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रफ़ाल डील से एचएएल के हटने और अंबानी के सटने का जवाब कौन देगा?

अविश्‍वास प्रस्‍ताव के दौरान संसद में प्रधान सेवक ने हमले की शुरुआत विपक्ष, खासकर कांग्रेस पर ‘नकारात्मकता और विकास के प्रति ‘विरोध-भाव’ का आरोप लगाकर की। उन्होंने मुद्दों पर बहस करने की कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की इस ललकार को भी याद किया कि ‘हम खडे होंगे, तो प्रधानमंत्री 15 मिनट तक भी खडे नहीं हो पायेंगे।’उन्होंने ललकार को अहंकार बताते हुए मलामत की और करीब 150 मिनट के अपने भाषण के अंत में ‘अहंकार-शून्य’ प्रधान सेवक ने कम-से-कम दो बार कहा कि ‘ईश्वर और देशवासी, कांग्रेस और उसके नेतृत्व को 2024 में फिर से अविश्वास प्रस्ताव लाने की शक्ति दें।’

लेकिन आइये,  बिना किसी लंबी-चौडी भूमिका के, पिछली 20 जुलाई को लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर हुई चर्चा पर, खासकर राहुल गांधी के आरोपों और सवालों के संदर्भ में प्रधान सेवक के जवाब पर नजर डालें। सबसे पहले सबसे महत्वपूर्ण सवाल सेः

प्रधान सेवक ने राफेल का जिक्र भर किया, लेकिन इस पर सवालों से कतराकर निकल गये। अलबत्ता अगंभीरता, बचकानापन के आरोप भी लगाये। उन्होंने कहा, ‘‘कितना दुखद है कि इस सदन में लगाये गये आरोपों पर दोनों देशों को बयान जारी करना पडा और दोनों देशों को खंडन करना पडा।’’

वह भारत के किस बयान का जिक्र कर रहे थे, यह तो पता नहीं, अलबत्ता फ्रांस के संदर्भ में शायद उनका आशय विदेश विभाग के प्रवक्ता के उस बयान से है, जो लोकसभा में राहुल की टिप्पणी के बाद उसी दिन पेरिस में जारी किया गया और जिसमें गोपनीयता के बारे में 25 जनवरी 2008 के उसी द्विपक्षीय करार और इंडिया टुडे टी.वी. से पिछले 9 मार्च को प्रसारित फ्रेंच राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रोन के एक इंटरव्यू का दोहराव भर था। रक्षा मंत्री नर्मला सीतारमन भारत और फ्रांस के बीच 25 जनवरी 2008 के इस रक्षा समझौते का पहले ही हवाला दे चुकी थीं। समझौते के तहत ‘‘दोनों सरकारें एक-दूसरे द्वारा प्रदत्त ऐसी किसी भी वगीकृत सूचना की गोपनीयता की रक्षा के लिये कानूनी रूप से बाध्य हैं, जिससे भारत या फ्रांस के रक्षा उपकरणों की सुरक्षा या उनकी परिचालन क्षमता पर प्रतिकूल असर पडने की आशंका हो।’’ और टी.वी. इंटरव्यू में मैक्रोन ने कहा था कि ‘गोपनीयता के ये प्रावधान स्वभावतः 36 रफाल विमान और संबंधित शस्त्र खरीदने के लिये 23 सितम्बर 2016 को हुये सौदे पर भी लागू होते हैं।…..भारत में और फा्रंस में जब एक करार अत्यंत संवेदनशील हो तो हम सारे ब्यौरे तो सार्वजनिक नहीं कर सकते।’

गोपनीयता करार और मैक्रोन के इंटरव्यू के दोनों वाक्यों का क्रम बदलकर जरा आप उन्हें दुबारा और एक साथ पढें- ‘‘भारत में और फ्रांस में जब एक करार अत्यंत संवेदनशील हो तो हम सारे ब्यौरे तो सार्वजनिक नहीं कर सकते।‘’ और ‘‘दोनों सरकारें एक-दूसरे द्वारा प्रदत्त ऐसी किसी भी वगीकृत सूचना की गोपनीयता की रक्षा के लिये कानूनी रूप से बाध्य हैं, जिससे भारत या फ्रांस के रक्षा उपकरणों की सुरक्षा या उनकी परिचालन क्षमता पर प्रतिकूल असर पडने की आशंका हो।‘’ तब क्या सार यह है कि सारे ब्यौरे नहीं, कुछ ब्यौरे सार्वजनिक किये जा सकते हैं, केवल उन वर्गीकृत सूचनाओं को छोडकर, जिनसे भारत या फ्रांस के रक्षा उपकरणों की सुरक्षा या उनकी परिचालन क्षमता पर प्रतिकूल असर पडने की आशंका हो…?

तो क्या प्रति रफाल विमान की कीमत, ऐसी ही वर्गीकृत सूचना है, जिससे उनकी परिचालन क्षमता पर प्रतिकूल असर पडने की आशंका है? ध्यान रहे कि उसी इंटरव्यू में मैक्रोन ने यह भी कहा था, ‘‘यह भारत सरकार को तय करना है कि वह विपक्ष और संसद से कौन से ब्यौरे साझा करना चाहती है, मैं इसमें दखल नहीं दूंगा।‘’

प्रधानसेवक ने इस सबका विस्तार से उल्लेख नहीं किया। प्रधान जी ने यह दावा जरूर किया कि ‘’राफेल खरीद का सौदा दो जिम्मेदार सरकारों के बीच और पूरी पारदर्शिता से हुआ है।‘’ लेकिन यह दावा तो उनकी सरकार कई जुबानों से कई बार पहले भी कर चुकी है। 20 जुलाई को लोकसभा में तो नहीं, लेकिन 17 नवम्बर 2017 को रक्षा सचिव संजय मित्रा और भारतीय वायुसेना के खरीद प्रमुख एयर मार्शल रथुनाथ नाम्बियार के साथ एक प्रेस कांफ्रेंस में निर्मला सीतारमन ने भी कहा था कि फ्रांस में अप्रैल 2015 में 36 रफाल खरीदने के सौदे पर सहमति की प्रधानमंत्री की घोषणा से पहले रक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी की मंजूरी लेने की वांछित प्रक्रिया पूरी कर ली गयी थी। प्रधान सेवक ने यह दावा नहीं किया, सिर्फ इतना कहा कि इस केबिनेट कमेटी में ‘पहली बार दो महिला मंत्री बैठती हैं और वे निर्णय में भागीदार होती हैं।’ लेकिन रक्षा मंत्री से लेकर प्रधान सेवक तक के इन दावों का सच यह है और यह सच खुद रक्षा राज्य मंत्री सुभाष भामरे ने बीती 12 मार्च को ही कांग्रेस के विवेक तनखा के प्रश्नों के लिखित उत्तर में राज्यसभा में उद्घाटित किया था कि रक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी ने 24 अगस्त 2016 को इस सौदे को मंजूरी दी, यानि पेरिस में प्रधानमंत्री की घोषणा के 16 महीने बाद।

राफेल सौदे में प्रति विमान कीमत 520 करोड रुपये से बढकर 1600 करोड रुपये हो जाने, फ्रांस की प्रौद्योगिकी से 100 से अधिक राफेल बनाने का ठेका हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लिमिटेड (एचएएल) से ले लेने और ठेका एक ऐसे उद्योगपति को देने पर भी प्रधान सेवक मौन रहे, जिसने जीवन में कभी कोई एयरोप्लेन नहीं बनाया, जिस पर बैंकों का 35,000 करोड रुपया बकाया है और अप्रैल 2015 में फ्रांस के दौरे पर जो उनके साथ गये व्यापारिक प्रतिनिधिमंडल में शामिल था। उन्होंने केवल राजनीति के इस ‘स्तर’ को देशहित के खिलाफ बताया, राहुल गांधी को ‘सुधरने’ की सलाह’ भी दी और तुरंत सेना की आड में राष्ट्रवाद का भूत जगाने लगे – ‘‘राष्ट्रीय सुरक्षा के इतने संवेदनशील मुद्दे पर इन बचकाना बयानों से बचा जाए…। आज हिन्दुस्तान का हर सिपाही, जो सीमा पर होगा या निवृत होगा, उसे आज कितनी गहरी चोट पहुंची होगी, जो देश की भलाई के लिये काम करते हैं। सेना के जवानों के पराक्रम को स्वीकारने का आपको सामर्थ्य नहीं होगा, लेकिन क्या आप सर्जिकल स्ट्राइक को जुमला स्ट्राइक बोलेंगे?’’

ध्यान रहे कि राहुल गांधी के ‘जुमला स्ट्राइक’  का संदर्भ और अर्थ तो कुछ और था। अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा में उनके भाषण के शुरुआती अंशों पर लौटें। आंध्र प्रदेश के बंटवारे के समय संबंधित कानून में 5 साल तक विशेष राज्य का दर्जा और सुविधायें देने के वादे को चुनावी रैलियों में स्वयं नरेन्द्र मोदी द्वारा 10 साल तक विस्तारित करने और फिर उससे हट जाने की टी.डी.पी. की शिकायत पर राहुल बोले थे- ‘‘यह 21 वीं सदी का अद्भुत राजनीतिक हथियार है। इसमें पहले अत्यधिक उत्साह होता है, खुशी होती है और फिर सदमा। इस ‘जुमला-स्ट्राइक’ के शिकार अकेले आंध्र के लोग नहीं हैं, देश के किसान इसके शिकार हुये हैं, युवा इसके शिकार हुये हैं, दलित, आदिवासी और महिलायें इसकी शिकार हुई हैं… हर अकाउंट में 15 लाख रुपये, हर साल 2 करोड लोगों को रोजगार ऐसे ही जुमले हैं।‘’

इससे पहले,  अभी मार्च तक एन.डी.ए. और उसकी सरकार में शामिल रही तेलूगु देशम पार्टी की ओर से के.सी नेनी श्रीनिवास के अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा शुरू करते हुये गुंटूर से निर्वाचित होकर पहली बार लोकसभा में पहुंचे जयदेव गल्ला तेलंगाना बनने के बाद शेष आंध्र प्रदेश के साथ केन्द्र के भेदभाव को ‘मोदी-अमित शाह शासन के खोखले वादों और अपूर्ण वादों की महागाथा’  बता चुके थे। उन्होंने तो तेलूगु ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘भारत अने नेनु’ के नायक भारत की मां की सीख याद करते हुये यह तक कह दिया था कि ‘अगर एक आदमी वायदे करके उसे न निभाये तो उसे स्वयं को मनुष्‍य कहने तक का कोई अधिकार नहीं है।‘

राहुल ने इसी संदर्भ में किसान, युवा, दलित, आदिवासी, महिलाओं और हर आम-ओ-खास की ही तरह आंध्रप्रदेश को भी ‘जुमला स्ट्राइक’ का एक शिकार बताया था। प्रधान सेवक ने इसे मूल संदर्भ से काटकर आदतन और इरादतन ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ से जोड़ दिया- राष्ट्रवाद का भूत जगाने के लिये जुमला स्ट्राइक का सर्जिकल स्ट्राइक के साथ इरादतन घालमेल।

‘नजर नहीं मिला पाने’ के राहुल गांधी के मुहावरे के साथ भी प्रधान जी का सलूक यही था। निस्संदेह राहुल हिन्दी बोलने में अब भी सहज नहीं दिखते, निस्संदेह उन्होंने कहा कि ‘माननीय प्रधानमंत्री अपनी आंखे मेरी आंखों में नहीं डाल सकते। वह कभी इधर देख रहे थे, कभी उधर देख रहे थे, यह सच्चाई है।‘ लेकिन क्या सचमुच प्रधान सेवक भी ‘नजर चुराने’ के मुहावरे से और इस प्रचलित धारणा से नावाकिफ हैं कि ‘जिसके मन में चोर हो, वह नजरें मिलाकर बात नहीं कर सकता?  क्या सचमुच वह भरोसा करते हैं और पूरे देश को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि राहुल अपने हाई प्रोफाइल राज-परिवार और पुरखों के सामने सुभाषचंद्र बोस,  मोरारजी देसाई, जयप्रकाश नारायण, सरदार वल्लभभाई पटेल से लेकर प्रणव मुखर्जी, शरद पवार और ‘गांव से आये, पिछडी जाति के गरीब मां के बेटे’ नरेन्द्र मोदी तक की हेयता का प्रस्ताव कर रहे थे?  खासकर तब जब राहुल उसी सांस में यह भी जोड़ चुके थे कि प्रधानमंत्री ‘चौकीदार नहीं, भागीदार है।‘ अलबत्ता ‘भागीदार’ भी ‘हैंड इन ग्लोव्स’ का ढीला-ढाला उल्था था। वैसे, केवल ‘नजरें चुराने’ को तोड-मरोडकर ‘नामदार बनाम कामदार’ के द्वंद्व तक पहुंचा देने में ही एक चमकदार ‘मोदी-स्पर्श’ नहीं था, बल्कि उन्हीं के इस खास वाक्पटु प्रत्यारोप में भी था कि- ‘हम चौकीदार भी हैं, हम भागीदार भी, लेकिन हम आपकी तरह सौदागर नहीं हैं, ठेकेदार नहीं हैं।’

फिर तो वह रौ में आ गये। इसी सांस में उन्होंने जियो के इश्तेहार पर प्रधानमंत्री के फोटो, प्रधानमंत्री के एक सबसे करीबी के पुत्र की कमाई एक महीने में 16,000 गुना बढ़ जाने और बैंको के बडे बकायेदारों का दो-ढाई लाख करोड़ रुपया माफ कर देने जैसे सवालों को भी दरकिनार करते हुये कहा, ‘‘हम भागीदार हैं, देश के गरीबों के दुख के भागीदार, हम किसानों की पीडा के भागीदार हैं, हम देश के नौजवानों के सपनों के भागीदार हैं।‘’

अगर इसे तकनीकी तौर पर ‘चर्चा पर प्रधानमंत्री का उत्तर’ कहें तो कहें, पर इन तबकों के बारे में भी राहुल के सवाल अनुत्तरित ही रहे।

किसानों को उपज लागत का डेढ गुना मूल्य देने की सरकार की घोषणा को एक और जुमला बताने पर प्रधान सेवक ने कांग्रेस की अगुवाई वाली पूर्ववर्ती सरकार पर एम.एस. स्वामीनाथन रिपोर्ट 8 साल तक दबाये रखने का जायज आरोप लगाया। उन्होंने शिकायत की कि ‘जब यू.पी.ए. सरकार ने 2007 में राष्ट्रीय कृषि नीति का ऐलान किया तो 50 प्रतिशत वाली बात तो खा गये, तब और आगे सात साल तक केवल एम.एस.पी. की बात करते रहे।‘ लेकिन खा तो प्रधान सेवक भी गये,  50 प्रतिशत वाली बात नहीं, ‘लागत के 50 प्रतिशत वाली बात।‘ वह एम.एस. स्वामीनाथन आयोग की 2006 की रिपोर्ट से नावाकिफ नहीं हैं और इस बात से भी नहीं कि आयोग ने तब धान की लागत 1550 रुपये प्रति क्विंटल, जवार की 1700 रुपये, बाजरा की 1425 रुपये, मकई की 1425, रागी की 1900 रुपये, अरहर की 5450 रुपये, मूंग की 5575 रुपये, उडद की 5400 रुपये, सोयाबीन की 3050 रुपये और कपास की लागत 4020 रुपये प्रति क्विंटल बतायी थी। अगर 12 सालों में मुद्रास्फीति के असर को शून्य मानें तो भी अभी इसी महीने घोषित धान के प्रति क्विंटल समर्थन मूल्य 1770 रुपये को 1550 रुपये का, या बाजरा के घोषित समर्थन मूल्य 1950 रुपये को 1425 रुपये का या अरहर के घोषित समर्थन मूल्य 5675 रुपये को 5450 रुपये का डेढ गुना, गणित में सिफर व्यक्ति भी शायद ही कह पाये। इस अर्थ में कह सकते हैं कि ‘डेढ गुना मूल्य देने की बात के जुमला भर होने’ का भी राहुल गांधी का आरोप अनुत्तरित ही रहा।

देश में महिलाओं की स्थिति यह है कि हाल में ‘द इकोनॉमिस्ट’  के कवर पर भारत को महिलाओं के लिये सबसे खतरनाक जगह बताने, महिलाओं पर अत्याचार, गैंग रेप की घटनायें तेजी से बढने,पूरे देश् में आदिवासियों और अल्पसंख्यकों पर भीड की हिंसा और स्वयं केन्द्र सरकार के मंत्री का हमलावरों को हार पहनाने के बारे में राहुल के सवालों पर प्रधान सेवक की निर्गुण टिप्पणी थी, ‘‘अनेक जिलों में बेटियों के जन्म में बढोतरी हुई है और बेटियों पर अत्याचार करनेवालों के लिये फांसी तक का प्रावधान है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंसा और अत्याचार की इजाजत नहीं दी जा सकती। ऐसी घटनाओं में किसी एक भारतीय का भी निधन दुखद है।‘’

‘गोदी मीडिया’ और दिहाडी से लेकर वेतन तक पर कार्यरत दसियो हजार ‘पेड ट्रोल्स’ की फौज की बदौलत सोशल मीडिया तक के नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गये सवालों को इस चर्चा से दूर तक पहुचा देने और सदन में नाटकीय तौर पर प्रधानमंत्री से गले मिलने के राहुल के प्रतीकवाद पर अन्यत्र बहुत कुछ कहा जा चुका है, सो उसपर केवल इतना कि प्रधान जी मुसलसल इसके सदमे में दिखे। वह मुक्त दिखे तो केवल तब, जब वह 18000 गांवों में बिजली पहुंचाने,  लगभग 32 करोड जन-धन खाते खोलने, उज्जवला योजना से साढे चार करोड गरीब माताओं-बहनों को आज धुंआ मुक्त जिंदगी और बेहतर स्वास्थ्य देने, बीस करोड गरीबों को बीमा का सुरक्षा कवच मुहैया कराने, आयुष्मान भारत योजना, 15 करोड किसानों को सॉइल हेल्थ कार्ड पहुंचाने, यूरिया की शत प्रतिशत नीम कोटिंग, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में प्रीमियम कम करने और इंश्योरेंस का दायरा बढाने, एल.ई.डी. बल्ब की दरें साढे तीन-चार सौ से कम कर 40-45 रुपये पर पहुंचा देने, मोबाइल मैनुफैक्चरिंग कंपनियों की संख्या 2 से बढाकर 120 तक पहुचा देने, मुद्रा योजना के तहत 13 करोड नौजवानों को लोन देने, डिजिटल इंडिया, ईज़ ऑफ डुइंग बिजनेस में 42 अंकों के, ग्लोबल कम्पीटीटिव इंडेक्स में 31 अंकों और इनोवेशन इंडेक्स में 24 अंकों के सुधार और बडी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज गति से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था में भारत के छठे नंबर की अर्थव्यवस्था हो जाने जैसी महान उपलब्धियों का बखान कर रहे थे। और रोजगार के आंकडे जुटाने के उनके कसरती अंदाज के तो क्या कहने, यह और बात है कि हर साल दो करोड रोजगार उपलब्ध कराने के वादे के बरक्स यह उद्यम भी किसी साल रोजगार के आंकडे को 50-60 लाख भी नहीं पहुंचा सका।

हां अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग का नतीजा वही हुआ, जो प्रत्याशित था, प्रस्ताव 126 के मुकाबले 325 मतों से गिर गया। अविश्वास प्रस्ताव केवल गणित का मामला नहीं होता। प्रधान सेवक और उनके मंत्री भले आश्चर्य जतायें कि ‘न संख्या है, न सदन में बहुमत’, वे भले इसे संसद का समय बर्बाद करना बतायें, जानते वे भी हैं कि यह महज गणित का सवाल है नहीं। सवाल केवल गणित का होता तो गणित तो बजट सत्र के दूसरे चरण में भी सरकार के पक्ष में था, जब लगभग महीने भर तक हर रोज लोक सभा में छह-छह अविश्वास प्रस्ताव पेश किये जाते रहे और हर रोज सदन में व्यवस्था नहीं होने के तर्क से चंद मिनटों में कार्यवाही स्थगित कर दी जाती रही। और अमूमन व्यवस्था नहीं होने का तर्क रोज-रोज उसी अन्नाद्रमुक ने ‘वेल में आकर’ मुहैया कराया, जिसके 35 सदस्यों ने 20 जुलाई को सरकार के पक्ष में मतदान कर उसकी जीत को थोडी गरिमा दे दी, वरना हाल तक सत्तारूढ एन.डी.ए. के घटक रहे तेलुगुदेसम ने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश कर और एक अन्य घटक शिवसेना ने सदन से अनुपस्थित होकर भारी बहुमत के उसके दंभ की हवा निकाल देने में कोई कोर-कसर नहीं छोडी थी।

विपक्ष के लिये गणित का सवाल था ही नहीं, केवल अभी 20 जुलाई को नहीं, बल्कि अगस्त 2003 में भी, जब कांग्रेस ने ताबूत घोटाले के आरोपी जार्ज फर्नांडीज को दुबारा मंत्रिपरिषद में शामिल किये जाने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था।

2003 में ‘अच्छे दिन’ नहीं थे, अटल बिहारी वाजपेयी का ‘फील गुड’ चल रहा था और भारी बहुमत से चल रहा था। कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी के अविश्वास प्रस्ताव पर 19 अगस्त, 2003 को चर्चा शुरू हुई तो किसी को अंदेशा नहीं था कि सरकार गिरेगी। ऐसा हुआ भी नहीं। 20 घंटे की चर्चा के बाद 20 अगस्त को आधी रात जब लोकसभा अध्यक्ष मनोहर जोशी ने मत-विभाजन के नतीजों की घोषणा की तो सरकार 126 वोटों के भारी अंतर से जीत गयी थी। सरकार के पक्ष में 312 वोट पडे थे और विरोध में केवल 186। लेकिन तब किसी ने गणित को लेकर सोनिया और उनकी पार्टी के अज्ञान का मसला नहीं उठाया था। वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा के लिये राजनीति वोटों और बहुमत के आंकडे से लेकर विधायक-सांसद जुटाकर येन-केन-प्रकारेण सरकार बना लेने और उसे चला ले जाने के गणित से कुछ ज्यादा थी।

हंगामे और कई बार अराजक स्थितियों में काफी समय जाया होने पर भी चर्चा के अंत में सोनिया गांधी का भाषण और चर्चा पर प्रधानमंत्री का उत्तर -दोनों- संक्षिप्त। लोकसभा के चुनाव तब भी दसेक महीने दूर थे, अब भी और राजस्थान, मध्यप्रदेष, छत्तीसगढ के साथ ही दिल्ली के भी विधानसभा चुनाव ऐन सामने। मुद्दों से कतराकर निकल जाने की जुगत वहां भी थी और सोनिया गांधी के नौ सवालों के जवाब तो वाजपेयी ने भी नहीं दिया था, लेकिन 20 घंटे की चर्चा का उत्तर देने की संसदीय जवाबदेही को उन्होंने अपनी सरकार की उपलब्धियां बताने का अवसर बना लिया था। वाजपेयी अपनी वक्तृता के लिये जाने जाते थे, लेकिन प्रधान सेवक की तरह यह उनकी एकमात्र पहचान नहीं थी। फर्क यह भी था कि प्रधानसेवक की तरह चार-साढे चार साल में संसद के बाहर 800 रैलियों-सभाओं को संबोधित करने का रिकार्ड भी उनके नाम नहीं था, वरना सरकार की उपलब्धियों का वाजपेयी का बखान भी सार्वजनिक सभाओं की पैरोडी भर होकर रह जाता, जैसे 20 जुलाई को हुआ।

(साभार: मीडियाविजिल)

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