हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई यौन उत्पीड़न के आरोपों की वजह से विवादों में घिर गए। उन पर यह आरोप उच्चतम न्यायालय की ही एक पूर्व कर्मचारी ने लगाए हैं। इस विवाद से लोक संस्थाओं और इन संस्थाओं में काम करने वाले लोगों के आपसी रिश्तों के बारे में कुछ समस्याएं सामने आई हैं। यह संबंध इसलिए परेशानियों वाला लग रहा है क्योंकि भारत के मुख्य न्यायाधीश अपनी व्यक्तिगत साख को इन लोक संस्थाओं की साख से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने जिस तरह से अपना बचाव किया है, उसी तरह से अपना बचाव करने का काम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करते हैं। इन दोनों ने अलग–अलग संदर्भ में दो तरह के दावे किए। प्रधानमंत्री के बारे में मीडिया में यह खबर आई कि वे खुद को देश का मसीहा मानते हैं और कहते हैं कि देश तब ही सुरक्षित रहेगा जब बागडोर उनके हाथ में होगी। उसी तरह से मुख्य न्यायाधीश ने खुद पर लगे व्यक्तिगत आरोपों को न्यायपालिका पर हो रहे हमले के तौर पर पेश किया। इससे यह सवाल उठता है कि लोक संस्थाएं महत्वपूर्ण हैं या इनमें बैठने वाले लोग व्यक्तिगत तौर पर महत्वपूर्ण हैं?
मुख्य न्यायाधीश के दावों से ऐसा लगता है कि न्यायपालिका की रक्षा के लिए उनकी प्रतिबद्धता को नुकसान पहुंचाने का काम उन पर यौन उत्पीड़न के आरोपों के जरिए किया जा रहा है। खबरों में यह बताया गया कि उन्होंने ऐसा कहा कि उन पर होने वाले हमले न्यायपालिका पर हमला हैं। यह सच है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय संवैधानिक मूल्यों का प्रतीक है। लेकिन एक योग्य जज का संविधान सिर्फ उसे नैतिक सत्यों पर आधारित नहीं बनाता। उन्होंने अपने बचाव में कहा, ‘मैं इन आरोपों को खारिज करने तक भी नीचे नहीं गिर सकता।’ उन्होंने आगे कहा, ‘मेरे चपरासी के पास भी मुझसे अधिक पैसे हैं।’
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि अगर भारत के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय न्यायिक सत्यनिष्ठा का प्रतीक है और कानूनी प्रक्रियाओं के रक्षक के तौर पर जाना जाता है तो फिर गोगोई नैतिकता की दुहाई क्यों दे रहे हैं? आधुनिक न्यायिक संस्थाओं के मूल में साक्ष्य और तथ्यों पर आधारित तर्क–वितर्क हैं। इस पारदर्शी व्ययवस्था से मिलने वाले न्याय को सच्चाई की जीत कहा जाता है। वैज्ञानिक ढंग से सत्य को तलाशने की कोशिश आधुनिक न्याय व्यवस्था में होती है। इसमें नैतिक भाषा के इस्तेमाल की कोई गुंजाइश नहीं बचती। यहां यह भी ध्यान रखने की बात है कि यौन उत्पीड़न के आरोपों से बचाव के लिए आम तौर पर नैतिकता की दुहाई दी जाती है।
इससे यह होता है कि कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किए बगैर एक व्यक्ति को निर्दोष मान लिया जाता है। इससे आरोप लगाने वाले की साख कमजोर होती है। इससे आरोप लगाने वाले की सही सुनवाई तक नहीं हो पाती है। इस मामले में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का आरोप है। जिसमें पदानुक्रम की भी भूमिका है। लेकिन जिस तरह से इस मामले से निपटा गया है वह लोक संस्थाओं की साख कम करने वाला है। न्यायापालिका की सत्यनिष्ठा तब ही बनी रह सकती है कि जब वह सही ढंग से न्यायिक प्रक्रियाओं का पालन करे। इस मामले की जांच के लिए जो तीन सदस्यीय समिति बनाई गई है, उसके आचरण से पता चलेगा कि न्यायपालिका अपनी सत्यनिष्ठा को बनाए रखने के लिए संजीदा है या नहीं।
संपादकीय दो : चुनावी बॉन्ड से आगे
भारत में चुनावी खर्च कौन उठाता है? पिछले छह दशकों के चुनाव आयोग के आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि हर संसदीय क्षेत्र में होने वाले चुनावी खर्चों में 274 गुना बढ़ोतरी हुई है। 1952 में जहां प्रति संसदीय क्षेत्र औसतन 2.6 लाख रुपये खर्च हो रहे थे, वहीं 2014 में यह आंकड़ा बढ़कर 7.13 करोड़ रुपये पर पहुंच गया। इससे पता चलता है कि राजनीतिक दलों के दान देने वाले लोगों की कमी नहीं है। हाल में बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड के 2,577 नेताओं के बीच यूनिवर्सिटी आॅफ कैलिफोर्निया ने एक सर्वेक्षण किया। इसमें यह पता चला कि गुमनाम स्रोतों से अधिक दान उन नेताओं का मिलता है जो पद पर रहते हैं। लोकसभा सांसदों के मामले में यह आंकड़ा 44 फीसदी है। वहीं विधानसभा सदस्यों के मामले में यह आंकड़ा 47 फीसदी है। इससे भारत में राजनीतिक फंडिंग के स्याह पक्ष का आभास होता है। यही वजह है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की चुनावी बाॅन्ड योजना भी इस अपारदर्शिता को दूर नहीं कर पाई। हालांकि, सरकार इसका फायदा गिनाते हुए नहीं थकती है।
भारत में चुनाव सुधारों का इतिहास विचित्र रहा है। इसमें राजनीति में इस्तेमाल होने वाले पैसों को लेकर चिंता का अभाव लगातार दिखा है। इसमें चुनावी बाॅन्ड स्थितियों में सुधार करता हुआ नहीं दिख रहा है। इससे यह खतरा पैदा हो गया है कि काला धन को वैधता दिलाने के लिए इसका इस्तेमाल नहीं किया जाए। इसमें देने वाला और लेने वाला, दोनों पक्ष शामिल हो सकते हैं। एनडीए सरकार ने 2016 में ‘विदेशी स्रोत’ की परिभाषा में जिस तरह से बदलाव किया है, उससे अब यह संभव हो गया है कि कोई फर्जी कंपनी दान दे सके। विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम, 2010 में 42 साल पहले के पूर्वप्रभाव से संशोधन किया गया है। इससे भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसी पार्टियों को पहले की गड़बड़ियों से भी मुक्ति मिल जाएगी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने ऐसी गड़बड़ियों के लिए दोनों पार्टियों को 2014 में दोषी माना था। इसके अलावा जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 और आयकर कानून, 1961 में भी संशोधन किया गया है। इससे तहत 20,000 रुपये से कम के दान के लिए गुमनाम स्रोतों को वैध बना दिया गया है। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इतनी रकम कोई भी दानदाता कितनी बार तक दे सकता है। विडंबना तो यह है कि ये सारे निर्णय उस सरकार ने लिए हैं जो कहती है कि उसने विमुद्रीकरण करके काले धन के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक किया है।
चुनाव आयोग ने भी कहा है कि चुनावी बाॅन्ड से राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाने की कोशिशों को झटका लगेगा। लेकिन इस चिंता की यह कहकर अनेदखी की जा रही है कि हर दल को एक समान अवसर मिलना चाहिए। लेकिन क्या यह उस दौर में संभव है जब चुनाव बेहद प्रतिस्पर्धी हो गए हैं? क्योंकि ऐसे प्रतिस्पर्धी चुनाव में जिस उम्मीदवार के विजयी होने की जितनी कम उम्मीदें होती हैं, वह उतने ही अधिक पैसे खर्च करके हारने के जोखिम को कम करना चाहता है। वोट के बदले नोट बांटने से लेकर और भी कई चुनावी कार्यों में पैसे का इस्तेमाल होता है। ऐसे में चुनाव आयोग की ओर से इस मामले में पारदर्शिता लाने की कोशिशों की समीक्षा जरूरी है। लेकिन साथ ही चुनावों में उतरने वाली राजनीतिक पार्टियों की इच्छाशक्ति का परीक्षण भी जरूरी है।
अगर नीतिपरक चुनावी प्रक्रिया को पैसे से नुकसान पहुंचता है तो फिर यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि आखिर क्यों चुनाव आयोग ने संसदीय चुनावों में खर्च की सीमा 40 लाख रुपये से बढ़ाकर 70 लाख रुपये की? इसमें भी समस्या यह है कि चुनाव लड़ने वाले अपनी आॅडिट रिपोर्ट में यह कहते थे कि वे 40 लाख का 15 से 20 फीसदी ही खर्च करते हैं। सवाल यह भी है कि चुनाव आयोग यह कैसे तय करता है कि चुनाव लड़ने के लिए कितने पैसों की जरूरत है? क्या चुनाव आयोग ने खर्च की अधिकतम सीमा बढ़ाकर परोक्ष रूप से इसे स्वीकार कर लिया है कि चुनावों में बगैर खातों में दर्ज हुए काफी पैसे खर्च होते हैं और उसका निगरानी तंत्र इसे पकड़ नहीं पा रहा है?
कई आयोगों की सिफारिशों के बावजूद राजनीतिक फंडिंग के मामले में पारदर्शिता नहीं कायम हो पाई है। नियमन का काम करने वाली संस्थाएं दानदाताओं के हकों की रक्षा करते हुए दिखती हैं न कि 85 करोड़ मतदाताओं के हकों की रक्षा करते हुए। यह काम चुनाव आयोग करता आया है। चुनावी बाॅन्ड से संबंधित मामले की सुनवाई में उच्चतम न्यायालय ने भी 12 अप्रैल, 2019 को यही किया। अगर दानदाताओं की पहचान उजागर हो तो नीतियों में मतदाताओं को अहमियत मिलने की शुरुआत हो सकती है। राजनीतिक आरोप–प्रत्यारोप के दौर में चुनाव संबंधित से जरूरी दूसरे मुद्दों पर भी बात नहीं हो पा रही है। इनमें चुनावी खर्चों का संहिताकरण, आदर्श आचार संहिता की अवधि से आगे जाकर नियमन करने की व्यवस्था और चुनावी तंत्र के ढांचे से संबंधित मसले शामिल हैं।