अगस्त-सितम्बर महीने के घटनाक्रम, जिसे कई आर्थिक जानकार शुरू से ही भारत का लीमान ब्रदर्स मान रहे थे, को शुरू में पर्दे के पीछे से ही एलआईसी व एसबीआई के ज़रिये सँभालने के प्रयास और प्रकट में किसी वित्तीय संकट से इंकार करते रहने के बाद आखि़र 1 अक्टूबर को केन्द्र सरकार ने इंफ्रास्ट्रक्चर लीज़िंग एण्ड फ़ाइनैनशियल सर्विसेज (आईएलएफ़एस) नामक समूह को अपने नियन्त्रण में ले लिया। उसने कम्पनी के निदेशक बोर्ड को भंग कर देश के सबसे अमीर वित्तीय पूँजीपति उदय कोटक सहित 6 सदस्यों का एक नया बोर्ड बनाया है जो इस संकट को फ़ौरी तौर पर सँभालने और फिर इसके स्थाई बन्दोबस्त की ज़िम्मेदारी सँभालेगा। सरकारी बयान के मुताबिक़ आईएलएफ़एस देश की वित्तीय व्यवस्था व स्थिरता के लिए एक बड़ी अहम संस्था है, जिसमें संकट पूरी वित्तीय व्यवस्था को संकट में ला सकता है। अब सरकार ने सभी वित्तीय संस्थानों को कहा है कि वे आईएलएफ़एस के लिए पर्याप्त नक़दी की व्यवस्था करें।
यह कम्पनी बैंकों की तरह जनता से सीधे जमा राशि नहीं लेती। इसके बजाय वह दूसरी औद्योगिक-वित्तीय संस्थाओं, म्यूचुअल, पेंशन, प्रोविडेण्ट फ़ण्ड, आदि से जमा, डिबैंचर, बॉण्ड्स, आदि लेकर उन्हें सड़क, बिजली, रेललाइन, बाँध जैसे आधारभूत उद्योगों में शेयर पूँजी तथा क़र्ज़ देने में निवेश करती है। इसके लिए इस समूह में 169 कम्पनी हैं जिनके ज्ञात निवेश 115000 हज़ार करोड़ और जिन पर क़र्ज़ 91 हज़ार करोड़ रुपये है। लेकिन आईएलएफ़एस के प्रोजेक्ट सही से क्रियान्वित नहीं हो पा रहे थे और इसे इनसे प्रत्याशित आय नहीं हो रही थी। अतः नक़दी की कमी के अभाव में अगस्त-सितम्बर के महीनों में यह कम्पनी अपनी देनदारियाँ नहीं चुका पा रही थी। पूँजीवादी व्यवस्था में क़र्ज़ का जाल मानव शरीर में रक्त नलिकाओं के जाल की तरह फैला होता है। इन क़र्ज़ देने वालों ने भी आगे लिया क़र्ज़ चुकाना होता है और इन्हें भुगतान न मिलने से चौतरफ़ा संकट का माहौल बन जाता है। 21 सितम्बर को संकट देख आईएलएफ़एस के प्रबन्ध निदेशक रवि बावा व 4 अन्य निदेशकों ने भी इस्तीफ़ा दे दिया। यह भी सामने आया कि इस कम्पनी को 26 हज़ार करोड़ का भुगतान एक वर्ष के अन्दर ही करना है जिसमें यह सक्षम नहीं। इससे म्यूचुअल फ़ण्ड्ज में घबराहट फैल गयी क्योंकि उन पर भी आगे देय भुगतान का दबाव था। इन्होंने नक़दी की कमी के दबाव में अपनी कुछ वित्तीय सम्पत्तियों को बहुत सस्ती क़ीमत में बेच दिया। इससे यह बात आग की तरह फैली कि बहुत सारी ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियाँ नक़दी की कमी और भुगतान के दबाव का सामना कर रही हैं। शेयर बाज़ार के सूचकांक में भी कुछ मिनटों में ही 1500 अंक की गिरावट हो गयी।
वित्तीय बाज़ारों और सरकार दोनों में घबराहट का आलम ये था कि 21 सितम्बर को पूँजी बाज़ारों में 1500 अंक तक की गिरावट से मचे हाहाकार के बाद 23 सितम्बर को इतवार के रोज़ बैंकिंग नियामक रिज़र्व बैंक और पूँजी बाज़ार नियामक सेबी दोनों को अपने दफ़्तर खोलकर संयुक्त वक्तव्य जारी करना पड़ा कि घबरायें नहीं, उनकी घटनाक्रम पर पूरी तथा पैनी नज़र है, कुछ गड़बड़ होते ही वे सब सँभाल लेंगे। एसबीआई से भी बयान जारी करवाया गया कि वह वित्तीय कम्पनियों को उधार देना जारी रखेगा। 24 सितम्बर को सुबह-सवेरे ही ख़ुद वित्त मन्त्री को बयान देना पड़ा कि बाज़ार में नक़दी की कमी नहीं होने देंगे। मगर शेयर बाज़ार में फिर भी 536 अंकों की गिरावट हो गयी। हालत यह बनी कि बाज़ार में किसी को किसी की साख पर क़तई भरोसा नहीं रहा। पेंशन-पीएफ़ से म्यूचुअल फ़ण्ड तक सब दिये गये उधार की समय पर वापसी न होने से हाथ जला चुके थे। सबसे अधिक साखदार मानी जाने वाली कम्पनियों को भी एक साल के लिए 10-11% ब्याज पर उधार लेना पड़ रहा था, दोयम दर्जे की कम्पनियों के लिए तो ब्याज दर 12% पार कर गयी। इससे पूँजीपति तबक़े में ऐसी विकलता फैली कि हमेशा सार्वजनिक क्षेत्र की अक्षमता का रोना रोकर निजीकरण की माँग करने वाले कॉर्पोरेट कारोबारी विशेषज्ञ और भोंपू मीडिया भी बेचैन होकर सरकार द्वारा बचाव की ऐसी गुहार लगाने लगे कि 25 सितम्बर की शाम तक सरकार की ओर से एलआईसी ने ऐलान कर दिया कि वह आईएलएफ़एस को संकट से बचाने में कोई कोर-कसर न छोड़ेगी, चाहे उसे कितनी ही पूँजी झोंकनी पड़े।
आईएलएफ़एस के घटनाक्रम के इतना बड़ा तूफ़ान खड़ा करने की वजह है कि वित्तीय बाज़ारों में चिन्ता का माहौल पहले से ही बना हुआ था। 19 सितम्बर को रिज़र्व बैंक ने यस बैंक के मुखिया राणा कपूर का कार्यकाल दो साल कम करने का आदेश दिया था। वजह थी अनियमितताएँ, नियमों का उल्लंघन और डूबे क़र्ज़ों को छिपाना। इसके पहले एक्सिस बैंक की शिखा शर्मा को भी हटाने का आदेश ऐसी ही वजहों और डूबे क़र्ज़ या एनपीए छिपाने के लिए दिया गया था।
आईसीआईसीआई बैंक की मुखिया चन्दा कोचर के खि़लाफ़ जाँच चल ही रही है; साथ ही खातों में एनपीए छिपाने का भी खुलासा आरबीआई कर ही चुका है। इससे यह स्पष्ट हो गया था कि भारतीय अर्थव्यवस्था में गहराता संकट शुरू में सरकारी बैंकों में 12 लाख करोड़ रुपये के डूबे क़र्ज़ के रूप में नज़र ज़रूर आया था, मगर वहाँ तक सीमित रहने वाला नहीं है, तथा बड़े निजी बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थान भी इसकी जद में तेज़ी से आ रहे हैं। वजह है कि संकट असल में पूँजीवादी व्यवस्था में है – निजी या सरकारी मालिकाने या प्रबन्धन से इसका चरित्र और असर बदल नहीं सकता।
इसके पहले कि हम इस संकट की वजहों की ओर गहराई से पड़ताल करें, हम आईएलएफ़एस के बारे में कुछ जान लेते हैं। इसमें सबसे ज़्यादा 40% शेयर एलआईसी व सरकारी बैंकों के हैं। इसके 5 निदेशक भी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों द्वारा नियुक्त हैं और इनकी सहमति बग़ैर कोई स्वतन्त्र निदेशक नियुक्त नहीं किया जा सकता। किन्तु इतनी सार्वजनिक पूँजी के बावजूद इसे निजी क्षेत्र की कम्पनी की तरह चलाया जाता रहा है। 1992 में स्थापना के शुरू से अब तक रवि पार्थसारथी ही इसके मुख्य कार्याधिकारी रहे, पिछले वर्ष उनका सालाना वेतन ही 30 करोड़ रुपये से ऊपर था, भत्ते व अन्य सुविधाएँ इसके अतिरिक्त। मगर जब कम्पनी डूबने लगी तो इसी जुलाई के महीने में सेहत के बहाने सेवानिवृत्त हो गये! शेयर पूँजी के अतिरिक्त भी सार्वजनिक क्षेत्र ने इसमें और भी तरह से निवेश किया, सरकारी विभागों ने इसे ठेके दिये, पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप वाला ढर्रा इसने ही शुरू किया अर्थात सारा जोखिम तो सार्वजनिक रहा पर मुनाफ़े निजी क्षेत्र के पार्टनरों में बँटते गये। आईएलएफ़एस ने 169 ज्ञात सहायक कम्पनियों की एक वित्तीय भूलभुलैया या कहिए मकड़ी का जाला खड़ा किया जिसमें फँसाकर वह सार्वजनिक सम्पत्ति को लूटती आयी है। इसके घातक पंजे सड़क, रेल, बन्दरगाह, विद्युत, पुल, बाँध जैसे हर आधारभूत उद्योग में फैले हैं। मोदी गुजरात में जो गिफ्ट सिटी नामक अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय केन्द्र बना रहे हैं, उसमें भी यह मुख्य साझीदार है और इसे 880 एकड़ ज़मीन 1 रु प्रति एकड़ की दर पर दी गयी है। यह कम्पनी बैंकों, म्यूचुअल फ़ण्ड, बीमा कम्पनियों, आदि से क़र्ज़ लेकर सड़क, हवाई अड्डा, बाँध, विद्युत संयन्त्र, आदि जैसे ढाँचागत उद्योगों को क़र्ज़ भी देती है, और ख़ुद के मालिकाने में चलाती भी है। जहाँ यह क़र्ज़ देती है, वहाँ इसके मूल्यांकन के बाद अन्य बैंक भी और क़र्ज़ देते हैं जो सम्भवतः डेढ़ लाख करोड़ रुपये के फेर में हैं। अब इस कम्पनी पर नक़दी की कमी के संकट से ये प्रोजेक्ट भी संकट में पड़ेंगे, जिनसे बैंकों का अन्य क़र्ज़ भी डूब जायेगा।
एक ओर बात जो आईएलएफ़एस के बारे में सामने आयी है कि इसका संकट कोई नया नहीं है। यह 2011-12 में शुरू हुआ तथा 2014 तक आते ही यह दिवालिया हो चुकी थी। किन्तु संकट को टालने के लिए पूँजीवादी अकाउंटिंग की अद्भुत बाजीगरी का सहारा लिया गया – अर्थात बड़ी मात्रा में अमूर्त सम्पत्ति जिसे अंग्रेज़ी में Intangibles कहा जाता है। इसके अन्तर्गत साख, सुनाम, सद्भाव, ख्याति, बौद्धिक सम्पत्ति, भविष्य में आय की आशा, आदि आते हैं जिनका वास्तव में कोई कारोबारी मूल्य नहीं होता मगर पूँजीवादी कारोबारी विशेषज्ञ इसका भी मूल्य निर्धारित कर देते हैं। उदाहरण के लिए माल्या की किंगफि़शर की ख्याति के मूल्य के आधार पर भी उसे क़र्ज़ मिला था, मगर वास्तव में उसका मूल्य शून्य था और रहा। यहाँ स्थिति उससे भी बहुत आगे थी और यह हवाई सम्पत्तियाँ बढ़ते-बढ़ते 26 हज़ार करोड़ पर पहुँच चुकी थीं, जबकि इसके मालिकों की कुल निवेशित पूँजी लगभग 4 हज़ार करोड़ रुपये ही थी। इसके बल पर यह वित्तीय रूप से मज़बूत कम्पनियों में गिनी जाती रही और बाज़ार से क़र्ज़ और सरकार से प्रोजेक्ट पाती रही जबकि कोई साधारण बैलेंस शीट देखने वाला भी बता देता कि यह सब फ़र्जी सम्पत्ति है। ऐसे छल-कपट पूँजीवादी कारोबारी दुनिया में कोई अजूबी बात नहीं।
आईएलएफ़एस द्वारा क़र्ज़ के भुगतान में असफल रहने से कई सारे म्यूचुअल फ़ण्ड की स्थिति तो खराब है ही, पर और भी भयंकर स्थिति है कर्मचारी भविष्य निधि, पेंशन और बीमा के पैसे की। इसे क़र्ज़ देने वाले कुछ नाम देखिए – नेशनल पेंशन स्कीम ट्रस्ट, एसबीआई एम्प्लॉईज पेंशन फ़ण्ड, एसबीआई एम्प्लॉईज पीएफ़ ट्रस्ट, डाक जीवन बीमा, एलआईसी, जीआईसी, ओरिएण्टल इन्शुरेंस, आदि। अतः इसके डूबने से म्यूचुअल फ़ण्ड व बीमा से लेकर पीएफ़/पेंशन तक बहुत से मध्यवर्गीय व निम्नमध्यवर्गीय लोगों की बचत और रिटायरमेण्ट के सपनों पर बुरी तरह चोट पड़ने वाली है। अभी आगामी चुनाव के पहले यह भाण्डा किसी तरह फूटने से रोकने के लिए ही पहले एलआईसी को मैदान में उतारा गया था जो बीमा धारकों की बचत के पैसे से इसको तुरन्त दिवालिया होने से बचाने के लिए कई हज़ार करोड़ रुपये की पूँजी और देगा, जिससे यह अपनी तुरन्त की देनदारियाँ चुका सके। यह भी ख़बर आयी कि आईएलएफ़एस ने एलआईसी को 4500 करोड़ और एसबीआई को 3500 करोड़ रुपये की फ़ौरी मदद का इन्तज़ाम करने के लिए भी कहा है। इसके अतिरिक्त शेयर धारकों को भी 4500 करोड़ रुपये की और पूँजी लगाने के लिए कहा गया है अर्थात यहाँ भी लगभग 2000 करोड़ रुपये सार्वजनिक क्षेत्र से आयेंगे। पर इससे यह संकट कब तक टलता?
संकटमोचक की भूमिका निभा रहे सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे बड़े वित्तीय संस्थान एलआईसी की ख़ुद की स्थिति जान लेना भी ज़रूरी है। अभी कुछ दिन पहले ही दिवालिया हो चुके आईडीबीआई बैंक को उबारने के लिए भी सरकार एलआईसी को ही आगे लायी थी। संकट के घेरे में आये निजी क्षेत्र के एक्सिस बैंक में भी इसकी पूँजी लगी है। इसके अतिरिक्त शेयर बाज़ार में गिरावट रोकने के लिए भी समय-समय पर इसका इस्तेमाल किया जाता रहा है। एलआईसी की स्थिति यह है कि इसने पहले ही 45 ऐसी कम्पनियों में 3800 करोड़ रुपये का निवेश किया है जिनकी आय या तो शून्य है या वे लगातार घाटे में हैं। 3 साल में इस निवेश की क़ीमत घटकर 780 करोड़ रुपये रह गयी है। इधर इसकी बीमा पॉलिसी ख़रीदने वाले लोग इस इन्तज़ार में बैठे हैं कि शेयर बाज़ार बहुत तेज़ है, अर्थव्यवस्था बड़ी मज़बूत हैं, एलआईसी बोनस के रूप में ज़बरदस्त मुनाफ़ा बाँटेगा। मगर इसके पैसे का इस्तेमाल सरकार निजी वित्तीय पूँजीपतियों को संकट से उबारने में कर रही है, जिससे एक दिन ख़ुद इसके ही संकट में आ जाने का अन्देशा खड़ा हो गया है।
आईएलएफ़एस के मामले से दो बातें स्पष्ट पता चलती हैं – एक तो यह कि समाजवाद के नाम पर बनाये गये सार्वजनिक क्षेत्र के ढाँचे का मुख्य काम निजी पूँजीपतियों को मालामाल करने का रहा है। यही सार्वजनिक क्षेत्र में घाटे का मुख्य कारण है। पिछले 70 साल में खड़े हुए बहुत सारे पूँजीपतियों के दौलत के अम्बारों के पीछे सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी भूमिका रही है, हालाँकि हमारे देश के संसदीय वामपन्थी दलों और उनसे जुड़े बुद्धिजीवियों ने इसके पक्ष में समाजवाद के निर्माण के भ्रम का जाल खड़ा करने में शासक वर्ग की महती सेवा की। दूसरे, संकटग्रस्त पूँजीवाद अब मध्यम वर्ग के बड़े हिस्से को कुछ सुविधाएँ देने की स्थिति में नहीं रहा है और अब उनके द्वारा संचित रक़म पर डाका डालना उसकी ज़रूरत बन गया है। इसके लिए अब बैंक, बीमा, पीएफ़, पेंशन की बचतों पर निशाना साधा जा रहा है।
पर संकट की असली वजह एक आईएलएफ़एस या एक आईडीबीआई या एक यस बैंक ही नहीं हैं। इसकी असली वजह पूँजीवादी व्यवस्था के मूल चरित्र में है। अधिकतम मुनाफ़े के लिए पूँजीपति मालिक अचल पूँजी (मशीन, तकनीक) में इज़ाफ़ा कर उत्पादन प्रक्रिया में लगी चल पूँजी या वास्तविक मज़दूरी कम करता है, कम मज़दूरों से अधिक उत्पादन कराता है। पर मज़दूर वर्ग के पास पैसा न होने से उसकी क्रय क्षमता या खपत कम होती है, ज़रूरत होते हुए भी लोग आवश्यक वस्तुएँ ख़रीद नहीं पाते, बाज़ार में माँग कम होती है; अनबिके उत्पादों से गोदाम पटने लगते हैं, कारख़ानों में उत्पादन स्थापित क्षमता से कम होने लगता है, पूँजीपति उद्योगों में नया निवेश बन्द कर देते हैं; मशीनों, बिजली, जैसे पूँजीगत उत्पादों का उत्पादन घटाना पड़ता है, विद्युत उत्पादन फ़ालतू हो तो संयन्त्र बन्द और दिवालिया होते हैं, उन्हें दिया बैंकों का क़र्ज़ डूबता है, उनमें निवेश करने वाली वित्तीय कम्पनियों के पास नक़दी का टोटा पड़ जाता है; वह क़र्ज़ देने वाले म्यूचुअल फ़ण्ड, आदि को भुगतान नहीं कर पाती, म्यूचुअल फ़ण्ड को भी आगे भुगतान करना होता है, वह सैकड़ों करोड़ के शेयर/बॉण्ड एकदम से बेचता है, बाज़ार में घबराहट फैल जाती है। धड़ाम से बाज़ार गिर जाता है। पिछले दिनों जो हुआ यह उसका बहुत सरलीकृत वर्णन है, पर मक़सद ये दिखाना है कि कारोबारी मीडिया वाले ‘विशेषज्ञ’ कुछ भी बोलें पर इन संकटों के मूल में मुनाफ़े के लिए चलने वाले पूँजीवाद का व्यवस्थागत संकट होता है। ऐसी स्थिति में सरकार क्या करती है? वही जो वह पहले ही करना शुरू कर चुकी है – जैसे, विद्युत कम्पनियों को राहत देकर दिवालिया होने से बचाना, आईएलएफ़एस और आईडीबीआई बैंक को बचाने के लिए एलआईसी से नक़दी दिलवाना, दिवालिया होते छोटे बैंक को बड़े में विलय करना, ख़ुद भारी अप्रत्यक्ष कर लगाकर जनता से वसूला लाखों करोड़ रुपया बैंकों को देना, सरकारी वित्तीय संस्थानों को शेयर ख़रीदने के लिए कहना, रिज़र्व बैंक को आसान शर्तों पर नक़दी का प्रवाह बढ़ाने के लिए कहना, आदि।
यह वित्तीय संकट कई साल से जारी है। 2 साल पहले 6 बैंक एसबीआई में विलय कर दिये गये। फिर आईडीबीआई बैंक डूबा तो एलआईसी का सहारा लिया गया। देना बैंक भी दिवालिया होने के क़गार पर था, उसे बैंक ऑफ़़ बड़ोदा में विलय कर बात टाल दी गयी। पहले भी बैंक डूबते और दूसरे बैंकों में विलय किये जाते रहे, पर पहले यह कुछ सालों में एक घटना होती थी, वहीं अब इसकी क़तार लग गयी है। और कुछ विलय आगे भी होने वाले हैं। इस विलय से लाभ क्या है? मुख्य लाभ है बड़ी तादाद में शाखाओं/दफ़्तरों की बन्दी से ज़रूरी कर्मचारियों की संख्या और अन्य ख़र्चों में कमी। एसबीआई विलय से क़रीब 4 हज़ार शाखाएँ बन्द होने की प्रक्रिया जारी है। बैंक ऑफ़ बड़ौदा में विलय होने वाले विजया बैंक के प्रबन्ध निदेशक के अनुसार उसकी 500 शाखाएँ बन्द होने वाली हैं। देना बैंक की भी 700 शाखाएँ बन्द होंगी। पर पूँजीवादी संकट अब कोई चक्रीय संकट होने के बजाय एक निरन्तर गहराता संकट है और इससे पैदा होने वाले वित्तीय संकट में पहले डूबने वाले छोटे बैंकों को विलय कर संकट को कुछ वक़्त तक छिपाया जा सकता है, हल नहीं किया जा सकता। संकट का अगला शिकार ये एसबीआई, एलआईसी, पीएनबी, बीओबी जैसे संस्थान ही होने वाले हैं। जब तक पूँजीवाद में संकट से निपटने की थोड़ी-बहुत क्षमता थी, वो बैंकों को डूबने दे सकता था और कारोबार के विलय की प्रक्रिया सरकार द्वारा नहीं, बाज़ार प्रक्रिया द्वारा होती थी। इस तरह छोटे-कमजोर बैंक बन्द होते गये और कुछ बैंक बड़े वित्तीय इजारेदार बनकर उभरे। 2008 में भी अमेरिका में लीमान ब्रदर्स और ब्रिटेन में नॉर्दर्न रॉक को ऐसे ही दिवालिया हो जाने दिया गया था। पर तब पाया गया कि इतने बड़े बैंक को ऐसे ही डूबने देने से पूरी पूँजीवादी व्यवस्था में ही संकट फैल जा सकता है। तब इन बड़े बैंकों को ‘टू बिग टू फ़ेल’ घोषित कर दिया गया और इन बैंकों को बचाने के लिए सरकारों ने सैकड़ों अरब डॉलर/पाउण्ड की पूँजी लगानी शुरू की, जो सरकारों द्वारा क़र्ज़ लेकर और शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोज़गारों की मदद, ग़रीबों के लिए अन्य कार्यक्रमों पर ख़र्च की कटौती से जुटायी गयी। इस तरह इन बैंकों को डूबने से बचाने पर इनके द्वारा दिये गये क़र्ज़ों और इनके निवेश के डूबने के कारणों को छिपा लिया जाता है और इनके उच्च प्रबन्धकों और पूँजीपतियों के मिलीभगत वाले अपराध भी छिप जाते हैं। इससे वहाँ कहावत चली – ‘टू बिग टू फ़ेल, टू बिग टू जेल’! बैंकों के हो रहे विलयों के पीछे भारत में भी ऐसे ही कारण हैं और इन पर होने वाला लाखों करोड़ का बिल मेहनतकश जनता के नाम पर ही फाड़ा जाना है।
अब 4 लाख करोड़ के और क़र्ज़ एनपीए होने की ओर हैं और इन्हें चुनाव तक किसी तरह खींचना है क्योंकि एनपीए का बढ़ता संकट पूरी बैंकिंग और आर्थिक व्यवस्था में संकट को ओर गहरा करेगा जिसका बोझ हमेशा की तरह मेहनतकश जनता पर ही डाला जाना है। आईएलएफ़एस की योजनाओं के डेढ़ लाख करोड़ के अतिरिक्त इनमें ढाई लाख करोड़ तो सिर्फ़ विद्युत उत्पादन क्षेत्र का है। पूँजीवाद के अतिउत्पादन के संकट की वजह से उद्योग पहले ही 70-72% क्षमता पर काम कर रहे हैंा इससे बिजली की माँग अनुमान के मुक़ाबले कम है, बिजली बिक नहीं पा रही है (निर्यात के बावजूद भी फ़ालतू है), इसलिए लगभग 40 संयन्त्र संकट में हैं। रिज़र्व बैंक के 12 फ़रवरी के सर्कुलर के मुताबिक़ बैंकों को अब तक इनके खि़लाफ़ दिवालिया होने की कार्रवाई शुरू करनी थी, पर उसके बाद इन क़र्ज़ों को एनपीए दिखाना पड़ता जो अभी तक नहीं किया गया है।
आईएलएफ़एस मामले में सरकार के निर्णय क्या बताते हैं? यही कि वह अपनी और सार्वजनिक वित्तीय संस्थानों की तिजोरी का मुँह सरमायेदारों के लिए खोल देगी, ताकि उन्हें सस्ती दरों पर पूँजी हासिल हो सके और उनके भुगतान वादों में कोई रुकावट न आने पाये। दूसरे, उदय कोटक के नेतृत्व में संकट को सँभालने की ज़िम्मेदारी देने से यह स्पष्ट है कि पहले तो सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा उपलब्ध करायी गयी पूँजी से संकट को सँभाला जायेगा, फिर इसकी सम्पत्तियाँ संकट के नाम पर कौड़ियों के दाम निजी क्षेत्र को सौंप दी जायेंगी। इसकी यातायात क्षेत्र की सहायक कम्पनी पहले ही अपनी सम्पत्तियाँ बेचने के लिए बाज़ार में है। इसकी सलाहकार एसबीआई कैप्स ने इसे 6 योजनाएँ बन्द कर देने और 10 को बेचने का सुझाव दिया है। यह अपनी वित्तीय सेवा और ऊर्जा क्षेत्र की सहायक कम्पनियाँ भी बेचकर नक़दी जुटाने का प्रयास कर रही है। 2009 में सत्यम मामले में हम यह सब होते देख चुके हैं। तीसरे, आईएलएफ़एस को दिवालिया बनाने, इसका फ़ायदा उठाकर मुनाफ़ा कमाने वाले निजी पूँजीपति और पूँजीपतियों से मिलीभगत कर फ़ायदा पहुँचाने वाले प्रबन्धक सबको इसकी कोई सज़ा न मिलेगी, न ही मुनाफ़ा कमाने वालों से कोई वसूली की जायेगी। यही राजसत्ता का वर्ग चरित्र है – कभी आम लोगों की दुख-तकलीफ़ में इतनी जल्द मामला सँभाल लेने का आश्वासन देते या निर्णायक क़दम उठाते देखा गया है? तब हमेशा धन के अभाव का रोना शुरू हो जाता है। नोटबन्दी के वक़्त नक़दी की कमी से जूझते लोगों का मज़ाक़ उड़ाते मोदी याद है ना! यह घटनाक्रम 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद संकट के जि़म्मेदार बैंकों और उनके मालिकों/प्रबन्धकों के बारे में अमेरिका में चलन में आयी कहावत – ‘टू बिग टू फ़ेल, टू बिग टू जेल’ की याद फिर ताज़ा कर रहा है।