी रोज़गार की तैयारी में युवा नौजवानी के दस-पन्द्रह साल हवन कर दे रहे हैं और सरकार की तरफ़ से पकौड़ा तलने, पंचर बनाने, और पान लगाने की सलाह लगातार मिल रही है।

देश में बेरोज़गारी की भयावह स्थिति

भारत में बेरोज़गारी का आलम यहाँ तक पहुँच गया है कि क़रीब 28 से 30 करोड़ युवा बेरोज़गारी में सड़को की धूल फाँक रहे हैं और रोज़ ब रोज़ इस संख्या में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। इंजीनियरिंग काॅलेजों में प्लेसमेण्ट का सीजन शुरू हो गया है, छात्रों के चेहरों से हँसी ग़ायब-सी हो गयी है। दिन-भर लैपटॉप खोलके इण्टरव्यू के रिज़ल्ट का इन्तज़ार कर रही छात्रों की आँखें इंजीनियरिंग कॉलेजों के प्लेसमेण्ट की हालत को बयाँ करने के लिए काफ़ी है। मोतीलाल नेहरू राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, इलाहाबाद और आईआईटी बीएचयू जैसे कॉलेजों की स्थिति यह है कि एमटेक के लिए सिविल, मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल जैसी ब्रांचों के लिए अभी तक कोई भी कम्पनी नहीं आयी है, और पिछले कुछ सालों के रिकॉर्ड को देखते हुए कहा जा सकता है कि आने की कोई उम्मीद भी नहीं है और कमोबेश यही हालत बीटेक के छात्रों के लिए भी है। विश्वविद्यालय-कॉलेजों से बीए, बीएससी, एमए, एमएसी करने वाले छात्र तो पहले से ही रोज़गार पाने के सपने को ठण्डे बस्ते में डाल चुके थे, लेकिन निजीकरण और उदारीकरण की नीतियाँ लागू होने के बाद से आईआईटी-आईआईएम जैसे संस्थानों से निकलने वालो छात्रों को भविष्य की चिन्ता सताने लगी है। भारत में 20 प्रतिशत इंजीनियर बेरोज़गारी में धक्के खा रहे हैं। आईआईटी और एनआईटी जैसी संस्थाओं में से 2017 में मात्र 66 फ़ीसदी विद्यार्थियों का ही कैम्पस प्लेसमेण्ट हो पाया। इंजीनियरिंग करने के बाद डिग्री लटकाकर नौकरी के लिए नोएडा, गुड़गाँव, मुम्बई, हैदराबाद, बंगलुरु आदि औद्योगिक शहरों में लाखों छात्र धक्के खाते, क़िस्मत की दुहाई देते रोज़-रोज़ देखे जा सकते हैं। जिनको रोज़गार मिल भी जा रहा है, छँटनी का डर लगातार उनको सता रहा है। बँधुआ मज़दूर की हालत में जीने को मजबूर आईटी सेक्टर में काम करने वाले युवा छोटी-छोटी कम्पनियों में 10 से 15 हज़ार के वेतन पर 10-12 घण्टे तक लैपटॉप के सामने अपनी आँखें फोड़ने के लिए मजबूर हैं। अब उनके लिए कम्पनी के बाहर की दुनिया बिल्कुल बेगानी-सी हो गयी है। ऐसे में इंजीनियरिंग में एडमिशन लेने से पहले इन छात्रों के चेहरों की मासूमियत, जिसमें नौकरी और बेहतर ज़िन्दगी के ख़्वाब थे अब शीशे की तरह टूटके बिखर रहे हैं, और इन नौजवानों को ये पूरी स्थिति डिप्रेशन की तरफ़ धकेल रही है।

इन्फ़ोसिस के पूर्व प्रमुख और सह संस्थापक एआर नारायणमूर्ति का कहना है कि देश टैलेण्ट क्रंच से गुज़र रहा है। जॉब मार्किट में आने वाले 80% से ज़्यादा युवाओं की बेरोज़गारी के लिए उन्होंने देश की शिक्षा प्रणाली को जि़म्मेदार ठहराते हुए व्यवस्था को बचाने का काम बख़ूबी किया। पिछले साल आईटी सेक्टर की टीसीएस, इन्फ़ोसिस, विप्रो, कॉग्निजेण्ट, कैपजेमिनी जैसी बड़ी कम्पनियों ने लाखों की संख्या में कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया था, एल एण्ड टी, सिम्पलेक्स जैसे बड़ी इंजीनियरिंग कम्पनियों ने हज़ारों मज़दूरों और कर्मचारियों को बाहर कर दिया और पिछले एक वर्ष के दौरान देश के टेलीकॉम क्षेत्र में लगभग 10,000 लोगों की छँटनी की जा चुकी है। छोटी कम्पनियों से होने वाली छँटनी का तो पता ही नहीं चलता है। तमाम आईटी जानकारों का मानना है कि 2017 में हुई छँटनी 2008 की छँटनी से भी ज़्यादा है। अनुमान हैं कि 2018 में नयी भर्तियाँ 2017 के मुक़ाबले आधी से भी कम हो जायेगी।

29 जुलाई के बिज़नेस स्टैण्डर्ड में छपी एक ख़बर के मुताबिक़ देश में स्थायी नौकरियाँ घटती जा रही हैं। सबसे तेज़ी से स्थायी नौकरियाँ ऑटोमोबाइल सेक्टर में घट रही हैं। इस सेक्टर की मारुति सुज़ुकी, हीरो मोटोकोर, अशोक लेलैण्ड और टीवीएस मोटर जैसी बड़ी कम्पनियों में 2017-18 में 24,350 अतिरिक्त स्टाफ़ रखा गया। जिनमें से 23,500 से अधिक नौकरियाँ ठेके की हैं।

ऑल इण्डिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन रिपोर्टर 2017-18 की रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन सालों में कॉलेजों में अस्थायी प्रोफ़ेसर और प्रोफ़ेसर की कुल संख्या में 2.34 लाख की कमी आयी है। विभिन्न विभागों में हो रही भर्तियों को आन्दोलन और कोर्ट कचहरी के अनिवार्य चरण से होकर गुज़रना पड़ रहा है। यूपी में 12460 बीटीसी और 4000 उर्दू शिक्षक कोर्ट से दो-दो बार जीतने के बाद भी सरकार नियुक्ति पत्र नहीं दे रही थी। इसके खि़लाफ़ नौजवानों ने जब आन्दोलन छेड़ा तो सरकार ने मुँह के बदले लाठियों से बात की। मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ के आश्वासन के और कोर्ट के चार हफ़्ते में नियुक्ति पत्र देने के आदेश के बाद भी सबको नियुक्ति पत्र नहीं मिला है। 20 जुलाई तक क़रीब 5000 को ही नियुक्ति पत्र मिला है और अब भी लगभग 12000 लोग नियुक्ति पत्र का इन्तज़ार कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग इंजीनियरिंग सेवाओं के लिए परीक्षा का फ़ार्म दिसम्बर 2013 में निकला था, अप्रैल 2016 में परीक्षा होती है लेकिन रिज़ल्ट अभी तक नहीं आया है। बिहार सिविल कोर्ट क्लर्क परीक्षा 2016 का रिज़ल्ट अभी तक नहीं निकला है। हाल ही में नौजवानों ने रिज़ल्ट निकालने को लेकर पटना के गाँधी मैदान में और लखनऊ में प्रदर्शन भी किया था।

जो नौकरियाँ निकल भी रही हैं, वे भी भ्रष्टाचार, धाँधली की शिकार हो जा रही हैं। छात्र तैयारी करते रह जा रहे हैं और नौकरी किसी पैसे वाले या किसी सिफ़ारिशी के बेटे-बेटियों को मिल जा रही है। परीक्षा हो जाने के बाद रिज़ल्ट नहीं निकाला जा रहा है, ज्वाइनिंग नहीं हो रहा है या फिर पूरी भर्ती प्रक्रिया को कोर्ट में धकेल दिया जा रहा है ।

मोदी सरकार काफ़ी समय से विश्वभर की अार्थिक एजेंसियों के हवाले से भारत में जीडीपी ग्रोथ की ढोल पीट रही है। लेकिन विश्वबैंक की एक रिपोर्ट ‘जाबलेस ग्रोथ 2018’ के मुताबिक़ 2015 में भारत में बेरोज़गारी की दर 48% थी। काम करने योग्य 100 लोगों में सिर्फ़ 52 लोगों के पास रोज़गार है। और यथास्थिति बनाये रखने के लिए हर साल क़रीब 80 लाख नौकरियों की ज़रूरत है। जबकि श्रम मन्त्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक़ 2015-16 में रोज़गार सृजन मात्र 1.55 लाख और 2.13 लाख रहा।

इसी रिपोर्ट के अनुसार विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने का दम भरने वाला भारत रोज़गार देने के मामले में अपने पड़ोसियों से काफ़ी पीछे है।

देश                    रोज़गार की दर

श्रीलंका               90

नेपाल                 81

मालदीव              66

भूटान                  65

बंगलादेश            60

बेरोज़गारी की भयंकर स्थिति की पहली बड़ी मिसाल सितम्बर 2017 के पहले सप्ताह में देखने में आयी, जब उत्तर प्रदेश विधानसभा सचिवालय में चपरासी के 368 पदों के लिए 23 लाख आवेदन आये थे, जिसमें लगभग 2 लाख उच्चशिक्षित युवाओं ने आवेदन किया था। पाँचवीं पास आवेदकों की संख्या महज़ 53 हज़ार थी जोकि आवेदन की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता थी। इसी साल मुम्बई में 1137 पुलिस कांस्टेबल की भर्ती के लिए 2 लाख युवाओं ने फ़ॉर्म भरा था, जिसमें 423 इंजीनियर, 167 एमबीए और 543 पोस्ट ग्रेजुएट उम्मीदवार थे।

कुछ सरकारी नौकरियों में प्राप्त आवेदनों की संख्या

विभाग                 पद                     आवेदन

रेलवे                   90000                2,80,00,000

महाराष्ट्र 

पुलिस कां.            1137                2,00,000

राजस्थान

वि.स. सचिवालय   18                   18,000

जि़ला न्यायालय

देवास चतुर्थ श्रेणी    34                  8,000

पश्चिम बंगाल ग्रुप डी 6000            25,00,000

ये आँकड़े अपने-आप ही भारत में बेरोज़गारी की हालत बयान करने के लिए काफ़ी हैं।

बेरोज़गारी पर नोटबन्दी और जीएसटी का प्रभाव

8 नवम्बर 2016 की रात को मोदी ने अचानक से 500 और 1000 रुपये के नोट को बन्द करने की घोषणा करते हुए इसे काले धन पर हमला क़रार दिया था और यह भी बताया कि इससे काले धन को ख़तम कर टैक्स वसूली बढ़ेगी। पूँजीपतियों के टुकड़ो पर पलने वाले तमाम मीडिया संस्थानों के द्वारा झूठी ख़बर फैलायी गयी कि नोटबन्दी के फ़ैसले से लगभग 5 लाख करोड़ का काला धन बर्बाद हो जायेगा जिसका इस्तेमाल सरकार बड़ी-बड़ी कल्याणकारी योजनाओं में करेगी। साथ ही साथ यह भी ख़ूब प्रचारित किया गया कि इससे देश से आतंकवाद, भ्रष्टाचार और नकली नोटों का तो बिल्कुल सफाया ही हो जायेगा। समय बीतने के साथ जब मोदी सरकार के इस फ़ैसले पर सवाल उठने लगे तो सरकार ने बहुत बेशर्मी के साथ गोल पोस्ट बदलते हुए कैशलेस लेनदेन की बात करने लगी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि उस समय देश में कैश परिचालन का लगभग 86.4% हिस्सा 500 और 1000 रुपये के नोटों के रूप में ही होता था तथा देश में 98% लेनदेन और लगभग 93% असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के वेतन का भुगतान कैश में होता था। नोटबन्दी के इस फ़ैसले से सकल घरेलू उत्पाद में 45% हिस्सा रखने वाले असंगठित क्षेत्र, जिनमें छोटे उद्योग-धन्धे, मध्यम किसान, दूकानदार आदि आते हैं, लगभग बर्बाद हो गये क्योंकि इन उद्योगों के लिए ज़रूरी कच्चा माल, खाद, बीज, कीटनाशक आदि नगद पूँजी से आता है, जिससे इस सेक्टर में काम करने वाले लाखों लोग बेरोज़गार हो गये। नोटबन्दी के कुछ ही दिन बाद से ख़बर आने लगी थी कि सूरत और लुधियाना में कपड़ा बनाने वाले लगभग 22000 छोटे-छोटे उद्योग चौपट हो गये थे। इसी तर्ज़ पर बनारस के बुनकरों का काम, मुरादाबाद के बर्तनों का उद्योग, बंगाल का चाय का उद्योग आदि छोटे-छोटे काम-धन्धे 50 से 70 प्रतिशत तक ठप पड़ गये। काम बन्द होने से लाखों मज़दूर बेरोज़गार हो गये और उनके भूखों मरने की नौबत आ गयी है और लगभग यही हालत ग्रामीण और खेतिहर मज़दूरों की भी है। दूसरी तरफ़ बड़े नोटों को अचानक इस तरह से बन्द कर देने से पूरे देश में अफ़रा-तफ़री मच गयी। काम-धन्धा, दफ़्तर, मज़दूरी छोड़ लोग बैंकों के बाहर अपनी ख़ून-पसीने की कमाई के लिए लम्बी-लम्बी लाइनों में खड़े ठण्ड में ठिठुरते रहे और इस दौरान सैकड़ों लोगों की मौत भी हो गयी। जीएसटी की वजह से भी बहुत सारे छोटे उद्योग-धन्धे चौपट हो जाने से हज़ारों लोग उजड़कर सड़कों पर आ गये।

ख़ाली पदों की है भरमार, फिर भी युवा है बेरोज़गार

5 अगस्त के टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में छपी ख़बर के अनुसार केन्द्र और राज्य सरकारों के पास 24 लाख (केन्द्र और राज्य सरकारों के कर्मचारी चयन आयोगों के आँकड़ों को छोड़कर) नौकरियाँ ख़ाली पड़ी हुई हैं। देश के युवा दिन-रात एक करके तैयारी कर रहे हैं और नौकरी निकलने की बाट जोह रहे हैं, लेकिन नौकरियाँ होते हुए भी नहीं दी जा रही हैं या देने में देरी की जा रही है। 10 लाख नौकरियाँ तो सिर्फ़ प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में हैं। लाखों नौजवान टीईटी और बीएड करके घर बैठे हैं। पुलिस में 5 लाख 40 हज़ार पद ख़ाली पड़े हैं। अर्धसैनिक बलों में 61509, सेना में 62084, पोस्टल विभाग में 54263, स्वास्थ्य केन्द्रों पर 1.5 लाख, आँगनवाड़ी वर्कर में 2.2 लाख, एम्स में 21470, अदालतों में 5,853 पद ख़ाली पड़े हैं। देश के 47 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में लगभग 7 हज़ार प्रोफ़ेसर के पद ख़ाली हैं। वहीं दूसरी तरफ़ 363 राज्य विश्वविद्यालयों में लगभग 63 हज़ार प्रोफ़ेसर नहीं हैं। औसतन इंजीनियरिंग कॉलेज में 27% प्रोफ़ेसर के पद ख़ाली हैं। इन सबके अलावा रेलवे में 2.4 लाख नौकरियाँ हैं।

अगर 24 लाख में केन्द्र और राज्य सरकारों के कर्मचारी चयन आयोगों के आँकड़ो को शामिल कर लिया जाये तो यह आँकड़ा 50 लाख से ज़्यादा पहुँच जायेगा।

भारत में हर पाँच साल पर बदलने वाली सरकारें नये रोज़गार पैदा करने के मामले में ही फ़ेल नहीं हैं, बल्कि लाखों की संख्या में ख़ाली पदों को भरने में भी नाकामयाब साबित हो रही हैं।

काम करने योग्य आबादी में मासिक वृद्धि (2005 से 2015 तक) 13,19,000      

कुल आबादी का रोज़गार प्रतिशत 52

हर वर्ष रोज़गार की आवश्यकता ताकि रोज़गार की दर 52% से कम न हो 82,30,560

                       

बेरोज़गारी को लेकर समाज में प्रचलित तर्क–  टेक्नोलॉजी, स्वरोज़गार, योग्यता, आरक्षण

आमतौर पर आईटी सेक्टर में बढ़ती बेरोज़गारी के लिए ऑटोमेशन और बढ़ती टेक्नोलॉजी को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। इस तर्क के अनुसार विज्ञान की प्रगति लाखों लोगों के लिए ख़तरनाक होती जा रही है। इसके पीछे बहुत आसानी से लूट और मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी निज़ाम को बचा लिया जाता है। टेक्नोलॉजी का विकास, जिसे व्यवस्था राक्षस बता रही है, अगर उसे सही ढंग से इस्तेमाल किया जाये तो मनुष्य के लिए वरदान साबित हो सकती है। सभी लोगों के लिए काम के घण्टों में कमी आ सकती है। लेकिन मुनाफ़ा केन्द्रित समाज में यह सम्भव नहीं है।

नौकरी क्यों माँग रहे हो! ख़ुद नौकरी पैदा करो यानी स्वरोज़गार का तर्क आजकल ख़ूब प्रचलन में है। आसानी से समझा जा सकता है कि आज के समय में स्वरोज़गार का तर्क बिल्कुल आधारहीन और अवैज्ञानिक है, क्योंकि एक पूँजीवादी समाज में बड़ी पूँजी छोटी पूँजी को निगल जाती है, जिसका बहुत साफ़-साफ़ उदाहरण जिओ का है। जिओ के आने से पहले भारत में 11 टेलिकॉम कम्पनियाँ काम करती थीं, लेकिन जिओ द्वारा लगायी गयी बड़ी पूँजी के सामने छोटी-मोटी पूँजी अपने-आपको सँभाल नहीं सकी और वोडाफ़ोन जैसी बड़ी कम्पनी आइडिया के हाथों बिक गयी और इस समय भारत में सिर्फ़ तीन टेलिकॉम कम्पनियाँ काम कर रही हैं। फ़्ल‍िपकार्ट के द्वारा मिन्त्रा, जबोंग का अधिग्रहण और ख़ुद फ़्ल‍िपकार्ट का वालमार्ट के हाथों बिक जाना जैसे तमाम उदाहरण समाज में पड़े हैं। स्वरोज़गार करने वाले 1000 लोगो में से कोई 1 या 2 लोग ही सफल हो पाते हैं जिनको आधार बनाकर बाक़ी के 999 को कामचोर क़रार दिया जा रहा है।

योग्यता का तर्क देकर आज के समय में युवाओं को ही अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। लेकिन जिस योग्यता का तर्क दिया जाता है वह भर्ती के लिए निकाली गयी नौकरियों से तय होती। अगर सौ सीट के लिए नौकरी निकली, तो सौ लोग योग्य हो जाते हैं और अगर सीट ही नहीं निकली तो कोई योग्य नहीं होता है। और उनको तो बिल्कुल ही अयोग्य क़रार दिया जाता है, जो पढ़ाई के अलावा संगीत, कला, कविता, कहानियों और खेलों में रुचि रखते हैं।

आये दिन आरक्षण का मुद्दा उछाल कर नौजवानों की एकजुटता में सेंध लगाये जाने का काम ख़ूब किया जा रहा है, क्योंकि अगर लोग आपस में ही बँटे रहेंगे तो शिक्षा-रोज़गार का मुद्दा पीछे छूट जायेगा। जिससे सताधारियों को दो फ़ायदे होंगे। पहला तो यह कि जाति और धर्म के आधार पर चुनावी लामबन्दी आसान हो जायेगी और दूसरा यह कि बुनियादी अधिकारों के लिए सरकार को लोगों का विरोध भी नहीं झेलना पड़ेगा। इसका एक बहुत ताज़ा उदाहरण हम लोगों के सामने है कि कुछ दिन पहले एसएससी में हुई धाँधली के खि़लाफ़ छात्र-युवा सड़कों पर आये तभी एससी/एसटी बिल में संशोधन कर दिया गया, जिसका फ़ायदा सीधे सरकार को मिला और छात्रों का आन्दोलन जाति के नाम पर बिखर गया और जिस असीम खुराना को हटाने को लेकर यह आन्दोलन आगे चल रहा था, उसी का कार्यकाल भाजपा सरकार ने एक साल और बढ़ा दिया।

क्यों पैदा होती है बेरोज़गारी

पूँजीवाद वर्ग विभाजित निजी मालिकाने पर टिकी हुई एक व्यवस्था है, जिसके केन्द्र में इन्सान नहीं मुनाफ़ा होता है। पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली स्वभाव से अराजक होती है, जिसमें उत्पादन लोगों की आवश्यकता के हिसाब से नहीं बल्कि मुनाफ़ा कमाने के लिए होता है, पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में समाज की आवश्यकताओं का कोई ठोस आकलन नहीं होता है, उत्पादन पूरा पूँजीपति वर्ग एक साथ मिलकर नहीं करता है, बल्कि अलग-अलग पूँजीपति पिछले कुछ सालों के पुराने आँकड़ों के आधार पर निर्धारित करते हैं। बाज़ार की गलाकाटू प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए पूँजीपति अपने उत्पादन में लगने वाली कुल लागत को कम से कम रखने का प्रयास करता है।

उत्पादन के दौरान लगने वाली कुल पूँजी के दो हिस्से होते हैं

स्थिर पूँजी : जिसके अन्तर्गत कच्चा माल, मशीन, ज़मीन, बिजली, पानी, बिल्डिंग आदि चीज़ों पर लगने वाली पूँजी का हिस्सा आता है, जो वास्तव में उत्पादन के दौरान कोई नया मूल्य नहीं पैदा करता है, क्योंकि यह नये उत्पादित माल में बिना बढ़े हुए सीधे-सीधे रूपान्तरित हो जाता है।

परिवर्तनशील पूँजी : एक पूँजीवादी समाज में इन्सान के सबसे मौलिक गुण श्रम को भी बाज़ार के माल में तब्दील कर दिया जाता है और इसकी भी क़ीमत बाज़ार में श्रमशक्ति की माँग और आपूर्ति से तय होती है। उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान श्रम ही वह कारक है जो अनुपयोगी कच्चे माल को मशीनों की सहायता से एक उपयोगी वस्तु में बदल देता है। श्रम से ही वस्तुओं में उपयोग मूल्य पैदा होता है। पूँजीपतियों के द्वारा श्रमशक्ति को ख़रीदने में लगायी गयी पूँजी के हिस्से को परिवर्तनशील पूँजी कहते हैं, क्योंकि उत्पादन से पहले की तुलना में इसका दाम बढ़कर उत्पादित माल में स्थानातरित हो जाता है। यही बढ़ा हुआ मूल्य बेशी मूल्य कहलाता है जिसको पूँजीपति हड़प लेता है।

बेशी मूल्य ही वह कारक है जिससे पूँजीवादी समाज में मुनाफ़ा पैदा होता है, इसलिए पूँजीपति कुल लागत को कम रखने के लिए बेशी मूल्य को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाने की कोशिश करता है जिसको दो तरीक़ों से अंजाम दिया जा सकता है – पहला काम के घण्टे को बढ़ाकर, दूसरा काम की गति को बढ़ाकर। काम की गति को बढ़ाने के लिए पूँजीपति उन्नत मशीनों को लगाता है जिसकी वजह से अब कम मज़दूर ही उन्नत मशीनों की सहायता से उत्पादन को पहले के स्तर से बढ़ा सकते हैं। परिणामस्वरूप पूँजीपति मज़दूरों के एक हिस्से को काम से निकालकर बाहर कर देता है और इस प्रक्रिया में बेरोज़गारों की एक फ़ौज काम न होने की वजह से सड़को पर आ जाती है।

उत्पादन जितने बड़े पैमाने पर होता जाता है, लागत उसी अनुपात में कम होती जाती है, इसलिए पूँजीपति वर्ग हरदम इस जुगत में रहता है कि उत्पादन बड़े से बड़े पैमाने पर हो ताकि ज़्यादा से ज़्यादा बेशी मूल्य पैदा किया जा सके। मुनाफ़े की हवस में पूँजीपति इतना पैदा कर देता है जो बाज़ार में बिक नहीं पता है और अति-उत्पादन की वजह से माल से बाज़ार पट जाता है। उसके माल के ख़रीदार नहीं मिलते, क्योंकि कारख़ाने का मज़दूर ही बाज़ार में ख़रीदार होता है और पूँजीपति मज़दूरों को लगातार लूट कर अपना मुनाफ़ा बढ़ाता है और उसको मज़दूरी के नाम पर बस इतना मिलता है कि वह किसी तरह से अपना और अपने परिवार का पेट पाल सके। जिसका परिणाम यह होता है कि एक तरफ़ बाज़ार माल से पटा रहता है और दूसरी ओर लाखों-करोड़ों लोग जि़ल्लत की ज़िदगी जीने को मजबूर होते जाते हैं। यह परिघटना किसी एक पूँजीपति के साथ नहीं बल्कि पूरे पूँजीपति वर्ग के साथ घटित होती है और पूरा सेक्टर ही मन्दी की शिकार हो जाता है। यही घटना अन्य सेक्टरों के साथ भी होती है और पूरी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मन्दी आ जाती है।

मन्दी के कारण माल बाज़ार में पड़ा रहता है और पूँजीपतियों को उनका मुनाफ़ा वापस नहीं मिलता है जिसकी वजह से पूँजीपति उत्पादन में कटौती करता है और कभी-कभी तो उत्पादन की प्रक्रिया को ही रोक देता है। जिससे उत्पादन में निवेश घटता है, कारख़ाने बन्द होते हैं, छँटनी शुरू हो जाती है, और बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ती है। सेण्टर फ़ॉर मोनेटरिंग इण्डियन इकोनॉमी की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में 2017 से 2018 के बीच 57 लाख लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो चुके हैं।

पूँजीवाद अपनी स्वाभाविक गति से लगातार बेरोज़गारी पैदा करता रहा है। बेरोज़गार-रहित पूँजीवाद की कल्पना करना भी अपने-आप को धोखा देना ही साबित होगा, क्योंकि बेरोज़गारी पूँजीवादी समाज की ज़रूरत है। बेरोज़गारी सामाजिक असुरक्षा का एक ख़ौफ़ पैदा करती है जो मज़दूरों को कम मज़दूरी पर भी काम करने को मजबूर करता है। बेरोज़गारों की फ़ौज पूँजीपति वर्ग की औद्योगिक रिज़र्व सेना का काम करता है जिसका इस्तेमाल हड़ताल तोड़ने और सस्ते मज़दूरों की सप्लाई का स्रोत के रूप में होता है।

आगे की लड़ाई की दिशा क्या होनी चाहिए

बेरोज़गारी से लड़ने के नाम पर स्किल इण्डिया, स्टार्टअप इण्डिया, वोकेशनल ट्रेनिग जैसी तमाम योजनाओं के विज्ञापन पर सरकार ने जमकर पैसा लुटाया, और बेरोज़गारी की असली वजह को लोगों के सामने नहीं जाने दिया। बेरोज़गारी महज़ एक मानवीय समस्या नहीं है, जिसका सामना बेरोज़गारों को करना पड़ता है। यह मौजूदा व्यवस्था के उत्पादन बढ़ाने की अक्षमता को व्यक्त करता है।

चूँकि लूट मुनाफ़े पर टिकी हुई पूँजीवादी निज़ाम के लिए बेरोज़गारों का होना पूँजीपतियों के मुनाफ़े के लिए सेहतमन्द होता है। ऐसे में इस व्यवस्था की परिधि में रहकर बेरोज़गारी से निजात पाने के बारे में सोचना अन्ततोगत्वा दिवास्वप्न साबित होगा। ऐसे में ‘सबको शिक्षा, सबको काम’ नारे के इर्द-गिर्द एक बड़ी लामबन्दी क़ायम करते हुए आन्दोलन छेड़ने की ज़रूरत है और इस संघर्ष को पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के चलने वाले व्यापक संघर्ष से जोड़े बग़ैर इसका कोई हल नहीं निकल सकता है। असल मायने में इस समस्या का समाधान न्याय और समता पर आधारित समाजवादी समाज में ही सम्भव है।

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