‘दि हिंदू’ अख़बार में एक ख़बर आई थी कि वर्तमान में किसी पब्लिक सेक्टर बैंक के बोर्ड में कर्मचारियों और अधिकारियों का कोई प्रतिनिधित्व अब नहीं रहा। आधुनिक प्रबंध शास्त्र में पार्टिसिपेटरी मैनेजमेंट (सहभागिता आधारित प्रबंध) को एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इस सिद्धांत के अनुसार लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाते हुए किसी भी संस्था में मातहतों को निर्णय की प्रक्रिया में शामिल किया जाता है, उनको अधिकार दिया जाता है जिससे हर कर्मचारी ज़िम्मेदारी के साथ अपना कार्यनिष्पादन कर सके। पूरी दुनिया में संस्थाओं के बेहतर प्रबंधन, विवाद-मतभेद समाधान, कर्मचारियों के कल्याण आदि में सहभागिता आधारित प्रबंध की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस मसले पर मुम्बइया फिल्म उद्योग में तमाम फ़िल्में बनी हैं लेकिन बस कम्पनियों के सामन्तवादी व्यवहार को दिखाने के लिए और बोनस आदि को लेकर मज़दूरों के आन्दोलन को दिखाने के लिए। इस पर कभी गम्भीर बहस हुई ही नहीं।
पूरी दुनिया में सहभागिता आधारित प्रबंध को ध्यान में रखकर कानून बनाकर लागू किया गया है। भारत में भी इस अवधारणा को लागू करने के लिए कई कानून बनाए गए हैं। इन क़ानूनों में सबसे महत्वपूर्ण क़ानून है 1949 का औद्योगिक विवाद अधिनियम। राष्ट्रीयकृत बैंकों के बोर्ड के गठन के सम्बन्ध में भी इस तरह के क़ानूनी प्रावधान हैं जिसके तहत बैंकों में काम करने वाले कर्मचारियों और अधिकारियों को बोर्ड में शामिल किया जा सके। बैंक के बोर्ड में कर्मचारियों और अधिकारियों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने में बैंककर्मियों के आन्दोलनों की भी प्रमुख भूमिका रही है।
बैंककर्मियों को बोर्ड में प्रतिनिधित्व मिलने के बाद उन्हें और बैंक को इसका कितना लाभ मिला इसका मूल्यांकन कभी नहीं किया गया। सरसरी तौर पर यह देखा जा सकता है कि बोर्ड में आने के बाद बैंककर्मियों के प्रतिनिधि अपने बैंक प्रबंधन के ज़्यादा नज़दीक आए और उनका व्यवहार बहुत कुछ मैनेजमेंट की तरह हो गया। बैंक बोर्ड में उनकी भूमिका धीरे धीरे कम होती गई, उनकी उपस्थिति मात्र कानून की भरपाई करती रही। बैंककर्मी आंदोलन भी धीरे धीरे कमज़ोर होता गया। बैंककर्मियों के काम करने के हालात बद से बदतर होते गए और ये प्रतिनिधि इन बातों को मैनेजमेंट के सामने या तो प्रभावशाली तरीक़े से नहीं रख पाए या उसको लागू नहीं करा पाए। बैंक प्रबंधन इसका फ़ायदा उठाकर कानून की पूर्ति करते हुए अपनी मनमानी करते रहे जिसके कारण आज बैंक मुसीबत में हैं।
परिस्थितियों पर नज़र रखने वालों और बैंककर्मी नेताओं का कहना है कि सरकार कोई ख़तरा नहीं उठाना चाहती। बैंकों का विलय उसकी कार्यसूची में महत्वपूर्ण स्थान पर है। बैंकों के विलय में कोई विवाद न हो इसलिए बोर्ड से विलय प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास कराना चाहती है। बैंककर्मियों का कोई भी प्रतिनिधित्व बैंकों के विलय के किसी भी एजेंडा पर अपनी प्रतिकूल टिप्पणी देकर विलय प्रक्रिया में अड़ंगा डाल सकता है।
इस प्रकार एक विधिसम्मत लोकतांत्रिक मैनेजमेंट कार्यप्रणाली को तिलांजलि देने की तैयारी की जा चुकी है। किसी भी दिन बैंकों के विलय की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है और उस पर सवाल उठाने के लिए बैंकों के बोर्ड में कोई नहीं होगा। सरकार पहले ही कह चुकी है कि बैंकों के विलय का प्रस्ताव बैंक के बोर्ड से आना चाहिए, सरकार कोई दख़लंदाज़ी नहीं करेगी। कमोबेश इसी तरह का बयान तब पिछली कांग्रेस सरकार के वित्तमंत्री ने भी दिया था। बैंक बोर्ड में विलय के प्रस्ताव पर सवाल नहीं उठेगा। विलय का प्रस्ताव पास होकर सरकार के पास आएगा। सरकार मंज़ूर करेगी। अगर विलय में कोई अड़चन आई या विलय असफल हुआ तो ठीकरा भी बैंक बोर्ड पर फोड़ा जाएगा।
यह ख़तरनाक होगा क्योंकि बैंक बोर्ड बिना कोई विचार-बहस के प्रस्ताव पारित करेंगे। इसका ख़ामियाज़ा बैंक और अर्थव्यवस्था को तो उठाना पडे़गा, कर्मचारियों और अधिकारियों के हक़ पर भी कुठाराघात होगा। बैंककर्मी आंदोलन जो कमज़ोर हो चुका है उसे फिर से अपनी ज़मीन तलाशनी होगी। बैंक बोर्ड में उनकी क़ानूनी हाज़िरी का फ़ायदा उठाकर बैंक और सरकार अपनी सारी असफलता का ठीकरा बैंक कर्मियों पर फोड़ती रही हैं। हाल के समय में फेसबुक आदि मीडिया पर बैंककर्मी अपनी तकलीफ़ों को रख रहे हैं लेकिन दुर्भाग्य कि कोई मीडिया उनपर ध्यान नहीं दे रहा है। बैंक कर्मी आज हताशा की हालत में काम कर रहे हैं।
बैंकों का विलय हो लेकिन जल्दीबाज़ी में नहीं बल्कि पूरी बहस और मूल्यांकन के बाद। सरकार जितना भी सतर्कता बरत ले, विलय असफल होने पर आलोचना तो सरकार की ही होगी।