नामाबर के इस दूसरे अंक के आने के साथ देश का सामाजिक वातावरण थोड़ा और संकटग्रस्त हो गया है। 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार केंद्र में आने के बाद अभी तक हमने हाशिये के तमाम समुदायों के ऊपर लगातार होते हमलों को देखा-सुना। उन्मादी भीड़ द्वारा घेरकर मुसलमानों और दलितों को जलाने और मारने की घटनाएं जब एक ऐसे स्तर पर पहुंच गईं कि तकरीबन रोज़ घटने लगीं और आमजन की संवेदना के लिहाज से ‘न्यू नॉर्मल’ बन गईं, तब यह दमन अपने दूसरे स्वाभाविक चरण में पहुंच गया।
चुनाव करीब हैं और हम पिछले दो महीनों से देख रहे हैं कि हाशिये के समुदायों की पैरवी और उनके पक्ष में बात करने वालों को सीधा शिकार बनाया जा रहा है। इनमें न केवल मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं, बल्कि वकीलों तक को फर्जी मुकदमों में फंसाकर जेलों में डाला जा रहा है। सत्ता की बेचैनी इसमें साफ़ नज़र आ रही है कि पहले उसने दलितों का मुकदमा लड़ने वाले वकील सुरेंद्र गाडलिंग पर मुकदमा थोपा और जेल में डाला। उसके बाद जब गाडलिंग के समर्थन में अधिवक्ता सुधा भारद्वाज और अन्य ने आवाज़ उठायी तो उन्हें भी उसी एफआइआर की जांच के दायरे में ला दिया गया। कुल प्रयास इस दिशा में है कि सबसे कमज़ोर लोगों के हक़ में बोलने वाला अंतिम शख्स भी न बचे।
दूसरी ओर पत्थरगड़ी के नाम पर आदिवासियों पर जुल्म जारी है तो महिलाओं के खिलाफ़ मुसलसल अत्याचार बिहार और देवरिया के बालिका गृह जैसे जघन्य अपराधों से सामने आ रहे हैं। खुलेआम दिनदहाड़े एक औरत को बिहार में निर्वस्त्र कर के बाज़ार में घुमाया जाता है तो झारखंड के खूंटी में नुक्कड़ नाटक करने गई महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार होता है। कुल मिलाकर भय का एक ऐसा मनोविज्ञान गढ़ा जा रहा है जहां अब तक जो लोग भी अन्यायों के खिलाफ़ बोलने का साहस कर पा रहे थे उनकी ज़बान किसी तरह बंद कराई जा सके। यह घोषित इमरजेंसी नहीं है, लेकिन उससे कहीं ज्यादा खतरनाक स्थिति है।
ऐसे वक्त में गिरफ्तार किए गए तेलुगु के कवि वरवर राव की कविताएं हमें ढांढस बंधाती हैं तो इन गिरफ्तारियों पर अरुंधति रॉय का लिखा सुविचारित लेख बौद्धिक दिशा और संयम देता है। हमने भरसक कोशिश की है कि इस अंक में आपको सूचना के साथ-साथ वैचारिक दिशा से जुड़ी सामग्री भी दी जाए। प्रताप भानु मेहता भय के इस साम्राज्य की तह में जाकर उसके मनोवैज्ञानिक सूत्रों को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं तो वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव प्रेमचंद जैसे प्रगतिशील कहानीकार को हाइजैक करने की संघी मूर्खताओं की पोल खोल रहे हैं।
इतने जटिल वक्त में हमारे बीच से कुछ बेहद जुझारू बुजुर्ग चले गए हैं। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर का जाना पत्रकारिता के लिए बड़ी क्षति है तो तीसरी दुनिया के देशों के विचारक समीर अमीन भी नहीं रहे। सिनेमा जैसी कुछ कलाएं अपने समय को संबोधित करने की कोशिश कर रही हैं, हालांकि यह काम पर्याप्त समझदारी के साथ नहीं हो रहा। जावेद नकवी की लिखी ‘मुल्क’ की समीक्षा इसका एक उदाहरण है। ऐसे वक्त में व्यंग्य कारगर औज़ार बनकर उभरता है। नई नारायण कथाएं आपको शायद पसंद आएं।
शुभकामनाओं के साथ