प्रयागराज बना दिए गए इलाहाबाद में अप्रैल का दूसरा सप्ताह इस शहर की पुरानी और समृद्ध परम्परा के फिर से उठ खड़े होने का गवाह रहा। सेंट जोसेफ कॉलेज के होगन हॉल में आयोजित साझा भारत सम्मेलन में मंच की विविधता, प्रश्नों की जिज्ञासा और लोकगीत के संगम ने मिलकर एक नए भारत की संकल्पना की प्रतिबद्धता को बुलंद किया।
इस मंच से इतिहासकार सलिल मिश्र ने राष्ट्रीय आंदोलन से निकले मूल्यों, पूर्व राजनयिक अशोक शर्मा ने संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर किए जाने, समाजकर्मी शबनम हाशमी ने समाज में फैलाये जा रहे भ्रम, चिंतक और लेखक कंवल भारती ने पूंजीवाद व संघ के गठजोड़ और पत्रकार भाषा सिंह ने प्रतिरोध की उठ रही आवाजों पर प्रमुखता से अपने विचार रखे।
सम्मेलन का आगाज़ डॉ. फातमी अली ने अपनी शायरी से किया। साझा भारत को बनाने और मजबूत करने की दिशा में पहली तक़रीर सलिल मिश्र की रही। उन्होंने अपने सारगर्भित वक्तव्य में साझा भारत की तस्वीर खींची। उन्होंने बताया कि ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ते हुए राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से निकले मूल्यों के सबक को कैसे स्वतंत्रता के बाद तमाम भाषायी, धार्मिक व क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद समाज में कायम रखा जा सका। साथ ही यह भी कि कैसे इन मूल्यों को लेकर भारत एशियाई समाजों का मार्गदर्शन करता रहा। एक ऐसे समय में जबकि भाषाओं, नस्लों और धर्मों के आधार पर राष्ट्रों का निर्माण हो रहा था, ये मूल्य दुनिया को रास्ता दिखा रहे थे। यह भारत के लिए एक सामाजिक प्रयोग जैसा था। इसी प्रयोग को वर्तमान में सबसे ज्यादा राजनीतिक चुनौती मिल रही है। उन्होंने इसे बनाए रखने पर ज़ोर दिया।
पूर्व राजनयिक अशोक शर्मा ने साझा भारत की वैचारिक समृद्धता की रखी बुनियाद को अपने वक्तव्य से मजबूती प्रदान की। उन्होंने कहा कि आज असली सवाल संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर किए जाने का है। योजना आयोग से लेकर आरबीआइ, सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई में हुई हालिया घटनाओं से इसे समझा जा सकता है। दूसरी तरफ मीडिया का हाल किसी से छिपा नही है। सरकारी उपक्रमों पर बढ़ती देनदारी, बढ़ते हुए घोटाले, एनएसएसओ के आंकड़ों को छुपाया जाना भारतीय संस्थाओं को कमजोर कर रहा है जिससे संविधान की आत्मा मर रही है।
प्रख्यात समाजकर्मी शबनम हाशमी ने अपने वक्तव्य की शुरुआत फैज़ की मशहूर नज़्म से की:
“निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन के जहां, चली है रस्म के कोई न सर उठा के चले’’।
उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जो भारत हमको मिला वह पिछड़ा हुआ था। गरीबी, भूख और निरक्षरता से भरा हुआ था, लेकिन हमारी सोच बड़ी थी। ऐसे समय में भी हम बराबरी, समानता, न्याय, स्वतंत्रता एवं अधिकारों की बात सबके लिए कर रहे थे। आज इसी सोच को संकीर्ण बनाया जा रहा है। इस सोच को धीरे–धीरे समाप्त कर समाज में नए–नए भ्रम फैलाए जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि चुप रहने से खतरनाक कोई राजनीति नहीं है क्योंकि फासीवादी ताकतों का जन्म डर के ऊपर ही संभव हो पाता है।
शबनम ने आधुनिक समय में फासीवाद के बारह लक्षणों को बताया। इनमें प्रमुख लक्षण उन्होंने गिनाए: शक्तिशाली होता राष्ट्रवाद, मानव अधिकारों का हनन, सामाजिक कार्यकर्ताओं को फर्जी मामलों में फंसाया जाना, सेना का राजनीतिकरण, मीडिया का सत्ता से सवाल न पूछना, धर्म को बढ़ावा, कॉर्पोरेट घरानों का सत्ता से सीधा गठजोड़, मजदूरों के अधिकारों का हनन, युद्धकाल की स्थिति, भ्रष्टाचार, चुनावों में धांधली, बेलगाम पूंजीवाद, इत्यादि।
उन्होंने कहा कि ऐसे समय में हमको वैचारिक–सांस्कृतिक प्रतिरोध की विविध आवाजों के साथ खड़ा रहना होगा, साथ ही लोकतंत्र में बहुलता की शमा को जलाए रखना होगा, जो भारतीय समाज एवं राष्ट्र के लिए प्राणवायु की तरह है।
प्रख्यात चिंतक और लेखक कंवल भारती ने विमर्श को नई दिशा देते हुए कहा कि उन्होंने कभी साझा भारत नहीं देखा! कंवल भारतीजी ने वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों तरह के इतिहासकारों पर सवाल खड़े किए। उनका कहना था कि किसी ने भी दलित मसीहाओं को अपने इतिहास–लेखन में एक पैराग्राफ से अधिक जगह देना ठीक नहीं समझा।
उन्होंने संघ की विचारधारा पर प्रहार करते हुए कहा कि संघ ने गरीब दलितों और मुस्लिमों के बीच आपसी तनाव बढ़ाने का काम किया है जबकि संपन्न मुस्लिमों और हिंदुओं पर कभी आंच भी नहीं आई है। आज संघ और पूंजीवाद मिलकर दलितों, पिछड़ों, गरीबों, आदिवासियों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के सपनों को खत्म कर रहे हैं। शिक्षा को बाजार के हवाले कर दिया गया है जिसका बोझ गरीब आदमी सहन नहीं कर पा रहा है।
आखिरी वक्ता के रूप में पत्रकार भाषा सिंह ने मीडिया पर टिप्पणी करते हुए कहा कि हर तीसरा पत्रकार अम्बानी का पत्रकार बन चुका है। तमाम विरोधाभासों के बावजूद लोगों तक खबर पहुंच रही है, बस जरूरत है धैर्य के साथ परत दर परत सवाल पूछने की। जब झूठ पहुंच रहा है तो सच भी पहुंचेगा। शर्त ये कि है हम प्रयास जारी रखें।