जुलाई 2018 के आरंभ में रोजगार पर केंद्रित एक परचे ‘’ऑल यु वॉन्टेड टु नो अबाउट जॉब्स इन इंडिया– बट वर अफ्रेड टु आस्क’’ के प्रकाशन के हफ्ते भर बाद मैंने ईएसी–पीएम के सदस्यों के समक्ष इसमें शामिल दस गलतियां गिनवाई थीं। यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के लिए तैयार की गई थी। मेरी आपत्तियां परचे में शामिल सीएमआइई के कंज्यूमर पिरामिड हाउसहोल्ड सर्वे (भारत में परिवारों पर सबसे बड़ा सर्वे सीपीएचएस) के गलत प्रयोग तक सीमित थीं। उन्हीं जैसी कुछ बड़ी गलतियों और प्रस्थापनाओं के चलते यह ‘’निष्कर्ष’’ निकाला गया था कि 2017 में भारत में 1.28 करोड़ रोजगार सृजित हुए हैं।
मैंने अपने निष्कर्षों के हिसाब से सीपीएचएस के समूचे आंकड़ों को मुहैया कराने के लिए एक शोध सहयोगी के प्रस्ताव की सेवाओं विश्लेषण में मदद करने की पेशकश रखी थी लेकिन इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। मुझे समझाया गया कि एक संशोधित परचा सितंबर 2018 के मध्य तक ईएसी–पीएम को सौंपा जाएगा लेकिन मुझे अब तक यह जानकारी नहीं है कि उसका क्या हुआ। तब से लेकर अब तक ईएसी के वेबसाइट पर वही त्रुटिपूर्ण रिपोर्ट लगी हुई है। उसकी गलतियों में कोई सुधार नहीं किया गया। चूंकि ईएसी के संबद्ध सदस्य ने परिषद से इस्तीफा दे दिया है तो अब मेरे स्तर पर यही उपयुक्त होगा कि मैं उस रिपोर्ट की उन गलतियों को सार्वजनिक कर दूं।
रिपोर्ट में पहली गलती सीएमआइई के सीपीएचएस के मुताबिक सर्वे में प्रतिक्रिया देने वाले की रोजगारी/बेरोजगारी की अवस्थिति की परिभाषा की समझदारी से जुड़ी है। सीपीएचएस में हम सर्वे की तारीख के दिन तक सर्वे किए जा रहे व्यक्ति की रोजगारी की स्थिति का संज्ञान लेते हैं। यदि सर्वे दिन की शुरुआत में किया गया हो तो बहुत मुमकिन है कि एक दिहाड़ी मजदूर को यह नहीं पता होगा कि उसे उस दिन काम मिलेगा या नहीं। ऐसे मामलों में हम उससे पिछले दिन की स्थिति पूछते हैं। यानी उसकी प्रतिक्रिया या तो पिछले दिन की होती है या उसी दिन की। यह एक सहज और सही तरीका है क्योंकि स्मृति के आधार पर इसमें गड़बड़ी नहीं हो सकमी। ईएसी–पीएम को सौंपी रिपोर्ट में इसे गलत तरीके से व्याख्यायित किया गया है और मान लिया गया है कि जवाब देने वाला व्यक्ति इन दो दिनों में भले बेरोजगार रहा हो लेकिन आम तौर से उसने पिछले साल काम किया है। सीएमआइई भी इन्हें रोजगाररत की श्रेणी में रखता है। यह गलत है और यही गड़बड़ी रिपोर्ट के भीतर सभी गणनाओं की जड़ में है जो रिपोर्ट के निष्कर्षों को संदिग्ध बनाती है।
सीपीएचएस एक जटिल सर्वेक्षण है जिसमें नमूना डिजाइन स्तरीकृत होता है। ऐसे नमूनों से निकाले गए आबादी के अनुमानों को अनिवार्यत: उपयुक्त अधिभारों की दरकार होती है जो कि सर्वे की डिजाइन में अंतर्निहित होता है। आदर्श स्थिति यह है कि अनुमानों के निष्पादन में रिकॉर्ड स्तरीय आंकड़ों और उपयुक्त अधिभारों का प्रयोग किया जाए।
इस रिपोर्ट के लेखकों मैंने पेशकश की थी कि वे परिषद को रिपोर्ट जमा करने से पहले अधिभारों के साथ रिकॉर्ड–स्तरीय आंकड़े देख सकते हैं लेकिन उन्होंने इन आंकड़ों या उपयुक्त अधिभारों को इस्तेमाल करना उचित नहीं समझा। यह रिपोर्ट सीएमआइई द्वारा प्रकाशित उन 11 आयु–लिंगीय समूहों के आबादी अनुमान का प्रयोग करती है जिसे ‘’जनांकिकीय विस्तारों’’ के लिए उपयुक्त अधिभार लगाकर निकाला गया था और जिसमें संयुक्त राष्ट्र के आबादी अनुमानों का प्रयोग किया गया था। बुनियादी सवाल यह उठता है कि आखिर उपलब्ध सर्वे डिजाइन, उपलब्ध रिकॉर्ड–स्तरीय आंकड़े और उपलब्ध अधिभारों का प्रयोग क्यों नहीं किया गया?
इसके अलावा रिपोर्ट सीपीएचएस से पुरुषों की श्रम प्रतिभागिता दर को अपनी मर्जी से चुन लेती है लेकिन स्त्रियों के लिए ऐसा नहीं करती। समस्या यह है कि सरकार के अर्थशास्त्री सीपीएचएस के इस निष्कर्ष को स्वीकार करने में ही समर्थ नहीं हैं कि महिलाओं में श्रम प्रतिभागिता दर नोटबदी के बाद काफी तीव्रता से गिरी है। इस निष्कर्ष को मनमर्जी तरीके से ठुकरा दिया गया है जबकि पुरुषों की श्रम प्रतिभागिता दर को रख लिया गया। यह केवल ‘’अनुकूल’’ आंकड़ों को मनमर्जी उठा लेने का उदाहरण है।
भारत में रोजगार पर सवाल पूछने से किसी को डर नहीं लगता। सवाल यह है कि उउनका जवाब देने से कौन डरता है। ईएसी–पीएम की आधिकारिक वेबसाइट पर ईएसी की रिपोर्ट और सदस्यों की निजी रिपोर्टों में फर्क बरता गया है। उपर्युक्त रिपोर्ट ईएसी की रिपोर्ट के तौर पर नहीं बल्कि एक सदस्य की निजी रिपोर्ट के तौर पर सामने आती है। इससे जाहिर होता है कि ईएसी–पीएम ने रिपोर्ट को मंजूरी नहीं दी थी। फिर भी टिप्पणीकारों ने इसका उपयोग किया है और ऐसा इस्तेमाल अकसर भ्रामक होता है। लेखक सीएमआइई के अनुमानों को ईएसी की रिपोर्ट के सामने रखते हैं और तुलना करने पर पाते हैं कि सीएमआइई के मुताबिक रोजगार सृजन में सिफर बढ़ोतरी के बरअक्स ईएसी की रिपोर्ट में 12.8 मिलियन की बढोतरी हुई है। इससे पाठक की धारणा गलत बनती है और उसे लगता है कि हकीकत दोनों के बीच कहीं छुपी है यानी रोजगार बढ़े तो हैं। सच यदि दो विरोधी नजरियों के बीच होता हो तो उससे खेलना आसान हो जाता है। सच के साथ हालांकि खेल नहीं किया जा सकता। पाठकों को इसीलिए काफी डूब कर पाठ को भेदते हुए पढ़ना चाहिए।
यदि हमने सूक्ष्मदर्शी तरीके से नहीं पढ़ा तो हमें एक और गफ़लत के लिए तैयार रहना होगा जब एनएसएसओ आने वाले हफ्तों में अपने नए अनुमान जारी करेगा। ज़रूरत एक ऐसे विमर्श की है जिसमें हम पर्याप्त सूचित हों और उपलब्ध सभी आंकड़ों का पारदर्शी तरीके से इस्तेमाल कर सकें।
(साभार: राजस्थान पत्रिका)