उस समय में जब उत्पादन का मुख्य साधन कृषि हुआ करता था तब गंगा के मैदानी भाग में जीवनपयोगी वस्तुओं का उत्पादन सरल था, निश्चित ही जीवन भी सहज ही था और इन परिस्थितियों में घनी आबादी होना भी लाज़मी था। आपात स्थितियों में भी लोग विभिन्न क्षेत्रों से आकर यहीं बसे जबकि आजादी के पहले ही औद्योगिक विकास की बातें चल पड़ी थी और ब्रितानी सरकार द्वारा जगह–जगह व्यापारिक केंद्र भी बनाये गए थे लेकिन इसमें इलाके में सभी संसाधनों की उपलब्धता के बावजूद भी अंग्रेजी सरकार ने यहाँ कोई व्यापारिक केंद्र की स्थापना नही की। संभवतः इसका मुख्य कारण राष्ट्रीय आन्दोलन में इस क्षेत्र की सबसे सक्रिय भूमिका मानी जा सकती है। इसके बावजूद यहाँ के लोगों ने कृषि आधारित उद्योगों की स्थापना के लिए अपनी जमीन, श्रम और उत्पाद को मुहैया करा के अपने आर्थिक तंत्र को मज़बूत करने का प्रयास किया और लघु व कुटीर उद्योगों की स्थापना में सफल रहे जिससे यहाँ रोजगार का सृजन हुआ।
आजादी के बाद भी बड़े पैमाने पर उद्योगों की स्थपाना हुई। तब तक यह धारणा बलवती हो चुकी थी कि सिर्फ खेती किसानी से काम नहीं चलेगा और रोजगार के अवसरों को बढाने के लिए बड़े उद्योगों की स्थापना आवश्यक है। उसका विस्तार भी तेज़ी से हुआ। मगर उस बदले परिवेश में भी इन क्षेत्रों में न ही नए उद्योग स्थापित हुए और न ही इस विशाल भूभाग के संरचनात्मक विकास पर कोई ध्यान दिया गया और अतिघनी आबादी वाले इस इलाके के लोगों को नई आर्थिक नीतियों ने घर बार छोड़ कर देश के सूदूर इलाके तथा विदेशों में भी भाग कर के जाने को विवश किया। देखने में बहुत साधारण सा लगता है कि एक व्यक्ति अपने घर से रोटी कमाने निकलता है। मगर जब कोई व्यक्ति घर छोड़ता है तो अपनी पीढ़ियों की विरासत अपनी संस्कृति, अपना समाज और अपनी पहचान को तिलांजलि देकर और अपनी भावनाओं को मारकर के ही उसे जाना पड़ता है। अपने ही देश में अलग–अलग इलाकों में कही बिहारी कहीं पुरबिया कहीं भैया के नाम से जाना जाता है और उस बीच उसकी अपनी पहचान समाप्त हो जाती है। उसे हिकारत की नजर से देखते हैं, बुलाते हैं। ऐसा नहीं है कि इस देश के निर्माण में इनका योगदान नहीं है। जब देश के विकास का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि आज जो देश का ढांचा दिखाई दे रहा है- चाहे बात अवस्थापना विकास रेलवे दूरसंचार की हो या आयात निर्यात आत्मनिर्भरता की- श्रम के लिहाज से और खून पसीना बहाने में सबसे ज्यादा योगदान इन पलायित मजदूरों का है जो देश बनाने का जज्बा लेकर मेट्रों शहरों के गली कूंचो में भटकते हुए आपको मिल जायेंगे।
दुर्भाग्यवश हम देखते हैं कि देश और समाज के निर्माण में सर्वाधिक योगदान करने वाला व्यक्ति मेट्रो सिटी में गंदे नालों के किनारे छोटी छोटी झुग्गियों में बड़ी संख्या में रहता है जहां साँस लेना मुश्किल होता है और वहां स्वच्छ वातावरण के अभाव में टीबी और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों के वे शिकार हो जाते हैं। जिस मेट्रो सिटी में गगनचुम्बी टावर और बंगलो का अम्बार लगा हुआ है और लाखों की संख्या में मकान खाली हैं वहीं कहीं कहीं तो सड़क के किनारे फुटपाथ पर सोने के लिए भी जगह कब्ज़ा करना पड़ता है जहां लोग हिट एंड रन में अपनी जान गंवा देते हैं। और उसी के सामने यह प्रश्न खड़ा कर दिया जाता है कि सड़क के फुटपाथ क्या सोने के लिए बने हैं?
यह सवाल उस व्यक्ति से नहीं व्यवस्था से होना चाहिए। चूँकि यह सवाल महलों और बंगलों से निकलते हैं और हवेली में रहने वाले लोगों को इस व्यवस्था ने भरपूर संरक्षण दिया है इसलिए उनकी हिम्मत नहीं पड़ती कि व्यवस्था से यह प्रश्न कर सके। हमें याद है पंजाब में आतंकवाद चरम पर था तो सबसे ज्यादा उसका प्रभाव उन पुरबिया और बिहारी मजदूरों पर पड़ा। न वहां की सरकार ने उन्हें संरक्षण दिया न ही उत्तर प्रदेश व बिहार सरकार के कानों पर जू रेंगी। महाराष्ट्र के राजनैतिक महत्वाकांक्षी लोग अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने के लिए जिन मजदूरों को गालियाँ देते हैं वे गालियाँ सुनने वाले यही पलायित मजदूर हैं जिनको न तो केंद्र न ही राज्यों की सरकार कोई संरक्षण देती है। दिल्ली में शीला दीक्षित जैसी मुख्यमंत्री भी अपने कार्यकाल में पुरबिया और बिहारियों के लिए दिल्ली में आकर ‘सड़ांध’ पैदा करने के आरोप लगा कर यह फरमान जारी करती हैं कि दिल्ली में प्रवेश से पहले पुरबिया और बिहारियों के लिए गाँव के प्रधान या मुखिया से सर्टिफिकेट लिखवाना जरुरी है और खुले तौर पर उनके साथ दोयम दर्जे के नागरिकों सा व्यवहार किया जाता है।
आज भी 17 वर्ष से लेकर के 30 वर्ष के नौजवानों का पलायन जारी है जिनमें साक्षर से लेकर ग्रेजुएट, पोस्टग्रेजुएट (बीए, बीटेक, एमबीए आदि) सभी क्षेत्र के स्किल्ड, नॉन स्किल्ड युवा देश के कोने कोने में छोटे बड़े शहरों में पेट की भूख को मिटाने के लिए काम की तलाश में दिन रात एक कर के मारे मारे फिर रहे हैं। आलम ये है कि उन नौजवानों को सारे श्रम कानूनों को ताक पर रखकर अनलिमिट टाइम और मिनिमम मजदूरी से भी कम पैसे देकर काम कराया जाता है और ये शिक्षित युवा बेरोजगार अपनी सारी पहचान खोकर मालिकों की शर्त पर काम करने को मजबूर हैं। चाहे इस देश में शाइनिंग इण्डिया की बात हो या अब न्यू इंडिया की। ये सभी बातें छलावा साबित हो रही हैं। और अब तो सभी कोशिशें येन केन प्रकारेण सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए सभी राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही है। हम जातीय धार्मिक और क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर खड़े हुए संगठनों और उनके लिए लठैती करने वाले लोगों से पूछना चाहते हैं कि आप के घर से पलायन करके गया वह नौजवान जो देश के कोने कोने में भटकता, ठोकरें खाता, बेहूदे लोगों की गालियां सुनता, पुरबिया बिहारी भैया के नाम पर प्रताड़ित होता, क्षेत्रवाद के नाम पर भगाया जाता, अरब अमीरात खली बली घोषित किया जाता है और पुलिस के द्वारा प्रताड़ित किया जाता है, तो वह नौजवान आपकी जाति का, आपके धर्म का, आपके समाज का, आपके क्षेत्र का है या नहीं। जब उप्र और बिहार में आपका जातीय और धार्मिक सम्मान जगता है तो बन्दूक और बम चलते हैं तो आपके बीच के अपने भाई भतीजे और अपने बंधु अपने ही देश में अपनी पहचान के लिए तड़पता है तो आपकी सत्ता की ताकत और आप के ये बम और बन्दूक क्यों धरे रह जाते हैं।
देश और प्रदेश की सरकारों के सामने यह सवाल है कि देश की बहुतायत जनता जो पलायित है और अपनी पहचान खोकर भी देश के निर्माण में सब कुछ समर्पित करने के बाद भी उनकी जगह गंदे नाले के किनारे है, जेल से बदतर अवस्था में झोपडियां जिनमें पैर फ़ैलाने की जगह नहीं होती और सड़क की पटरियां ही उनके सोने की जगह हों, तो आपकी भारी भरकम व्यवस्था और लाखों करोडों का बज़ट और देश का संविधान, बहुत सारे कानून, ये बहुत सारे विकास के भारी भारी मॉडल, ऊंची ऊंची घोषणाएं किसके लिए हैं? और जो वर्षों से लगातार अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रहे हैं उन नौजवानों मजदूरों को अभी और कितना संघर्ष करना पड़ेगा और यह व्यवस्था कम से कम उन्हें मनुष्य की श्रेणी में कब तक लाकर खड़ा करेगी या कब तक वे मनुष्य के रूप में जाने जायेंगे और कब तक इनके श्रम की लूट होती रहेगी?
(लेखक किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष हैं)