संपादकीय एक : किसकी भाषा
हिंदी दिवस के अवसर पर केंद्रीय गृह मंत्री ने कहा कि हिंदी भारत में बोली जाने वाली भाषा हो सकती है और यह देश को एक साथ जोड़कर वैश्विक स्तर पर इसकी पहचान बन सकती है। यह विविधता में एकता की जगह एक ही ढंग से एकता की बात करने वाली सोच को दिखाता है। हालांकि, संबंधित मंत्री ने इसके लिए कुछ करने की बात नहीं कही लेकिन पहले ऐसी कुछ कोशिशें हुई हैं। उदाहरण के तौर पर नई शिक्षा नीति, 2019 के मसौदे में हिंदी को अनिवार्य विषय के रूप में शामिल करने और इसके बाद ‘एक राष्ट्र, एक भाषा’ की बात चलने से काफी लोगों के मन में भय पैदा हुआ।
इस तरह की बातों में इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि भारत की परिकल्पना विविध भाषा वाले देश के तौर पर की गई थी। इसलिए एक तमिल होने और एक भारतीय होने में कोई विरोधाभाष नहीं है बल्कि एक-दूसरे से ये संबद्ध हैं। एक राष्ट्र, एक भाषा की बात भाषाई विविधता और क्षेत्रीय विविधता को नजरअंदाज करती है। किसी एक भाषा को राष्ट्रीय भाषा के तौर पर थोपने की कोशिश से विवाद, संघर्ष और विभाजन पैदा होने का खतरा है।
भाषा एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है। कोई भी भाषा इस्तेमाल करने वालों के कामकाज का इस पर असर होता है। अगर लोग विकास करते हैं तो भाषा भी आगे बढ़ती है। भारत के भाषाई सर्वेक्षण 2010 में 780 जीवित भाषाओं की पहचान की गई है। इसमें यह भी बताया गया कि पिछले पांच दशक में 220 भाषाएं गायब हो गईं। इसकी एक प्रमुख वजह के तौर पर अभूतपूर्ण पलायन और विस्थापन सामने आया।
इस स्थिति में सह-अस्तित्व से ही भाषाई समस्याओं का समाधान होगा। एक भाषा को थोपने से स्थितियां खराब ही होंगी। एक भाषा के साथ दूसरी भाषा के संबंधों को सहज बनाने की दिशा में काम करने की जरूरत है। क्या भाषाओं को विकास एक-दूसरे के बीच संबंध बढ़ाने से होगा या फिर एक भाषा को दूसरी भाषाओं का इस्तेमाल करने वालों पर थोपने से ऐसा होगा?
हिंदी को सभी को जोड़ने वाली समान भाषा के तौर पर देखा जाता है। दक्षिण भारतीय राज्यों ने जो आपत्तियां जाहिर की हैं उनके संदर्भ में यह अधिक उपयुक्त लगता है कि हिंदी के स्वाभाविक विकास की राह अपनाई जाए। संस्कृतनिष्ठ हिंदी का थोपा जाना क्या दोस्ताना नहीं लगता है? भारत की सरकारी हिंदी एक-दूसरे को जोड़ने के बजाए अलग करने का काम करती है। साहित्य और सिनेमा ने यह दिखाया है कि हिंदी की खूबसूरती इसकी सहजता में है। शुद्ध हिंदी इसके विकास को बाधित करती है। इसे थोपे जाने से इसकी करीब की भाषाओं जैसे भोजपुरी और कुमाउंनी के साथ-साथ उर्दू के विकास पर भी बुरा असर पड़ेगा।
हिंदी पट्टी के अधिकांश लोग हिंदी छोड़कर अंग्रेजी अपनाना चाहते हैं। कई लोगों के लिए हिंदी बोलने वाली की पहचान बोझ बन गई है। बहुत सारे युवाओं को लगता है कि अंग्रेजी उनके लिए अवसरों के द्वार खोल सकती है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि जो लोग हिंदी बोलते हैं उनमें भी हिंदी का सम्मान क्यों नहीं है? क्यों वे हिंदी छोड़कर अंग्रेजी अपनाना चाहते हैं?
क्या इस दिशा में कोई कोशिश की जा रही है कि ‘जीवन की भाषा’ और ‘ज्ञान की भाषा’ के बीच की दूरी मिटे? क्या मातृ भाषा में ज्ञान के संसाधन उपलब्ध हैं? क्या विषयों के जानकार इन भाषाओं में लिखना चाह रहे हैं? क्या इन भाषाओं के साहित्य को समृद्ध करके सामाजिक-आर्थिक दूरियों को मिटाने की कोशिश हो रही है? क्या जो इन्हें इस्तेमाल करते हैं, उन्हें ये सशक्त बना रही हैं? जरूरत इस बात की है कि भाषा थोपी नहीं जाए बल्कि सामंजस्य के लिए कोई व्यवस्था बने। एक भाषा की जगह कई भाषाएं मिलकर भारत की पहचान बन सकती हैं।
संपादकीय दो : कारपोरेट कर में कमी
कारपोरेशन कर में कटौती के साथ ही सरकार ने स्वीकार कर लिया है कि मंदी चक्रिय नहीं है बल्कि वास्तविक है। विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों पर लगे सरचार्ज के हटने, सिंगल ब्रांड रिटेल में निवेश को सरल बनाने, कोयला खनन में 100 फीसदी विदेशी निवेश को मंजूरी देने, सरकारी बैंकों को नए सिरे से संगठित करने और कारपोरेशन टैक्स में 20 सितंबर, 2019 को हुई कटौती के बाद शेयर बाजार में सकारात्मक माहौल बना।
कर सुधार में सबसे अच्छी रणनीति यह मानी जाती है कि कर आधार बढ़ाएं जबकि कर की दर कम करें। कारपोरेट आयकर के मामले में यह और जरूरी हो जाता है। ऐसे में सरकार को पहले से दी गई रियायतों का अध्ययन करना चाहिए था तब कर की दर में कटौती करनी चाहिए थी। पांच साल पहले पिछले वित्त मंत्री का कारपोरेट कर को 25 फीसदी पर लाने का वादा इसी बात पर टिका था। लेकिन सरकार निवेश को लेकर माहौल ठीक करने की जल्दबाजी में कारपोरेट कर को घटा दिया। जो कंपनियां पहले से कर छूट नहीं ले रही हैं, उनके लिए अब यह दर 22 फीसदी होगी। लेकिन और अधिक दर पर कर दे रही छोटी इकाइयों की अर्हता को लेकर अभी कई बातें स्पष्ट होनी हैं। अगर कर का आधार बढ़ाना ही लक्ष्य था तो फिर इस पर विचार करने की जरूरत है कि आखिर मैट को 18 फीसदी से घटाकर 15 फीसदी पर क्यों लाया गया।
कोई भी टैक्स अर्थशास्त्री यह नहीं कहेगा कि कर नीतियों में कई लक्ष्य हों और इस वजह से कर रियायत का दायरा बढ़ता जाए। कर रियायत काफी अधिक पहले से है। इसके जरिए क्या हासिल किया जा सकता है, यह भी स्पष्ट नहीं है। बजट में ऐसे 28 विषयों का जिक्र है जिस पर कर रियायत दी जा रही है। इसमें विशेष आर्थिक क्षेत्रों से हो रहे निर्यात से लेकर बिजली के वितरण, बुनियादी ढांचे का विकास, खनिज तेल के उत्खनन, चैरिटेबल ट्रस्ट और संस्थानों, खाद्य प्रसंस्करण, उत्तर पूर्वी और हिमालयी राज्यों की इकाइयां आदि शामिल हैं।
बाजार की प्रतिक्रिया इस उम्मीद पर आधारित थी कि कर में की गई कटौती का काफी लाभ होगा। कर की दर में कटौती से पहले यह दर 35 फीसदी थी जो प्रभावी तौर पर 2017-18 में 29.49 फीसदी थी। उस साल कारपोरेट कर के जरिए सरकार को 7.66 लाख करोड़ रुपये का राजस्व हासिल हुआ था। कर की दर कम करके 22 फीसदी करने से 1.12 लाख करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान होगा। नई कंपनियों के लिए यह दर 15 फीसदी है लेकिन उन्हें तब तक लाभ नहीं मिलेगा, जब तक वे मुनाफा नहीं कमाती हैं। 2019-20 में कर संग्रह को लेकर जो पूर्वानुमान हैं, उनमें बताया जा रहा है कि नुकसान अपेक्षाकृत कम होगा लेकिन इसके साथ यह भी सही है कि कर संग्रह भी कम होगा।
कर में कटौती का बोझ राज्यों को उठाना पड़ेगा। क्योंकि कटौती आधार दर में की गई है न कि उपकर और सरचार्ज में। केंद्र और राज्यों में करों के बंटवारे की जो व्यवस्था है, उसके हिसाब से राज्यों को 60,000 करोड़ रुपये का नुकसान होगा। जबकि केंद्र सरकार को जो 82,000 करोड़ का नुकसान होगा, उसमें से उसे 20,000 करोड़ रुपये सरकारी कंपनियों के लाभांश के रूप में मिल जाएगा। लेकिन राज्यों ने पहले की दर के हिसाब से खर्च की जो योजना बना रखी थी उनमें उन्हें आनन-फानन कमी करनी पड़ेगी। रियल एस्टेट जैसे क्षेत्रों में आई मंदी की वजह से स्टांप और निबंधन से होने वाली आमदनी भी कम होगी। जीएसटी के बाद राज्यों के पास आय का यही सबसे प्रमुख स्रोत बचा है।
सवाल यह भी है कि क्या इस कटौती से अर्थव्यवस्था की स्थिति ठीक होगी। बाजार की प्रतिक्रिया के बावजूद इसमें संदेह व्यक्त किया जा रहा है। पहली बात तो यह है कि नई कंपनियों के लिए कर की दर तब लागू होगी जब वे मुनाफा कमाना शुरू करेंगी। यह देखा जाना है कि क्या इससे निवेश बढ़ेगा। दूसरी बात यह कि भारत में समस्या मांग में कमी की है। इसमें यह देखा जाना है कि आपूर्ति के स्तर पर स्थितियों को सुधारने के लिए क्या किया जाता है। मौजूदा माहौल में मांग पैदा करने के लिए सरकार को काफी पैसे खर्च करने होंगे लेकिन वित्तीय घाटा की बाधा आड़े आएगी। वित्त मंत्री सरकारी कंपनियों को अपनी निवेश योजनाओं के क्रियान्वयन को कह रही हैं लेकिन सरकार ने इन कंपनियों से इतना अधिक लाभांश ले लिया है कि इनके पास निवेश के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है। ऐसे में अगले कुछ महीने में नीतियों के स्तर पर माहौल कैसे बदलता है, यह देखा जाना है।