भारतीय अर्थव्यवस्था जहां पूरी तरह से वैश्विक बाज़ारों से जुड़ चुकी है, वहीं विकास की कमी की वजह से अब भी हम अपनी अन्य व्यवस्थाओं को वैश्विक परिदृश्य में नहीं देख पाते। हमने अपनी अर्थव्यवस्था में ट्रांस-नेशनल कॉरपोरेशंस की बढ़ती पैठ को नब्बे के दशक से ही देखा है। उस दौर से लेकर अब तक, लगभग तीस वर्षों में, उन कार्पोरेशंस ने अपनी जडें व्यवस्था में बहुत गहरी कर ली हैं। इन कारपोरेशंस के ग्राहक जो आम लोग हैं, ज्यादातर निम्न आय वर्ग से हैं जो अपनी दैनिक समस्याओं के कारण शायद ही कभी विश्व स्तर पर सोच पाते हैं। इसका एक कारण मीडिया द्वारा वैश्विक घटनाओं के बारे में जानकारी का न दिखाना भी है।
परिणामस्वरूप, हम बड़ी वैश्विक घटनाओं पर असर करने वाली अधिकांश गतिविधियों से अनभिज्ञ हैं। पूरी तस्वीर के अभाव में, हमारे पास मीडिया द्वारा बनाई गई तस्वीर पर भरोसा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता। भारतीय मीडिया की नैतिकता और मूल्यों के पतन पर चर्चा इतने लंबे समय से चल रही है कि जो कुछ कहा जा सकता था, वह पहले ही कहा जा चुका है। शायद इसमें जोड़ने लायक एकमात्र बात यह हो सकती है कि मीडिया आउटलेट्स की बढ़ती हुई संख्या से अक्सर यह तथ्य छिप जाता है कि सभी प्रमुख बाजारों में चंद खिलाड़ियों का पूर्ण प्रभुत्व है। इसमें क्षेत्रीय चैनल भी कोई अपवाद नहीं हैं। दूसरे शब्दों में मीडिया के मालिकाने का स्वरूप अब मोनोपोलिस्ट से ओलिगोपोलिस्ट हो चुका है।
मीडिया
प्रचार पर सरकारी खर्च में वृद्धि के साथ ही टीवी एंकर सरकारी नीतियों के पैरोकारों में बदल गए हैं जो सरकार के प्रत्येक कार्य को एक राष्ट्रवादी-धार्मिक स्पर्श के साथ वैध बना देना चाहते हैं। पिछले वर्षों में, हमने समाचारों को प्रसारित करने के अपने नियमित काम को लेकर भी सरकार द्वारा प्रमुख पत्रकारों और यहां तक कि पूरे चैनलों का मुंह बंद करते देखा है। निस्संदेह इसने मीडिया घरानों के लिए आर्थिक लाभ की मौजूदा प्रणाली पर एक और तत्व, “भय” को लाद दिया है। स्वाभाविक रूप से, हम मीडिया को हर समय प्रतिष्ठानों और आधिकारिक कथाओं के पक्ष में देखते हैं।
जिस समय भारत आम चुनावों की ओर बढ़ रहा था और अर्थव्यवस्था पहले से ही सुस्त होती दिख रही थी, उस वक़्त वैश्विक एजेंसियों द्वारा (भारत जिनमें से कुछ का कर्जदार है) भारत की रैंकिंग में सुधार करने की खबर और ‘विकास’ के लिए पीएम को सियोल पीस पुरस्कार दिए जाने की खबर (भारत में एक दक्षिण-कोरियाई कारखाने के उद्घाटन के बाद) ने सरकार की एक प्रगतिशील छवि पेश की। इससे भाजपा के चुनाव अभियान पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा। चाहे दिल्ली में नेशनल वॉर मेमोरियल का उद्घाटन हो या एंटी-सैटेलाइट मिसाइल परीक्षण, हर खबर ने लोगों के दिमाग को चकरा दिया और आम चुनाव 2019 के लिए भाजपा के राष्ट्रवादी आख्यान को आकार दिया।
गैरजिम्मेदाराना व्यवहार, भड़काऊ भाषा और भावनात्मक शोषण ने धीरे-धीरे राष्ट्र के लोगों को एक “प्रोग्रामेबल रोबोट” बना दिया है। इसमें व्यक्तिगत जीवन के असंतोष को जोड़ दिया जाए तो इससे एक ऐसा व्यक्तित्व पनपता है जिसमें कोई विवेक नहीं है। कच्ची जानकारियों की श्रृंखला से उपजा उन्माद एजेंडा के अनुरूप उपयुक्त शबदावली में अनूदित होकर सोशल मीडिया से लेकर नुक्कड़ चर्चाओं तक पहुंच रहा है। यदि कच्ची जानकारी को मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के साथ प्रयोग किया जाए, तो व्यक्ति जानकारी को सरल रूपों में तोड़ सकता है और असरदार शब्दों का चुनाव कर सकता है। जानकारी का उपभोग करने वाले समूहों के आधार पर, क्षेत्रीय, सांप्रदायिक, जातीय, भाषाई या किसी अन्य वांछित वर्गीकरण के संदेश तैयार किए जा सकते हैं। सोशल मीडिया ने सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग को इन समूहों को माइक्रो-टारगेट करने और एक हीं समय पर सूचना देने की शक्ति दे दी है। यह सब अगर केंद्रीय रूप से नियंत्रित किया जाए, जैसा कि होता दिख रहा है, तो इससे “किसी भी” परिभाषित लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है। इससे मीडिया प्रणाली बड़े पैमाने पर शोषण का एक हथियार बन जाती है! जैसा कि पहले के अध्यायों में भी मैंने बताया है, “मॉब लिंचिंग” इस बात का एक उदाहरण है कि इस तरह के तंत्र का उपयोग कैसे किया जा सकता है।
जन-विरोधी कानून
मोदी सरकार संविधान में संशोधन करने की होड़ में है। पूर्ण बहुमत और वर्तमान गति के साथ, हम जल्द ही पूरी तरह से पुनर्लिखित संविधान का एक संस्करण देख सकते हैं। अपने पहले सत्र में 17वीं लोकसभा ने अधिकांश दिनों में देर शाम तक काम किया है। पूरी प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि संसदीय समितियां बिल की खूबियों और अवगुणों का आकलन करती हैं, पर सूचीबद्ध बिलों को पारित करने की हड़बड़ी में इस पहलू को लगातार दरकिनार किया जा रहा है जो खतरनाक बात है। एनडीए-2 के समय से ही बहुत कम बिलों को संसदीय समितियों के पास समीक्षा के लिए भेजा जा रहा है। जहां 14वीं और 15वीं लोकसभा (2004 से 2014 तक) ने 60 प्रतिशत बिलों की समीक्षा की थी वहीं 16वीं लोकसभा ने संसद में पारित विधेयकों की कुल संख्या के केवल 26 प्रतिशत की ही समीक्षा की है।
हाल में किए गए संशोधनों की प्रकृति सुधार की कम, अत्याचार की ज़्यादा है। इन बिलों को सीधे तौर पर जन-विरोधी करार दिया जा सकता है। मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2019 का उपयोग सीधे तौर पर मुस्लिम पुरुषों को लक्षित करने के लिए किया जा सकता है। खुद मुस्लिम समुदाय की महिलाएं इस कानून की अतार्किकता के खिलाफ बोल रही हैं। यूएपीए (संशोधन) विधेयक, 2019 और एनएसए (संशोधन) विधेयक, 2019 सुरक्षा बलों के हाथ में एकमुश्त हथियार है। सुरक्षा बलों की नैतिक अखंडता कई मौकों पर प्रमाणित रूप से कमज़ोर पाई गई है। इसके अलावा, नौकरशाही और राजनीति के अंतरंग सम्बंधों की वजह को भी देखें, तो यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इन कानूनों का किस हद तक दुरुपयोग किया जाएगा। इन कानूनों का आधार राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे से जुड़ा है, जिससे शासकों के लिए इनका विरोध रोकना आसान है और ये उन्हें एक राष्ट्रवादी भूमिका में पेश करता है। दोहरे उद्देश्य के साथ-साथ ये कानून उनके लिए भरपूर सुर्खियां भी बटोरते हैं।
वित्त वर्ष 2019-20 की पहली तिमाही की समाप्ति के साथ ही उभरते आर्थिक संकट की खबरें आने लगीं। आइटी सेवा उद्योग को छोड़कर सभी उद्योगों ने राजस्व में भारी नुकसान दर्ज किया है। एनपीए में वृद्धि जारी है, एफआइआइ लगातार पलायन कर रहे हैं, राजकोषीय घाटा और विदेशी ऋण बढ़ रहा है, रुपया कमज़ोर हो रहा है, कच्चे तेल की कीमतें बढ रही हैं और शेयर बाजार ढलान पर हैं। इस समस्या से निपटना तो दूर, सरकार इस तथ्य को स्वीकार करने से भी कतरा रही है। दर्जन भर प्रमुख उद्योगपतियों के सार्वजनिक रूप से बोलने के बाद आर्थिक संकट के बारे में खबरें तेजी से बढ़ रही थीं, लेकिन इससे पहले कि यह एक आम धारणा के रूप में विकसित हो सके, हम अचानक राष्ट्रवादी हठधर्मिता के पुनरुत्थान के गवाह बने। जम्मू और कश्मीर में संकट का स्तर बढ़ चुका था!
दुष्ट सैन्य उद्योग
स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) की फैक्टशीट से पता चलता है कि भारत 2017 के हथियारों के आयातकों की सूची में विश्व में नंबर एक है और 2018 में दूसरे स्थान पर रहा। यह जानकारी बहुत अस्थिर करने वाली है, लेकिन इसमें और कुछ जोड़ा जाना ज़रूरी है। पीएम के रूप में अपने पहले कार्यकाल से ही, नरेंद्र मोदी ने भारत में सैन्य औद्योगिक परिसर के विकास का सक्रिय समर्थन किया है। भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने रक्षा विनिर्माण में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप (एसपी) मोड की जोरदार वकालत की। नतीजतन, कई भारतीय निजी कंपनियों ने अपने व्यवसायों को उपभोक्ता वस्तुओं से युद्ध मशीनों की ओर डायवर्ट कर दिया है जिसके कुछ उदाहरण हैं: टाटा एडवांस्ड सिस्टम, रिलायंस डिफेंस और महिंद्रा।
ये एक खतरनाक मिलिट्री-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स के संकेत हैं जो भारतीय अर्थव्यवस्था में अपनी जड़ें जमा रहा है। मिलिट्री-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स (एमआईसी) एक राष्ट्र की सेना और रक्षा उद्योग के बीच एक अनौपचारिक गठबंधन है। इन्हें एक निहित स्वार्थ की वजह से एक साथ देखा जाता है जो सार्वजनिक नीति को बुरी तरह प्रभावित करता है। सरकार और रक्षा निगमों के बीच इस संबंध के पीछे एक कारक यह है कि इससे दोनों पक्ष लाभान्वित होते हैं। एक पक्ष को युद्ध के लिए हथियार मिल जाता है और दूसरा आपूर्ति करने के लिए भुगतान प्राप्त करता है। इस शब्द का उपयोग अकसर संयुक्त राज्य अमेरिका की सेना के पीछे की प्रणाली के संदर्भ में किया जाता है, जहां यह रक्षा ठेकेदारों, पेंटागन और राजनीतिज्ञों के बीच घनिष्ठ संबंधों के कारण सबसे अधिक प्रचलित है।
यह स्पष्ट रूप से कहा जाना चाहिए कि एक निजी सैन्य उद्योग नाटकीय रूप से नीति-स्तर की प्राथमिकताओं को बदल देता है। इस पहलू के बिना भी भारत का रक्षा-खर्च खतरनाक रूप से ज़्यादा है। हमारी अर्थव्यवस्था वर्तमान स्थिति में संसाधनों की कमी से जूझ रही है। इस संकट के समय में जन-प्रतिनिधियों और नीति निर्माताओं द्वारा उपलब्ध संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग की आवश्यकता है। युद्ध के हथियारों के निर्माण और खरीद पर सरकार द्वारा किया गया अत्यधिक व्यय वर्तमान संदर्भ के लिए बेतुका और विरोधाभासी है (2017-18 में रक्षा मंत्रालय को बजटीय आवंटन 3,59,854 करोड़ रुपये था)।
अकसर इस तरह की चर्चा का केंद्र अमेरिका होता है क्योंकि वह यह इस निजी सैन्य उद्योग के खतरनाक परिणामों का प्रमुख उदाहरण भी है। मिलिट्री-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स के प्रभाव के कारण अमेरिका एक के बाद एक, पूरे विश्व में युद्ध लड़ रहा है। इस उद्योग का केवल एक लक्ष्य है कि उनके विध्वंसक उतपादों के लिए हर समय खरीदार बने रहें। वे केवल यही सुनिश्चित करने के लिए युद्ध करते हैं। उन्हें विश्व भर में आतंकवाद से लड़ने के नाम पर “मानव उत्पीड़न” और “राष्ट्रों के विनाश” को वैध बनाने के लिए जाना जाता है। अब इसमें अमेरिका के इतने निहित स्वार्थ हैं कि इस उद्योग को बंद करने का विकल्प ही नहीं है। यह उद्योग अब पूरी तरह अमेरिकी अर्थव्यवस्था और समाज के ध्वस्त होने के बाद ही ध्वस्त होगा। जाहिर है ऐसी स्थिति में मानव अधिकारों और मानव जीवन के लिए कोई सम्मान शेष नहीं रह जाता।
निष्कर्ष
यदि हम भ्रष्ट मीडिया, दमनकारी कानूनों और सैन्य-औद्योगिक तत्वों को जोड़ते हैं, तो हमें एक स्पष्ट तस्वीर मिलती है कि हमारी सरकारें क्या करने में सक्षम हैं। आतंकवाद एक वैश्विक खतरे के रूप में विकसित हुआ है जो ज्यादातर राज्य द्वारा प्रायोजित उत्पीड़न के कारण पनपता है लेकिन पक्षपाती मीडिया अकसर पीड़ितों को हीं अपराधियों के रूप में चित्रित करता है (जैसा कि जम्मू और कश्मीर के साथ अभी किया जा रहा है)। डर के इस तत्व पर अंकुश लगाने का दिखावा करते हुए दुनिया भर में दक्षिणपंथी सरकारों ने ऐसे कानूनों का निर्माण किया है जो लोगों से उनके अधिकारों को छीनने का इरादा रखते हैं, जिससे उन्हें और अधिक असुरक्षित किया जा सके। विकसित राष्ट्रों के पास राजनीतिक तथा आर्थिक शक्तियों के साथ एक पूर्ण विकसित सैन्य उद्योग है। उनके पास अन्य विकासशील देशों के सिस्टम में स्थापित लॉबिस्ट भी हैं। ये लॉबिस्ट किसी भी विकासशील देश के सिस्टम में समन्वय स्थापित कर वहां “युद्ध की स्थितियों को बनाने” में सक्षम हैं। साथ ही ये प्रमुख पदों पर बैठे लोगों को निजी आर्थिक लाभ दे कर उन्हीं सरकारों को हथियार भी बेचते हैं।
आम भारतीय मूल मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से आम अमेरिकी से बहुत अलग नहीं हैं। इसलिए उनकी राय को आकार देने के लिए एक ही रणनीति का उपयोग किया जा सकता है। उपरोक्त कार्यप्रणाली का उपयोग अमेरिका द्वारा कई बार युद्ध छेड़ने के लिए किया गया है। याद करें कि अमेरिका ने अफगानिस्तान के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए 9/11 का उपयोग कैसे किया था, जबकी अब 9/11 राज्य प्रायोजित फाल्स-फ्लैग ऑपरेशन का सबसे व्यापक उदाहरण माना जाता है। कमोबेश वैसे ही जैव-रासायनिक हथियार रखने के आरोप में इराक से युद्ध छेडा गया। बाद में वहां क्या मिला यह सभी जानते हैं। दुनिया आतंकवाद की “सीडिंग” के लिए अमेरिका को दोषी ठहराती है और हमारा दुर्भाग्य है कि आज हम भारत में इसकी सम्भावना देख रहे हैं।
मानवता इस तथ्य की गवाह है कि शक्ति भ्रष्ट करती है।
जिस तरह से जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन के पूरे अध्याय को सामने लाया गया है, वह अपने आप में शर्मनाक है। यह अध्याय पाकिस्तान द्वारा संघर्ष विराम उल्लंघन की खबरों से शुरू होता है। 31 जुलाई, 2019 को मोर्टार और गोलाबारी से पाकिस्तान की तरफ से दो मौतें हुईं और एक भारतीय सैनिक शहीद हो गया। इसके बाद 2 अगस्त को आइईडी विस्फोट की खबर आई जिसमें सेना का एक वाहन क्षतिग्रस्त कर दिया गया। सेना ने उसके बाद के तलाशी अभियान में अमरनाथ यात्रा मार्ग पर हथियारों का जखीरा पाया। बाद में, हमने सरकार को जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र बलों की 250 कंपनियों को तैनात करने के बारे में सुना। रुक-रुक कर आ रही सूचनाओं ने जल्द ही यह स्पष्ट कर दिया कि सरकार कुछ “विशाल” योजना बना रही थी। गृहमंत्री अमित शाह द्वारा अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को रद्द करने का प्रस्ताव पेश किए जाने के समय सभी तरह की अफवाहें पहले से ही चल रही थीं।
पहले से ही सैन्यीकृत राज्य में अनुच्छेद 370 के पुनर्गठन और अधिक से अधिक सैनिकों की तैनाती के साथ यह साफ है कि भारत एक औपनिवेशिक हिंदू परियोजना के रूप में बढ चला है। यह हर एक मोर्चे पर स्पष्ट है, फिर चाहे वह जम्मू-कश्मीर हो, असम हो या बस्तर। इज़रायल की तर्ज़ पर अब यह सरकार तय करती है कि कब और कैसे किस जमीन पर कब्जा करना है, कब सैन्यीकरण करना है और कितना करना है, कब कानून में संशोधन करना है, कब अलग-अलग कॉलनियों का निर्माण करना है, किसे नजरबंदी केंद्रों में रखना है और कौन सी जमीन का अपने निवासियों की सहमति के बिना विभाजन करना है।
नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर रोक, संचार का बंद किया जाना, नेताओं की गिरफ्तारी, यह सब भारत के अन्य हिस्सों में भी हो सकता है। सरकार न केवल अपनी बल्कि एक विशेष विचारधारा की इच्छा को लागू करने के लिए बल का उपयोग कर रही है। यह मानसिकता आगे चल कर अवाम के वैध विरोध और या अन्य किसी भी तरह के शांतिपूर्ण असंतोष को शांत करने के लिए भी बल प्रयोग कर सकती है। अगर सरकार जम्मू और कश्मीर के लोगों के लिए बदलाव ला रही है, तो जम्मू-कश्मीर के लोकतंत्र-समर्थक नेताओं को गिरफ्तार करने का क्या कारण है? संचार के सभी रूपों पर कर्फ्यू और प्रतिबंध क्यों? लाभार्थियों को अंधेरे में रखने सरकार किस तरह का लाभ देने की सोच रही है?
इस आदेश के बाद राज्य के पुनर्गठन की राह अब आसान हो गई है, जो संघ की लंबे समय से इच्छा है लेकिन बुनियादी सवाल अब भी खड़ा है। कश्मीर के विलय को कुछ तकनीकी कमियों के कारण ‘विशेष’ माना जाता है, क्या सिर्फ राष्ट्रपति के एक आदेश से उन सभी कमियों को दूर किया जा सकेगा? इस आदेश से अनुच्छेद 35ए को समाप्त कर दिया जाएगा, लेकिन कश्मीर द्वारा प्राप्त कई अन्य विशेषाधिकार अब भी जारी रहेंगे। पुनर्गठन का मुद्दा एक न्यायिक और संवैधानिक समीक्षा के माध्यम से गुज़रे बिना एक तानाशाही निर्णय ही रहेगा, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के पक्ष को कमजोर करेगा।
कश्मीर मुद्दा भारत और पाकिस्तान के बीच एक द्विपक्षीय समस्या है। जहां भारत ने बल प्रयोग करते हुए कश्मीर के लोगों पर जुल्म करना जारी रखा है, वहीं पाकिस्तान ने कश्मीरी लोगों के समर्थन में हमेशा अपने हाथ आगे बढ़ाए हैं। निस्संदेह, अलगाववादियों को इस निर्णय और इसके कार्यान्वयन के तरीकों से पर्याप्त सामग्री मिलेगी जिसका इस्तेमाल कर वे एक और पीढ़ी को हिंसा की आग में झोंक सकते है।
घाटी में अलगाववाद की आग आज अपने चरम पर है। कश्मीर के आम युवा भारत के साथ अपनी पहचान नहीं रखते हैं, बल्कि उनमें से ज्यादातर में अब अलगाव की भावना है। उनके लिए यह भारतीय सेना, जिन्होंने उनकी स्वतंत्रता को कुचल दिया, की ताकत के आगे सर झुकाना एक सच्चाई है। इन स्थितियों के साथ इस निर्णय के आगामी गंभीर परिणामों का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।
कश्मीर में सेना की तैनाती कब तक कायम रह सकती है? अभी टीवी, इंटरनेट या मोबाइल संचार नहीं हैं, लेकिन उन्हें कभी न कभी शुरू करना होगा। एक बार बंदूकें गिर जाएंगी और प्रहरी हटा दिए जाएंगे, तो इसकी पूरी सम्भावना है कि अलगाववादी तख्तापलट शुरू करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इस फैसले से भले हीं कश्मीर को जीता जा सकता है लेकिन कश्मीरियों को नहीं। इसलिए इस निर्णय के साहसिक या दुस्साहसी होने का दावा करने से पहले, हमें सरकार के अप्रत्यक्ष उद्देश्यों और इसके दीर्घकालिक परिणामों का मूल्यांकन करना चाहिए।
यहां एक बड़ी संभावना है कि अनुच्छेद 370 के अचानक खत्म होने का पूरा प्रकरण “संघर्ष निर्माण” के उद्देश्य से किया गया है। इससे न केवल लंबे समय तक सैनिकों की बड़े पैमाने पर तैनाती के अवसर पैदा होंगे, बल्कि फिलिस्तीन या सीरिया जैसे विस्तारित संघर्ष की संभावनाएं भी रहेंगी। घटनाओं की वर्तमान स्थिति से एक संभावना यह भी निकलती है कि भारत पीओके के भारत में विलय या कम से कम पाकिस्तान को युद्ध के लिए उकसाने का प्रयास तो कर ही सकता है। हमें सतर्क रहना चाहिए क्योंकि किसी भी तरह की बुराई सैन्य उद्योग के लिए बहुत बड़ी नहीं है। जम्मू-कश्मीर में किसी मामूली चरमपंथी विकास या आतंकी गतिविधि को भी सरकार द्वारा बहाने के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा। बिना राज्य के परामर्श के जम्मू और कश्मीर का पुनर्गठन संघर्ष के नए दौर की शुरुआत है।