संपादकीय एक : जीरो बजट खेती की मृगतृष्णा
मराठी कृषि विज्ञानी सुभाष पालेकर को 2016 में पदम श्री मिलने के बाद जीरो बजट प्राकृतिक खेती चर्चा में आया। अधिक वाणिज्यिक लागत वाली खेती और इससे उपजने वाली समस्याओं को देखते हुए कई लोगों ने प्राकृतिक खेती को समाधान के तौर पर देखा। पहली बात तो यह कही गई कि बीज, खाद और रसायनों की खरीद बंद करने से उत्पादन लागत में काफी कमी आएगी। दूसरी बात यह कही गई कि ये खर्चे कम होने से कर्ज पर किसानों की निर्भरता कम होगी और वे कर्ज के दुष्चक्र से निकल पाएंगे। इन्हीं बातों को आधार पर भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार जीरो बजट खेती को बढ़ावा देने की बात कर रही है। आर्थिक समीक्षा 2018-19 और बजट 2019 में यह दिखता है। लेकिन क्या कुछ सच्चाइयों को पीछे छोड़ देना आसान होगा?
खबरों के मुताबिक जब पालेकर को 2016 में सम्मान मिला तब तक उनके प्रयोग के तकरीबन एक दशक हो गए थे। इसके बारे में कुछ रिपोर्ट और पालेकर की किताब के अलावा इसके आर्थिक आयामों पर कोई भी स्वतंत्र और समग्र अध्ययन सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं हैं। 81 देशों के 182 किसान संगठनों के गठजोड़ ला विया कैंपेसिना यानी एलवीसी ने 2016 में एक केस स्टडी किया था। इसमें बताया गया कि कर्नाटक में पालेकर के साथ जो किसान काम कर रहे हैं, वे मझोले किसान हैं। इससे इस पद्धति की समावेशिता का प्रश्न स्पष्ट नहीं होता है। वहीं इसे बड़े पैमाने पर ले जाने और सतत बनाने पर भी सवाल हैं। इसी रिपोर्ट में जीरो बजट खेती वाले उत्पादों को बेचने की दिक्कतों का भी जिक्र है। कुछ मीडिया रिपोर्ट में यह बात भी आई है कि इस पद्धति से खेती करने वाले कई किसान पारंपरिक अधिक लागत वाली खेती पर अधिक मुनाफा हासिल करने के लिए लौट गए।
अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि इस पद्धति का लाभ छोटे किसान कैसे उठा पाएंगे। तो फिर सरकार इसके जरिए 2020 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात कैसे कर रही है? अगर इस तरह की खेती में मझोले किसान शामिल हैं तो इसे आगे बढ़ाने की अपनी अलग राजनीति से इनकार नहीं किया जा सकता। ऐतिहासिक तौर पर देखा गया है कि मझोले किसानों ने राजनीतिक दलों के चुनावी जीत-हार तय करने में अहम भूमिका निभाई है। खास तौर पर उत्तर भारत के हिंदी भाषी क्षेत्र में। दबाव की इस राजनीति में छोटे किसानों, सीमांत किसानों और कृषि मजदूरों के नहीं शामिल होने से कृषि क्षेत्र में बड़े बदलाव नहीं हो पाए। इन परिस्थितियों में सरकारी नीतियां हमेशा ‘शांत करने वाले’ रहे हैं न कि ‘बदलाव लाने वाले’ रहे हैं।
याद रहे कि पालेकर की इस पद्धति को 2016 में तब मान्यता मिली जब दिसंबर, 2015 में जमीन अधिग्रहण कानून, 2013 में से अनिवार्य सहमति के प्रावधान और सामाजिक प्रभाव को हटाने के लिए आए अध्यादेश की वजह से बड़ा राजनीतिक विरोध-प्रदर्शन हुआ था। जमीन के ‘स्वामित्व’ का मुद्दा अभी अधर में लटका हुआ है, ऐसे में कृषि तकनीक में बदलाव से किसानों का क्या भला होने वाला है? जीरो बजट खेती का मतलब यह नहीं है कि किसानों की कोई लागत ही नहीं लगेगी। इसका मतलब यह है कि उत्पादन लागत को एक साथ दो फसलें उगाकर निकाला जा सकता है। एक साथ एक से अधिक फसल उपजाने को बढ़ावा दिया जा रहा है जबकि एक फसल को बढ़ावा देने वाली न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हो रहा। इससे स्वघोषित ‘किसानपरस्त’ सरकार के बारे में काफी कुछ पता चलता है।
जीरो बजट खेती के जरिए सरकार पारंपरिक तरीकों पर लौटने की बात करके सरकार राष्ट्रवादी भावनाओं को उभारना चाहती है। ऐसा करने से जो माहौल बनता है उसमें लोग सरकार से कठिन सवाल नहीं पूछते। ऐसा करके सरकार शासन संबंधित अपनी खामियों को छिपाने का काम कर रही है। अगर जीरो बजट खेती से लागत कम होती तो फिर कभी इस मामले में आगे रहने वाला आंध्र प्रदेश पर्यावरण के अनुकूल जीरो बजट खेती योजना पर तकरीबन 17,000 करोड़ रुपये क्यों खर्च कर रहा है? वैश्विक वित्तीय संस्थाओं, कृषि कंपनियों और पर्यावरण बाॅन्ड के जरिए आने वाला यह पैसा इस नीति के अंतर्विरोधों को जाहिर करता है। इससे यह शंका भी पैदा होती है कि जीरो बजट खेती के तौर पर नव-उदारवादी सरकार को एक नया औजार मिल गया है जिसके जरिए वह काॅरपोरेट जगत को फायदा पहुंचाएगी और प्राथमिकता वाले क्षेत्रों पर अपने खर्च कम करेगी।
संपादकीय दो : दिखावे का खेल
जून के महीने में दिल्ली में थोड़े समय के लिए धूल भरी आंधी आती है। इस बार की आंधी में आधी सदी पहले पड़े धूल भी उड़े। चुनावों के बाद आई नई शिक्षा नीति में पुराने तीन भाषा के फार्मूले पर विवाद छिड़ गया। इसमें हिंदी को शामिल किए जाने का विरोध तमिलनाडु से होने लगा। इसके बाद मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने विवादित पैराग्राफ को नई शिक्षा नीति के मसौदे से हटा लिया। ऐसे में नई पीढ़ी के पाठकों के लिए तीन भाषा के फाॅर्मूले के पुराने मामले को समझना प्रासंगिक है।
कुछ मौके ऐसे होते हैं जब पुराने दस्तावेज ज्यादा समकालीन लगने लगते हैं। तीन भाषा का फाॅर्मूला शिक्षा आयोग द्वारा तैयार की जा रही नीति के वक्त चर्चा में आया था। 1964 से 1966 के बीच के इस आयोग की अध्यक्षता डीएस कोठारी ने की थी। इसके सदस्य सचिव जेपी नाइक ने रिपोर्ट तैयार किया था। उन्हें देश के विभिन्न हिस्सों की शिक्षा की समस्याओं का अहसास था। आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि तीन भाषाओं का फाॅर्मूला केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने 1956 में तैयार किया था। बाद में इसे सरल रूप में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन ने 1961 में स्वीकार किया। कोठारी आयोग ने कहा, ‘इसे स्वीकार करने के पीछे शैक्षणिक से अधिक राजनीतिक और सामाजिक वजहों को आधार बनाया गया।’
कोठारी आयोग की रिपोर्ट में भाषा पर विस्तार से जिस खंड में चर्चा हुई थी, उसमें राजनीतिक अनिवार्यताओं और शैक्षणिक जरूरतों के बीच संतुलन साधने की कशमकश दिखती है। इसमें कहा गया, ‘तीन भाषा फाॅर्मूले को लागू करने से कई तरह की समस्याएं आईं और यह बेहद सफल नहीं कहा जा सकता। इसके लिए कई बातें जिम्मेदार हैं। स्कूली पाठ्यक्रम में भाषाओं का बोझ बढ़ गया। हिंदी क्षेत्रों में एक और आधुनिक भारतीय भाषा बढ़ने का उत्साह कम रहा। गैर-हिंदी क्षेत्रों में हिंदी पढ़ने को लेकर प्रतिरोध रहा। पांच से छह साल तक दूसरी और तीसरी भाषा बढ़ाने से आर्थिक बोझ भी बढ़ा। जहां तक तीसरी भाषा का सवाल है तो कई क्षेत्रों में छात्रों को इससे कोई फायदा नहीं हुआ क्योंकि उन्हें इसे पढ़ने के लिए उपयुक्त माहौल नहीं मिला।’ विभिन्न विकल्पों और एक असहमति पर विचार करने के बाद कोठारी आयोग ने कहा, ‘हम यह मानते हैं कि प्रारंभिक स्तर पर तीन भाषाएं पढ़ने से बच्चों को अपनी मातृभाषा सीखने की प्रक्रिया बाधित होगी और इससे उसका बौद्धिक विकास भी प्रभावित होगा। निकट भविष्य में अपनी भाषा सीखने पर जोर देना चाहिए। अतिरिक्त भाषा सीखने पर न्यूनतम जोर दिया जाना चाहिए।’
अब 21वीं सदी के दूसरे दशक के अंत में लौटते हैं। कोठारी और नाइक ने शिक्षा में जिन बदलावों का अनुमान नहीं लगाया था और जिन्हें जरूरी नहीं समझा था, वे बदलाव भी शिक्षा के क्षेत्र में हो चुके हैं। सरकारी स्कूलों पर निजी स्कूल हावी हैं। वे बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देने पर बहुत अधिक जोर दे रहे हैं। प्रशिक्षित शिक्षकों का घोर अभाव है। शिक्षकों का प्रशिक्षण पूरी तरह से व्यावसायिक हो गया है। शिक्षकों की नियुक्ति में कई सांस्थानिक खामियां हैं। कोठारी, नाइक और उनके सहयोगी होते तो इस स्थिति पर हैरान होते। उन लोगों ने शिक्षा की परिकल्पना सरकार को केंद्र में रखकर की थी। लेकिन अब स्थिति बिल्कुल बदल गई है। राजनीतिक अनिवार्यताओं की जगह बाजार के दबावों ने ले ली है। राजनीतिक अनिवार्यताएं सिर्फ दिखावे के लिए हैं। इन्हें बस मीडिया में उछाला जाता है। हिंदी के प्रोत्साहन में वास्तविक तत्व नहीं है बल्कि सिर्फ दिखावा है। तीन भाषा के फाॅर्मूले में हिंदी की भूमिका की बात करके राष्ट्रवाद के पुराने माॅडल को दोहराने की कोशिश की गई है। ऐसे में जब विरोध वहीं से आया जहां से उम्मीद थी तो तुरंत ही हिंदी नहीं थोपने की बात करके मामले को पुराने ढंग से रफा-दफा करने का काम किया गया।
शिक्षा में भाषा से संबंधित मसलों पर अंग्रेजी के बढ़ते प्रभावों की आलोचना अक्सर हुई है। नए मसौदे में भी यही दोहराया गया है। इसमें भी कहा गया है कि जहां तक संभव हो शिक्षा मातृ भाषा में ही दी जानी चाहिए। नीतियों पर होने वाले विमर्श में पुराने और नए अभिजात्य वर्ग में संकेतों का आदान-प्रदान होता है। जहां तक हिंदी का सवाल है तो इसमें इस भाषा को राष्ट्रवाद से जोड़े जाने की बात अब खत्म हो गई है क्योंकि देश को जोड़ने के दूसरे भावनात्मक मुद्दे प्रभावी साबित हुए हैं।