हाल में अनुच्छेद 370 हटा दिया गया, जो कश्मीर और भारत के बीच की एकमात्र कानूनी कड़ी थी. यह लेख इससे जुड़ी कानूनी संरचनाओं और उनके मायनों का विश्लेषण है. यह उनके लिए है जो कानून व्यवस्था या संवैधानिक प्रावधानों की आवश्यकता को ज़रूरी नहीं समझते. यह उनके लिए भी सहायक है जो जानना चाह रहे हैं कि सही मायनों में 370 हटने से क्या नुकसान हुआ है या इन प्रावधानों ने कश्मीरियों के लिए पूर्व में क्या किया था.
विभाजन कानूनी तौर पर ग़लत और असंवैधानिक क्यों है
विभाजन की वैधता के संदर्भ में- इसकी अवैधता पहले भी संशोधनों को रोक नहीं पायी है, पर इस मुद्दे के कानूनी पक्ष को समझना अफ़वाहों और संदेहों को दूर करने में मदद करेगा.
विलय पत्र (इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ ऐक्सेशन) धारा 6: ‘इस विलय पत्र का कोई भी हिस्सा अधिराज्य के विधान मंडल को यह अनुमति नहीं देता कि वह इस राज्य के लिए ऐसा कोई भी कानून बनाये, जो किसी भी उद्देश्य के लिए भूमि-अधिग्रहण अधिकृत करे’.
विलय पत्र (इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ ऐक्सेशन) धारा 7: ‘इस विलय पत्र का कोई भी हिस्सा किसी भी प्रकार से भविष्य में भारतीय संविधान को स्वीकार करने की प्रतिबद्धता नहीं माना जायेगा’.
सीमाओं में फेरबदल: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 3 संसद को राज्यों की सीमाएं बदलने की ताक़त देता है. अनुच्छेद 3 से जुड़ी शर्त में कहा गया है कि ‘इस उद्देश्य से कोई भी विधेयक संसद के दोनों में से किसी भी सदन में नहीं लाया जायेगा, जब तक कि वह विधेयक राष्ट्रपति द्वारा उस राज्य की विधानसभा को अपना मत रखने के लिए भेजा न गया हो’.
इसका मतलब यह है कि केंद्र सरकार के लिए सीमाओं के परिवर्तन के बारे में राज्य की राय मांगना ज़रूरी है, हालांकि केंद्र सरकार राज्य विधान-मंडल की राय से बाध्य नहीं है. उदाहरण के तौर पर, हाल में आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2014 के मामले में, इससे संबंधित विधेयक राज्य विधान-मंडल द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था. इस अस्वीकृत बिल को केंद्र सरकार द्वारा संशोधित किया गया, और भारत के राष्ट्रपति द्वारा, दूसरी बार राज्य विधान-मंडल के विचार प्राप्त किये बिना, इस विधेयक की संसद में सिफारिश की गयी. कश्मीर के मामले में स्थिति इतनी सीधी नहीं हैः 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ़्तारी और बर्ख़ास्तगी के बाद भारत सरकार ने संविधान आदेश {दि कॉन्स्टिट्यूशन (ऐप्लिकेशन टू जम्मू ऐंड कश्मीर) ऑर्डर}, 1954 पारित किया जो कि कानून मंत्रालय की अधिसूचना संख्या S.R.O. 1610, तारीख़ 14 मई 1954 को भारत के राज-पत्र द्वारा प्रकाशित हुआ. इस आदेश के चलते जम्मू और कश्मीर के लोगों को पूर्वव्यापी प्रभाव से भारतीय संविधान की शुरूआत से ही भारतीय नागरिक माना गया, जो 1950 से प्रभावी है. 1954 से लेकर आजतक, पिछले 65 सालों में, इस आदेश को 50 से ज़्यादा बार संशोधित किया गया है, जिससे भारतीय राज्य का शासन-क्षेत्र विलय पत्र (इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ ऐक्सेशन) की सहमति से कहीं ज़्यादा फैलाया गया है.
जम्मू और कश्मीर (राज्य) स्वराज्य समिति की रिपोर्ट 2000, कहती है कि “यह काफ़ी स्पष्ट है कि 1953 के बाद से राज्य की स्वायत्तता के कटाव की प्रक्रिया इतनी तेज़ थी कि भारत के संविधान की धारा 370, जो कि भारतीय संघ में राज्य की विशेष स्थिति की गारंटी और संरक्षण सुनिश्चित करने वाली थी, इसको पूरी तरह से खोखला कर दिया गया था … “. हालांकि, उसी 1954 के आदेश ने अनुच्छेद 3 में निम्नलिखित शर्त भी जोड़ीः “बशर्ते कि जम्मू और कश्मीर राज्य के क्षेत्र को बढ़ाने या कम करने या उस राज्य के नाम या सीमा को बदलने के लिए कोई भी विधेयक राज्य के विधान-मंडल की सहमति के बिना संसद में प्रस्तुत नहीं किया जायेगा”. यहां ज़रूरी मतभेद “सहमति” और विचारों की अभिव्यक्ति मात्र के बीच है. इसलिए जम्मू-कश्मीर की स्थिति आंध्र प्रदेश जैसी नहीं है. इस शर्त का प्रभाव यह है कि जम्मू और कश्मीर राज्य की विधान सभा की “सहमति” के बिना जम्मू और कश्मीर राज्य के क्षेत्र, नाम या सीमा को बदलने की कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है.
वास्तविक तौर पर भारत कश्मीर पर सैन्य और राजनीतिक प्रभाव से नियंत्रण रखता है, जिसका फ़ायदा संशोधनों को लाने के लिए उठाया जा चुका है, लेकिन क़ानूनी तौर पर अभी भी विभिन्न प्रावधानों, राष्ट्रपति के आदेशों और संवैधानिक सुरक्षाओं से बाधित है.
क्या अब संविधान अपहृत है?
केवल धारा 370 के माध्यम से अनुच्छेद 1 को जम्मू-कश्मीर तक बढ़ाया गया था. यहां तक कि 1954 का आदेश भी, जो पूर्वव्यापी रूप से कश्मीरियों को भारत का नागरिक बनाता है, धारा 370 के माध्यम से ही पारित किया गया था. इससे पहले कि भारत के राष्ट्रपति इसे भंग कर पायें, धारा 370 खुद ही संविधान सभा की सिफारिश को अनिवार्य बताती है. राष्ट्रपति भी इस शक्ति का प्रयोग धारा 370 के माध्यम से ही करते हैं. यह कदम अपमानजनक रूप से असंवैधानिक है. अगर यह पारित हो भी जाता है, तब भी इसे अदालत में चुनौती ज़रूर दी जानी चाहिए. ऊपर दिये गये अनुलग्नक में राष्ट्रपति ने 1954 के आदेश में संशोधन किया है जो कहता है कि “विधान सभा” के संदर्भ को “राज्यपाल” के संदर्भ के रूप में माना जायेगा. यह धारा 370 द्वारा दी गयी शक्तियों के तहत किया जा रहा है- जो स्वयं राष्ट्रपति को ऐसी कार्रवाई करने की अनुमति नहीं देता है. यदि भारतीय यह नहीं देख पा रहे हैं कि भारतीय संविधान का कैसे अपहरण किया जा रहा है, तो निश्चिंत रहें, जब यह खाका आप तक बढ़ाया जायेगा, तब आपको भी ऐसी ही उदासीनता को भुगतना पड़ेगा. अभी के लिए, आपकी चुप्पी कई लोगों को मौत की तरफ़ ढकेलेगी और तारीख आपकी, आपके देश की कड़े संघर्ष से जीती गयी स्वतंत्रताओं की रक्षा न कर पाने की नितांत विफलता को दर्ज करेगी.
कानूनी से परे कुछ पहलू: धारा 370 और “विकास“?
ऊपर दिये गये तर्क क़ानून और संवैधानिक औचित्य पर आधारित हैं. कुछ लोग जो क़ानून और वैधता की ज़रूरत को नहीं समझते, उन्होंने मुझसे वजहें मांगी जिनमें प्रस्तावित संशोधनों से होने वाले कानूनी या कोई अन्य नुकसान शामिल नहीं हैं. यह उनकी समझ और लाभ के लिए है. कानूनी समझ के बिना शून्य में बात करना लोकतांत्रिक समझ को नज़रअंदाज़ करना है. लेकिन मैं समझता हूं कि आप कहां से आ रहे हैं इसलिए मैं इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करुंगा.
धारा 370 का हटाया जाना क्या “विकास” लायेगा, इस सवाल के लिए कोई अध्ययन, योजना या तथ्य नहीं है. तो यह चर्चा पूरी तरह से काल्पनिक है. अगर धारा 370 का हटाया जाना ही विकास के लिए पर्याप्त आधार था, तो “एकीकृत” राज्यों में गरीबी और कुपोषण के वर्तमान स्तर देखने को नही मिलते. बहरहाल, धारा 370 ने कभी कोई निवेश नहीं रोका, क्योंकि कॉर्पोरेट्स बड़ी परियोजनाओं के लिए 99 साल के लीज़ एग्रीमेंट में प्रवेश करते रहे हैं, तो इस विकास के तर्क में कोई दम नहीं है. हिमाचल प्रदेश और अन्य राज्यों में भूमि की खरीद पर इसी तरह के प्रतिबंध हैं, फिर भी यह वहां चर्चा का विषय नहीं है. क्या ये क्षेत्र “विकास” के इस मॉडल के लायक नहीं हैं?
अब नुक़सान के सवाल पर आते हैं- प्रस्तावित संशोधन कई तरह से सुरक्षाओं पर हमला करते हैं, जो जम्मू और कश्मीर के लोगों के हितों को सीधे नुकसान पहुंचायेगा. उदाहरण के लिए, अगर केंद्र राज्य सरकार की “सहमति” के बिना प्राकृतिक संसाधनों को एकतरफ़ा नियंत्रित करती है, तो उन संसाधनों पर लोगों के अधिकारों के लिए कोई सुरक्षा नहीं बचीरहेगी. यह एक ऐसी स्थिति है जिसे कश्मीरी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं. इसे बेहतर ढंग से समझने के लिए आपको कश्मीर में भूमि-सुधार के बारे में भी समझना होगा. यह उस सामाजिक और आर्थिक विकास के स्तर को समझने के लिए ज़रूरी है, जिसे कश्मीरी समाज ने राज्य के संपत्ति के नव-उदारवादी अधिग्रहण की अस्वीकृति में, सफलतापूर्वक लाया. लोगों की आवश्यकताओं के अनुसार सुधार केवल इस संरचना द्वारा संभव किये गये हैं और ये सुधार भारतीय संविधान के तहत संभव नहीं होंगे. एक क्षेत्र को केवल “निवेश” या “निजी क्षेत्र” के लिए खोलने से (खासकर, वहां के लोगों की इच्छाओं के ख़िलाफ़) विकास नहीं होता है. असल में यह भारत द्वारा अपनाये गये आर्थिक मॉडल की विफलता है. यह समझाने के लिए मैं कुछ आंकड़े देता हूं: जम्मू और कश्मीर में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग वहां की आबादी के 10 फीसदी हैं. यह आंकड़ा भारत के अन्य राज्यों में गरीबी के सबसे कम प्रतिशतों में से एक है. महाराष्ट्र में 17% आबादी गरीबी रेखा के नीचे रहती है. यहां तक कि तथाकथित “वाइब्रैंट” गुजरात में भी 16.8% आबादी का हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे है. पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में 20% से अधिक आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में 30% आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है. हमारी प्रति व्यक्ति आय ज़्यादा नहीं है, लेकिन हमारी “विकास” की परिभाषा भारत के मौजूदा मॉडल से अलग है. बल्कि मैं यह तर्क दूंगा कि कश्मीर द्वारा लागू किये गये सुधार भारतीयों के लिए एक बेहतरीन उदाहरण है. हम एक ऐसी अर्थव्यवस्था के निर्माण को अस्वीकार करते हैं, जो मात्र कुछ लोगों के हाथों में भारी मात्रा में धन केंद्रित करती है, और वह भी इस तथ्य को नज़रअंदाज़ करके कि हमारे आसपास लोग हैं जो फ्लाई-ओवर के नीचे अपना पूरा जीवन बिता देते हैं. हमें ऐसे फ्लाई-ओवरों की ज़रूरत नहीं है. हम उस दिन का इंतजार करते हैं कि जब हिंदुस्तान के लोग भी अपनी प्राथमिकताओं का पुनर्मूल्यांकन करें.
मैंने पहली बार बेघर लोगों को, जो सड़क पर अपनी जिंदगी जी रहे थे, तब देखा जब मैं पहली बार दिल्ली आया. मेरे लिए यह एक चौंकाने वाली बात थी कि हिंदुस्तान के लोग एक इंसान को सड़क पर अपना जीवन बिताते-खाते, पीते, बच्चे पैदा करते, उन्हें बड़ा करते, सबकुछ सड़क पर करते देखकर इतने उदासीन और अप्रभावित थे. मैंने अपने जीवन में इस तरह की नितांत ग़रीबी कभी नहीं देखी थी. मुझे खुद को संभालने में और इस वास्तविकता को स्वीकार करने में कुछ वक़्त लगा था. यह समझने के लिए कि एक युवा कश्मीरी लड़के को यह चौंकाने वाली बात क्यों लगी, यह आंकड़ा देखें- ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा आयोजित सामाजिक और जाति संगणना 2011 के अनुसार, कश्मीर में ऐसे परिवारों की संख्या जिनके पास घर नहीं है, ग्रामीण क्षेत्रों में 2,318 और शहरी क्षेत्रों में 263 है. इसकी संजीदगी को समझें- मात्र 263. आप शायद मुंबई जैसे शहर में कहीं भी, किसी भी दिशा में 5 किमी की यात्रा भी नहीं कर सकते, बगैर कश्मीर के पूरे शहरी क्षेत्र से अधिक बेघर लोगों को देखे बिना. भारत में अनुमानित 18 लाख लोग बेघर हैं, जिनमें से 52% शहरी क्षेत्रों में हैं.
दूसरी बात, 70 साल की उथल-पुथल के बावजूद, हमारे पास आर्थिक समानता की भावना है, क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था भारत के विपरीत एक मूल-निवासी मॉडल पर बनी है. यहां तक कि हमारे समाज के उन तबक़ों को भी जो हाशिये के हैं जिनमें, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति भी शामिल हैं, राज्य द्वारा भूमि आवंटित की गयी थी, जो कि भारत के ठीक विपरीत है. यह सब 1950 के दशक में किया गया था, जो कि एकमात्र ऐसा समय था जब हम वास्तव में स्वायत्त थे. नव-उदारवादी मॉडल में बदलने के लिए हमारी आज़ादी को छीन लेना कश्मीर के लिए कोई समाधान नहीं है. यह पूरी दुनिया के लिए भी कोई समाधान नहीं है.
तीसरी बात, लोगों को विश्वास में लिए बिना ऐसा संशोधन केवल ध्रुवीकरण कर सकता है जो किसी भी तरह के बसाव को बहुत मुश्किल बनाता है. (बसने वाले) लोग शून्य में नहीं रह सकते. यह कदम भारत को जिस रास्ते पर तेज़ी से ढकेलेगा, वह सेना से संरक्षित बस्तियों का निर्माण है. दुनिया भर में ऐसे उदाहरण हैं कि कैसे इस तरह की सैन्य बस्तियां विपत्ति का ज़रिया हैं.
पैसे के लिए बाज़ारीकरण राज्य की संप्रभुता और ग़ैर-बराबरी से भरे निर्णय लेने वाली शक्तियों की लागत पर आता है. पैसा तभी आता है जब उसके वापस बाहर जाने का आश्वासन हो. यह एकाधिकार स्थानीय व्यवसायों को बर्बाद कर देता है और हम कश्मीरी इसे हम पर थोपने की सहमति नहीं देते हैं.
आपको यह समझना होगा कि रिहाइश, खेती और विकास के लिए क्या उपलब्ध है. भारत अविभाजित जम्मू और कश्मीर के कुल क्षेत्र का लगभग 55% नियंत्रित करता है. इसमें से एक बड़ा क्षेत्र पहाड़, आर्द्र भूमि (व्हेटलैंड) और वन हैं जो रहने या खेती योग्य नही हैं और जिसमें से बहुत कुछ सशस्त्र बलों के कब्ज़े में है. पिछले साल, विपक्ष के सैन्य और अर्धसैनिक बलों के कब्ज़े वाली भूमि की राशि, इससे जुड़े कुछ मामलों में जो कि अनधिकृत हैं, के सवाल पर, विधानसभा को दिये गये लिखित जवाब में महबूबा मुफ्ती ने कहा कि जम्मू में 51,116 कनाल (लगभग 6390 एकड़) और कश्मीर व लद्दाख में 3,79,817 कनाल (लगभग 47477 एकड़) भूमि सेना और अन्य सुरक्षा बलों के अनधिकृत कब्जे में है.
मौजूदा वन भूमि की बात करें, तो इन क्षेत्रों को निजी निवेश के लिए खोलना कश्मीर के लोगों के लिए बिल्कुल हानिकारक है. पर्यावरण के हिसाब से हम एक संवेदनशील क्षेत्र में रहते हैं. भारत और पाकिस्तान द्वारा बड़े पैमाने पर सैन्य लामबंदी के कारण ग्लेशियर पहले से ही पिघल रहे हैं. हमने पहले ही कश्मीर में मानव रचित आपदाओं और जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ का अनुभव झेला है. हम “विकास” के लिए वनों की कटाई की अनुमति नहीं दे सकते. यह हमारे अस्तित्व के लिए, हमारे घरों के लिए ख़तरा है और हमें प्राकृतिक आपदाओं के प्रति असुरक्षित करता है.
यह कहना कि हमें इस संशोधन की अवैधता और नैतिक भ्रष्टाचार को नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए, विनम्रता से कहा जाएये तो काफ़ी मूर्खतापूर्ण बात है. यह ऐसा कहने के समान है कि अफ़्रीकी-अमेरिकियों को अवैध दास-व्यापार परंपरा से लाभ हुआ, क्योंकि अब वे अफ़्रीका में रहने के बजाय अमेरिकी अर्थव्यवस्था में भाग ले रहे हैं, गोया रेलवे, सड़क, शासन की व्यवस्था आदि लाभों के लिए उपनिवेश से जुड़े ग़ैरक़ानूनी कार्यों को अनदेखा किया जा सकता है. व्यक्तिगत तौर पर हमारा राज्य के साथ एक सामाजिक अनुबंध (सोशियल कॉन्ट्रेक्ट) होता है, जो हमें नियंत्रित करता है. यदि राज्य इस सामाजिक अनुबंध का अवैध तरीके से उल्लंघन करता है तो इससे कानूनी शासन टूट जाता है. यह ऐसी स्थिति नहीं है जिसे किसी आर्थिक पैकेज के बदले में अनदेखा किया जा सकता है.
(कश्मीर ख़बर से साभार)