2018-19 के वित्तीय बजट के माध्यम से मोदी जी ने वादा किया है कि यह बजट ग्रामीण क्षेत्रों के विकास पर केंद्रित है। मोदी जी की सरकार को 26 मई 2018 को चौथा साल पूरा हो जायेगा। संसद से सड़क तक, इलेक्ट्रानिक मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक काफी शोर मचा कि यह बजट ग्रामीण इलाकों यानि गांव, गरीब, किसान तथा ग्रामीण मजदूरों के हित का बजट है। बजट से कुछ दिन पहले एक रिपोर्ट में कहा गया कि जीडीपी यानि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की भागीदारी 17.32 प्रतिशत जबकि औद्योगिक क्षेत्र में 29.02 प्रतिशत सेवा क्षेत्र की भागीदारी 53.66 प्रतिशत है। दो वर्ष पहले एक रिपोर्ट में कहा गया कि दो करोड़ किसान परिवारों ने खेती छोड़ दी है। आर्थिक विश्लेषकों का मत है कि विकास दर में सेवा क्षेत्र की बड़ी भागीदारी के बावजूद रोजगार के मामूली अवसर प्राप्त होते हैं जबकि यह माना जाता रहा है कि देश स्तर पर सबसे ज्यादा रोजगार के अवसर कृषि क्षेत्र से उपलब्ध होते रहे है तथा औद्योगीकरण के बाद औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़े हैं। उपरोक्त रिपोर्ट में कृषि क्षेत्र के विकास में भागीदारी की बात चौंकाने वाली लगती है।
चूँकि आंकड़े सच बोलते हैं तो निश्चित ही अनेक सवाल खड़े करते हैं। मैं मोदी जी के दावोस सम्मेलन में उपस्थिति के अवसर पर देश के उद्योगपति राहुल बजाज के एक बयान का जिक्र करते हुए कहना चाहता हूँ कि उन्होंने 25 वर्ष पहले पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगोड़ा के दावोस सम्मेलन में शिरकत का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि वे अपनी पत्नी के साथ देशाटन करने गये थे। चूँकि राहुल बजाज ऐसे उद्योगपति है जिनके पास उत्तर प्रदेश में बारह वर्ष पहले दो शुगरमिल (चीनी मिलें) थीं जिसकी संख्या बढ़कर अब सोलह हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में चीनी मिलों की हालात की चर्चा करूं जो कि पूर्णतः कृषि आधारित उद्योग है। उत्तर प्रदेश में राहुल बजाज की सोलह मिलों में से एक बस्ती की चीनी मिल भी है जिसे अघोषित तौर पर बंद कर दिया गया। लगातार चार वर्षों से उस क्षेत्र के किसान तथा मिल-मजदूर धरना-प्रदर्शन और अनशन के माध्यम से आंदोलनरत हैं। चार साल से ज्यादा समय से उन मजदूरों को मजदूरी नहीं मिली तथा किसानों के गन्ना के बकाया भुगतान से लेकर के गन्ना आपूर्ति का समुचित तरीके से इंतजाम न होने के कारण काफी किसानों ने गन्ने की बुआई कम कर दी।
आन्दोलनरत किसानो अनेक बार लाठियां बरसाई गयीं तथा तमाम संगठनों के नेताओं को पुलिस प्रशासन, जिला प्रशासन तथा बजाज के गुंडों द्वारा धमकियां भी मिलती रहीं फिर भी किसान-मजदूर अपनी मांग पर डटे रहे। किसानों की तमाम मांगों मे से एक मांग यह भी है कि मिल में बड़े पैमाने पर अनियमितता एवं सरकारी पैकेज का अनियमित तरीके से लाभ उठाने की जांच करायी जाए। इसके बारे में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ‘अजय सिंह बिष्ट’ ने कुर्सी सम्भालते हुए मिलों की हालत सुधारने तथा बंद मिलों को चलाने की घोषणा की थी। वह भी घिसा-पिटा फार्मूला पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) को लागू करना जो की अभी तक क्रियान्वित नही हुआ। जहां-जहां मिलें बंद हुयीं, उन मिल मजदूरों तथा किसानों के परिवारों की हालत बदतर हुई। उनकी पढ़ाई-लिखाई, भोजन-कपड़े का प्रबंध तक खतरे में पड़ गया और उनकी सामाजिक स्थिति बद से बदतर हो गयी। जितने दिनों से जिन मजदूरों की मजदूरी नहीं मिली उसकी खोज खबर देश और प्रदेश की सरकारों द्वारा भी नही ली गयी। स्थानीय जनप्रतिनिधि जो बड़े-बड़े वादों के साथ किसानो मजदूरों के वोट से चुनकर आए उन लोगों ने इसकी चर्चा ना ही राज्य विधानसभा और ना ही लोकसभा में ही की जबकि बस्ती लोकसभा क्षेत्र की नुमाइंदगी गांव, गरीब, किसान, मजदूर की बात करने वाली केन्द्र और प्रदेश की सरकार पार्टी की ही है।
इसी प्रकार चीनी मिल पडरौना (कुशीनगर) जो वर्षों से बंद है, वहाँ पर भी किसान मजदूरों द्वारा व्यापक जन-आन्दोलन चलाया गया। पुलिस द्वारा गोलियां भी चलायी गयीं परन्तु उसका कोई साकारात्मक परिणाम नहीं रहा। 2014 चुनाव के दौरान देश के प्रधानमंत्री के प्रत्याशी के हैसियत से मोदी जी ने चुनावी जनसभा में बहुत ही साफ-साफ शब्दों में कहा था कि आप लोग कुशीनगर लोकसभा क्षेत्र से हमारे प्रत्याशी को जिताकर भेजिए, मेरी सरकार बनते ही पडरौना की चीनीमिल तत्काल प्रभाव से चालू कर दी जायेगी लेकिन चार साल बीतने को हैं, प्रधानमंत्री मोदी जी की बात अपनी जगह पर है और पडरौना का उजड़ा दिखता चीनी मिल मोदी जी की वादे पूरा करने की राह देख रहा है।
मैं इन उदाहरणों के माध्यम से कहना चाहता हूं कि हम लोगों के बचपन के दौर में जब कोई विधायक,सांसद, प्रशासन में उच्च-पदस्थ व्यक्ति, मंत्री या जनता के सरोकार रखने वाले लोग जब किसी बात की सार्वजनिक घोषणा कर देते थे तो गांव के गरीब, किसान, मजदूर, नौजवान उनकी बातों पर यकीन कर लेते थे कि अमुक आदमी ने यह बात कही है इसलिए यह कार्य निश्चित ही होगा और इस विश्वास के मायने होते थे। चूँकि जनता और प्रतिनिधि या उच्च-पदस्थ लोगों के बीच निश्चित रूप से कोई लिखा-पढ़ी या शपथ पत्र नही भरा जाता है। दोनों के बीच विश्वास एक ऐसी चीज है जिसके माध्यम में सबसे बड़ा अधिकार मत का है। उसका बिना कोई मूल्य लिए जनता दान कर देती है जिसे मतदान कहते हैं।
इस प्रकार पूरे यूपी में जानबूझकर कृषि आधारित उद्योगों को नष्ट कर दिया गया और नकदी फसलों के क्षेत्रों को घाटे में ले जाया गया, चाहे वो आलू हो, प्याज, टमाटर, गन्ना, धान-गेहूँ, दलहन-तिलहन एवं इसके सहयोगी पशुपालन, मत्स्यपालन- पूरे कृषि क्षेत्र को कंपनियां तथा सरकार के बिचौलिये, नौकरशाही की चारागाह बना दिया गया। परेशान होकर किसान किसानी की तरफ से उदासीन हो गये। साथ ही भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के द्वारा जो जमीन अधिग्रहित की गयी और उस पर परियोजनाएं स्थापित नही हुईं वहां के किसान अभी तक लड़ रहे हैं तथा बस्ती-पडरौना शुगरमिल के किसानों की तरह वर्षों से किसान आन्दोलनरत हैं।
वर्तमान में कुशीनगर के शिशवा महंत के क्षेत्र में 2001 से अधिग्रहित जमीन की सूचना को निरस्त करने के लिए आसपास के सैकड़ों किसान अभी भी आन्दोलनरत हैं। दो करोड़ किसानों ने खेती छोड़ दी या सरकार की किसान-विरोधी नीतियों ने उन्हे खेती छोड़ने पर मजबूर किया। यह बहस का बड़ा विषय है। आखिरकार जीडीपी में कृषि क्षेत्र की तेजी से घटती भागीदारी के साथ ही उसी गति से जीडीपी में औद्योगिक क्षेत्र की भागीदारी का बढ़ना तथा मोदी जी द्वारा दो करोड़ प्रतिवर्ष रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने की विफलता के कारण यह निश्चित ही कहा जायेगा कि बंद उद्योगो से प्रभावित मजदूर व किसान तथा उस पर आाधारित व्यवसाय का खत्म होना, साथ ही स्किल्ड लेबर बनाने के लिए देश में इंजिनियरिंग कालेज, एमबीए, बीबीए एवं तमाम किस्म के टेक्निकल इन्सिटिट्यूट से निकले युवाओ की भीड़ व नॉन स्किल्ड शिक्षित बेरोजगारों तथा फीस और पैसे के अभाव में अशिक्षित हुए नौजवानों की देश में एक भारी भरकम की जमात खड़ी हो चुकी है। इस समय जब टीवी चैनलों पर सरकार के नुमाइंदे और उनके प्रवक्ता बड़े-ब़ड़े डेटा लेकर सरकारों की सफलता और विकास के आंकड़े पेश करते हैं। उसी के साथ बीच-बीच में तमाम एजेंसी के आँकड़े भी सुर्खियों में आ जाते हैं, तब पता चलता है कि देश में गरीब, किसान, मजदूर, नौजवान, कामकाजी महिलाएँ, ठेला-खुमचा वाले, फुटपाथी व्यवसायी, छोटे व्यापारी एवं तमाम मेहनतकश लोगो की दिन-रात हाड़तोड़ मेहनत की कमाई देश के इने-गिने लोगों के पास सरकार के सहयोग से पहुँचा दी जा रही है जिसके कारण देश की सारी पूँजी पनामा पेपर, पैराडाइज पेपर, स्विज़ अकाउन्ट तथा दुनिया के देशों में निवेश के माध्यम से सारा पैसा कालेधन के रूप में एवं मुनाफाखोरी के लिए बाहर चला जाता है और देश के प्रधानमंत्री सरकारी खर्चे पर पूरी दुनिया में घूम करके बिना शर्त लाल कालीन बिछाकर दुनिया के उद्योगपतियों को बुलाते हैं।
आज देश में 7,33,000 करोड़ रूपए बैंक के एनपीए (बट्टा खाता) को खत्म करा कर बैंकों से पुनः कर्ज लेने का दबाव बढ़ता जा रहा है। जनता की गाढ़ी कमाई से टैक्स वसूल कर बैंकों के घाटे की भरपाई का उन्हें दिवालिया होने से बचाया जा रहा है। यूपी के मुख्यमंत्री ने भी 21-22 फरवरी को इनवेस्टर्स सम्मिट के माध्यम से देश विदेश के तमाम उद्योगपतियों को यूपी में निवेश करने के लिए बड़ी तैयारी कर पूरे देश में एक बड़ा प्रचार कराया जिसमें बहुत सारा धन खर्च किया गया। उद्योगपतियों की अगवानी में जिस तरह की तैयारी हुई, ऐसी तैयारी उस समय होती होगी जब ब्रिटेन का सम्राट अपने उपनिवेश में कदम रखता होगा।
हमारे देश को इनवेस्टर्स सम्मिट के बजाय इकोनामिस्ट सम्मिट की आवश्यकता है जहां बड़े पूँजीपतियों के स्थान पर दुनिया के अर्थशास्त्री भाग लें और भारत को अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने का मार्ग दिखायें। जीडीपी में सेवा क्षेत्र की बढ़ती भागीदारी से रोजगार के अवसर कम होने से साफ-साफ लगता है कि यह जनता का हित कम और मुनाफे का मामला ज्यादा है। केन्द्र हो या प्रदेश की सरकारें हों अब इनकी भूमिका सिर्फ और सिर्फ बिचौलिए की है।
जीडीपी में कृषि क्षेत्र की घटती भागीदारी के कारण किसान द्वारा आत्महत्याएं तेजी से बढ़ रही हैं। साथ ही औद्योगिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर न होने से युवाओं में भी आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही है और साथ ही बेरोजगार युवाओं के कदम मजबूरी में अपराध की ओर बढ़ रहें हैं। परिणामस्वरूप एक तरफ कानून व्यवस्था चरमरा गई है और दूसरी तरफ बड़े पैमाने पर जगह-जगह आन्दोलन भी उभार पर हैं। 2018-19 के बजट को ग्रामीण केन्द्रित बजट बताया जा रहा है परन्तु पूरे बजट की समीक्षा करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि नये तरीके तथा नये रास्ते से पूँजीपतियों की जेबें भरने के लिए यह एकमात्र बजटीय प्रावधान है। चूँकि प्रस्तावित बजट में कृषि आधारित, ग्रामीण महिलाओं, ग्रामीण शिक्षा, ग्रामीण रोजगार, कुटीर उद्योग, कृषि आधारित उद्योगों की स्थापना, पूँजी का विकेन्द्रीकरण, किसानों के लिए बिना ब्याज का कर्ज, कृषि अनुसंधान केन्द्र, ग्रामीण बच्चों के लिए संस्थान, ग्रामीणों की सूद्खोरों से मुक्ति की योजना, नकदी फसल उत्पादन की योजना, फसलों के रख-रखाव तथा कृषि उत्पादन के स्टोरेज के लिए समुचित योजना तथा कृषि उत्पादन के खरीद बिक्री का प्रबंध (जो कि पूरे देश में न के बराबर है), सिचाई के प्रबंध (क्योंकि अभी भी 70 प्रतिशत् कृषि वर्षा पर निर्भर है), प्राकृतिक आपदा जैसे-बाढ़-सूखा आदि से निपटना, आवारा पशुओं से निजात तथा किसानों के कृषि ऋण (केसीसी को छोड़कर) कृषि उपकरणों जैसे- ट्रैक्टर, थ्रेसर को टैक्स मुक्त करना, सस्ते दरों पर फर्टिलाइजर उपलब्ध कराने का प्रबंध, ग्रामीण चिकित्सा का उचित प्रबंध, गावों में समुचित शौचालय बनवाने की समुचित धनराशि उपलब्ध कराना, गावों में राशनकार्ड पर अनाज, तेल, चीनी, गरीबों को कपड़ा एवं ग्रामीण महिलाओं और पुरूषों को बेरोजगारी भत्ता और साथ ही महिलाओं की राजनैतिक भागीदारी को बढ़ावा देने की योजना, विद्युत एवं सरकारी परिवहन के साधन, ग्रामीण इलाको में मुकदमों के लिए मुफ्त पैरवी का प्रबंध, ग्रामीण उद्योगों में हस्तक्षेप वर्जित, लघु उद्योगों, ग्रामीण उद्योगों के संरक्षण हेतु बडे़ उद्योगों का प्रवेश वर्जित करने इत्यादि जैसी कोई भी कारीगर योजना उभर कर सामने नही आती है। अतः इस बजट को ग्रामीण केन्द्रित बजट कहना जनता को धोखा देना है। इस बजट में ग्रामीण पलायन रोकने के लिए सरकार ने कोई योजना नही बनायी जिससे ग्रामीण स्तर पर युवकों को रोजगार मिल सके।
सामाजिक न्याय के आन्दोलन के माध्यम से विनोबा भावे जी का भू-दान आन्दोलन तथा जेपी के जमीन आन्दोलन के माध्यम से आजादी के बाद ही सीलिंग एक्ट के तहत किसानों से जमीन लेकर भूमिहीन को जमीन दी गयी, तो सामाजिक न्याय के फार्मूला के मुताबिक जमीन का फार्मूला पूँजीपति पर क्यों नही लागू होता। पूँजी की हदबंदी के बिना संभव ही नही है कि भारतीय संविधान में प्रदत्त शिक्षा, चिकित्सा रोजगार एवं तमाम प्राप्त अधिकारों को लागू किया जा सके। पूँजीवाद की ट्रिकल डाउन थ्योरी से देश की बहुसंख्यक आबादी यानी किसान, मजदूर, महिलाओं, बेरोजगार युवाओं का हित संभव नहीं है। देश के उद्योगपतियों, जमाखोरों और मुनाफाखोरों का पेट इतना बड़ा हो गया है कि यह बिचौलिया सरकारें उनका पेट भरते-भरते थक जायेंगी, पूरा देश उनके पेट में चला जायेगा तब भी ये ना नहीं करेंगे क्योंकि ये कोई देशभक्त नहीं है। इनकी मानवीय संवेदना मर चुकी है।
अब जरूरत है कि संविधान की कसम खाने वाली सरकारें, संसद व न्यायालय देश के हित में पूँजीपतियों द्वारा कब्जा की हुयी संपत्ति को जब्त कर जनता के हक में लगाएं।
(लेखक किसान मजदूर संघर्ष्र मोर्चा के अध्यक्ष हैं)