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संपादकीय

प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी का एलान करते हुए जनता से सिर्फ़ पचास दिन मांगते हुए गर्वोक्ति की थी-“अगर हालत न सुधरे तो जिस चौराहे पर चाहना, ज़िंदा जला देना।‘’ अब, जबकि आम चुनाव को एक साल से भी कम वक्‍त बच रहा है, ऐसे वक्‍त में रिजर्व बैंक की ओर से नोटबंदी के करीब दो साल बाद रिपोर्ट आई है कि 99.3 फ़ीसदी नोट बैंकों में वापस आ गए। काला धन खत्‍म करने के नाम पर की गई इस कार्रवाई से कितना नुकसान हुआ, इसका आकलन अभी बाकी है। हां, इस कवायद में बहुत से लोगों की जान गई, जाने कितने परिवार और छोटे-मोटे धंधे बरबाद हो गए और समूची अर्थव्यवस्था ही पटरी से उतर गई।

बावजूद इसके बेशर्मी का आलम यह है कि जब एक साक्षात्‍कार में प्रधानमंत्री से बेरोज़गारी के आंकडों के बारे में पूछा जाता है तो वे कह देते हैं कि रोज़गार तो बढ़े हैं लेकिन अभी इसके आंकड़ों को गिनने की तकनीक सरकार के पास नहीं है। कौन नहीं जानता कि भारत सरकार में आंकड़े गिनने के लिए बाकायदा एक स्‍टैटिस्टिक्‍स मंत्रालय ही काम करता है जो इतने बड़े देश के करोड़ों लोगों का समय-समय पर नमूना सर्वेक्षण करता रहता है। यहां आज़ादी के बाद से नियमित जनगणना होती रही है और आंकड़ों के आधार पर ही योजनाएं बनती रही हैं। दिक्‍कत यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कही बात इस देश में मीडिया के धक्‍के से एक राष्‍ट्रीय विमर्श की शक्‍ल ले लेती है और उसका प्रतिवाद नक्‍कारखाने की तूती बनकर रह जाता है।

इसका एक बड़ा कारण यह है कि मतदाताओं के जिस तबके के बल पर लोकप्रिय सरकारें बनती हैं वह मोटे तौर पर हिंदीभाषी है जहां आर्थिक मसलों पर हर किस्‍म की जुमलेबाजी वॉट्सएप प्रचार का हिस्‍सा बनकर दिमाग में जगह बना लेती है लेकिन ऐसे दुष्‍प्रचार का हर प्रतिवाद अंग्रेज़ी तक सीमित रह जाता है। जहां मतदाताओं ने खुद नोटबंदी का दर्द झेला हो वहां अगर सत्‍ता-शीर्ष की ओर से उन्‍हें यह भरोसा दिलाया जा रहा है कि नोटबंदी लंबी दौड़ में देश को लाभ पहुंचाएगी और रोज गार बढ़ रहे हैं, तो यह कामयाबी सत्‍ता की नहीं बल्कि जनता की राजनीति करने वालों की नाकामी है जो अपनी बात लोगों तक लेकर नहीं जा पा रहे हैं।

ऐसे में लोक संवाद जैसे प्रयोजन अपनी सीमित संभावनाओं में भी कारगर हो सकते हैं। नोटबंदी जैसे महान राष्‍ट्रीय कपट पर दो साल बाद भी मतदाताओं के बीच अगर धुंधलका कायम है तो यह शोचनीय विषय है। हमने कोशिश की है कि जीडीपी से लेकर बेरोज़गारी तक और सरकार के तमाम आर्थिक घोटालों पर ज्‍यादा से ज्‍यादा सामग्री को हिंदी में संकलित कर सकें।

लोक संवाद के पुनर्प्रकाशन पर यह दूसरा अंक आपकी स्‍क्रीन पर है। गंभीर लेखन किस तरह आंदोलन की संभावनाओं को जगा सकता है, उसका अप्रतिम उदाहरण पी. साइनाथ का कृषि संकट पर लिखा लोकप्रिय लेख इस अंक में शामिल है जिसमें उन्‍होंने कृषि संकट पर संसद सत्र बुलाने की मांग की है। इस मांग पर लगातार किसान संगठनों के बीच बैठकें हो रही हैं और यदि सब कुछ ठीक रहा तो संभव है कि आगामी 30 नवंबर को देश भर के किसान संसद तक अपनी आवाज़ सीधे पहुंचा सकेंगे। अक्‍टूबर के अगले अंक में हम किसान आंदोलन की ताज़ा रपट लेकर आपके बीच फिर आएंगे।

शुभकामनाएं

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