सुधा भारद्वाज जैसे मानवाधिकार के कुछ सर्वाधिक विश्वसनीय पैरोकारों के यहां छापामारी और उनकी गिरफ्तारी भयाक्रांत करने वाला एक क्षण है। यह एक ऐसी कायराना, उच्श्रृंखल और दमनकारी राज्यसत्ता की निशानदेही है जो असहमतों को धमकाने के लिए कोई भी तरीका अपना सकती है। इन मामलों के कानूनी और नागरिक आयामों पर काफी कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन ये मुकदमे जिस ऐन वक्त में दायर किए गए हैं उसकी राजनीतिक और सांकेतिक अहमियत को नहीं नज़रंदाज़ किया जाना चाहिए। ये मुकदमे परस्पर स्वतंत्र नहीं हैं, बल्कि एक सर्वथा नए व खतरनाक विचारधारात्मक संकुल के गढ़न का हिस्सा हैं।
अतीत में तीन भयावह हकीकतों ने भारतीय राज्य की लोकतांत्रिक वैधता में अवरोध उत्पन्न किए हैं। खुद को यह याद दिलाते रहना कि यूएपीए और राजद्रोह से जुड़े अन्य कानूनों का लगातार दुरुपयोग किया गया है, महज यांत्रिक मामला नहीं है। इन कानूनों का अस्तित्व ही अपने आप में एक कलंक है। किसी भी राजनीतिक दल ने इनका विरोध करने का साहस आज तक नहीं जुटाया। दूसरे, जैसा कि हालिया प्रताडि़त व्यक्तियों में से एक आनंद तेलतुम्बड़े ने अपने लेखन में सटीक कहा है, इस राज्य ने भय पैदा करने की तकनीकों का इस्तेमाल उन लोगों का दमन करने में किया है जो आदिवासियों और दलितों जैसे हाशिये के समूहों की सबसे सक्रिय पैरोकारी करते रहे हैं।
स्थानीय संदर्भों में माओवादी बेशक आतंक का बायस हो सकते हैं लेकिन माओवाद का जैसा कपटपूर्ण प्रयोग हम करते हैं, उसके बहाने दरअसल अधिकारों पर हाशिये के समुदायों के वास्तविक दावों को अवैध ठहराने तथा उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को राज्य के लिए खतरा बताकर उन्हें कलंकित करने का काम हम करते हैं। सत्ताधारी तबके को इससे एक आसानी भी हो जाती है कि वह दलितों और आदिवासियों के खालिस नैतिक दावों को अलगाकर उन्हें राज्य के लिए लगातार खतरे के रूप में दर्शा सकता है। जो राज्य असल नैतिक दावे और असल खतरे के बीच फ़र्क न कर पाए, वह खुद का ही नुकसान करेगा। तीसरे, कोई भी दल ऐसा नहीं है जो एक स्वतंत्र व विश्वसनीय पुलिसतंत्र के प्रति समर्पित हो अथवा कानून के तंत्र को वह काफ्का के अंधेरे दु:स्वप्न से बाहर निकालने की सोचता हो ताकि असली खतरों को बगैर राजनीतिकरण या पक्षपात के संबोधित किया जा सके। ये सब हमारी व्यवस्था पर चिरस्थायी दाग से हैं।
इस सामान्य पृष्ठभूमि के बरक्स कुछ विशिष्ट भी है जो हालिया घटनाक्रम में परिलक्षित होता है। मौजूदा हालात का सबसे ज्यादा चौंकाने वाला आयाम यह है कि ये गिरफ्तारियां और छापे कुछ और भयानक घटने का बहाना हैं: एक स्थायी आंतरिक युद्ध की पैदाइश। यह कहने का एक बहाना, कि यह राष्ट्र तो हमेशा खतरे में ही घिरा रहता है- पहले राष्ट्रविरोधियों से इसे खतरा हुआ, अब शहरी नक्सल से और क्या जाने आगे मनुष्यों से ही इसे खतरा पैदा हो जाए। शाश्वत खतरे में पड़े एक राष्ट्र का विचार दरअसल राज्यसत्ता को अत्यधिक अधिकारों से लैस करने का एक बहाना है। इसी बहाने से आप अपने विरोधियों को गद्दार कह के निशाना बनाते हैं और ऐसी परिस्थितियां निर्मित कर देते हैं जहां एक ऐसे ‘’मजबूत’’ नेतृत्व की अनिवार्यता अपरिहार्य बन जाए जो खतरे का सामना कर सकता हो।
भारत के सभी राजनीतिक दलों ने माओवाद को खतरा बताया है और कांग्रेस से लेकर तृणमूल तक सभी ने इसके खिलाफ अपने तरीके से कड़ा रुख अपनाया है। इस बार भी उनके खिलाफ अभियान चलाए जा रहे हैं और गिरफ्तारियां हो रही हैं, फिर भी कुछ तो है जो अलग है। इस बार एक विशाल दुष्प्रचार मशीनरी काम कर रही है जो इस खतरे को लगातार सियासी मैकार्थीवाद की शक्ल देने में जुटी है। इसका लक्ष्य एक ऐसा समाज बनाना है जहां हमें हर कहीं गद्दार दिखाई दें। सत्ता द्वारा देश चलाने के सियासी औज़ार के रूप में संदेह को स्थापित किया जा रहा है क्योंकि यही संदेह हमें एकजुट होकर राज्य को जवाबदेह करार देने से रोकेगा और हम बतौर नागरिक एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाएंगे।
यह कोई संयोग नहीं है कि इन खतरों की अतिरंजना तीन तरीके से हकीकत को सिर के बल खड़ा करने में काम आती है। ध्यान दीजिएगा कि मौजूदा गिरफ्तारियों के पीछे जो जांच है वह भीमा कोरेगांव से शुरू हुई थी। इस जांच के बहाने सरकार ने बड़े पैमाने पर नैतिकता और कानून को उलटने-पलटने का काम किया है, जहां उत्पीडि़त को अपराधी बताया जा रहा है जबकि अपराधियों को एक वैचारिक सरोकार का नायक बनाकर स्थापित किया जा रहा है। इस तथ्य से ध्यान हटाने की पर्याप्त कोशिश की जा रही है कि हिंदुत्व के नाम पर चीखने-चिल्लाने वाले समूह ही इस गणराज्य की संवैधानिक व्यवस्था के लिए सबसे हिंसक और गंभीर खतरा बन चुके हैं।
ये गिरफ्तारियां ऐन उस क्षण में हुई हैं जब इन समूहों पर बुद्धिजीवियों की संगठित हत्या करने का आरोप लग रहा था। एक गणराज्य के लिए इससे बेहतर क्या हो सकता है कि जब सामने कोई वास्तविक खतरा खड़ा हो तो उससे बड़ा को अतिरंजित खतरा सामने ला दिया जाए?
इस उत्क्रमण का दूसरा आयाम थोड़ा व्यापक है: ध्रुवीकरण के रूप में। हम हमेशा से मानते आए कि ध्रुवीकरण तो हिंदू-मुस्लिम मुद्दे से ही पैदा होता है। इसमें कुछ तत्व है, लेकिन एक और ध्रुवीकरण जन्म ले रहा है जो सेकुलर लोगों को तुष्ट कर सकता है और ट्विटर पर तलवार भांज रहे हर शख्स को गौरव का बोध भी करा सकता है। इस ध्रुवीकरण का औज़ार यह राष्ट्र है।
दिलचस्प बात है कि जिस सरकार ने अर्थव्यवस्था पर अपना सारा ध्यान देने का वादा किया था, वह अब चाहती है कि आम बहस-मुबाहिसों में इस पर बात ही न हो। वह चाहती है कि हम अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर तो सरकार को खुली छूट दे दें जबकि इस देश के नागरिक राष्ट्रीय सुरक्षा का जिम्मा अपने हाथ में लेकर हर वकील के भीतर एक विध्वंसकारी को खोज निकालें, हर बुद्धिजीवी में संभावित आतंकवादी को तलाशें और प्रत्येक संवैधानिक दावे की तह में हिंसक क्रांति को सूंघ लें। उत्क्रमण का यह एक शानदार उदाहरण है।
उत्क्रमण का तीसरा बोध हमें वास्तविक सामाजिक आंदोलनों को खारिज करने के राज्य के प्रयासों में होता है। परंपरागत सामाजिक आंदोलन, मजदूर, किसान आदि के आंदोलन विरोधाभासी आर्थिक हितों और राजनीतिक धड़ेबाजी का शिकार होकर बिखरे हुए से दिखते हैं लेकिन दलित और आदिवासी आंदोलन अब भी ज़मीन पकड़े हुए हैं। राज्य इन्हीं के ऊपर वैचारिक हमला कर रहा है ताकि इन्हें शांत कराया जा सके।
यह घोषित आपातकाल भले न हो और आंकडों के लिहाज से भी देखें तो मौजूदा दमन आपातकाल में हुए दमन के बरक्स कमज़ोर ही नज़र आएगा। दोनों में हालांकि एक फर्क है। आपातकाल विशुद्ध सत्ता का मामला था। आज जो हम देख रहे हैं वह कहीं ज्यादा प्रच्छन्न और कपटपूर्ण परिघटना है। एक ऐसा मनौवैज्ञानिक संकुल निर्मित किया जा रहा है जहां हर कोई गद्दार है। यह सत्ता केवल हमारी देह को कैद करना नहीं चाहती, बल्कि हमारी रूहों को भी कुंद कर देने की मंशा रखती है। वक्त का तकाज़ा है कि अब अदालतें और नागरिक समाज ही इस सत्ता को चुनौती दें।
(राजस्थान पत्रिका से साभार)