सीपीआइ का जांच दल
बीते 25 सितम्बर को मध्य प्रदेश के शिवपुरी ज़िले के एक गाँव भावखेड़ी में दो बच्चों की नृशंस हत्या कर दी गयी थी। मीडिया में कारण यह आया था कि उन्हें खुले में शौच करते देख उसी गाँव व्यक्ति को गुस्सा आ गया और उसने बच्चों को मार डाला। सीपीआई का एक छः सदस्यीय जांच दल मामले की तहक़ीक़ात के लिए 1अक्टूबर 2019 को शिवपुरी और भावखेड़ी गया था। ग्रामीणों और पीड़ित परिवार से तथा अन्य कर्मचारियों, शिक्षकों व बच्चों से बात करने पर हमारे सामने जो तस्वीर उभरी, उसके आधार पर तैयार यह रिपोर्ट। जांच दल के सदस्यों ने मृतक बच्चे अविनाश के पिता और मृतक रौशनी के भाई मनोज वाल्मीक से बातचीत की, गांव का जायजा लिया। प्राइमरी स्कूल में बच्चों व शिक्षकों से बातचीत के आधार पर तैयार की गई है।
व्यापक सन्दर्भ एवं पृष्ठभूमि
इसी गाँधी जयंती को यानि 2 अक्टूबर 2019 को प्रधानमंत्री ने भारत को ऐसा देश घोषित कर दिया जहाँ किसी गाँव में अब कोई खुले में शौच नहीं जाता है। घोषणा के अनुसार सरकार ने स्वच्छ भारत योजना के तहत सभी ज़रूरतमंदों के लिए क़रीब 10 करोड़ घरों में शौचालय बनवा दिए हैं और अब किसी को खुले में शौच के लिए जाने की ज़रुरत नहीं है। फिर भी कभी कोई पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाला ऐसा गलत काम करता है तो उसे पहली बार एक सौ रुपये और एक बार से अधिक यह अपराध करने पर इससे भी अधिक का दंड देना होगा।
गाँव के माहौल का जायज़ा
ऐसी किसी घोषणा का मतलब ये होता है कि अब जब सभी के घर में शौचालय बन चुके हैं तो जो ये कह रहे हैं कि उनके यहाँ नहीं बना है तो वे सरकार को झूठा साबित कर रहे हैं। और आजकल सरकार ऐसी है कि उसे झूठा कहने का मतलब देश का अपमान करना माना जाता है। इसलिए जो सरकार को झूठा कहे वो देशद्रोही है, देश का गद्दार है। अनेक राज्यों से ऐसी ख़बरें हैं जिनमें अनेक परिवारों को शौचालय बनाने का पैसा नहीं दिया गया है और उनके घरों में शौचालय नहीं बने हैं लेकिन उनके गांवों को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया जा चुका है और इसलिए वे शिकायत कर रहे हैं कि जब सैकड़ों घरों में अभी शौचालय न होने पर भी उन्हें खुले में शौच से मुक्त गाँव घोषित किया जा चूका है तो वे क्या करें? प्रशासन इनकी शिकायतों से निपटने की योजना बनाये, उसके पहले ही भारत के प्रधानमंत्री ने ग्रामीण भारत को खुले में शौच से मुक्त भारत घोषित कर दिया है। अब ज़ाहिर है कि योजना शौचालय न होने की शिकायतों से निपटने की नहीं, अपितु देश के गद्दारों से निपटने की बनायी जाएगी जो सरकार की छबि धूमिल करना चाहते हैं।
तो मोदी जी से लेकर अमिताभ बच्चन और अक्षय कुमार तक, और सरकारी अधिकारियों से लेकर ठेकेदारों तक सबका आभार व्यक्त करना ही देशभक्ति है कि इन सभी महानुभावों ने मिलकर देश की करोड़ों-करोड़ जनता को इतना शिक्षित, ज़िम्मेदार और पर्यावरण के प्रति जागरूक बना दिया कि अब कोई खुले में शौच करने नहीं जाता, जाता तो दूर, सोचता भी नहीं। और सोचने की ज़रुरत ही कहाँ है, जब घर में ऐसा शौचालय है जिसमे 24 घंटे पानी के आने का प्रबंध है और गंदगी दूर-दूर तक फटक नहीं सकती।
तो ऐसे में एक गाँव है। नाम है उसका भावखेड़ी। भावखेड़ी गाँव इस 2 अक्टूबर के भी पहले पिछले साल 2018 की अप्रैल में ही ओडीएफ घोषित हो गया। ओडीएफ मतलब ओपन डेफिकेशन फ्री यानि जहाँ कोई खुले में शौच नहीं जाता।
मध्य प्रदेश के शिवपुरी ज़िले के सिरसौद थाना क्षेत्र के उसी गाँव भावखेड़ी में 25 सितम्बर 2019 को दो व्यक्तियों ने सड़क किनारे शौच करते दो बच्चों को लाठी मार-मारकर उनके सर फोड़ दिए और बच्चों ने वहीं दम तोड़ दिया। घटना सुबह क़रीब 6 बजे की बताई जाती है। मरने वाले बच्चों में एक थी रौशनी और दूसरा था अविनाश। यूँ तो रौशनी की उम्र 12 साल थी और अविनाश 10 वर्ष का, लेकिन रिश्ते के लिहाज से रौशनी अविनाश की बुआ थी।
मध्य प्रदेश के जिस शिवपुरी ज़िले में यह वीभत्स घटना घटित हुई, वो अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए विख्यात है और माधव राष्ट्रीय उद्यान होने की वजह से पर्यटन के नक़्शे पर भी जाना जाता है। किसी ज़माने में अपनी ठंडी आबोहवा के कारण ये शहर सिंधिया राज में ग्वालियर रियासत की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी थी। प्राकृतिक तौर पर भले इस इलाक़े का मिजाज़ अपने आस पास से अलग हो, लेकिन सांस्कृतिक तौर पर इस ज़िले के रहनेवालों में भी वही सामंती संस्कार देखने को मिलते हैं जो इस पूरे बुंदेलखंड और चम्बल के इलाक़े में पाए जाते हैं।
जाँच दल
अख़बारों में समाचार पढ़कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) का एक छः सदस्यीय जाँच दल शिवपुरी ज़िले के इस गाँव में गया और तथ्यों की पड़ताल कर घटना के निहितार्थ समझने का प्रयास किया। इस जाँच दल में भाकपा के राष्ट्रीय केन्द्र की ओर से विनीत तिवारी, मध्य प्रदेश राज्य केन्द्र की ओर से राज्य सचिव मंडल सदस्य और अखिल भारतीय किसान सभा के प्रदेश महासचिव प्रह्लाद बैरागी, भारतीय महिला फेडरेशन की प्रदेश अध्यक्ष कृष्णा दुबे, राज्य परिषद् सदस्य और गुना ज़िले के सचिव मनोहर मिराटे, अखिल भारतीय किसान सभा के पूर्व अध्यक्ष योगेंद्र शर्मा और यूथ फेडरेशन के प्रदेश सहसचिव सुनील कुशवाह शामिल थे।
हम वहाँ अविनाश के पिता मनोज वाल्मीक से मिले, गाँव में मौजूद प्राथमिक और माध्यमिक शालाओं के शिक्षकों और विद्यार्थियों से और गाँव के अन्य लोगों से भी मिले। बाद में हमने शिवपुरी ज़िले के प्रशासनिक अधिकारियों, पत्रकारों और अन्य आम नागरिकों से भी बात की। जाँच के निष्कर्ष और हमारे सुझाव हम इस रिपोर्ट में साझा कर रहे हैं।
घटना का ब्यौरा
जब हम 1 अक्टूबर, 2019 को शिवपुरी जिला मुख्यालय से क़रीब 20 किलोमीटर दूर स्थित गाँव भावखेड़ी पहुँचे तो सबसे पहले हमने मृतकों के परिजनों से मुलाक़ात की। गाँव से बाहर की ओर, गाँव के दूसरे किनारे पर मृतक अविनाश के पिता मनोज वाल्मीक का घर था। घर क्या था तीन-चार फुट उठायी गयीं मिटटी की कच्ची दीवारें थीं और ऊपर तिकोना छप्पर था। घर में कोई दरवाज़ा भी नहीं था। मनोज वाल्मीक ने बताया कि जिस सुबह उसके बेटे अविनाश और बहन रौशनी का क़त्ल हुआ, उसके पहले वाली रात, यानि 24 सितम्बर 2019 को वो अपने पूरे परिवार के साथ अपने पिता के घर पर रुका था क्योंकि उस शाम उनके यहाँ पुरखों के श्राद्ध का कार्यक्रम था। मनोज वाल्मीक ने बताया कि वो गाँव में खेत मज़दूरी का काम करता है और उसकी पत्नी भी निंदाई – गुड़ाई का काम करती है। लेकिन खेती में बहुत कम दिन ही काम रहता है इसलिए बाकी दिनों में वो खुद मज़दूरी के लिए शिवपुरी या आसपास के इलाकों में चला जाता है जहाँ काम मिल रहा हो। एक रोज़ काम के उसे 100 से 150 रुपये तक मिलते हैं और उसकी पत्नी को कभी 80 तो कभी 100 रुपये रोज़। उसकी पत्नी गाँव के बाहर नहीं जाती।
मनोज ने बताया कि अगले दिन सुबह क़रीब 6 बजे हम सब सो रहे थे कि बाहर से आते शोर को सुनकर मेरी और घर के लोगों की नींद खुली और हम बाहर गए। वहां हमने देखा कि रौशनी और अविनाश ख़ून में लथपथ पड़े थे और हाथ में लाठी लिए हाकिम सिंह यादव और उसका भाई रामेश्वर यादव बच्चों को मार रहे थे। जब हम वहां पहुंचे और उन दोनों को पकड़ा तब तक बच्चे तड़प-तड़प कर शांत हो चुके थे। और भी गाँव के लोग इकट्ठे हो चुके थे। हमारे पड़ोस में रहने वाले महेश जाटव को हमने पुलिस बुलाने के लिए कहा। उसने 100 नंबर पर फ़ोन करके पुलिस बुलाई।
प्राइमरी स्कूल में बच्चों व शिक्षकों से बातचीत
मनोज वाल्मीक ने यह भी बताया कि उनके परिवार के साथ गाँव में जातिगत भेदभाव का व्यव्हार होता था। हैंडपंप से पानी लेने से लेकर बड़ों और बच्चों को स्कूल में भी भेदभाव का शिकार होना पड़ता था। उसने यह भी बताया कि रौशनी पर आरोपित यादव परिवार के पुरुषों की बुरी नज़र थी। करीब एक बरस पहले हाकिम सिंह और उसके भाई रामेश्वर ने रौशनी के साथ छेड़खानी की थी जिसके बारे में रौशनी ने अपने भाई मनोज वाल्मीक को नहीं बताया था ताकि झगड़ा न हो। लेकिन उसने उस घटना के बारे में अपनी भाभी यानि मनोज वाल्मीक की पत्नी सम्पत बाई को जानकारी दी थी। हमारी बातचीत के दौरान सम्पत बाई भी वहीँ मौजूद थी और उन्होंने भी पूछने पर मनोज की बात की तस्दीक की। मनोज वाल्मीक के मुताबिक उसने जब रौशनी के अचेत शरीर को देखा था तो रौशनी के कपडे फटे हुए थे जिससे उसे ये अंदेशा था कि उसके साथ दोनों आरोपितों में से किसी एक ने या दोनों ने रौशनी के साथ ज़बरदस्ती करने की कोशिश की होगी जिसका प्रतिरोध करने पर उसे और अविनाश को आरोपितों ने मार दिया होगा।
मनोज वाल्मीक ने यह भी बताया कि पिछले वर्ष उसे हाकिम सिंह और रामेश्वर सिंह यादव ने अपने खेत पर काम के लिए बुलाया था लेकिन वो बहुत कम मज़दूरी दे रहे थे। इस पर उसका उनसे विवाद भी हुआ था और उन्होंने मनोज वाल्मीक को गालीगलौच भी की थी। लेकिन उस बात को तो साल भर हो गया। उस घटना का बच्चों से एक साल बाद बदला क्यों लिया उन्होंने? मनोज वाल्मीक ने यह भी कहा कि डेढ़-दो साल पहले पंचायत सचिव ने शौचालय के लिए कागज़ बुलाये थे लेकिन उसके बाद कुछ हुआ नहीं। न हमें शौचालय मिला न हमने आगे पूछताछ की।
मनोज वाल्मीक की बात सुनकर हम लोग नज़दीक ही मौजूद गाँव की प्राथमिक शाला में गए जहाँ अविनाश पढ़ा करता था। वहाँ पहुँचकर हमने हर बच्चे से उनका नाम पूछा और ये पाया कि यादवों, जाटवों, शाक्य, परिहार आदि जातियों के बच्चे एकदूसरे के साथ बैठे थे और ऐसा कम से कम उस दिन तो नहीं लगा कि बच्चे जातीय समूहों के आधार पर बिठाये जाते हों। शिक्षकों में से एक स्वयं जाटव समुदाय के थे और प्रधानाध्यापिका का प्रभार सम्भाले महिला शिक्षिका भी अन्य पिछड़ा वर्ग समुदाय से थी। उन्होंने बताया कि प्राथमिक विद्यालय में अविनाश “अवि” के नाम से भर्ती था और भेदभाव जैसी किसी बात का सवाल ही नहीं उठता। स्कूल के सामने एक हैण्डपम्प था और लड़के- लड़कियों के लिए पार्टीशन किया हुआ बिना छत का एक पेशाबघर। प्राथमिक शाला में चार कमरे थे जिनमें से तीन बारिश के पानी के टपकने की वजह से उपयोग की हालत में नहीं थे। केवल एक कमरे में सभी कक्षाओं के बच्चे बैठे हुए थे। हैण्डपम्प पर कुछ ग्रामीण मौजूद थे जिनसे बातचीत में उन्होंने सहमी जुबान से कत्ल करने वाले हाकिमसिंह यादव के मानसिक रोगी होने की बात कही।
पीड़ित परिवार की महिलाओं को सांत्वना देतीं साथी कृष्णा दुबे
वहाँ से हम करीब आधा किलोमीटर दूर मौजूद माध्यमिक शाला गए जहाँ सातवीं कक्षा में रौशनी पढ़ती थी। वहाँ मौजूद अध्यापकों से बात करने पर पता चला कि वहाँ तीन गाँव के बच्चे पढ़ने आते हैं। काफी साइकिलें बाहर खड़ी हुई थीं और बच्चे कक्षाओं में मौजूद भी थे। बाहर एक पेंटर स्कूल के बाहर लिखे सूचनापट और अन्य शासकीय विज्ञापनों को फिर से लिख रहा था। जाहिर था कि इस हत्याकांड के बाद अनेक नेताओं और शासकीय अधिकारियों के दौरों ने उन्हें स्कूल को ठीक-ठाक प्रदर्शन योग्य रखने के लिए विवश किया होगा। स्कूल से लगा हुआ ही आंगनबाड़ी केंद्र और पंचायत भवन भी था।
वहाँ से पैदल करीब 200-300 मीटर दूरी पर मौजूद घटनास्थल की ओर बढ़ने पर हमने वो जगह देखी जहाँ रौशनी और अविनाश के शव पाए गए थे। सड़क के एक किनारे पर वे शौच के लिए बैठे होंगे जब उनपर प्राणघातक हमला हुआ। छः दिन बाद भी खून के धब्बे वहाँ मौजूद थे जिन पर मिट्टी डाल दी गई थी और पत्थरों से एक घेरा बना दिया गया था। वहाँ भी पुलिस के दो सिपाही मौजूद थे। सड़क के उसी तरफ बमुश्किल 25-30 कदम आगे मनोज वाल्मीक के पिता का घर था। सड़क के दूसरी तरफ दूर तक फैला हुआ एक खेत था जिसमें एक पक्का मकान बना हुआ था। उस तक जाने के लिए सड़क से एक पगडण्डीनुमा रास्ता जाता था। मकान सड़क से करीब 150-200 मीटर दूर रहा होगा। मनोज वाल्मीक के पिता के घर में कोई मौजूद नहीं था। वे सभी लोग गाँव के दूसरे सिरे पर मौजूद मनोज वाल्मीक के झोपड़ीनुमा घर पर मौजूद थे।
हमें मनोज वाल्मीक ने यह भी बताया था कि पुलिस को सूचना गाँव के ही मनोज वाल्मीक के पिता के पड़ोस में रहने वाले महेश जाटव ने की थी। हमने महेश जाटव से मिलने की कोशिश की लेकिन हमें उसकी माँ ने बताया कि वो किसी रिश्तेदार की गमी में शामिल होने के लिए गाँव से बाहर गया था। महेश से अगले दिन फोन पर सम्पर्क हुआ और उसने कहा कि शोर की आवाज़ सुनकर जब वो सड़क पर पहुँचा तो उसने बच्चों के क्षत-विक्षत शरीरों को देखा। वहाँ मनोज वाल्मीक के घरवाले मौजूद थे जो रो और चिल्ला रहे थे। वहीं मनोज के भाई ने महेश को अपना मोबाइल देकर इस घटना की इत्तला 100 नम्बर पर देने के लिए कहा जो उसने किया। उसके आधे घण्टे के भीतर ही पुलिस आ गई।
इस बात का उल्लेख इसलिए भी जरूरी है कि गाँव पहुँचने से पूर्व शिवपुरी में जिन भी लोगों से इस घटना के बारे में बात की उनका यह कहना था कि जिस व्यक्ति ने कत्ल किया वो तो दोषी है, लेकिन उसका भाई जो उसके साथ था वो निरपराध और निर्दोष है। उसे गलत फँसाया जा रहा है। उसने न केवल अपने भाई को कत्ल करने से रोकने की कोशिश की, बल्कि खुद ही फोन करके पुलिस को भी इत्तला की। यह जानकारी गलत निकली। पुलिस को फ़ोन हक़ीम सिंह के भाई रामेश्वर ने नहीं बल्कि महेश जाटव ने किया था। दूसरा बिंदु, जो हमें बताया गया था कि कत्ल करने वाला व्यक्ति अर्धविक्षिप्त है और उसका पिछले अनेक वर्षों से ग्वालियर तथा अन्य जगहों से मानसिक व्याधि का इलाज चल रहा है। पूछने पर हमें यह भी बताया गया कि चूँकि वो मानसिक रोगी है इसलिए इलाज के कोई कागजात उसने सम्भाल कर नहीं रखे।
(इस पर हमारा यह मानना था कि अगर हाक़िम सिंह मानसिक रोगी है तो उसने गाँव के अन्य लोगों के साथ या परिवार के अन्य जनों के साथ ऐसी कोई हरकत क्यों नहीं की। यह भी पता चला कि हाकिम सिंह यादव शादीशुदा है और तीन बच्चों का पिता भी है. उसकी पत्नी का नाम चंद्रा बाई है और 15 व 17 साल की दो लडकियां हैं तथा 18-19 साल की उम्र का लड़का भी है।)
बहरहाल गाँव वालों से बातचीत के दौरान ही यह भी पता चला कि हाक़िम सिंह लगभग बिला नागा गाँव के बाहर मौजूद मन्दिर में जाया करता था। हमलोग भी मंदिर गए और मन्दिर के पुजारी से बातचीत की। उन्होंने इस तथ्य की ताईद की कि वो लगभग रोज मन्दिर आया करता था और घण्टों तक मन्दिर में बैठा रहता था। पुजारी जी ने हमें यह भी बताया कि हाक़िम सिंह लंबे अरसे तक चित्रकूट में भी रहा और उसकी किसी मानसिक व्याधि के लिए उसका इलाज ग्वालियर के किसी डॉक्टर से भी चल रहा था। पुजारी जी ने कहा कि पिछले कुछ महीनों से वो अपने आप को राम, अपनी पत्नी को जानकी कहा करता था। वो यह भी कहता था कि उसे राक्षसों का संहार करना है। वारदात के दिन भी वो मंदिर पर आकर वापस अपने घर जा रहा था जब उसने यह काण्ड कर दिया। पुजारी जी के अनुसार उसने बहुत ही गलत किया। पुजारी जी ने यह भी बताया कि जाटव, शाक्य और अन्य ऐसी ही अनुसूचित जातियों के लोग मंदिर के बाहर खड़े होकर ही दर्शन करते हैं और अंदर नहीं आते। मंदिर गाँव वालों के चंदे से ही बनाया गया था।
हमने हाक़िम सिंह यादव के परिवार से मिलने की कोशिश भी की, लेकिन गाँव में मौजूद पुलिस और गांववालों ने बताया कि उसके परिवार के सभी लोग घटना के दिन से ही गायब हैं।
बातचीत के आधार पर हम इन निष्कर्षों पर पहुँचे कि –
1: रोशनी और अविनाश की निर्मम हत्या हाक़िम सिंह यादव ने ही की है। और उसके साथ मौका ए वारदात पर मौजूद उसके भाई रामेश्वर सिंह यादव की भी उपस्थिति संदिग्ध है। यह प्रचार किया गया है कि रामेश्वर सिंह यादव ने अपने भाई हक़ीम सिंह यादव को रोकने की कोशिश की लेकिन हमारे जाँच दल को यह लगता है कि अगर रामेश्वर सिंह यादव अपने भाई हाकिम सिंह यादव को वाकई रोकना चाहता तो उसका भाई, जो केवल एक लाठी लिए हुए था, दोनों बच्चों को मार डालने की कोशिश में कामयाब नहीं हो सकता था। आरोपितों से मिलने की और यह जानने की कि रामेश्वर सिंह यादव शुरू से साथ में था या बाद में आया, हमारी कोशिश कामयाब नहीं हुई क्योंकि वह दोनों न्यायिक हिरासत में बंद थे और उनसे संपर्क करने की अनुमति देने हेतु जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय में उपलब्ध नहीं थीं।
2: बेशक ये निर्मम हत्या मानवता के नाम पर कलंक है किंतु उसके दो आयामों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है-
जातीय वर्गीयकरण का भेद
जातीय वर्गीयकरण के आधार पर भेदभाव समूचे भारत देश की एक बड़ी त्रासदी है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि हिन्दू सामाजिक संरचना के भीतर मध्य भारत में वाल्मीक समाज सबसे निचले पायदान पर मौजूद है। भले ही जाटव, वाल्मीक, शाक्य, परिहार आदि सभी समुदायों को अनुसूचित जाति के एक समूह में शासकीय तौर पर गिन लिया जाए लेकिन अनुसूचित जातियों में भी स्तरीकरण मौजूद है, जिसकी वजह से जाटव अपने आप को वाल्मीक समुदाय से उच्च मानते हैं। भावखेड़ी गाँव में 269 परिवार निवास करते हैं। इनमे से सबसे अधिक परिवार हैं जाटव समुदाय के। जाटव के अलावा अनुसूचित जाति में शाक्य, परिहार और वाल्मीक समुदाय के भी थोड़े बहुत परिवार हैं। वाल्मीक तो दरअसल एक ही परिवार है। मनोज वाल्मीक के अलग झोपडी बाँध लेने से अब दो घर कहे जा सकते हैं। सामान्य वर्ग के कुल 7 परिवार हैं और 104 परिवार अन्य पिछड़ा वर्ग के हैं जिनमें 100 तो अकेले यादवों के ही परिवार हैं। कुल 2 या 3 परिवार सेन समुदाय के हैं। ज़ाहिर है आर्थिक संसाधनों का आधार भी जातिगत स्तर पर ही वितरित होता है।
विद्यालयों में भेदभाव
रोशनी के स्कूल में उसकी कक्षा के विद्यार्थियों से बात करने में जहाँ सभी विद्यार्थी रटे-रटाए स्वर में यह कह रहे थे कि उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होता है, वहीं यह पूछने पर की रोशनी कक्षा में कहाँ बैठती थी, एक विद्यार्थी ने अनायास और सहज जवाब देते हुए कक्षा के एक कोने की ओर इशारा करते हुए कहा कि वो वहाँ सबसे अलग बैठती थी। निम्न कही जाने वाली जातियों को खान-पान के स्तर पर ऐसे भेदभाव झेलना बहुत आम है। हैण्डपम्प से पानी भरने के विषय में दलितों के साथ अपनाया जाने वाला अछूतों का बर्ताव आज भी जारी है। यह बात मनोज वाल्मीक ने सभी के सामने कही और किसी ने भी इस बात को नकारा भी नहीं कि गाँव से वे हैंडपंप से तभी पानी भर सकते थे जब उनसे ऊंची कही जानेवाली जातियों के लोग पानी भर लें। उसके बाद भी उन्हें हैंडपंप का हत्था साबुन से साफ़ करना होता था। या फिर अगर तथाकथित ऊँची जाति के लोग पानी भर रहे हों तो वे ही ऊपर दूर से उनके बर्तन में पानी डाल देते थे ताकि उनका स्पर्श भी हैंडपंप के हत्थे से न हो।
अल्पसंख्यक होने का अहसास
भावखेड़ी गाँव में दलितों में से भी अतिदलित माने जाने वाले वाल्मीक समुदाय का केवल एक घर था जो अतिदलित होने के साथ ही अल्पसंख्यक भी था। इसलिए न केवल यह आसानी से समझा जा सकता है कि उनके साथ भेदभाव होता ही होगा, बल्कि एकमात्र परिवार होने की वजह से इसे उन्होंने भी अपनी नियति मान स्वीकार कर लिया होगा ।
- अगर यह मान भी लिया जाये कि क़त्ल का आरोपित हाकिम सिंह यादव मानसिक असंतुलन का शिकार था तो भी हमें यह लगता है कि मानसिक असंतुलन में भी वह वर्गीय, जातीय और शारीरिक ताक़त के समीकरणों को बखूबी समझता था। मंदिर के पुजारी ने भी उसके बारे में यही कहा कि कुछ करता-धरता नहीं था लेकिन किसी से उलझता भी नहीं था। कुछ समय से हमेशा एक लट्ठ अपने साथ रखता था। लेकिन किसी और को मारने-पीटने का वाकया पहले कभी नहीं सुना।
हमारे विचार से पिछले कुछ समय से देश में अल्पसंख्यकों और दलितों के प्रति हिंसात्मक, लिंचिंग, या नफरत की घटनाओं में इजाफा हुआ है। यह घटना उसी का एक परिणाम है। जैसी मानसिकता को समाज में व्हाट्सप्प, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि सोशल मीडिया तथा मुख्यधारा मीडिया के मार्फ़त फैलाया जा रहा है, उससे व्यवस्था द्वारा हाशिये पर फेंके गए ऐसे लोगों का यह मानने लगना मुश्किल नहीं कि वे दलितों को, मुस्लिमों या ईसाईयों को, या उनका पक्ष लेने वाले वामपंथियों या उदार विचारधारा वाले व्यक्तियों को मार डालने में ही अपने जीवन को सम्पूर्ण और सफल समझें। इसमें यह भी विशेष तौर पर उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश में हुई ऐसी घटनाओं के बाद भी दोषी पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका से बिना कोई सजा पाए अपने समुदाय में एक नायक के तौर पर स्वीकार कर लिए जाते हैं और जातिगत भेदभाव आधारित राजनीति उन्हें प्रतिष्ठा भी दे देती है। इससे ऐसी नफरत की सोच रखने वाले अन्य व्यक्तियों का हौसला बढ़ता है और वे “धर्म” की रक्षा और “ईश्वर” के नाम पर ऐसे जघन्य अमानवीय कृत्यों को सही मान लेने के भ्रम में आ जाते हैं।
- दलितों के प्रति हमारे समाज की मानसिकता क्या है, इसे हम रोज़ की ख़बरों और अपने आसपास के जीवन में घटने वाली सैकड़ों घटनाओं के मार्फ़त जानते हैं। इस जघन्य हत्याकांड के बारे में भी हमने जब लोगों से बात की तो बेशक सभी ने इस घटना की निंदा की, किन्तु कोई भी ‘किन्तु’, ‘परन्तु’, ‘अगर’, ‘मगर’ लगाने से नहीं बचे। अधिकांश लोगों की प्रतिक्रियाओं को तीन भागों में रखा जा सकता है :
अ) काफी लोगों का कहना था कि अब उन हत्याओं पर वो दलित परिवार पैसे कमा रहा है। इस पर जब हमने ये कहा कि क्या आप अपने बच्चों की यूँ हत्या हो जाने देंगे अगर आपको भी पैसे मिलें? इस बात का कोई जवाब लोगों के पास नहीं था। ये मुमकिन है कि पीड़ित परिवार के हितैषी और रिश्तेदार उसे ये सलाह दे रहे होंगे कि जो हो गया सो हो गया। अब कुछ भी करने से मरने वाले तो वापस नहीं आ सकेंगे। तो जो जीवित हैं, क्यों न उनका जीवन ही सुधार लिया जाये। बेहद गरीबी में रहते आये इस परिवार पर अगर ऐसे प्रलोभन काम भी कर जाएँ तो भी उससे अपराध की तीव्रता और अपराधी का अपराध कम नहीं हो जाता। बल्कि पुलिस – प्रशासन को ऐसे इंतज़ामात करने चाहिए कि ऐसे प्रलोभन देने वाले कभी उसके इर्दगिर्द न फटक सकें।
ब) अनेक का यह भी कहना था कि दलित राजनेताओं द्वारा इसका राजनीतिक लाभ लेने के प्रयास किये जा रहे हैं। यह भी वैसा ही तर्क है कि अगर इन नृशंस हत्याओं की मूल वजह भारत की जाति व्यवस्था पर कोई सवाल उठाये तो उसे राजनीति करना कह दिया जाएगा जबकि अगर गैर दलित समुदायों में शादी, ब्याह, जन्म – मरण, जैसे हर काम में राजनेता आएं तो परिवार गौरवान्वित होते हैं। तब उन्हें नहीं लगता कि शादी ब्याह से लेकर मरने तक के अवसरों का राजनीतिकरण किया जा रहा है।
स) कुछ ने तो मनोज वाल्मीक को अपराधी बताने का भी इशारा किया। मनोज वाल्मीक बकरियाँ चराने के लिए अन्य गाँवों में भी जाता था, ऐसा उसने स्वयं बताया था। टोंका नामक पड़ोस के गाँव में उसके पिता को भूमिहीन अनुसूचित जाति-जनजातियों को शासन की ओर से दी गयी ज़मीन के तहत ढाई एकड़ ज़मीन मिली थी, ऐसा कुछ गांववालों ने भी बताया था। हो सकता है वह उस ज़मीन की देखभाल और खेती के लिए टोंका गाँव भी जाता हो। यह भी हो सकता है कि उसके नाम पर कोई अपराध कहीं दर्ज हों। वे आरोप या मामले भी सच्चे हैं या नहीं, ठीक से पड़ताल करने की ज़रुरत होगी क्योंकि गरीबों और दलितों को वैसे भी पुलिस किसी न किसी केस में बंद करके अपना अपराधी पकड़ने का कोटा पूरा करती रहती है। लेकिन अगर यह मान भी लिया जाये कि मनोज वाल्मीक किसी मामले में अपराधी होने का आरोपित है तो भी उससे उस व्यक्ति का अपराध कैसे कम हो जाता है जिसने मनोज वाल्मीक के बेटे और बहन को लाठी से पीटकर नृशंसता से मार दिया। इस बात का भी लोगों के पास कोई जवाब नहीं होता। कुछ लोग यह भी कह कर अपना पिंड छुड़ाते चल दिए कि अरे, आप नहीं जानते, ये लोग कितने सिर पर चढ़ गए हैं। हाँ, नए ज़माने में कुछ दलित हैं जो संगठनों की सक्रियताओं और तकनीक के फैलाव से अपने हक़ों और अपने संघर्ष के इतिहास को जान चुके हैं। जानने के बाद भी उनकी हिम्मत नहीं होती है कि वे शोषणकारी समाज व्यवस्था के खिलाफ कुछ बोलें या कुछ हलचल मचाएं क्योंकि किताब में एक कानून बन जाने से पूरी व्यवस्था नहीं बदल जाती। स्थानीय पंचायत से लेकर ज़िले और प्रदेश के राजनेता, पुलिस, प्रशासन, सभी कुछ जातिवाद और ऊंच – नीच के साथ आर्थिक अमीरी और गरीबी को भी शताब्दियों से अपने भीतर पाले-पोसे रहे होते हैं। और ऐसा व्यवहार ही इन अछूत कहे जाने वाले तबकों को घृणा और प्रतिहिंसा से भरता रहता है। जब उन्हें मौका मिलता है तो वे भी अपनी प्रतिहिंसा का मौका नहीं छोड़ते। इससे समरसता कभी आ ही नहीं सकती।
- शौचालय – एक विवाद कथा
एक-दूसरे को एक-दूसरे का दुश्मन बनाकर चलने वाली राजनीति इतनी काबिल होती है कि वह किसी भी गौण मुद्दे को अत्यंत महत्त्वपूर्ण मुद्दा बनाकर उसे जीने-मरने का सवाल और मनुष्य को पशुओं से भी गया-गुजरा संवेदनहीन बना देती है। पहले गाँवों से राशन की दुकानों से अनाज कम किया गया। कहा गया कि अब इतने ग़रीब हैं ही नहीं जो राशन की दुकानों से सब्सिडी वाला अनाज खरीदना चाहें। जब अपनी उपलब्धि दिखाने को गरीबों की तादाद कम करके दिखायी गयी तो ज़ाहिर है कि उनके हिस्से की सब्सिडी भी कम कर दी गयी। अब वे सरकार की ज़िम्मेदारी से बाहर हैं, चाहे जियें या मरें, क्योंकि उन्हें गरीबी वाला कार्ड नहीं दिया गया है इसलिए उन्हें गरीब नहीं माना जाएगा।
ठीक ऐसे ही, बिन काम पूरा किये सरकारी अफसरों को और ख़ुद सरकार को घोषणा की जल्दबाजी है। हमें गांववालों ने बताया कि अभी भी 15 से 20 घर ऐसे हैं जहाँ टॉयलेट नहीं हैं। और जहाँ हैं भी वहाँ आप सर्वे करके देख लें कि उनमें से अनेक उपयोग में नहीं आ रहे क्योंकि पानी का इंतज़ाम नहीं है। एक ग्रामीण ने सीधा गणित समझाते हुए यह भी बताया कि टॉयलेट बनाने के लिए सरकार देती है 12 हज़ार रुपये मात्र। स्वीकृति के बाद हर दफ्तर से फाइल और पैसा हाथ में आते – आते 5 से 6 हज़ार रुपये बचते हैं। उसमें क्या तो दीवारें उठेंगी, क्या शीट लगेगी, क्या दरवाज़ा लगेगा, क्या गड्ढा खुदेगा और क्या पानी का इंतज़ाम होगा।
ऐसे में जिन लोगों के घरों में टॉयलेट नहीं हैं और उन्हें खुले में शौच के लिए जाना होता है तो उन्हें सरकार की कमजर्फी का शिकार समझने के बजाय इतना बड़ा अपराधी ठहराया जा रहा है कि उनकी सजा के तौर पर उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया! अगर इसका कोई अपराधी है तो वो सरकार है, ऐसे राजनेता हैं जो कानून अपने हाथ में लेने वालों को सजा नहीं पुरस्कार देते हैं।
न्याय सुनिश्चित किया जाये
कहने को तो यह घटना इस विशाल देश को देखते हुए छोटी है लेकिन इससे दूरगामी गम्भीर संकेत मिलते हैं। ऐसी किसी भी घटना की पुनरावृत्ति रोकने के लिए ये ज़रूरी है कि कुछ सख़्त कदम उठाए जाएं। हमारी अनुशंसा है कि:
- मनश्चिकिसकों और मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों की एक स्वतंत्र पैनल द्वारा हाकिम सिंह यादव की मानसिक अवस्था की जाँच की जाये कि क्या वह वाकई बीमार है या सज़ा से बचने के लिए मानसिक असंतुलन की आड़ ले रहा है।
- पीड़ित परिवार को नियमानुसार उचित मुआवजा दया जाएतथा परिवार के दो व्यक्तियों को शासकीय सेवा में लिया जाए।
- मामले की जाँच में देरी न की जाए तथा अपराधियों को सख़्त सज़ा दी जाए। सख़्त सजा का अर्थ फाँसी से न लिया जाये। हम फाँसी की सजा को गलत मानते हैं और देश में फाँसी की सजा को समाप्त करने की अनुशंसा करते हैं।
- गाँव को साफ़ रखने के लिए खुले में शौच से मुक्त करने का प्रयास अच्छी बात है किन्तु इससे ज़्यादा ज़रूरी और तुरंत किये जाने वाले प्रयास ऐसे होने चाहिए कि साथ-साथ एक ही गाँव में रह रहे लोग एक-दूसरे से नफरत न करें, अपने दिमागों को जाति-धर्म के श्रेष्ठता भाव की गंदगी से मुक्त करें। इसके लिए स्कूलों और अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ मिलकर ग्रामीणों को अस्पृश्यता के खिलाफ समझाइश देना तथा पानी भरने आदि किसी भी रोज़मर्रा के काम में जातिगत आधार पर भेदभाव को समाप्त किया जाना बेहद ज़रूरी है।
- इस बात की विस्तृत जाँच की जाए कि कितने घरों में शौचालय नही हैं या होने के बावजूद इस्तेमाल योग्य नहीं हैं। जिन अधिकारियों और कर्मचारियों की ग़लत जानकारी के आधार पर इस गाँव को खुले में शौच से मुक्त गाँव घोषित किया गया था, उन पर सख़्त कार्रवाई की जाए।
- जल्दबाज़ी में झूठी घोषणा करके गरीबों को और मुश्किल में डालने के जो ज़िम्मेदार हैं, उन्हें भी दण्डित किया जाये और उनकी ज़िम्मेदारी का एहसास करवाया जाये चाहे वे मुख्यमंत्री हों या प्रधानमंत्री।
खुले में शौच करते दो बच्चों की नृशंस हत्या की सीपीआई के जाँच दल की रिपोर्ट